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रंगभूमि अध्याय 24

4 फरवरी 2022

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सूरदास की जमीन वापस दिला देने के बाद सोफ़िया फिर मि. क्लार्क से तन गई। दिन गुजरते जाते थे और वह मि. क्लार्क से दूरतर होती जाती थी। उसे अब सच्चे अनुराग के लिए अपमान, लज्जा, तिरस्कार सहने की अपेक्षा कृत्रिाम प्रेम का स्वाँग भरना कहीं दुस्सह प्रतीत होता था। सोचती थी, मैं जल से बचने के लिए आग में कूद पड़ी। प्रकृति बल-प्रयोग सहन नहीं कर सकती। उसने अपने मन को बलात् विनय की ओर से खींचना चाहा था, अब उसका मन बड़े वेग से उनकी ओर दौड़ रहा था। इधर उसने भक्ति के विषय में कई ग्रंथ पढ़े थे और फलत: उसके विचारों में एक रूपांतर हो गया था। अपमान और लोक-निंदा का भय उसके दिल से मिटने लगा था। उसके सम्मुख प्रेम का सर्वोच्च आदर्श उपस्थित हो गया था, जहाँ अहंकार की आवाज नहीं पहुँचती। त्यागपरायण तपस्वी को सोमरस का स्वाद मिल गया था और उसके नशे में उसे सांसारिक भोग-विलास, मान-प्रतिष्ठा सारहीन जान पड़ती थी। जिन विचारों से प्रेरित होकर उसने विनय से मुँह फेरने और क्लार्क से विवाह करने का निश्चय किया था, वे अब उसे नितांत अस्वाभाविक मालूम होते थे। रानी जाह्नवी से तिरस्कृत होकर अपने मन का दमन करने के लिए उसने अपने ऊपर यह अत्याचार किया था। पर अब उसे नजर ही न आता था कि मेरे आचरण में कलंक की कौन-सी बात थी, उसमें अनौचित्य कहाँ था। उसकी आत्मा अब उस निश्चय का घोर प्रतिवाद कर रही थी, उसे जघन्य समझ रही थी। उसे आश्चर्य होता था कि मैंने विनय के स्थान पर क्लार्क को प्रतिष्ठित करने का फैसला कैसे किया। मि. क्लार्क में सद्गुणों की कमी नहीं, वह सुयोग्य हैं, शीलवान् हैं, उदार हैं, सहृदय हैं। वह किसी स्त्री को प्रसन्न रख सकते हैं, जिसे सांसारिक सुख-भोग की लालसा हो। लेकिन उनमें वह त्याग कहाँ, वह सेवा का भाव कहाँ, वह जीवन का उच्चादर्श कहाँ, वह वीर-प्रतिज्ञा कहाँ, वह आत्मसमर्पण कहाँ? उसे अब प्रेमानुराग की कथाएँ और भक्ति-रस-प्रधान काव्य, जीव और आत्मा, आदि और अनादि, पुनर्जन्म और मोक्ष आदि गूढ़ विषयों की व्यावख्या से कहीं आकर्षक मालूम होते थे। इसी बीच में उसे कृष्ण का जीवन-चरित्र पढ़ने का अवसर मिला और उसने उस भक्ति की जड़ हिला दी, जो उसे प्रभु मसीह से थी। वह मन में दोनों महान् पुरुषों की तुलना किया करती। मसीह की दया की अपेक्षा उसे कृष्ण के प्रेम से अधिक शांति मिलती थी। उसने अब तक गीता ही के कृष्ण को देखा था और मसीह की दयालुता, सेवाशीलता और पवित्रता के आगे उसे कृष्ण का रहस्यमय जीवन गीता की जटिल दार्शनिक व्याख्याओं से भी दुर्बोध जान पड़ता था। उसका मस्तिष्क गीता के विचारोत्कर्ष के सामने झुक जाता था, पर उसने मन में भक्ति का भाव न उत्पन्न होता था। कृष्ण के बाल-जीवन को उसने भक्तों की कपोल-कल्पना समझ रखा था। और उस पर विचार करना ही व्यर्थ समझती थी। पर अब ईसा की दया इस बाल-क्रीड़ा के सामने नीरस थी। ईसा की दया में आधयात्मिकता थी, कृष्ण के प्रेम में भावुकता; ईसा की दया आकाश की भाँति अनंत थी, कृष्ण का प्रेम नवकुसुमित, नवपल्लवित उद्यान की भाँति मनोहर; ईसा की दया जल-प्रवाह की मधुर धवनि थी,कृष्ण का प्रेम वंशी की व्याकुल टेर; एक देवता था, दूसरा मनुष्य; एक तपस्वी था, दूसरा कवि; एक में जागृति और आत्मज्ञान था, दूसरे में अनुराग और उन्माद; एक व्यापारी था, हानि-लाभ पर निगाह रखनेवाला, दूसरा रसिया था, अपने सर्वस्व को दोनों हाथों लुटानेवाला; एक संयमी था, दूसरा भोगी। अब सोफ़िया का मन नित्य इसी प्रेम-क्रीड़ा में बसा रहता था, कृष्ण ने उसे मोहित कर लिया था, उसे अपनी वंशी की धवनि सुना दी थी।
मिस्टर क्लार्क का लौकिक शिष्टाचार अब उसे हास्यास्पद मालूम होता था। वह जानती थी कि यह सारा प्रेमालाप एक परीक्षा में भी सफल नहीं हो सकता। वह बहुधा उनसे रुखाई करती। वह बाहर से मुस्कराते हुए आकर उसकी बगल में कुर्सी खींचकर बैठ जाते, और वह उनकी ओर आँखें उठाकर भी न देखती। यहाँ तक कि कई बार उसने अपनी धार्मिक अश्रध्दा से मिस्टर क्लार्क के धर्मपरायण हृदय को कठोर आघात पहुँचाया। उन्हें सोफ़िया एक रहस्य-सी जान पड़ती थी, जिसका उद्घाटन करने में वह असमर्थ थे। उसका अनुपम सौंदर्य, उसकी हृदयहारिणी छवि, उसकी अद्भुत विचारशीलता उन्हें जितने जोर से अपनी ओर खींचती थी, उतनी ही उसकी मानशीलता, विचार-स्वाधीनता और अनम्रता उन्हें भयभीत कर देती थी। उसके सम्मुख बैठे हुए वह अपनी लघुता का अनुभव करते थे, पग-पग पर उन्हें ज्ञात होता था कि मैं इसके योग्य नहीं हूँ। इसी वजह से इतनी घनिष्ठता होने पर भी उन्हें उसे वचनबध्द करने का साहस न होता था। मिसेज़ सेवक आग में ईंधन डालती रहती थीं-एक ओर क्लार्क को उकसातीं, दूसरी ओर सोफी को समझातीं-तू समझती है, जीवन में ऐसे अवसर बार-बार आते हैं,यह तेरी गलती है। मनुष्य को केवल एक अवसर मिलता है, और वही उसके भाग्य का निर्णय कर देता है।
मि. जॉन सेवक ने भी अपने पिता के आदेशानुसार दोरुखी चाल चलनी शुरू की। वह गुप्त रूप से तो राजा महेंद्रकुमार सिंह की कल घुमाते रहते थे; पर प्रकट रूप से मिस्टर क्लार्क के आदर-सत्कार में कोई बात उठा न रखते थे। रहे मि. ईश्वर सेवक, वह तो समझते थे, खुदा ने सोफ़िया को मिस्टर क्लार्क ही के लिए बनाया है। वह अकसर उनके यहाँ आते थे और भोजन भी वहीं कर लेते थे। जैसे कोई दलाल ग्राहक को देखकर उसके पीछे-पीछे हो लेता है, और उसे किसी दूसरी दूकान पर बैठने नहीं देता, वैसे ही वह मिस्टर क्लार्क को घेरे रहते थे कि कोई ऊँची दूकान उन्हें आकर्षित न कर ले। मगर इतने शुभेच्छुकों के रहते हुए भी मिस्टर क्लार्क को अपनी सफलता दुर्लभ मालूम होती थी।
सोफ़िया को इन दिनों बनाव-सिंगार का बड़ा व्यसन हो गया था। अब तक उसने माँग-चोटी या वस्त्राभूषण की कभी चिंता न की थी। भोग-विलास से दूर रहना चाहती थी। धर्म-ग्रंथों की यही शिक्षा थी, शरीर नश्वर है, संसार असार है, जीवन मृग-तृष्णा है, इसके लिए बनाव-सँवार की जरूरत नहीं। वास्तविक शृंगार कुछ और ही है, उसी पर निगाह रखनी चाहिए। लेकिन अब तक वह जीवन को इतना तुच्छ न समझती थी। उसका रूप कभी इतने निखार पर न था। उसकी छवि-लालसा कभी इतनी सजग न थी।
संधया हो चुकी थी। सूर्य की शीतल किरणें, किसी देवता के आशीर्वाद की भाँति, तरु-पुंजों के हृदय को विहसित कर रही थीं। सोफ़िया एक क्ुं+ज में खड़ी आप-ही-आप मुस्करा रही थी कि मिस्टर क्लार्क की मोटर आ पहुँची। वह सोफ़िया को बाग में देखकर सीधो उसके पास आए और एक कृपा-लोलुप दृष्टि से देखकर उसकी ओर हाथ बढ़ा दिया। सोफ़िया ने मुँह फेर लिया, मानो उनके बढ़े हुए हाथ को देखा ही नहीं।
सहसा एक क्षण बाद उसने हास्य-भाव से पूछा-आज कितने अपराधियों को दंड दिया?
मिस्टर क्लार्क झेंप गए। सकुचाते हुए बोले-प्रिये, यह तो रोज की बातें हैं, इनकी क्या चर्चा करूँ?
सोफी-तुम यह कैसे निश्चय करते हो कि अमुक अपराधी वास्तव में अपराधी है? इसका तुम्हारे पास कोई यंत्र है?
क्लार्क-गवाह तो रहते हैं।
सोफी-गवाह हमेशा सच्चे होते हैं?
क्लार्क-कदापि नहीं। गवाह अकसर झूठे और सिखाए हुए होते हैं।
सोफी-और उन्हीं गवाहों के बयान पर फैसला करते हो!
क्लार्क-इसके सिवा और उपाय ही क्या है!
सोफी-तुम्हारी असमर्थता दूसरे की जान क्यों ले? इसीलिए कि तुम्हारे वास्ते मोटरकार, बँगला, खानसामे, भाँति-भाँति की शराब और विनोद के अनेक साधन जुटाए जाएँ?
क्लार्क ने हतबुध्दि की भाँति कहा-तो क्या नौकरी से इस्तीफा दे दूँ?
सोफ़िया-जब तुम जानते हो कि वर्तमान शासन-प्रणाली में इतनी त्रुटियाँ हैं, तो तुम उसका एक अंग बनकर निरपराधियों का खून क्यों करते हो?
क्लार्क-प्रिये, मैंने इस विषय पर कभी विचार नहीं किया।
सोफ़िया-और बिना विचार किए ही नित्य न्याय की हत्या किया करते हो। कितने निर्दयी हो!
क्लार्क-हम तो केवल कल के पुर्जे हैं, हमें ऐसे विचारों से क्या प्रयोजन?
सोफी-क्या तुम्हें इसका विश्वास है कि तुमने कोई अपराध नहीं किया?
क्लार्क-यह दावा कोई मनुष्य नहीं कर सकता।
सोफी-तो तुम इसीलिए दंड से बचे हुए हो कि तुम्हारे अपराध छिपे हुए हैं?
क्लार्क-यह स्वीकार करने को जी तो नहीं चाहता; विवश होकर स्वीकार करना पड़ेगा।
सोफी-आश्चर्य है कि स्वयं अपराधी होकर तुम्हें दूसरे अपराधियों को दंड देते हुए जरा भी लज्जा नहीं आती!
क्लार्क-सोफी, इसके लिए तुम फिर कभी मेरा तिरस्कार कर लेना। इस समय मुझे एक महत्तव के विषय में तुमसे सलाह लेनी है। खूब विचार करके राय देना। राजा महेंद्रकुमार ने मेरे फैसले की अपील गवर्नर के यहाँ की थी, इसका जिक्र तो मैं तुमसे कर ही चुका हूँ। उस वक्त मैंने समझा था, गवर्नर अपील पर धयान न देंगे। एक जिले के अफसर के खिलाफ किसी रईस की मदद करना हमारी प्रथा के प्रतिकूल है,क्योंकि इससे शासन में विघ्न पड़ता है; किंतु 6-7 महीनों में परिस्थिति कुछ ऐसी हो गई है, राजा साहब ने अपनी कुल-मर्यादा, दृढ़ संकल्प और तर्क-बुध्दि से इतनी अच्छी तरह काम लिया है कि अब शायद फैसला मेरे खिलाफ होगा। काउंसिल में हिंदुस्तानियों का बहुमत हो जाने के कारण अब गवर्नर का महत्तव बहुत कम हो गया है। यद्यपि वह काउंसिल के निर्णय को रद्द कर सकते हैं, पर इस अधिकार से वह असाधारण अवसरों पर ही काम ले सकते हैं। अगर राजा साहब की अपील वापस कर दी गई, तो दूसरे ही दिन देश में कुहराम मच जाएगा और समाचार-पत्रों को विदेशी राज्य के एक नए अत्याचार पर शोर मचाने का वह मौका मिल जाएगा जो वे नित्य खोजते रहते हैं। इसलिए गवर्नर ने मुझसे पूछा है कि यदि राजा साहब के आँसू पोंछे जाएँ, तो तुम्हें कुछ दु:ख तो न होगा? मेरी समझ में नहीं आता, इसका क्या उत्तार दूँ। अभी तक कोई निश्चय नहीं कर सका।
सोफी-क्या इसका निर्णय करना मुश्किल है?
क्लार्क-हाँ, इसलिए मुश्किल है कि जन-सम्मत्तिा से राज्य करने की जो व्यवस्था हम लोगों ने खुद की है, उसे पैरों-तले कुचलना बुरा मालूम होता है। राजा कितना ही सबल हो, पर न्याय का गौरव रखने के लिए कभी-कभी राजा को भी सिर झुकाना पड़ता है। मेरे लिए कोई बात नहीं, फैसला मेरे अनुकूल हो प्रतिकूल, मेरे ऊपर इसका कोई असर नहीं पड़ता; बल्कि प्रजा पर हमारे न्याय की धाक और बैठ जाती है। (मुस्कराकर) गवर्नर ने मुझे इस अपराध के लिए दंड भी दिया है। वह मुझे यहाँ से हटा देना चाहते हैं।
सोफ़िया-क्या तुम्हें इतना दबना पड़ेगा?
क्लार्क-हाँ, मैं रियासत का पोलिटिकल एजेंट बना दिया जाऊँगा, यह पद बड़े मजे का है। राजा तो केवल नाम के लिए होता है, सारा अख्तियार तो एजेंट ही के हाथों में रहता है। हममें जो बड़े भाग्यशाली होते हैं, उन्हीं को यह पद प्रदान किया जाता है।
सोफ़िया-तब तो तुम बड़े भाग्यशाली हो।
मिस्टर क्लार्क इस व्यंग से मन में कटकर रह गए। उन्होंने समझा था सोफी यह समाचार सुनकर फूली न समाएगी, और तब मुझे उससे यह कहने का अवसर मिलेगा कि यहाँ से जाने के पहले हमारा दाम्पत्य सूत्र में बँधा जाना आवश्यक है। 'तब तो तुम बड़े भाग्यशाली हो,' इस निर्दय व्यंग ने उनकी सारी अभिलाषाओं पर पानी फेर दिया। इस वाक्य में वह निष्ठुरता, वह कटाक्ष, वह उदासीनता भरी हुई थी, जो शिष्टाचार की भी परवा नहीं करती। सोचने लगे-इसकी सम्मति की प्रतीक्षा किए बिना मैंने अपनी इच्छा प्रकट कर दी, कहीं यह तो इसे बुरा नहीं लगा?शायद समझती हो कि अपनी स्वार्थ-कामना से यह इतने प्रसन्न हो रहे हैं, पर उस बेकस अंधो की इन्हें जरा भी परवा नहीं कि उस पर क्या गुजरेगी। अगर यही करना था, तो यह रोग ही क्यों छेड़ा था। बोले-यह तो तुम्हारे फैसले पर निर्भर है।
सोफी ने उदासीन भाव से उत्तार दिया-इन विषयों में तुम मुझसे चतुर हो।
क्लार्क-उस अंधो की फिक्र है।
सोफी ने निर्दयता से कहा-उस अंधो के खुदा तुम्हीं नहीं हो।
क्लार्क-मैं तुम्हारी सलाह पूछता हूँ और तुम मुझी पर छोड़ती जाती हो।
सोफी-अगर मेरी सलाह से तुम्हारा अहित हो, तो?
क्लार्क ने बड़ी वीरता से उत्तार दिया-सोफी, मैं तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मैं तुम्हारे लिए सब कुछ कर सकता हूँ?
सोफी-(हँसकर) इसके लिए मैं तुम्हारी बहुत अनुगृहीत हूँ।
इतने में मिसेज़ सेवक वहाँ आ गईं और क्लार्क से हँस-हँसकर बातें करने लगीं। सोफी ने देखा, अब मिस्टर क्लार्क को बनाने का मौका नहीं रहा, तो अपने कमरे में चली आई। देखा, तो प्रभु सेवक वहाँ बैठे हैं। सोफी ने कहा-इन हजरत को अब यहाँ से बोरिया-बँधना सँभालना पड़ेगा। किसी रियासत के एजेंट होंगे।
प्रभु सेवक-(चौंककर) कब?
सोफी-बहुत जल्द। राजा महेंद्रकुमार इन्हें ले बीते।
प्रभु सेवक-तब तो तुम यहाँ थोड़े ही दिनों की मेहमान हो!
सोफी-मैं इनसे विवाह न करूँगी।
प्रभु सेवक-सच?
सोफी-हाँ, मैं कई दिन से यह फैसला कर चुकी हूँ, पर तुमसे कहने का मौका न मिला।
प्रभु सेवक-क्या डरती थीं कि कहीं मैं शोर न मचा दूँ?
सोफी-बात तो वास्तव में यही थी।
प्रभु सेवक-मेरी समझ में नहीं आता कि तुम मुझ पर इतना अविश्वास क्यों करती हो? जहाँ तक मुझे याद है, मैंने तुम्हारी बात किसी से नहीं कही।
सोफी-क्षमा करना प्रभु! न जाने क्यों मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं आता। तुममें अभी कुछ ऐसा लड़कपन है, कुछ ऐसे खुले हुए निर्द्वंद्व मनुष्य हो कि तुमसे कोई बात कहते उसी भाँति डरती हूँ, जैसे कोई आदमी वृक्ष की पतली टहनी पर पैर रखते डरता है।
प्रभु सेवक-अच्छी बात है, यों ही मुझसे डरा करो। वास्तव में मैं कोई बात सुन लेता हूँ, तो मेरे पेट में चूहे दौड़ने लगते हैं और जब तक किसी से कह न लूँ, मुझे चैन ही नहीं आता। खैर, मैं तुम्हें इस फैसले पर बधाई देता हूँ। मैंने तुमसे स्पष्ट तो कभी नहीं कहा; पर कई बार संकेत कर चुका हूँ कि मुझे किसी दशा में क्लार्क को अपना बहनोई बनाना पसंद नहीं है। मुझे न जाने क्यों उनसे चिढ़ है। वह बेचारे मेरा बड़ा आदर करते हैं; पर अपना जी उनसे नहीं मिलता। एक बार मैंने उन्हें अपनी एक कविता सुनाई थी। उसी दिन से मुझे उनसे चिढ़ हो गई है। बैठे सोंठ की तरह सुनते रहे, मानो मैं किसी दूसरे आदमी से बातें कर रहा हूँ। कविता का ज्ञान ही नहीं। उन्हें देखकर बस यही इच्छा होती है कि खूब बनाऊँ। मैंने कितने ही मनुष्यों को अपनी रचना सुनाई होगी, पर विनय-जैसा मर्मज्ञ और किसी को नहीं पाया। अगर वह कुछ लिखें तो खूब लिखें। उनका रोम-रोम काव्यमय है।
सोफी-तुम इधर कभी कुँवर साहब की तरफ नहीं गए थे?
प्रभु सेवक-आज गया था और वहीं से चला आ रहा हूँ। विनयसिंह बड़ी विपत्तिा में पड़ गए हैं। उदयपुर के अधिकारियों ने उन्हें जेल में डाल रखा है।
सोफ़िया के मुख पर क्रोध या शोक का कोई चिद्द न दिखाई दिया। उसने यह न पूछा, क्यों गिरफ्तार हुए? क्या अपराध था? ये सब बातें उसने अनुमान कर लीं। केवल इतना पूछा-रानीजी तो वहाँ नहीं जा रही हैं?
प्रभु सेवक-न! कुँवर साहब और डॉक्टर गांगुली, दोनों जाने को तैयार हैं; पर रानी किसी को नहीं जाने देतीं। कहती हैं, विनय अपनी मदद आप कर सकता है। उसे किसी की सहायता की जरूरत नहीं।
सोफ़िया थोड़ी देर तक गम्भीर विचार में स्थिर बैठी रही। विनय की वीर मूर्ति उसकी आँखों के सामने फिर रही थी। सहसा उसने सिर उठाया और निश्चायात्मक भाव से बोली-मैं उदयपुर जाऊँगी।
प्रभु सेवक-वहाँ जाकर क्या करोगी?
सोफी-यह नहीं कह सकती कि वहाँ जाकर क्या करूँगी। अगर और कुछ न कर सकूँगी, तो कम-से-कम जेल में रहकर विनय की सेवा तो करूँगी, अपने प्राण तो उन पर निछावर कर दूँगी। मैंने उनके साथ जो छल किया है, चाहे किसी इरादे से किया हो, वह नित्य मेरे हृदय में काँटे की भाँति चुभा करता है। उससे उन्हें जो दु:ख हुआ होगा, उसकी कल्पना करते ही मेरा चित्ता विकल हो जाता है। मैं अब उस छल का प्रायश्चित्ता करूँगी, किसी और उपाय से नहीं, तो अपने प्राणों ही से।
यह कहकर सोफ़िया ने खिड़की से झाँका, तो मि. क्लार्क अभी तक खड़े मिसेज सेवक से बातें कर रहे थे। मोटरकार भी खड़ी थी। वह तुरंत बाहर आकर मि. क्लार्क से बोली-विलियम, आज मामा से बातें करने ही में रात खत्म कर दोगे? मैं सैर करने के लिए तुम्हारा इंतजार कर रही हूँ।
कितनी मंजुल वाणी थी! कितनी मनोहारिणी छवि से, कमल-नेत्रों में मधुर हास्य का कितना जादू भरकर, यह प्रेम-ाचना की गई थी! क्लार्क ने क्षमाप्रार्थी नेत्रों से सोफ़िया को देखा-यह वही सोफ़िया है, जो अभी एक ही क्षण पहले मेरी हँसी उड़ा रही थी! तब जल पर आकाश की श्यामल छाया थी, अब उसी जल में इंदु की सुनहरी किरण नृत्य कर रही थी, उसी लहराते हुए जल की कम्पित, विहसित, चंचल छटा उसकी आँखों में थी। लज्जित होकर बोले-प्रिये, क्षमा करो, मुझे याद ही न रही, बातों में देर हो गई।
सोफ़िया ने माता को सरल नेत्रों से देखकर कहा-मामा, देखती हो इनकी निष्ठुरता, यह अभी से मुझसे तंग आ गए हैं। मेरी इतनी सुधि न रही कि झूठे ही पूछ लेते, सैर करने चलोगी?
मिसेज़ सेवक-हाँ, विलियम, यह तुम्हारी ज्यादती है। आज सोफी ने तुम्हें रँगे हाथों पकड़ लिया। मैं तुम्हें निर्दोष समझती थी और सारा दोष उसी के सिर रखती थी।
क्लार्क ने कुछ मुस्कराकर अपनी झेंप मिटाई और सोफ़िया का हाथ पकड़कर मोटर की तरफ चले। पर अब भी उन्हें शंका हो रही थी कि मेरे हाथ में नाजुक कलाई है, वह कोई वस्तु है या केवल कल्पना और स्वप्न। रहस्य और भी दुर्भेद्य होता हुआ दिखाई देता था। यह कोई बंदर को नचानेवाला मदारी है या बालक, जो बंदर को दूर से देखकर खुश होता है, पर बंदर के निकट आते ही भय से चिल्लाने लगता है!
जब मोटर चली, तो सोफ़िया ने कहा-एजेंट के अधिकार तो बड़े होते हैं, वह चाहे तो किसी रियासत के भीतरी मुआमिलों में भी हस्तक्षेप कर सकता है, क्यों?
क्लार्क ने प्रसन्न होकर कहा-उसका अधिकार सर्वत्र, यहाँ तक कि राजा के महल के अंदर भी, होता है। रियासत का कहना ही क्या, वह राजा के खाने-सोने, आराम करने का समय तक नियत कर सकता है। राजा किससे मिले, किससे दूर रहे, किसका आदर करे, किसकी अवहेलना करे, ये सब बातें एजेंट के अधीन हैं। वह यहाँ तक निश्चय कर सकता है कि राजा की मेज पर कौन-कौन-से प्याले आएँगे, राजा के लिए कैसे और कितने कपड़ों की जरूरत है, यहाँ तक कि वह राजा के विवाह का भी निश्चय करता है। बस, यों समझो कि वह रियासत का खुदा होता है।
सोफ़िया-तब तो वहाँ सैर-सपाटे का खूब अवकाश मिलेगा। यहाँ की भाँति दिन-भर दफ्तर में तो न बैठना पड़ेगा?
क्लार्क-वहाँ कैसा दफ्तर, एजेंट का काम दफ्तर में बैठना नहीं है। वह वहाँ बादशाह का स्थानापन्न होता है।
सोफ़िया-अच्छा, जिस रियासत में चाहो, जा सकते हो?
क्लार्क-हाँ, केवल पहले कुछ लिखा-पढ़ी करनी पड़ेगी। तुम कौन-सी रियासत पसंद करोगी?
सोफ़िया-मुझे तो पहाड़ी देशों से विशेष प्रेम है। पहाड़ों के दामन में बसे हुए गाँव, पहाड़ों की गोद में चरनेवाली भेड़ें और पहाड़ों से गिरनेवाले जल-प्रपात, ये सभी दृश्य मुझे काव्यमय प्रतीत होते हैं। मुझे मालूम होता है, वह कोई दूसरा ही जगत् है, इससे कहीं शांतिमय और शुभ्र। शैल मेरे लिए एक मधुर स्वप्न है। कौन-कौन-सी रियासतें पहाड़ों में हैं?
क्लार्क-भरतपुर, जोधपुर, कश्मीर, उदयपुर...
सोफ़िया-बस, तुम उदयपुर के लिए लिखो। मैंने इतिहास में उदयपुर की वीरकथाएँ पढ़ी हैं और तभी से मुझे उस देश को देखने की बड़ी लालसा है। वहाँ के राजपूत कितने वीर, कितने स्वाधीनता-प्रेमी, कितने आन पर जान देनेवाले होते थे! लिखा है, चित्तौड़ में जितने राजपूतों ने वीरगति पाई, उनके जनेऊ तौले गए, तो 75 मन निकले। कई हजार राजपूत-स्त्रियाँ एक साथ चिता पर बैठकर राख हो गईं। ऐसे प्रणवीर प्राणी संसार में शायद ही और कहीं हों।
क्लार्क-हाँ, वे वृत्तांत मैंने भी इतिहास में देखे हैं। ऐसी वीर जाति का जितना सम्मान किया जाए, कम है। इसीलिए उदयपुर का राजा हिंदू राजों में सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है। उनकी वीर-कथाओं में अतिशयोक्ति से बहुत काम लिया गया है, फिर भी यह मानना पड़ेगा कि इस देश में इतनी जाँबाज और कोई जाति नहीं है।
सोफ़िया-तुम आज भी उदयपुर के लिए लिखो और सम्भव हो, तो हम लोग एक मास के अंदर यहाँ से प्रस्थान कर दें।
क्लार्क-लेकिन कहते हुए डर लगता है...तुम मेरा आशय समझ गई होगी...यहाँ से चलने के पहले मैं तुमसे वह चिर-सिंचित...मेरा जीवन...
सोफ़िया ने मुस्कराकर कहा-समझ गई, उसके प्रकट करने का कष्ट न उठाओ। इतनी मंदबुध्दि नहीं हूँ; लेकिन मेरी निश्चय-शक्ति अत्यंत शिथिल है, यहाँ तक कि सैर करने के लिए चलने का निश्चय भी मैं घंटों के सोच-विचार के बाद करती हूँ। ऐसे महत्तव के विषय में, जिसका सम्बंध जीवन-पर्यंत रहेगा, मैं इतनी जल्द कोई फैसला नहीं कर सकती। बल्कि साफ तो यों है कि अभी तक मैं यही निर्णय नहीं कर सकी कि मुझ-जैसी निर्द्वंद्व, स्वाधीन-विचार-प्रिय स्त्री दाम्पत्य जीवन के योग्य है भी या नहीं। विलियम, मैं तुमसे हृदय की बात कहती हूँ,गृहिणी-जीवन से मुझे भय मालूम होता है। इसलिए जब तक तुम मेरे स्वभाव से भली भाँति परिचित न हो जाओ, मैं तुम्हारे हृदय में झूठी आशाएँ पैदा करके तुम्हें धोखे में नहीं डालना चाहती। अभी मेरा और तुम्हारा परिचय केवल एक वर्ष का है। अब तक मैं तुम्हारे लिए केवल एक रहस्य हूँ। क्यों, हूँ या नहीं?
क्लार्क-हाँ सोफी! वास्तव में अभी मैं तुम्हें अच्छी तरह नहीं पहचान पाया हूँ।
सोफ़िया-फिर ऐसी दशा में तुम्हीं सोचो, हम दोनों का दाम्पत्य सूत्र में बँध जाना कितनी बड़ी नादानी है। मेरे दिल की जो पूछो, तो मुझे एक सहृदय, सज्जन विचारशील और सच्चरित्र पुरुष के साथ मित्र बनकर रहना, उसकी स्त्री बनकर रहने से कम आनंददायक नहीं मालूम होता। तुम्हारा क्या विचार है, यह मैं नहीं जानती, लेकिन मैं सहानुभूति और सहवास को वासनामय सम्बंध से कहीं महत्तवपूर्ण समझती हूँ।
क्लार्क-किंतु सामाजिक और धार्मिक प्रथाएँ ऐसे सम्बंधों को...
सोफ़िया-हाँ, ऐसे सम्बंध अस्वाभाविक होते हैं और साधारणत: उन पर आचरण नहीं किया जा सकता। मैं भी इसे सदैव के लिए जीवन का नियम बनाने को प्रस्तुत नहीं हूँ; लेकिन जब तक हम एक दूसरे को अच्छी तरह समझ न लें, जब तक हमारे अंत:करण एक दूसरे के सामने आईने न बन जाएँ, उस समय तक मैं ऐसे ही सम्बंध को आवश्यक समझती हूँ।
क्लार्क-मैं तुम्हारी इच्छाओं का दास हूँ। केवल इतना कह सकता हूँ कि तुम्हारे बिना मेरा जीवन वह घर है, जिसमें कोई रहनेवाला नहीं;वह दीपक है, जिसमें उजाला नहीं; वह कवित्ता है, जिसमें रस नहीं।
सोफ़िया-बस, बस। यह प्रेमियों की भाषा केवल प्रेम-कथाओं के ही लिए शोभा देती है। यह लो, पाँड़ेपुर आ गए। अंधोरा हो रहा है। सूरदास चला गया होगा। यह हाल सुनेगा, तो उस गरीब का दिल टूट जाएगा।
क्लार्क-उसके निर्वाह का कोई और प्रबंध कर दूँ?
सोफ़िया-इस भूमि से उसका निर्वाह नहीं होता था-केवल मुहल्ले के जानवर चरा करते थे। वह गरीब है, भिखारी है, पर लोभी नहीं। मुझे तो वह कोई साधु मालूम होता है।
क्लार्क-अंधो कुशाग्र बुध्दि और धार्मिक होते हैं।
सोफ़िया-मुझे तो उसके प्रति बड़ी श्रध्दा हो गई है। यह देखो, पापा ने काम शुरू कर दिया। अगर उन्होंने राजा की पीठ न ठोकी होती, तो उन्हें तुम्हारे सम्मुख आने का कदापि साहस न होता।
क्लार्क-तुम्हारे पापा बड़े चतुर आदमी हैं। ऐसे ही प्राणी संसार में सफल होते हैं। कम-से-कम मैं तो यह दोरुखी चाल न चल सकता।
सोफ़िया-देख लेना, दो-ही-चार वर्षों में मुहल्ले में कारखाने के मजदूरों के मकान होंगे, यहाँ का एक मनुष्य भी न रहने पाएगा।
क्लार्क-पहले तो अंधो ने बड़ा शोर-गुल मचाया था। देखें, अब क्या करता है?
सोफ़िया-मुझे तो विश्वास है कि वह चुप होकर कभी न बैठेगा, चाहे इस जमीन के पीछे जान ही क्यों न चली जाए।
क्लार्क-नहीं प्रिये, ऐसा कदापि न होने पाएगा। जिस दिन यह नौबत आएगी, सबसे पहले सूरदास के लिए मेरे कंठ से जय-धवनि निकलेगी, सबसे पहले मेरे हाथ उस पर फूलों की वर्षा करेंगे।
सोफ़िया ने क्लार्क को आज पहली बार सम्मानपूर्ण प्रेम की दृष्टि से देखा। 

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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। रंगभूमि (1924-1925) उपन्यास ऐसी ही कृति है। नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मध्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है। प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का प्रकाशन 1925 में हुआ था। इससे पहले देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1920 ईस्वी में शुरू हुए असहयोग आन्दोलन का प्रभाव राष्ट्रव्यापी पड़ा था। समाज बड़े पैमाने पर जाग्रत हो गया था और भारतीय समाज की अलग-अलग धाराओं, विचारों, धर्मों, जातियों का द्वंद्व अपने चरम पर था। सबसे बढ़कर एक उत्साही युवा वर्ग देश को विदेशी शासन से मुक्त करवाने के लिए उत्साह के साथ सकारात्मक हो गया था। ‘रंगभूमि’ उपन्यास के पाठ को समझने के लिए भारत की इस तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखना जरूरी है। यह उपन्यास महज अपने कैनवस, विजन में ही बड़ा नहीं है बल्कि यह प्रेमचंद का सबसे अधिक पृष्ठों का उपन्यास है।
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रंगभूमि अध्याय 1

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शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्ये भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहान

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रंगभूमि अध्याय 2

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सूरदास लाठी टेकता हुआ धीरे-धीरे घर चला। रास्ते में चलते-चलते सोचने लगा-यह है बड़े आदमियों की स्वार्थपरता! पहले कैसे हेकड़ी दिखाते थे, मुझे कुत्तो से भी नीचा समझा; लेकिन ज्यों ही मालूम हुआ कि जमीन मेरी

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रंगभूमि अध्याय 3

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मि. जॉन सेवक का बँगला सिगरा में था। उनके पिता मि. ईश्वर सेवक ने सेना-विभाग में पेंशन पाने के बाद वहीं मकान बनवा लिया था, और अब तक उसके स्वामी थे। इसके आगे उनके पुरखों का पता नहीं चलता, और न हमें उसकी

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रंगभूमि अध्याय 4

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चंचल प्रकृति बालकों के लिए अंधे विनोद की वस्तु हुआ करते हैं। सूरदास को उनकी निर्दय बाल-क्रीड़ाओं से इतना कष्ट होता था कि वह मुँह-अंधोरे घर से निकल पड़ता और चिराग जलने के बाद लौटता। जिस दिन उसे जाने मे

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रंगभूमि अध्याय 5

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चतारी के राजा महेंद्रकुमार सिंह यौवनावस्था ही में अपनी कार्य-दक्षता और वंश प्रतिष्ठा के कारण म्युनिसिपैलिटी के प्रधान निर्वाचित हो गए थे। विचारशीलता उनके चरित्र का दिव्य गुण थी। रईसों की विलास-लोलुपता

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रंगभूमि अध्याय 6

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धर्मभीरुता में जहाँ अनेक गुण हैं, वहाँ एक अवगुण भी है; वह सरल होती है। पाखंडियों का दाँव उस पर सहज ही में चल जाता है। धर्मभीरु प्राणी तार्किक नहीं होता। उसकी विवेचना-शक्ति शिथिल हो जाती है। ताहिर अली

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रंगभूमि अध्याय 7

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संध्‍या हो गई थी। किंतु फागुन लगने पर भी सर्दी के मारे हाथ-पाँव अकड़ते थे। ठंडी हवा के झोंके शरीर की हड्डियों में चुभे जाते थे। जाड़ा, इंद्र की मदद पाकर फिर अपनी बिखरी हुई शक्तियों का संचय कर रहा था औ

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रंगभूमि अध्याय 8

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सोफ़िया को इंदु के साथ रहते चार महीने गुजर गए। अपने घर और घरवालों की याद आते ही उसके हृदय में एक ज्वाला-सी प्रज्वलित हो जाती थी। प्रभु सेवक नित्यप्रति उससे एक बार मिलने आता; पर कभी उससे घर का कुशल-समा

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रंगभूमि अध्याय 9

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सोफ़िया इस समय उस अवस्था में थी, जब एक साधारण हँसी की बात, एक साधारण आँखों का इशारा, किसी का उसे देखकर मुस्करा देना, किसी महरी का उसकी आज्ञा का पालन करने में एक क्षण विलम्ब करना, ऐसी हजारों बातें, जो

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रंगभूमि अध्याय 10

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बालकों पर प्रेम की भाँति द्वेष का असर भी अधिक होता है। जबसे मिठुआ और घीसू को मालूम हुआ था कि ताहिर अली हमारा मैदान जबरदस्ती ले रहे हैं, तब से दोनों उन्हें अपना दुश्मन समझते थे। चतारी के राजा साहब और स

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रंगभूमि अध्याय 11

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भैरों पासी अपनी माँ का सपूत बेटा था। यथासाधय उसे आराम से रखने की चेष्टा करता रहता था। इस भय से कि कहीं बहू सास को भूखा न रखे, वह उसकी थाली अपने सामने परसा लिया करता था और उसे अपने साथ ही बैठाकर खिलाता

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रंगभूमि अध्याय 12

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प्रभु सेवक ताहिर अली के साथ चले, तो पिता पर झल्लाए हुए थे-यह मुझे कोल्हू का बैल बनाना चाहते हैं। आठों पहर तम्बाकू ही के नशे में डूबा पड़ा रहूँ, अधिकारियों की चौखट पर मस्तक रगड़ूँ, हिस्से बेचता फिरूँ,

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रंगभूमि अध्याय 13

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विनयसिंह के जाने के बाद सोफ़िया को ऐसा प्रतीत होने लगा कि रानी जाह्नवी मुझसे खिंची हुई हैं। वह अब उसे पुस्तकें तथा पत्र पढ़ने या चिट्ठियाँ लिखने के लिए बहुत कम बुलातीं; उसके आचार-व्यवहार को संदिग्ध दृ

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रंगभूमि अध्याय 14

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सोफ़िया को होश आया तो वह अपने कमरे में चारपाई पर पड़ी हुई थी। कानों में रानी के अंतिम शब्द गूँज रहे थे-क्या यही सत्य की मीमांसा है? वह अपने को इस समय इतनी नीच समझ रही थी कि घर का मेहतर भी उसे गालियाँ

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रंगभूमि अध्याय 15

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राजा महेंद्रकुमार सिंह यद्यपि सिध्दांत के विषय में अधिकारियों से जौ-भर भी न दबते थे; पर गौण विषयों में वह अनायास उनसे विरोध करना व्यर्थ ही नहीं, जाति के लिए अनुपयुक्त भी समझते थे। उन्हें शांत नीति पर

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रंगभूमि अध्याय 16

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अरावली की पहाड़ियों में एक वट-वृक्ष के नीचे विनयसिंह बैठे हुए हैं। पावस ने उस जन-शून्य, कठोर, निष्प्रभ, पाषाणमय स्थान को प्रेम,प्रमोद और शोभा से मंडित कर दिया है, मानो कोई उजड़ा हुआ घर आबाद हो गया हो।

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रंगभूमि अध्याय 17

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विनयसिंह छ: महीने से कारागार में पड़े हुए हैं। न डाकुओं का कुछ पता मिलता है और न उन पर अभियोग चलाया जाता है। अधिकारियों को अब भी भ्रम है कि इन्हीं के इशारे से डाका पड़ा था। इसीलिए वे उन पर नाना प्रकार

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रंगभूमि अध्याय 18

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सोफ़िया घर आई, तो उसके आत्मगौरव का पतन हो चुका था; अपनी ही निगाहों में गिर गई थी। उसे अब न रानी पर क्रोध था, न अपने माता-पिता पर। केवल अपनी आत्मा पर क्रोध था, जिसके हाथों उसकी इतनी दुर्गति हुई थी, जिस

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रंगभूमि अध्याय 19

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सोफ़िया अपनी चिंताओं में ऐसी व्यस्त हो रही थी कि सूरदास को बिल्कुल भूल-सी गई थी। उसकी फरियाद सुनकर उसका हृदय काँप उठा। इस दीन प्राणी पर इतना घोर अत्याचार! उसकी दयालु प्रकृति यह अन्याय न सह सकी। सोचने

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रंगभूमि अध्याय 20

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मि. क्लार्क ने मोटर से उतरते ही अरदली को हुक्म दिया-डिप्टी साहब को फौरन हमारा सलाम दो। नाजिर, अहलमद और अन्य कर्मचारियों को भी तलब किया गया। सब-के-सब घबराए-यह आज असमय क्यों तलबी हुई, कोई गलती तो नहीं प

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सैयद ताहिर अली को पूरी आशा थी कि जब सिगरेट का कारखाना बनना शुरू हो जाएगा, तो मेरी कुछ-न-कुछ तरक्की हो जाएगी। मि. सेवक ने उन्हें इसका वचन दिया था। इस आशा के सिवा उन्हें अब तक ऋणों को चुकाने का कोई उपाय

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अब तक सूरदास शहर में हाकिमों के अत्याचार की दुहाई देता रहा, उसके मुहल्ले वाले जॉन सेवक के हितैषी होने पर भी उससे सहानुभूति करते रहे। निर्बलों के प्रति स्वभावत: करुणा उत्पन्न हो जाती है। लेकिन सूरदास क

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सूरदास की जमीन वापस दिला देने के बाद सोफ़िया फिर मि. क्लार्क से तन गई। दिन गुजरते जाते थे और वह मि. क्लार्क से दूरतर होती जाती थी। उसे अब सच्चे अनुराग के लिए अपमान, लज्जा, तिरस्कार सहने की अपेक्षा कृत

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साल-भर तक राजा महेंद्रकुमार और मिस्टर क्लार्क में निरंतर चोटें चलती रहीं। पत्र का पृष्ठ रणक्षेत्र था और शृंखलित सूरमों की जगह सूरमों से कहीं बलवान् दलीलें। मनों स्याही बह गई, कितनी ही कलमें काम आईं। द

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अरावली की हरी-भरी झूमती हुई पहाड़ियों के दामन में जसवंतनगर यों शयन कर रहा है, जैसे बालक माता की गोद में। माता के स्तन से दूध की धारें, प्रेमोद्गार से विकल, उबलती, मीठे स्वरों में गाती निकलती हैं और बा

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रंगभूमि अध्याय 27

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नायकराम मुहल्लेवालों से बिदा होकर उदयपुर रवाना हुए। रेल के मुसाफिरों को बहुत जल्द उनसे श्रध्दा हो गई। किसी को तम्बाकू मलकर खिलाते, किसी के बच्चे को गोद में लेकर प्यार करते। जिस मुसाफिर को देखते, जगह न

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सोफिया के चले जाने के बाद विनय के विचार-स्थल में भाँति-भाँति की शंकाएँ होने लगीं। मन एक भीरु शत्रु है, जो सदैव पीठ के पीछे से वार करता है। जब तक सोफी सामने बैठी थी, उसे सामने आने का साहस न हुआ। सोफी क

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मिस्टर विलियम क्लार्क अपने अन्य स्वदेश-बंधुओं की भाँति सुरापान के भक्त थे, पर उसके वशीभूत न थे। वह भारतवासियों की भाँति पीकर छकना न जानते थे। घोड़े पर सवार होना जानते थे, उसे काबू से बाहर न होने देते

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रंगभूमि अध्याय 30

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शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्यि भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहान

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रंगभूमि अध्याय 31

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भैरों के घर से लौटकर सूरदास अपनी झोंपड़ी में आकर सोचने लगा, क्या करूँ कि सहसा दयागिरि आ गए और बोले-सूरदास, आज तो लोग तुम्हारे ऊपर बहुत गरम हो रहे हैं, इसे घमंड हो गया है। तुम इस माया-जाल में क्यों पड़

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रंगभूमि अध्याय 32

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सूरदास के मुकदमे का फैसला सुनने के बाद इंद्रदत्ता चले, तो रास्ते में प्रभु सेवक से मुलाकात हो गई। बातें होने लगी। इंद्रदत्ता-तुम्हारा क्या विचार है, सूरदास निर्दोष है या नहीं? प्रभु सेवक-सर्वथा निर्

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फैक्टरी करीब-करीब तैयार हो गई थी। अब मशीनें गड़ने लगीं। पहले तो मजदूर-मिस्त्री आदि प्राय: मिल के बरामदों ही में रहते थे, वहीं पेड़ों के नीचे खाना पकाते और सोते; लेकिन जब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई, तो मु

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रंगभूमि अध्याय 34

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प्रभु सेवक ने घर आते ही मकान का जिक्र छेड़ दिया। जान सेवक यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए कि अब इसने कारखाने की ओर धयान देना शुरू किया। बोले-हाँ, मकानों का बनना बहुत जरूरी है। इंजीनियर से कहो, एक नक्शा बनाए

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रंगभूमि अध्याय 35

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विनयसिंह आबादी में दाखिल हुए, तो सबेरा हो गया था। थोड़ी दूर चले थे कि एक बुढ़िया लाठी टेकती सामने से आती हुई दिखाई दी। इन्हें देखकर बोली-बेटा, गरीब हूँ। बन पडे, तो कुछ दे दो। धरम होगा। नायकराम-सवेरे

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मिस्टर जॉन सेवक ने ताहिर अली की मेहनत और ईमानदारी से प्रसन्न होकर खालों पर कुछ कमीशन नियत कर दिया था। इससे अब उनकी आय अच्छी हो गई थी, जिससे मिल के मजदूरों पर उनका रोब था, ओवरसियर और छोटे-छोटे क्लर्क उ

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प्रभु सेवक बड़े उत्साही आदमी थे। उनके हाथ से सेवक-दल में एक नई सजीवता का संचार हुआ। संख्या दिन-दिन बढ़ने लगी। जो लोग शिथिल और उदासीन हो रहे थे, फिर नए जोश से काम करने लगे। प्रभु सेवक की सज्जनता और सहृ

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रंगभूमि अध्याय 38

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सोफिया और विनय रात-भर तो स्टेशन पर पड़े रहे। सबेरे समीप के गाँव में गए, जो भीलों की एक छोटी-सी बस्ती थी। सोफिया को यह स्थान बहुत पसंद आया। बस्ती के सिर पर पहाड़ का साया था, पैरों के नीचे एक पहाड़ी नाल

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रंगभूमि अध्याय 40

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मिल के तैयार होने में अब बहुत थोड़ी कसर रह गई थी। बाहर से तम्बाकू की गाड़ियाँ लदी चली आती थीं। किसानों को तम्बाकू बोने के लिए दादनी दी जा रही थी। गवर्नर से मिल को खोलने की रस्म अदा करने के लिए प्रार्थ

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रंगभूमि अध्याय 41

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प्रभु सेवक ने तीन वर्ष अमेरिका में रहकर और हजारों रुपये खर्च करके जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया था, वह मि. जॉन सेवक ने उनकी संगति से उतने ही महीनों में प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं, प्रभु सेवक की भा

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रंगभूमि अध्याय 42

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अदालत ने अगर दोनों युवकों को कठिन दंड दिया, तो जनता ने भी सूरदास को उससे कम कठिन दंड न दिया। चारों ओर थुड़ी-थुड़ी होने लगी। मुहल्लेवालों का तो कहना ही क्या, आस-पास के गाँववाले भी दो-चार खोटी-खरी सुना

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रंगभूमि अध्याय 43

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सोफिया के धार्मिक विचार, उसका आचार-व्यवहार, रहन-सहन, उसकी शिक्षा-दीक्षा, ये सभी बातें ऐसी थीं, जिनसे एक हिंदू महिला को घृणा हो सकती थी। पर इतने दिनों के अनुभव ने रानीजी की सभी शंकाओं का समाधान कर दिया

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रंगभूमि अध्याय 44

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गंगा से लौटते दिन के नौ बज गए। हजारों आदमियों का जमघट, गलियाँ तंग और कीचड़ से भरी हुई, पग-पग पर फूलों की वर्षा, सेवक-दल का राष्ट्रीय संगीत, गंगा तक पहुँचते-पहुँचते ही सबेरा हो गया था। लौटते हुए जाह्नव

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रंगभूमि अध्याय 45

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पाँड़ेपुर में गोरखे अभी तक पड़ाव डाले हुए थे। उनके उपलों के जलने से चारों तरफ धुआँ छाया हुआ था। उस श्यामावरण में बस्ती के ख्रडहर भयानक मालूम होते थे। यहाँ अब भी दिन में दर्शकों की भीड़ रहती थी। नगर मे

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रंगभूमि अध्याय 46

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चारों आदमी शफाखाने पहुँचे, तो नौ बज चुके थे। आकाश निद्रा में मग्न, आँखें बंद किए पड़ा हुआ था, पर पृथ्वी जाग रही थी। भैरों खड़ा सूरदास को पंखा झल रहा था। लोगों को देखते ही उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे।

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रंगभूमि अध्याय 47

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संधया हो गई थी। मिल के मजदूर छुट्टी पा गए थे। आजकल दूनी मजदूरी देने पर भी बहुत थोड़े मजदूर काम करने आते थे। पाँड़ेपुर में सन्नाटा छाया हुआ था। वहाँ अब मकानों के भग्नावशेष के सिवा कुछ नजर न आता था। हाँ

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रंगभूमि अध्याय 48

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काशी के म्युनिसिपल बोर्ड में भिन्न-भिन्न राजनीतिक सम्प्रदायों के लोग मौजूद थे। एकवाद से लेकर जनसत्तावाद तक सभी विचारों के कुछ-न-कुछ आदमी थे। अभी तक धन का प्राधान्य नहीं था, महाजनों और रईसों का राज्य थ

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रंगभूमि अध्याय 49

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इधर सूरदास के स्मारक के लिए चंदा जमा किया जा रहा था, उधर कुलियों के टोले में शिलान्यास की तैयारियाँ हो रही थीं। नगर के गण्यमान्य पुरुष निमंत्रित हुए थे। प्रांत के गवर्नर से शिला-स्थापना की प्रार्थना क

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रंगभूमि अध्याय 50

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कुँवर विनयसिंह की वीर मृत्यु के पश्चात रानी जाह्नवी का सदुत्साह दुगुना हो गया। वह पहले से कहीं ज्यादा क्रियाशील हो गईं। उनके रोम-रोम में असाधारण स्फूर्ति का विकास हुआ। वृध्दावस्था की आलस्यप्रियता यौवन

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