shabd-logo

रंगभूमि अध्याय 22

4 फरवरी 2022

14 बार देखा गया 14

सैयद ताहिर अली को पूरी आशा थी कि जब सिगरेट का कारखाना बनना शुरू हो जाएगा, तो मेरी कुछ-न-कुछ तरक्की हो जाएगी। मि. सेवक ने उन्हें इसका वचन दिया था। इस आशा के सिवा उन्हें अब तक ऋणों को चुकाने का कोई उपाय न नजर आता था, जो दिनों-दिन बरसात की घास के समान बढ़ते जाते थे। वह स्वयं बड़ी किफायत से रहते थे। ईद के अतिरिक्त कदाचित् और कभी दूध उनके कंठ के नीचे न जाता था। मिठाई उनके लिए हराम थी। पान-तम्बाकू का उन्हें शौक ही न था। किंतु वह खुद चाहे कितने ही किफायत करें, घरवालों की जरूरत में काट-कपट करना न्याय-विरुध्द समझते थे। जैनब औैर रकिया अपने लड़कों के लिए दूध लेना आवश्यक समझती थीं। कहतीं-यही तो लड़कों के खाने-पीने की उम्र है, इसी उम्र में तो उनकी हड्डियाँ चौड़ी-चकली होती हैं, दिल और दिमाग बढ़ते हैं। इस उम्र में लड़को को मुकब्बी खाना न मिले, तो उनकी सारी जिंदगी बरबाद हो जाती है।
लड़कों के विषय में यह कथन सत्य हो या नहीं; पर पान-तम्बाकू के विषय में ताहिर अली की विमाताएँ जिस युक्ति का प्रतिपादन करती थीं, उसकी सत्यता स्वयंसिध्द थी-स्त्रिायों का इनके बगैर निबाह ही नहीं हो सकता। कोई देखे तो कहे, क्या इनके यहाँ पान तक मयस्सर नहीं, यही तो अब शराफत की एक निशानी रह गई है, मामाएँ नहीं, खवासें नहीं, तो क्या पान से भी गए। मर्दों को पान की ऐसी जरूरत नहीं। उन्हें हाकिमों से मिलना-जुलना पड़ता है, पराई बंदगी करते हैं, उन्हें पान की क्या जरूरत!
विपत्तिा यह थी कि माहिर और जाबिर तो मिठाइयाँ खाकर ऊपर से दूध पीते और साबिर और नसीमा खड़े मुँह ताका करते। जैनब बेगम कहतीं-इनके गुड़ के बाप कोल्हू ही, खुदा के फजल से जिंदा हैं। सबको खिलाकर खिलाएँ, तभी खिलाना कहलाए। सब कुछ तो उन्हीं की मुट्ठी में है, जो चाहें खिलाएँ, जैसे चाहें रखें; कोई हाथ पकड़नेवाला है?
वे दोनों दिन-भर बकरी की तरह पान चबाया करतीं, कुल्सूम को भोजन के पश्चात् एक बीड़ा भी मुश्किल से मिलता था। अपनी इन जरूरतों के लिए ताहिर अली से पूछने या चादर देखकर पाँव फैलाने की जरूरत न थी।
प्रात:काल था। चमड़े की खरीद हो रही थी। सैकड़ों चमार बैठे चिलम पी रहे थे। यही एक समय था, जब ताहिर अली को अपने गौरव का कुछ आनंद मिलता था। इस वक्त उन्हें अपने महत्तव का हलका-सा नशा हो जाता था। एक चमार द्वार पर झाड़ू लगाता, एक उनका तख्त साफ करता, एक पानी भरता। किसी को साग-भाजी लाने के लिए बाजार भेज देते और किसी से लकड़ी चिराते। इतने आदमियों को अपनी सेवा में तत्पर देखकर उन्हें मालूम होता था कि मैं भी कुछ हूँ। उधर जैनब और रकिया परदे में बैठी पानदान का खर्च वसूल करतीं। साहब ने ताहिर अली को दस्तूरी लेने से मना किया था, स्त्रिायों को पान-पत्तो का खर्च लेने का निषेध न किया था। इस आमदनी से दोनों ने अपने-अपने लिए गहने बनवा लिए थे। ताहिर अली इस रकम का हिसाब लेना छोटी बात समझते थे।
इसी समय जगधर आकर बोला-मुंसीजी, हिसाब कब तक चुकता कीजिएगा? मैं कोई लखपती थोड़े ही हूँ कि रोज मिठाइयाँ देता जाऊँ, चाहे दाम मिलें या न मिलें। आप जैसे दो-चार गाहक और मिल जाएँ, तो मेरा दिवाला ही निकल जाए। लाइए, रुपये दिलवाइए, अब हीला-हवाला न कीजिए, गाँव-मुहल्ले की बहुत मुरौवत कर चुका। मेरे सिर भी तो महाजन का लहना-तगादा है। यह देखिए कागद, हिसाब कर दीजिए।
देनदारों के लिए हिसाब का कागज यमराज का परवाना है। वे उसकी ओर ताकने का साहस नहीं कर सकते। हिसाब देखने का मतलब है,रुपये अदा करना। देनदार ने हिसाब का चिट्ठा हाथ में लिया और पानेवाले का हृदय आशा से विकसित हुआ। हिसाब का परत हाथ में लेकर फिर कोई हीला नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि देनदारों को खाली हाथ हिसाब देखने का साहस नहीं होता।
ताहिर अली ने बड़ी नम्रता से कहा-भई, हिसाब सब मालूम है, अब बहुत जल्द तुम्हारा बकाया साफ़ हो जाएगा। दो-चार दिन और सब्र करो।
जगधर-कहाँ तक सबर करूँ साहब? दो-चार दिन करते-करते तो महीनों हो गए। मिठाइयाँ खाते बखत तो मीठी मालूम होती हैं, दाम देते क्यों कड़घवा लगता है?
ताहिर-बिरादर, आजकल ज़रा तंग हो गया हूँ, मगर अब जल्द कारखाने का काम शुरू होगा, मेरी भी तरक्की होगी। बस, तुम्हारी एक-एक कौड़ी चुका दूँगा।
जगधर-ना साहब, आज तो मैं रुपये लेकर ही जाऊँगा। महाजन के रुपये न दूँगा, तो आज मुझे छटाँक-भर भी सौदा न मिलेगा। भगवान् जानते हैं, जो मेरे घर में टका भी हो। यह समझिए कि आप मेरा नहीं, अपना दे रहे हैं। आपसे झूठ बोलता होऊँ, तो जवानी काम न आए,रात बाल-बच्चे भूखे ही सो रहे। सारे मुहल्ले में सदा लगाई, किसी ने चार आने पैसे न दिए।
चमारों के चौधरी को जगधर पर दया आ गई। ताहिर अली से बोला-मुंशीजी, मेरा पावना इन्हीं को दे दीजिए, मुझे दो-चार दिन में दीजिएगा।
ताहिर-जगधर, मैं खुदा को गवाह करके कहता हूँ, मेरे पास रुपये नहीं हैं, खुदा के लिए दो-चार दिन ठहर जाओ।
जगधर-मुंसीजी, झूठ बोलना गाय खाना है, महाजन के रुपये आज न पहँचे, तो कहीं का नहीं रहूँगा।
ताहिर अली ने घर में आकर कुल्सूम से कहा-मिठाईवाला सिर पर सवार है, किसी तरह टलता ही नहीं। क्या करूँ, रोकड़ में से दस रुपये निकालकर दे दूँ?
कुल्सूम ने चिढ़कर कहा-जिसके दाम आते हैं, वह सिर पर सवार होगा ही! अम्माँजान से क्यों नहीं माँगते? मेरे बच्चों को तो मिठाई मिली नहीं; जिन्होंने उचक-उचककर खाया-खिलाया है, वे दाम देने की बेर क्यों भीगी बिल्ली बनी बैठी हुई हैं?
ताहिर-इसी मारे तो मैं तुमसे बात कहता नहीं। रोकड़ से ले लेने में क्या हरज है? तनख्वाह मिलते ही जमा कर दूँगा।
कुल्सूम-खुदा के लिए कहीं यह गजब न करना। रोकड़ को काला साँप समझो। कहीं आज ही साहब रकम की जाँच करने लगे तो?
ताहिर-अजी नहीं, साहब को इतनी फुरसत कहाँ कि रोकड़ मिलाते रहें!
कुल्सूम-मैं अमानत की रकम छूने को न कहूँगी। ऐसा ही है, तो नसीमा का तौक उतारकर कहीं गिरो रख दो, और तो मेरे किए कुछ नहीं हो सकता।
ताहिर अली को दु:ख तो बहुत हुआ; पर करते क्या। नसीमा का तौक निकालते थे, और रोते थे। कुल्सूम उसे प्यार करती थी और फुसलाकर कहती थी, तुम्हें नया तौक बनवाने जा रहे हैं। नसीमा फूली न समाती थी कि मुझे नया तौक मिलेगा।
तौक माल में लिए हुए ताहिर अली बाहर निकले, और जगधर को अलग ले जाकर बोले-भई, इसे ले जाओ, कहीं गिरो रखकर अपना काम चलाओ। घर में रुपये नहीं हैं।
जगधर-उधार सौदा बेचना पाप है, पर करूँ क्या, नगद बेचने लगूँ, तो घूमता ही रह जाऊँ।
यह कहकर उसने सकुचाते हुए तौक ले लिया और पछताता हुआ चला गया। कोई दूसरा आदमी अपने ग्राहक को इतना दिक करके रुपये न वसूल करता। उसे लड़की पर दया आ ही जाती, जो मुस्कराकर कह रही थी, मेरा तौक कब बनाकर लाओगे? परंतु जगधर गृहस्थी के असह्य भार के कारण उससे कहीं असज्जन बनने पर मजबूर था, जितना वह वास्तव में था।
जगधर को गए आधा घंटा भी न गुजरा था कि बजरंगी त्योरियाँ बदले हुए आकर बोला-मुंशीजी, रुपये देने हों, तो दीजिए, नहीं तो कह दीजिए, बाबा, हमसे नहीं हो सकता; बस, हम सबर कर लें। समझ लेंगे कि एक गाय नहीं लगीं रोज-रोज दौड़ाते क्यों हैं?
ताहिर-बिरादर, जैसे इतने दिनों तक सब्र किया है, थोड़े दिन और करो। खुदा ने चाहा, तो अबकी तुम्हारी एक पाई भी न रहेगी।
बजरंगी-ऐसे वादे तो आप बीसों बार कर चुके हैं।
ताहिर-अबकी पक्का वादा करता हूँ।
बजरंगी-तो किस दिन हिसाब कीजिएगा?
ताहिर अली असमंजस में पड़ गए, कौन-सा दिन बतलाएँ। देनदारों को हिसाब के दिन का उतना ही भय होता है, जितना पापियों को। वे'दो-चार', 'बहुत जल्द', 'आज-कल में' आदि अनिश्चयात्मक शब्दों की आड़ लिया करते हैं। ऐसे वादे पूरे किए जाने के लिए नहीं, केवल पानेवालों को टालने के लिए किए जाते हैं। ताहिर अली स्वभाव से खरे आदमी थे। तकाजों से उन्हें बड़ा कष्ट होता था। वह तकाजों से उतना ही डरते थे, जितना शैतान से। उन्हें दूर से देखते ही उनके प्राण-पखेरू छटपटाने लगते थे। कई मिनट तक सोचते रहे, क्या जवाब दूँ, खर्च का यह हाल है, और तरक्की के लिए कहता हूँ, तो कोरा जवाब मिलता है। आखिरकार बोले-दिन कौन-सा बताऊँ, चार-छ: दिन में जब आ जाओगे, उसी दिन हिसाब हो जाएगा।
बजरंगी-मुंशीजी, मुझसे उड़नघाइयाँ न बताइए। मुझे भी सभी तरह के ग्राहकों से काम पड़ता है। अगर दस दिन में आऊँगा, तो आप कहेंगे,इतनी देर क्यों की, अब रुपये खर्च हो गए। चार-पाँच दिन में आऊँगा, तो आप कहेंगे, अभी तो रुपये मिले ही नहीं। इसलिए मुझे कोई दिन बता दीजिए, जिसमें मेरा भी हरज न हो और आपको भी सुबीता हो।
ताहिर-दिन बता देने में मुझे कोई उज्र न होता, लेकिन बात यह है कि मेरी तनख्वाह मिलने की कोई तारीख मुकर्रर नहीं है; दो-चार दिनों का हेर-फेर हो जाता है। एक हफ्ते के बाद किसी लड़के को भी भेज दोगे, तो रुपये मिल जाएँगे।
बजरंगी-अच्छी बात है, आप ही का कहना सही। अगर अबकी वादाखिलाफी कीजिएगा, तो फिर माँगने न आऊँगा।
बजरंगी चला गया, तो ताहिर अली डींग मारने लगे-तुम लोग समझते होगे, ये लोग इतनी-इतनी तलब पाते हैं, घर में बटोरकर रखते होंगे,और यहाँ खर्च का यह हाल है कि आधा महीना भी नहीं खत्म होता और रुपये उड़ जाते हैं। शराफत रोग है, और कुछ नहीं।
एक चमार ने कहा-हुजूर, बड़े आदमियों का खर्च भी बड़ा होता है। आप ही लोगों की बदौलत तो गरीबोें की गुजर होती है। घोड़े की लात घोड़ा ही सह सकता है।
ताहिर-अजी, सिर्फ पान में इतना खर्च हो जाता है कि उतने में दो आदमियों का अच्छी तरह गुजर हो सकता है।
चमार-हुजूर, देखते नहीं हैं, बड़े आदमियों की बड़ी बात होती है।
ताहिर अली के आँसू अच्छी तरह न पुँछने पाए थे कि सामने से ठाकुरदीन आता हुआ दिखाई दिया। बेचारे पहले ही से कोई बहाना सोचने लगे। इतने में उसने आकर सलाम किया और बोला-मुंशीजी, कारखाने में कब से हाथ लगेगा?
ताहिर-मसाला जमा हो रहा है। अभी इंजीनियर ने नक्शा नहीं बनाया है, इसी वजह से देर हो रही है।
ठाकुरदीन-इंजीनियर ने भी कुछ लिया होगा? बड़ी बेईमान जात है हुजूर, मैंने भी कुछ दिन ठेकेदारी की है; जो कमाता था, इंजीनियरों को खिला देता था। आखिर घबराकर छोड़ बैठा। इंजीनियर के भाई डॉक्टर होते हैं। रोगी चाहे मरता हो, पर फीस लिए बिना बात न सुनेंगे। फीस के नाम से रिआयत भी करोगे, तो गाड़ी के किराए और दवा के दाम में कस लेंगे, (हिसाब का परत दिखाकर) जरा इधर भी एक निगाह हो जाए।
ताहिर-सब मालूम है, तुमने गलत थोड़े ही लिखा होगा।
ठाकुरदीन-हुजूर, ईमान है, तो सब कुछ है। साथ कोई न जाएगा। तो मुझे क्या हुकुम होता है?
ताहिर-दो-चार दिन की मुहलत दो।
ठाकुरदीन-जैसी आपकी मरजी। हुजूर, चोरी हो जाने से लाचार हो गया, नहीं तो दो-चार रुपयों की कौन बात थी। उस चोरी में तबाह हो गया। घर में फूटा लोटा तक न बचा। दाने को मुहताज हो गया हुजूर! चोरों को आँखों के सामने भागते देखा, उनके पीछे दौड़ा। पागलखाने तक दौड़ता चला गया। अंधोरी रात थी, ऊँच-खाल कुछ न सूझता था। एक गढ़े में गिर पड़ा। फिर उठा। माल बड़ा प्यारा होता है। लेकिन चोर निकल गए थे। थाने में इत्ताला की, थानेदारों की खुशामद की। मुदा गई हुई लच्छमी कहीं लौटती हैं। तो कब आऊँ?
ताहिर-तुम्हारे आने की जरूरत नहीं, मैं खुद भिजवा दूँगा।
ठाकुरदीन-जैसी आपकी खुशी, मुझे कोई उजर नहीं है। मुझे तगादा करते आप ही सरम आती है। कोई भलामानुस हाथ में पैसे रहते हुए टालमटोल नहीं करता, फौरन निकालकर फेंक देता है। आज जरा पान लेने जाना था, इसीलिए चला आया था। सब न हो सके, तो थोड़ा-बहुत दे दीजिए। किसी तरह काम न चला, तब आपके पास आया। आदमी पहचानता हूँ हुजूर, पर मौका ऐसा ही आ पड़ा है।
ठाकुरदीन की विनम्रता और प्रफुल्लित सहृदयता ने ताहिर अली को मुग्ध कर दिया। तुरंत संदूक खोला और पाँच रुपये निकालकर उसके सामने रख दिए। ठाकुरदीन ने रुपये उठाए नहीं, एक क्षण कुछ विचार करता रहा, तब बोला-ये आपके रुपये हैं कि सरकारी रोकड़ के हैं?
ताहिर-तुम ले जाओ, तुम्हें आम खाने से मतलब कि पेड़ गिनने से?
ठाकुरदीन-नहीं मुंशीजी, यह न होगा। अपने रुपये हों, तो दीजिए, मालिक की रोकड़ हो, तो रहने दीजिए; फिर आकर ले जाऊँगा। आपके चार पैसे खाता हूँ, तो आपको आँखों से देखकर गढ़े में न गिरने दूँगा। बुरा मानिए, तो मान जाइए, इसकी चिंता नहीं, साफ बात करने के लिए बदनाम हूँ, आपके रुपये यों अलल्ले-तलल्ले खर्च होंगे, तो एक दिन आप धोखा खाएँगे। सराफत ठाटबाट बढ़ने में नहीं है, अपनी आबरू बचाने में है।
ताहिर अली ने सजल नयन होकर कहा-रुपये लेते जाओ।
ठाकुरदीन उठ खड़ा हुआ और बोला-जब आपके पास हों, तब देना।
अब तक तो ताहिर अली को कारखाने के बनने की उम्मीद थी। इधर आमदनी बढ़ी, उधर मैंने रुपये दिए; लेकिन जब मि. क्लार्क ने अनिश्चित समय तक के लिए कारखाने का काम बंद करवा दिया, तब ताहिर अली का अपने लेनदारों को समझाना मुश्किल हो गया। लेनदारों ने ज्यादा तंग करना शुरू किया। ताहिर अली बहुत चिंतित रहने लगे, बुध्दि कुछ काम न करती थी। कुल्सूम कहती थी-ऊपर का खर्च सब बंद कर दिया जाए। दूध, पान और मिठाइयों के बिना आदमी को कोई तकलीफ नहीं हो सकती। ऐसे कितने आदमी हैं जिन्हें इस जमाने में ये चीजें मयस्सर हैं? और की क्या कहूँ, मेरे ही लड़के तरसते हैं। मैं पहले भी समझा चुकी हूँ और अब फिर समझाती हूँ कि जिनके लिए तुम अपना खून और पसीना एक कर रहे हो, वे तुम्हारी बात भी न पूछेंगे। पर निकलते ही साफ उड़ न जाएँ, तो कहना। अभी से रुख देख रही हूँ। औरों को सूद पर रुपये दिए जाते हैं, जेवर बनवाए जाते हैं; लेकिन घर के खर्च को कभी कुछ माँगो, तो टका-सा जवाब मिलता है, मेरे पास कहाँ। तुम्हारे ऊपर इन्हें कुछ तो रहम आना चाहिए। आज दूध, मिठाइयाँ बंद कर दो, तो घर में रहना मुश्किल हो जाए।
तीसरा पहर था। ताहिर अली बरामदे में उदास बैठे हुए थे। सहसा भैरों आकर बैठ गया, और बोला-क्यों मुंशीजी, क्या सचमुच अब यहाँ कारखाना न बनेगा?
ताहिर-बनेगा क्यों नहीं, अभी थोड़े दिनों के लिए रुक गया है।
भैरों-मुझे तो बड़ी आशा थी कि कारखाना बन गया, तो मेरा बिकरी-बट्टा बढ़ जाएगा; दूकान पर बिक्री बिल्कुल मंदी है। मैं चाहता हूँ कि यहाँ सबेरे थोड़ी देर बैठा करूँ। आप मंजूर कर लें, तो अच्छा हो। मेरी थोड़ी-बहुत बिकरी हो जाएगी। आपको भी पान खाने के लिए कुछ नजर कर दिया करूँगा।
किसी और समय ताहिर अली ने भैरों को डाँट बताई होती। ताड़ी की दूकान खोलने की आज्ञा देना उनके धर्म-विरुध्द था। पर इस समय रुपये की चिंता ने उन्हें असमंजस में डाल दिया। इससे पहले भी धनाभाव के कारण उनके कर्म और सिध्दांतों में कई बार संग्राम हो चुका था,और प्रत्येक अवसर पर उन्हें सिध्दांतों ही का खून करना पड़ा था। आज वही संग्राम हुआ और फिर सिध्दांतों ने परिस्थितियों के सामने सिर झुका दिया। सोचने लगे-क्या करूँ? इसमें मेरा क्या कसूर? मैं किसी बेजा खर्च के लिए शरा को नहीं तोड़ रहा हूँ, हालत ने मुझे बेबस कर दिया है। कुछ झेंपते हुए बोले-यहाँ ताड़ी की बिकरी न होगी।
भैरों-हुजूर, बिकरी तो ताड़ी की महक से होगी। नसेबाजों की ऐसी आदत होती है कि न देखें, तो चाहे बरसों न पिएँ, पर नसा सामने देखकर उनसे नहीं रहा जाता।
ताहिर-मगर साहब के हुक्म के बगैर मैं कैसे इजाजत दे सकता हूँ?
भैरों-आपकी जैसी मरजी! मेरी समझ में तो साहब से पूछने की जरूरत ही नहीं। मैं कौन यहाँ दूकान रखूँगा। सबेरे एक घड़ा लाऊँगा, घड़ी-भर में बेचकर अपनी राह लूँगा। उन्हें खबर ही न होगी कि यहाँ कोई ताड़ी बेचता है।
ताहिर-नमकहरामी सिखाते हो, क्यों?
भैरों-हुजूर, इसमें नमकहरामी काहे की, अपने दाँव-घात पर कौन नहीं लेता?
सौदा पट गया। भैरों एकमुश्त 15 रुपये देने को राजी हो गया। जाकर सुभागी से बोला-देख, सौदा कर आया न! तू कहती थी, वह कभी न मानेंगे, इसलाम हैं, उनके यहाँ ताड़ी-सराब मना है, पर मैंने कह न दिया था कि इसलाम हो, चाहे बाम्हन हो, धरम-करम किसी में नहीं रह गया। रुपये पर सभी लपक पड़ते हैं। ये मियाँ लोग बाहर ही से उजले कपड़े पहने दिखाई देते हैं। घर में भूनी भाँग नहीं होती। मियाँ ने पहले तो दिखाने के लिए इधर-उधर किया, फिर 15 रुपये में राजी हो गए। पंद्रह रुपये तो पंद्रह दिन में सीधो हो जाएँगे।
सुभागी पहले घर की मालकिन बनना चाहती थी, इसलिए रोज डंडे खाती थी। अब वह घर-भर की दासी बनकर मालकिन बनी हुई है। रुपये-पैसे उसी के हाथ में रहते हैं। सास, जो उसकी सूरत से जलती थी, दिन में सौ-सौ बार उसे आशीर्वाद देती है। सुभागी ने चटपट रुपये निकालकर भैरों को दिए। शायद दो बिछुड़े हुए मित्र इस तरह टूटकर गले न मिलते होंगे, जैसे ताहिर अली इन रुपयों पर टूटे। रकम छोटी थी इसके बदले में उन्हें अपने धर्म की हत्या करनी पड़ी थी। लेनदार अपने-अपने रुपये ले गए। ताहिर अली के सिर का बोझ हलका हुआ, मगर उन्हें बहुत रात तक नींद न आई। आत्मा की आयु दीर्घ होती है। उसका गला कट जाए, पर प्राण नहीं निकलते। 

48
रचनाएँ
रंगभूमि
0.0
प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। रंगभूमि (1924-1925) उपन्यास ऐसी ही कृति है। नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मध्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है। प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का प्रकाशन 1925 में हुआ था। इससे पहले देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1920 ईस्वी में शुरू हुए असहयोग आन्दोलन का प्रभाव राष्ट्रव्यापी पड़ा था। समाज बड़े पैमाने पर जाग्रत हो गया था और भारतीय समाज की अलग-अलग धाराओं, विचारों, धर्मों, जातियों का द्वंद्व अपने चरम पर था। सबसे बढ़कर एक उत्साही युवा वर्ग देश को विदेशी शासन से मुक्त करवाने के लिए उत्साह के साथ सकारात्मक हो गया था। ‘रंगभूमि’ उपन्यास के पाठ को समझने के लिए भारत की इस तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखना जरूरी है। यह उपन्यास महज अपने कैनवस, विजन में ही बड़ा नहीं है बल्कि यह प्रेमचंद का सबसे अधिक पृष्ठों का उपन्यास है।
1

रंगभूमि अध्याय 1

4 फरवरी 2022
1
0
0

शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्ये भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहान

2

रंगभूमि अध्याय 2

4 फरवरी 2022
1
0
0

सूरदास लाठी टेकता हुआ धीरे-धीरे घर चला। रास्ते में चलते-चलते सोचने लगा-यह है बड़े आदमियों की स्वार्थपरता! पहले कैसे हेकड़ी दिखाते थे, मुझे कुत्तो से भी नीचा समझा; लेकिन ज्यों ही मालूम हुआ कि जमीन मेरी

3

रंगभूमि अध्याय 3

4 फरवरी 2022
0
0
0

मि. जॉन सेवक का बँगला सिगरा में था। उनके पिता मि. ईश्वर सेवक ने सेना-विभाग में पेंशन पाने के बाद वहीं मकान बनवा लिया था, और अब तक उसके स्वामी थे। इसके आगे उनके पुरखों का पता नहीं चलता, और न हमें उसकी

4

रंगभूमि अध्याय 4

4 फरवरी 2022
0
0
0

चंचल प्रकृति बालकों के लिए अंधे विनोद की वस्तु हुआ करते हैं। सूरदास को उनकी निर्दय बाल-क्रीड़ाओं से इतना कष्ट होता था कि वह मुँह-अंधोरे घर से निकल पड़ता और चिराग जलने के बाद लौटता। जिस दिन उसे जाने मे

5

रंगभूमि अध्याय 5

4 फरवरी 2022
0
0
0

चतारी के राजा महेंद्रकुमार सिंह यौवनावस्था ही में अपनी कार्य-दक्षता और वंश प्रतिष्ठा के कारण म्युनिसिपैलिटी के प्रधान निर्वाचित हो गए थे। विचारशीलता उनके चरित्र का दिव्य गुण थी। रईसों की विलास-लोलुपता

6

रंगभूमि अध्याय 6

4 फरवरी 2022
0
0
0

धर्मभीरुता में जहाँ अनेक गुण हैं, वहाँ एक अवगुण भी है; वह सरल होती है। पाखंडियों का दाँव उस पर सहज ही में चल जाता है। धर्मभीरु प्राणी तार्किक नहीं होता। उसकी विवेचना-शक्ति शिथिल हो जाती है। ताहिर अली

7

रंगभूमि अध्याय 7

4 फरवरी 2022
0
0
0

संध्‍या हो गई थी। किंतु फागुन लगने पर भी सर्दी के मारे हाथ-पाँव अकड़ते थे। ठंडी हवा के झोंके शरीर की हड्डियों में चुभे जाते थे। जाड़ा, इंद्र की मदद पाकर फिर अपनी बिखरी हुई शक्तियों का संचय कर रहा था औ

8

रंगभूमि अध्याय 8

4 फरवरी 2022
0
0
0

सोफ़िया को इंदु के साथ रहते चार महीने गुजर गए। अपने घर और घरवालों की याद आते ही उसके हृदय में एक ज्वाला-सी प्रज्वलित हो जाती थी। प्रभु सेवक नित्यप्रति उससे एक बार मिलने आता; पर कभी उससे घर का कुशल-समा

9

रंगभूमि अध्याय 9

4 फरवरी 2022
1
0
0

सोफ़िया इस समय उस अवस्था में थी, जब एक साधारण हँसी की बात, एक साधारण आँखों का इशारा, किसी का उसे देखकर मुस्करा देना, किसी महरी का उसकी आज्ञा का पालन करने में एक क्षण विलम्ब करना, ऐसी हजारों बातें, जो

10

रंगभूमि अध्याय 10

4 फरवरी 2022
0
0
0

बालकों पर प्रेम की भाँति द्वेष का असर भी अधिक होता है। जबसे मिठुआ और घीसू को मालूम हुआ था कि ताहिर अली हमारा मैदान जबरदस्ती ले रहे हैं, तब से दोनों उन्हें अपना दुश्मन समझते थे। चतारी के राजा साहब और स

11

रंगभूमि अध्याय 11

4 फरवरी 2022
0
0
0

भैरों पासी अपनी माँ का सपूत बेटा था। यथासाधय उसे आराम से रखने की चेष्टा करता रहता था। इस भय से कि कहीं बहू सास को भूखा न रखे, वह उसकी थाली अपने सामने परसा लिया करता था और उसे अपने साथ ही बैठाकर खिलाता

12

रंगभूमि अध्याय 12

4 फरवरी 2022
0
0
0

प्रभु सेवक ताहिर अली के साथ चले, तो पिता पर झल्लाए हुए थे-यह मुझे कोल्हू का बैल बनाना चाहते हैं। आठों पहर तम्बाकू ही के नशे में डूबा पड़ा रहूँ, अधिकारियों की चौखट पर मस्तक रगड़ूँ, हिस्से बेचता फिरूँ,

13

रंगभूमि अध्याय 13

4 फरवरी 2022
0
0
0

विनयसिंह के जाने के बाद सोफ़िया को ऐसा प्रतीत होने लगा कि रानी जाह्नवी मुझसे खिंची हुई हैं। वह अब उसे पुस्तकें तथा पत्र पढ़ने या चिट्ठियाँ लिखने के लिए बहुत कम बुलातीं; उसके आचार-व्यवहार को संदिग्ध दृ

14

रंगभूमि अध्याय 14

4 फरवरी 2022
0
0
0

सोफ़िया को होश आया तो वह अपने कमरे में चारपाई पर पड़ी हुई थी। कानों में रानी के अंतिम शब्द गूँज रहे थे-क्या यही सत्य की मीमांसा है? वह अपने को इस समय इतनी नीच समझ रही थी कि घर का मेहतर भी उसे गालियाँ

15

रंगभूमि अध्याय 15

4 फरवरी 2022
0
0
0

राजा महेंद्रकुमार सिंह यद्यपि सिध्दांत के विषय में अधिकारियों से जौ-भर भी न दबते थे; पर गौण विषयों में वह अनायास उनसे विरोध करना व्यर्थ ही नहीं, जाति के लिए अनुपयुक्त भी समझते थे। उन्हें शांत नीति पर

16

रंगभूमि अध्याय 16

4 फरवरी 2022
0
0
0

अरावली की पहाड़ियों में एक वट-वृक्ष के नीचे विनयसिंह बैठे हुए हैं। पावस ने उस जन-शून्य, कठोर, निष्प्रभ, पाषाणमय स्थान को प्रेम,प्रमोद और शोभा से मंडित कर दिया है, मानो कोई उजड़ा हुआ घर आबाद हो गया हो।

17

रंगभूमि अध्याय 17

4 फरवरी 2022
0
0
0

विनयसिंह छ: महीने से कारागार में पड़े हुए हैं। न डाकुओं का कुछ पता मिलता है और न उन पर अभियोग चलाया जाता है। अधिकारियों को अब भी भ्रम है कि इन्हीं के इशारे से डाका पड़ा था। इसीलिए वे उन पर नाना प्रकार

18

रंगभूमि अध्याय 18

4 फरवरी 2022
0
0
0

सोफ़िया घर आई, तो उसके आत्मगौरव का पतन हो चुका था; अपनी ही निगाहों में गिर गई थी। उसे अब न रानी पर क्रोध था, न अपने माता-पिता पर। केवल अपनी आत्मा पर क्रोध था, जिसके हाथों उसकी इतनी दुर्गति हुई थी, जिस

19

रंगभूमि अध्याय 19

4 फरवरी 2022
0
0
0

सोफ़िया अपनी चिंताओं में ऐसी व्यस्त हो रही थी कि सूरदास को बिल्कुल भूल-सी गई थी। उसकी फरियाद सुनकर उसका हृदय काँप उठा। इस दीन प्राणी पर इतना घोर अत्याचार! उसकी दयालु प्रकृति यह अन्याय न सह सकी। सोचने

20

रंगभूमि अध्याय 20

4 फरवरी 2022
0
0
0

मि. क्लार्क ने मोटर से उतरते ही अरदली को हुक्म दिया-डिप्टी साहब को फौरन हमारा सलाम दो। नाजिर, अहलमद और अन्य कर्मचारियों को भी तलब किया गया। सब-के-सब घबराए-यह आज असमय क्यों तलबी हुई, कोई गलती तो नहीं प

21

रंगभूमि अध्याय 22

4 फरवरी 2022
0
0
0

सैयद ताहिर अली को पूरी आशा थी कि जब सिगरेट का कारखाना बनना शुरू हो जाएगा, तो मेरी कुछ-न-कुछ तरक्की हो जाएगी। मि. सेवक ने उन्हें इसका वचन दिया था। इस आशा के सिवा उन्हें अब तक ऋणों को चुकाने का कोई उपाय

22

रंगभूमि अध्याय 23

4 फरवरी 2022
0
0
0

अब तक सूरदास शहर में हाकिमों के अत्याचार की दुहाई देता रहा, उसके मुहल्ले वाले जॉन सेवक के हितैषी होने पर भी उससे सहानुभूति करते रहे। निर्बलों के प्रति स्वभावत: करुणा उत्पन्न हो जाती है। लेकिन सूरदास क

23

रंगभूमि अध्याय 24

4 फरवरी 2022
0
0
0

सूरदास की जमीन वापस दिला देने के बाद सोफ़िया फिर मि. क्लार्क से तन गई। दिन गुजरते जाते थे और वह मि. क्लार्क से दूरतर होती जाती थी। उसे अब सच्चे अनुराग के लिए अपमान, लज्जा, तिरस्कार सहने की अपेक्षा कृत

24

रंगभूमि अध्याय 25

4 फरवरी 2022
0
0
0

साल-भर तक राजा महेंद्रकुमार और मिस्टर क्लार्क में निरंतर चोटें चलती रहीं। पत्र का पृष्ठ रणक्षेत्र था और शृंखलित सूरमों की जगह सूरमों से कहीं बलवान् दलीलें। मनों स्याही बह गई, कितनी ही कलमें काम आईं। द

25

रंगभूमि अध्याय 26

4 फरवरी 2022
0
0
0

अरावली की हरी-भरी झूमती हुई पहाड़ियों के दामन में जसवंतनगर यों शयन कर रहा है, जैसे बालक माता की गोद में। माता के स्तन से दूध की धारें, प्रेमोद्गार से विकल, उबलती, मीठे स्वरों में गाती निकलती हैं और बा

26

रंगभूमि अध्याय 27

4 फरवरी 2022
0
0
0

नायकराम मुहल्लेवालों से बिदा होकर उदयपुर रवाना हुए। रेल के मुसाफिरों को बहुत जल्द उनसे श्रध्दा हो गई। किसी को तम्बाकू मलकर खिलाते, किसी के बच्चे को गोद में लेकर प्यार करते। जिस मुसाफिर को देखते, जगह न

27

रंगभूमि अध्याय 28

4 फरवरी 2022
0
0
0

सोफिया के चले जाने के बाद विनय के विचार-स्थल में भाँति-भाँति की शंकाएँ होने लगीं। मन एक भीरु शत्रु है, जो सदैव पीठ के पीछे से वार करता है। जब तक सोफी सामने बैठी थी, उसे सामने आने का साहस न हुआ। सोफी क

28

रंगभूमि अध्याय 29

4 फरवरी 2022
0
0
0

मिस्टर विलियम क्लार्क अपने अन्य स्वदेश-बंधुओं की भाँति सुरापान के भक्त थे, पर उसके वशीभूत न थे। वह भारतवासियों की भाँति पीकर छकना न जानते थे। घोड़े पर सवार होना जानते थे, उसे काबू से बाहर न होने देते

29

रंगभूमि अध्याय 30

4 फरवरी 2022
0
0
0

शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्यि भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहान

30

रंगभूमि अध्याय 31

4 फरवरी 2022
0
0
0

भैरों के घर से लौटकर सूरदास अपनी झोंपड़ी में आकर सोचने लगा, क्या करूँ कि सहसा दयागिरि आ गए और बोले-सूरदास, आज तो लोग तुम्हारे ऊपर बहुत गरम हो रहे हैं, इसे घमंड हो गया है। तुम इस माया-जाल में क्यों पड़

31

रंगभूमि अध्याय 32

4 फरवरी 2022
0
0
0

सूरदास के मुकदमे का फैसला सुनने के बाद इंद्रदत्ता चले, तो रास्ते में प्रभु सेवक से मुलाकात हो गई। बातें होने लगी। इंद्रदत्ता-तुम्हारा क्या विचार है, सूरदास निर्दोष है या नहीं? प्रभु सेवक-सर्वथा निर्

32

रंगभूमि अध्याय 33

4 फरवरी 2022
0
0
0

फैक्टरी करीब-करीब तैयार हो गई थी। अब मशीनें गड़ने लगीं। पहले तो मजदूर-मिस्त्री आदि प्राय: मिल के बरामदों ही में रहते थे, वहीं पेड़ों के नीचे खाना पकाते और सोते; लेकिन जब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई, तो मु

33

रंगभूमि अध्याय 34

4 फरवरी 2022
0
0
0

प्रभु सेवक ने घर आते ही मकान का जिक्र छेड़ दिया। जान सेवक यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए कि अब इसने कारखाने की ओर धयान देना शुरू किया। बोले-हाँ, मकानों का बनना बहुत जरूरी है। इंजीनियर से कहो, एक नक्शा बनाए

34

रंगभूमि अध्याय 35

4 फरवरी 2022
0
0
0

विनयसिंह आबादी में दाखिल हुए, तो सबेरा हो गया था। थोड़ी दूर चले थे कि एक बुढ़िया लाठी टेकती सामने से आती हुई दिखाई दी। इन्हें देखकर बोली-बेटा, गरीब हूँ। बन पडे, तो कुछ दे दो। धरम होगा। नायकराम-सवेरे

35

रंगभूमि अध्याय 36

4 फरवरी 2022
0
0
0

मिस्टर जॉन सेवक ने ताहिर अली की मेहनत और ईमानदारी से प्रसन्न होकर खालों पर कुछ कमीशन नियत कर दिया था। इससे अब उनकी आय अच्छी हो गई थी, जिससे मिल के मजदूरों पर उनका रोब था, ओवरसियर और छोटे-छोटे क्लर्क उ

36

रंगभूमि अध्याय 37

4 फरवरी 2022
0
0
0

प्रभु सेवक बड़े उत्साही आदमी थे। उनके हाथ से सेवक-दल में एक नई सजीवता का संचार हुआ। संख्या दिन-दिन बढ़ने लगी। जो लोग शिथिल और उदासीन हो रहे थे, फिर नए जोश से काम करने लगे। प्रभु सेवक की सज्जनता और सहृ

37

रंगभूमि अध्याय 38

4 फरवरी 2022
0
0
0

सोफिया और विनय रात-भर तो स्टेशन पर पड़े रहे। सबेरे समीप के गाँव में गए, जो भीलों की एक छोटी-सी बस्ती थी। सोफिया को यह स्थान बहुत पसंद आया। बस्ती के सिर पर पहाड़ का साया था, पैरों के नीचे एक पहाड़ी नाल

38

रंगभूमि अध्याय 40

4 फरवरी 2022
0
0
0

मिल के तैयार होने में अब बहुत थोड़ी कसर रह गई थी। बाहर से तम्बाकू की गाड़ियाँ लदी चली आती थीं। किसानों को तम्बाकू बोने के लिए दादनी दी जा रही थी। गवर्नर से मिल को खोलने की रस्म अदा करने के लिए प्रार्थ

39

रंगभूमि अध्याय 41

4 फरवरी 2022
0
0
0

प्रभु सेवक ने तीन वर्ष अमेरिका में रहकर और हजारों रुपये खर्च करके जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया था, वह मि. जॉन सेवक ने उनकी संगति से उतने ही महीनों में प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं, प्रभु सेवक की भा

40

रंगभूमि अध्याय 42

4 फरवरी 2022
0
0
0

अदालत ने अगर दोनों युवकों को कठिन दंड दिया, तो जनता ने भी सूरदास को उससे कम कठिन दंड न दिया। चारों ओर थुड़ी-थुड़ी होने लगी। मुहल्लेवालों का तो कहना ही क्या, आस-पास के गाँववाले भी दो-चार खोटी-खरी सुना

41

रंगभूमि अध्याय 43

4 फरवरी 2022
0
0
0

सोफिया के धार्मिक विचार, उसका आचार-व्यवहार, रहन-सहन, उसकी शिक्षा-दीक्षा, ये सभी बातें ऐसी थीं, जिनसे एक हिंदू महिला को घृणा हो सकती थी। पर इतने दिनों के अनुभव ने रानीजी की सभी शंकाओं का समाधान कर दिया

42

रंगभूमि अध्याय 44

4 फरवरी 2022
0
0
0

गंगा से लौटते दिन के नौ बज गए। हजारों आदमियों का जमघट, गलियाँ तंग और कीचड़ से भरी हुई, पग-पग पर फूलों की वर्षा, सेवक-दल का राष्ट्रीय संगीत, गंगा तक पहुँचते-पहुँचते ही सबेरा हो गया था। लौटते हुए जाह्नव

43

रंगभूमि अध्याय 45

4 फरवरी 2022
0
0
0

पाँड़ेपुर में गोरखे अभी तक पड़ाव डाले हुए थे। उनके उपलों के जलने से चारों तरफ धुआँ छाया हुआ था। उस श्यामावरण में बस्ती के ख्रडहर भयानक मालूम होते थे। यहाँ अब भी दिन में दर्शकों की भीड़ रहती थी। नगर मे

44

रंगभूमि अध्याय 46

4 फरवरी 2022
0
0
0

चारों आदमी शफाखाने पहुँचे, तो नौ बज चुके थे। आकाश निद्रा में मग्न, आँखें बंद किए पड़ा हुआ था, पर पृथ्वी जाग रही थी। भैरों खड़ा सूरदास को पंखा झल रहा था। लोगों को देखते ही उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे।

45

रंगभूमि अध्याय 47

4 फरवरी 2022
0
0
0

संधया हो गई थी। मिल के मजदूर छुट्टी पा गए थे। आजकल दूनी मजदूरी देने पर भी बहुत थोड़े मजदूर काम करने आते थे। पाँड़ेपुर में सन्नाटा छाया हुआ था। वहाँ अब मकानों के भग्नावशेष के सिवा कुछ नजर न आता था। हाँ

46

रंगभूमि अध्याय 48

4 फरवरी 2022
0
0
0

काशी के म्युनिसिपल बोर्ड में भिन्न-भिन्न राजनीतिक सम्प्रदायों के लोग मौजूद थे। एकवाद से लेकर जनसत्तावाद तक सभी विचारों के कुछ-न-कुछ आदमी थे। अभी तक धन का प्राधान्य नहीं था, महाजनों और रईसों का राज्य थ

47

रंगभूमि अध्याय 49

4 फरवरी 2022
0
0
0

इधर सूरदास के स्मारक के लिए चंदा जमा किया जा रहा था, उधर कुलियों के टोले में शिलान्यास की तैयारियाँ हो रही थीं। नगर के गण्यमान्य पुरुष निमंत्रित हुए थे। प्रांत के गवर्नर से शिला-स्थापना की प्रार्थना क

48

रंगभूमि अध्याय 50

4 फरवरी 2022
0
0
0

कुँवर विनयसिंह की वीर मृत्यु के पश्चात रानी जाह्नवी का सदुत्साह दुगुना हो गया। वह पहले से कहीं ज्यादा क्रियाशील हो गईं। उनके रोम-रोम में असाधारण स्फूर्ति का विकास हुआ। वृध्दावस्था की आलस्यप्रियता यौवन

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए