shabd-logo

रंगभूमि अध्याय 31

4 फरवरी 2022

14 बार देखा गया 14

भैरों के घर से लौटकर सूरदास अपनी झोंपड़ी में आकर सोचने लगा, क्या करूँ कि सहसा दयागिरि आ गए और बोले-सूरदास, आज तो लोग तुम्हारे ऊपर बहुत गरम हो रहे हैं, इसे घमंड हो गया है। तुम इस माया-जाल में क्यों पड़े हो। क्यों नहीं मेरे साथ कहीं तीर्थयात्रा करने चलते?
सूरदास-यही तो मैं भी सोच रहा हूँ। चलो, तो मैं भी निकल पडूँ।
दयागिरि-हाँ, चलो, तब मैं मंदिर का कुछ ठिकाना कर लूँ। यहाँ कोई नहीं, जो मेरे पीछे यहाँ दिया-बत्ती तक कर दे, भोग-भाग लगाना तो दूर रहा।
सूरदास-तुम्हें मंदिर से कभी छुट्टी न मिलेगी।
दयागिरि-भाई, यह भी नहीं होता कि मंदिर को यों ही निराधार छोड़कर चला जाऊँ, फिर न जाने कब लौटूँ, तब तक तो यहाँ घास जम जाएगा।
सूरदास-तो जब तुम आप ही अभी माया में फँसे हुए हो, तो मेरा उध्दार क्या करोगे?
दयागिरि-नहीं, अब जल्दी ही चलूँगा। जरा पूजा के लिए फूल लेता आऊँ।
दयागिरि चले गए तो सूरदास फिर सोच में पड़ा-संसार की भी क्या लीला है कि होम करते हाथ जलते हैं। मैं तो नेकी करने गया था,उसका यह फल मिला। मुहल्लेवालों को विश्वास आ गया। बुरी बातों पर लोगों को कितनी जल्दी विश्वास आ जाता है! मगर नेकी-बदी कभी छिपी नहीं रहती। कभी-न-कभी तो असली बात मालूम हो ही जाएगी। हार जीत तो जिंदगानी के साथ लगी हुई है, कभी जीतूँगा, तो कभी हारूँगा, इसकी चिंता ही क्या? अभी कल बड़े-बड़ों से जीता था, आज जीत में भी हार गया। यह तो खेल में हुआ ही करता है। वह बेचारी सुभागी कहाँ जाएगी? मुहल्लेवाले तो अब उसे यहाँ रहने न देंगे, और रहेगी किसके आधार पर? कोई अपना तो हो। मैके में भी कोई नहीं है। जवान औरत अकेली कहीं रह भी नहीं सकती। जमाना खराब आया हुआ है, उसकी आबरू कैसे बचेगी? भैरो को कितना चाहती है?समझती थी कि मैं उसे मारने गया हूँ; उसे सावधान रहने के लिए कितना जोर दे रही थी! वह तो इतना प्रेम करती है, और भैरों का कभी मुँह ही सीधा नहीं होता, अभागिनी है और क्या। कोई दूसरा आदमी होता, तो उसके चरन धो-धोकर पीता; पर भैरों को जब देखो, उस पर तलवार ही खींचे रहता है। मैं कहीं चला गया, तो उसका कोई पुछत्तार भी न रहेगा। मुहल्ले के लोग उसकी छीछालेदर होते देखेंगे, और हँसेंगे! कहीं-न-कहीं डूब मरेगी, कहाँ तक संतोष करेगी। इस आँखोंवाले अंधो भैरों को तनिक भी खयाल नहीं कि मैं इसे निकाल दँगा, तो कहाँ जाएगी। कल को मुसलमान या किरिसतान हो जाएगी, तो सारे शहर में हलचल पड़ जाएगी; पर अभी उसके आदमी को कोई समझानेवाला नहीं। कहीं भरतीवालों के हाथ पड़ गई, तो पता भी न लगेगा कि कहाँ गई। सभी लोग जानकर अनजान बनते हैं।

वह यही सोचता-विचारता सड़क की ओर चला गया कि सुभागी आकर बोली-सूरे, मैं कहाँ रहूँगी?
सूरदास ने कृत्रिाम उदासीनता से कहा-मैं क्या जानूँ, कहाँ रहोगी! अभी तू ही तो भैरों से कह रही थी कि लाठी लेकर जाओ। तू क्या यह समझती थी कि मैं भैरों को मारने गया हूँ?
सुभागी-हाँ, सूरे, झूठ क्यों बोलूँ? मुझे यह खटका तो हुआ था।
सूरदास-जब तेरी समझ में मैं इतना बुरा हूँ, तो फिर मुझसे क्यों बोलती है? अगर वह लाठी लेकर आता और मुझे मारने लगता, तो तू तमासा देखती और हँसती, क्यों तुझसे तो भैरों ही अच्छा कि लाठी-लबेद लेकर नहीं आया। जब तूने मुझसे बैर ठान रखा है, तो मैं तुझसे क्यों न बैर ठानूँ?
सुभागी-(रोती हुई) सूरे, तुम भी ऐसा कहोगे, तो यहाँ कौन है, जिसकी आड़ में मैं छिन-भर भी बैठूँगी। उसने अभी मारा है, मगर पेट नहीं भरा, कह रहा है कि जाकर पुलिस में लिखाए देता हूँ। मेरे कपड़े-लत्तो सब बाहर फेंक दिए हैं। इस झोंपड़ी के सिवा अब मुझे और कहीं सरन नहीं।
सूरदास-मुझे भी अपने साथ मुहल्ले से निकलवाएगी क्या?
सुभागी-तुम जहाँ जाओगे, मैं तुम्हारे साथ चलूँगी।
सूरदास-तब तो तू मुझे कहीं मुँह दिखाने लायक न रखेगी। सब यही कहेंगे कि अंधा उसे बहकाकर ले गया।
सुभागी-तुम तो बदनामी से बच जाओगे, लेकिन मेरी आबरू कैसे बचेगी? है कोई मुहल्ले में ऐसा, जो किसी की इज्जत-आबरू जाते देखे,तो उसकी बाँह पकड़ ले? यहाँ तो एक टुकड़ा रोटी भी माँगूँ, तो न मिले। तुम्हारे सिवा अब मेरे और कोई नहीं है। पहले मैं तुम्हें आदमी समझती थी, अब देवता समझती हूँ। चाहो तो रहने दो; नहीं तो कह दो, कहीं मुँह में कालिख लगाकर जा मरूँ।
सूरदास ने देर तक चिंता में मग्न रहने के बाद कहा-सुभागी, तू आप समझदार है, जैसा जी आए, कर। मुझे तेरा खिलाना-पहनाना भारी नहीं है। अभी शहर में इतना मान है कि जिसके द्वार पर खड़ा हो जाऊँगा, वह नाहीं न करेगा। लेकिन मेरा मन कहता है कि तेरे यहाँ रहने से कल्याण न होगा। हम दोनों ही बदनाम हो जाएँगे। मैं तुझे अपनी बहन समझता हूँ, लेकिन अंधा संसार तो किसी की नीयत नहीं देखता। अभी तूने देखा, लोग कैसी-कैसी बातें करते रहे। पहले भी गाली उठ चुकी है। जब तू खुल्लमखुल्ला मेरे घर में रहेगी, तब तो अनरथ ही हो जाएगा। लोग गरदन काटने पर उतारू हो जाएँगे। बता, क्या करूँ?
सुभागी-जो चाहो करो, पर मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी।
सूरदास-यही तेरी मरजी, तो यही सही। मैं सोच रहा था, कहीं चला जाऊँ। न आँखों देखूँगा, न पीर होगी; लेकिन तेरी बिपत देखकर अब जाने की इच्छा नहीं होती। आ, पड़ी रह। जैसी कुछ सिर पर आएगी देखी जाएगी। तुझे मँझधार में छोड़ देने से बदनाम होना अच्छा है।
यह कहकर सूरदास भीख माँगने चला गया। सुभागी झोंपड़ी में आ बैठी। देखा, तो उस मुख्तसर घर की मुख्तसर गृहस्थी इधर-उधर फैली हुई थी। कहीं लुटिया औंधी पड़ी थी, कहीं घड़े लुढ़के हुए थे। महीनों से अंदर सफाई न हुई थी, जमीन पर मानो धूल बैठी हुई थी। फूस के छप्पर में मकड़ियों ने जाले लगा लिए थे। एक चिड़िया का घोंसला भी बन गया था। सुभागी सारे दिन झोंपड़े की सफाई करती रही। शाम को वही घर जो 'बिन घरनी घर भूत का डेरा' को चरितार्थ कर रहा था, साफ-सुथरा, लिपा-पुता नजर आता था कि उसे देखकर देवतों को रहने के लिए जी ललचाए। भैरों तो अपनी दूकान में चला गया था, सुभागी घर जाकर अपनी गठरी उठा लाई। सूरदास संधया समय लौटा, तो सुभागी ने थोड़ा-सा चबेना उसे जल-पान करने को दिया, लुटिया में पानी लाकर रख दिया और अंचल से हवा करने लगी। सूरदास को अपने जीवन में कभी यह सुख और शांति न नसीब हुई थी। गृहस्थी के दुर्लभ आनंद का उसे पहली बार अनुभव हुआ। दिन-भर सड़क के किनारे लू और लपट में जलने के बाद यह सुख उसे स्वर्गोपम जान पड़ा। एक क्षण के लिए उसके मन में एक नई इच्छा अंकुरित हो आई। सोचने लगा-मैं कितना अभागा हूँ। काश, यह मेरी स्त्री होती, तो कितने आनंद से जीवन व्यतीत होता! अब तो भैरों ने इसे घर से निकाल ही दिया; मैं रख लूँ, तो इसमें कौन-सी बुराई है! इससे कहूँ कैसे, न जाने अपने दिल में क्या सोचे। मैं अंधा हूँ, तो क्या आदमी नहीं हूँ! बुरा तो न मानेगी? मुझसे इसे प्रेम न होता, तो मेरी इतना सेवा क्यों करती?
मनुष्य-मात्र को, जीव-मात्र को, प्रेम की लालसा रहती है। भोग-लिप्सु प्राणियां में यह वासना का प्रकट रूप है, सरल हृदयहीन प्राणियों में शांति-भोग का।
सुभागी ने सूरदास की पोटली खोली, तो उसमें गेहूँ का आटा निकला, थोड़ा-सा चावल, कुछ चने और तीन आने पैसे। सुभागी बनिये के यहाँ से दाल लाई और रोटियाँ बनाकर सूरदास को भोजन करने को बुलाया।
सूरदास-मिठुआ कहाँ है?
सुभागी-क्या जानूँ, कहीं खेलता होगा। दिन में एक बार पानी पीने आया था, मुझे देखकर चला गया।
सूरदास-तुझसे सरमाता होगा। देख, मैं उसे बुलाए लाता हूँ।
यह कहकर सूरदास बाहर जाकर मिठुआ को पुकारने लगा। मिठुआ और दिन जब जी चाहता, घर में जाकर दाना निकाल लाता, भुनवाकर खाता; आज सारे दिन भूखों मरा। इस वक्त मंदिर में प्रसाद के लालच में बैठा हुआ था। आवाज सुनते ही दौड़ा। दोनों खाने बैठे। सुभागी ने सूरदास के सामने चावल और रोटियाँ रख दीं और मिठुआ के सामने सिर्फ चावल। आटा बहुत कम था, केवल दो रोटियाँ बन सकी थीं।
सूरदास ने कहा-मिट्ठू, और रोटी लोगे?
मिटठ्-मुझे तो रोटी मिली ही नहीं।
सूरदास-तो मुझसे ले लो। मैं चावल ही खा लूँगा।
यह कहकर सूरदास ने दोनों रोटियाँ मिट्ठू को दे दीं। सुभागी क्रुध्द होकर मिट्ठू से बोली-दिन-भर साँड की तरह फिरते हो, कहीं मजूरी क्यों नहीं करते? इसी चक्कीघर में काम करो, तो पाँच-छ: आने रोज मिलें।
सूरदास-अभी वह कौन काम करने लायक है। इसी उमिर में मजूरी करने लगेगा, तो कलेजा टूट जाएगा!
सुभागी-मजूरों के लड़कों का कलेज इतना नरम नहीं होता। सभी तो काम करने जाते हैं, किसी का कलेजा नहीं टूटता।
सूरदास-जब उसका जी चाहेगा, आप काम करेगा।
सुभागी-जिसे बिना हाथ-पैर हिलाए खाने को मिल जाए, उसकी बला काम करने जाती है।
सूरदास-ऊँह, मुझे कौन किसी रिन-धन का सोच है। माँगकर लाता हूँ, खाता हूँ। जिस दिन पौरुख न चलेगा, उस दिन देखी जाएगी। उसकी चिंता अभी से क्यों करूँ?
सुभागी-मैं इसे काम पर भेजूँगी। देखूँ, कैसे नहीं जाता। यह मुटरमरदी है कि अंधा माँगे और आँखवाले मुसंडे बैठे खाएँ। सुनते हो मिट्ठू,कल से काम करना पड़ेगा।
मिट्ठू-तेरे कहने से न जाऊँगा; दादा कहेंगे तो जाऊँगा।
सुभागी-मूसल की तरह घूमना अच्छा लगता है? इतना नहीं सूझता कि अंधा आदमी तो माँगकर लाता है, और मैं चैन से खाता हूँ। जनम-भर कुमार ही बने रहोगे?
मिट्ठू-तुझसे क्या मतलब, मेरा जी चाहेगा, जाऊँगा, न जी चाहेगा, न जाऊँगा।
इसी तरह दोनों में देर तक वाद-विवाद हुआ, यहाँ तक कि मिठुआ झल्लाकर चौके से उठ गया। सूरदास ने बहुत मनाया, पर वह खाने न बैठा। आखिर सूरदास भी आधा ही भोजन करके उठ गया।
जब वह लेटा, तो गृहस्थी का एक दूसरा चित्र उसके सामने था। यहाँ न वह शांति थी, न वह सुषमा, न वह मनोल्लास। पहले ही दिन यह कलह आरम्भ हुआ, बिस्मिल्लाह ही गलत हुई, तो आगे कौन जाने, क्या होगा। उसे सुभागी की यह कठोरता अनुचित प्रतीत होती थी। जब तक मैं कमाने को तैयार हूँ, लड़के पर क्यों गृहस्थी का बोझ डालूँ? जब मर जाऊँगा, तो उसके सिर पर जैसी पड़ेगी, वैसी झेलेगा।
वह अंकुर, वह नन्ही-सी आकांक्षा, जो संधया समय उसके हृदय में उगी थी, इस ताप के झोंके से जल गई, अंकुर सूख गया।
सुभागी को नई चिंता सवार हुई-मिठुआ को काम पर कैसे लगाऊँ? मैं कुछ उसकी लौंडी तो हूँ नहीं कि उसकी थाली धोऊँ, उसका खाना पकाऊँ और वह मटर-गस करे। मुझे भी कोई बिठाकर न खिलाएगा। मैं खाऊँ ही क्यों? जब सब काम करेंगे, तो यह क्यों छैला बना घूमेगा!
प्रात:काल जब वह झोंपड़ी से घड़ा लेकर पानी भरने निकली, तो घीसू की माँ ने देखकर छाती पर हाथ रख लिया और बोली-क्यों री, आज रात तू यहीं रही थी क्या?
सुभागी ने कहा-हाँ रही तो, फिर!
जमुनी-अपना घर नहीं था।
सुभागी-अब लात खाने की बूता नहीं है।
जमुनी-तो तू दो-चार सिर कटाकर तब चैन लेगी? इस अंधो की भी मत मारी गई है कि जान-बूझकर साँप के मुँह में उँगली देता है। भैरों गला काट लेनेवाले आदमी हैं। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है, चली जा घर।
सुभागी-उस घर में तो अब पाँव न रखूँगी, चाहे कोई मार डाले। सूरे में इतनी दया तो है कि डूबते हुए की बाँह पकड़ ली; और दूसरा यहाँ कौन है?
जमुनी-जिस घर में कोई मेहरिया नहीं, वहाँ तेरा रहना अच्छा नहीं।
सुभागी-जानती हूँ, पर किसके घर जाऊँ? तुम्हारे घर आऊँ, रहने दोगी? जो कुछ करने को कहोगी, करूँगी, गोबर पाथूँगी, भैंसों को घास-चारा दूँगी, पानी डालूँगी, तुम्हारा आटा पिसूँगी। रखोगी?
जमुनी-न बाबा, यहाँ कौन बैठे-बिठाए रार मोल ले! अपना खिलाऊँ भी, उस पर बद्दू भी बनूँ।
सुभागी-रोज गाली-मार खाया करूँ?
जमुनी-अपना मरद है, मारता ही है, तो क्या घर छोड़कर कोई निकल जाता है?
सुभागी-क्यों बहुत बढ़-बढ़कर बात करती हो जमुनी! मिल गया है बैल, जिस कल चाहती हो, बैठाती हो। रात-दिन डंडा लिए सिर पर सवार रहता, तो देखती कि कैसे घर में रहती। अभी उस दिन दूध में पानी मिलाने के लिए मारने उठा था, तो चादर लेकर मैके भागी जाती थी। दूसरों को उपदेश करना सहज नहीं है। जब अपने सिर पड़ती है, तो आँखें खुल जाती हैं।
यह कहती हुई सुभागी कुएँ पर पानी भरने चली गई। यहाँ भी उसने टीकाकारों को ऐसा ही अक्खड़ जवाब दिया। पानी लाकर बर्तन धोये,चौका लगाया और सूरदास को सड़क पर पहुँचाने चली गई। अब तक वह लाठी से टटोलता हुआ अकेले ही चला जाता था, लेकिन सुभागी से यह न देखा गया। अंधा आदमी है, कहीं गिर पड़े तो, लड़के ही दिक करते हैं। मैं बैठी ही तो हूँ। उससे फिर किसी ने कुछ न पूछा। यह स्थिर हो गया कि सूरदास ने उसे घर डाल लिया। अब व्यंग्य, निंदा, उपहास की गुंजाइश न थी। हाँ, सूरदास सबकी नजरों में गिर गया। लोग कहते-रुपये न लौटा देता, तो क्या करता। डर होगा कि सुभागी एक दिन भैरों से कह ही देगी, मैं पहले ही से क्यों न चौकन्ना हो जाऊँ। मगर सुभागी क्यों अपने घर से रुपये उड़ा ले गई? वाह! इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है? भैरों उसे रुपये-पैसे नहीं देता। मालकिन तो बुढ़िया है। सोचा होगा, रुपये उड़ा लूँ, मेरे पास कुछ पूँजी तो हो जाएगी, अपने पास कहाँ। कौन जाने, दोनों में पहले ही से साठ-गाँठ रही हो। सूरे को भला आदमी समझकर उसके पास रख आई हो। या सूरदास ने रुपये उठवा लिए हों, फिर लौटा आया हो कि इस तरह मेरा भरम बना रहेगा। अंधो पेट के बड़े गहरे होते हैं, इन्हें बड़ी दूर की सूझती है।
इस भाँति कई दिनों तक गद्देबाजियाँ हुईं।
परंतु लोगों में किसी विषय पर बहुत दिनों तक आलोचना करते रहने की आदत नहीं होती। न उन्हें इतना अवकाश होता है कि इन बातों में सिर खपाएँ, न इतनी बुध्दि ही कि इन गुत्थियों को सुलझाएँ। मनुष्य स्वभावत: क्रियाशील होते हैं, उनमें विवेचन-शक्ति कहाँ? सुभागी से बोलने-चालने, उसके साथ उठने-बैठने में किसी को आपत्तिा न रही; न कोई उससे कुछ पूछता, न आवाजें कसता। हाँ, सूरदास की मान-प्रतिष्ठा गायब हो गई। पहले मुहल्ले-भर में उसकी धाक थी, लोगों को उसकी हैसियत से कहीं अधिक उस पर विश्वास था। उसका नाम अदब के साथ लिया जाता था। अब उसकी गणना भी सामान्य मनुष्यों में होने लगी, कोई विशेषता न रही।
किंतु भैरों के हृदय में सदैव यह काँटा खटका करता था। वह किसी भाँति इस सजीव अपमान का बदला लेना चाहता था। दूकान पर बहुत कम जाता। अफसरों से शिकायत भी की गई कि यह ठेकेदार दूकान नहीं खोलता, ताड़ी-सेवियों को निराश होकर जाना पड़ता है। मादक वस्तु-विभाग के कर्मचारियों ने भैरों को निकाल देने की धमकी भी दी; पर उसने कहा, मुझे दूकान का डर नहीं, आप लोग जिसे चाहें रख लें। पर वहाँ कोई दूसरा पासी न मिला और अफसरों ने एक दूकान टूट जाने के भय से कोई सख्ती करनी उचित न समझी।
धीरे-धीरे भैरों की सूरदास ही से नहीं, मुहल्ले-भर से अदावत हो गई। उसके विचार में मुहल्लेवालों का यह धर्म था कि मेरी हिमायत के लिए खड़े हो जाते और सूरे को कोई ऐसा दंड देते कि वह आजीवन याद रखता-ऐसे मुहल्ले में कोई क्या रहे, जहाँ न्याय और अन्याय एक ही भाव बिकते हैं। कुकर्मियों से कोई बोलता ही नहीं। सूरदास अकड़ता हुआ चला जाता है। यह चुड़ैल आँखों में काजल लगाए फिरा करती है। कोई इन दोनों के मुँह में कालिख नहीं लगाता। ऐसे गाँव में तो आग लगा देनी चाहिए। मगर किसी कारण उसकी क्रियात्मक शक्ति शिथिल पड़ गई थी। वह मार्ग में सुभागी को देख लेता, तो कतराकर निकल जाता। सूरदास को देखता तो ओठ चबाकर रह जाता। वार करने की हिम्मत न होती। वह अब कभी मंदिर में भजन गाने न जाता; मेलों-तमाशों से भी उसे अरुचि हो गई, नशे का चस्का आप-ही-आप छूट गया। अपमान की तीव्र वेदना निरंतर होती रहती। उसने सोचा था, सुभागी मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाएगी, मेरे कलंक का दाग मिट जाएगा। मगर वह अभी तक वहाँ उसकी छाती पर मूँग ही नहीं दल रही थी, बल्कि उसी पुरुष के साथ विलास कर रही थी, जो उसका प्रतिद्वंद्वी था। सबसे बढ़कर दु:ख उसे इस बात का था कि मुहल्ले के लोग उन दोनों के साथ पहले ही का-सा व्यवहार करते थे, कोई उन्हें न रगेदता था, न लताड़ता था। उसे अपना अपमान सामने बैठा मुँह चिढ़ाता हुआ मालूम होता था। अब उसे गाली-गलौज से तस्कीन न हो सकती थी। वह इस फिक्र में था कि इन दोनों का काम तमाम कर दूँ। इस तरह मारूँ कि एड़ियाँ रगड़-रगड़कर मरें, पानी की बूँद भी न मिले। लेकिन अकेला आदमी क्या कर सकता है? चारों ओर निगाह दौड़ाता, पर कहीं से सहायता मिलने की आशा न दिखाई देती। मुहल्ले में ऐसे जीवट का कोई आदमी न था। सोचते-सोचते उसे खयाल आया कि अंधो ने चतारी के राजा साहब को बहुत बदनाम किया था। कारखानेवाले साहब को भी बदनाम करता फिरता था। इन्हीं लोगों से चलकर फरियाद करूँ। अंधो से दिल में तो दोनों खार खाते ही होंगे, छोटे के मुँह लगना अपनी मर्यादा के विरुध्द समझकर चुप रह गए होंगे। मैं जो सामने खड़ा हो जाऊँगा, तो मेरी आड़ से वे जरूर निशाना मारेंगे। बड़े आदमी हैं, वहाँ तक पहुँचना मुश्किल है; लेकिन जो कहीं मेरी पहुँच हो गई और उन्होंने मेरी सुन ली, तो फिर इन बच्चा की ऐसी खबर लेंगे कि सारा अंधापन निकल जाएगा। (अंधोपन के सिवा यहाँ और रखा ही क्या था।)
कई दिनों तक वह इसी हैस-बैस में पड़ा रहा कि उन लोगों के पास कैसे पहुँचूँ। जाने की हिम्मत न पड़ती थी। कहीं उलटे मुझी को मार बैठें, निकलवा दें तो और भी भद्द हो। आखिर एक दिन दिल मजबूत करके वह राजा साहब के मकान पर गया, और साईस के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया। साईस ने देखा, तो कर्कश कंठ से बोला-कौन हो! यहाँ क्या उचक्कों की तरह झाँक रहे हो?
भैरों ने बड़ी दीनता से कहा-भैया, डाँटो मत, गरीब-दुखी आदमी हूँ।
साईस-गरीब दुखियारे हो, तो किसी सेठ-साहूकार के घर जाते, यहाँ क्या रखा है?
भैरों-गरीब हूँ, लेकिन भिखमंगा नहीं हूँ। इज्जत-आबरू सभी की होती है। तुम्हारी ही बिरादरी में कोई किसी की बहू-बेटी को लेकर निकल जाए, तो क्या उसे पंचाइत यों ही छोड़ देगी? कुछ-न-कुछ दंड देगी ही। पंचाइत न देगी, तो अदालत-कचहरी से तो कुछ होगा।
साईस जात का चमार था, जहाँ ऐसी दुर्घटनाएँ आए दिन होती रहती हैं, और बिरादरी को उनकी बदौलत नशा-पानी का सामान हाथ आता रहता है। उसके घर में नित्य यही चर्चा रहती थी। इन बातों में उसे जितनी दिलचस्पी थी, उतनी और किसी बात से न हो सकती थी। बोला-आओ बैठो, चिलम पियो, कौन भाई हो?
भैरों-पासी हूँ, यहीं पाँडेपुर में रहता हूँ।
वह साईस के पास जा बैठा और दोनों में सायँ-सायँ बातें होने लगीं, मानो वहाँ कोई कान लगाए उनकी बातें सुन रहा हो। भैरों ने अपना सम्पूर्ण वृत्तांत सुनाया और कमर से एक रुपया निकालकर साईस के हाथ में रखता हुआ बोला-भाई, कोई ऐसी जुगुत निकालो कि राजा साहब के कानों में यह बात पड़ जाए। फिर तो मैं अपना सब हाल आप ही कह लूँगा। तुम्हारी दया से बोलने-चालने में ऐसा बुध्दू नहीं हूँ। दारोगा से तो कभी डरा ही नहीं।
साईस को रौप्य मुद्रा के दर्शन हुए, तो मगन हो गया। आज सबेरे-सबेरे अच्छी बोहनी हुई। बोला-मैं राजा साहब से तुम्हारी इत्ताला कराए देता हूँ। बुलाहट होगी, तो चले जाना। राजा साहब को घमंड तो छू ही नहीं गया। मगर देखना, बहुत देर न लगाना, नहीं तो मालिक चिढ़ जाएँगे। बस, जो कुछ कहना हो, साफ-साफ कह डालना। बड़े आदमियों को बातचीत करने की फुरसत नहीं रहती। मेरी तरह थोड़े ही हैं कि दिन-भर बैठे गप्पें लड़ाया करें।
यह कहकर वह चला गया। राजा साहब इस वक्त बाल बनवा रहे थे, जो उनका नित्य का नियम था। साईस ने पहुँचकर सलाम किया।
राजा-क्या कहते हो? मेरे पास तलब के लिए मत आया करो।
साईस-नहीं हुजूर, तलब के लिए नहीं आया था। वह जो सूरदास पाँडेपुर में रहता है।
राजा-अच्छा, वह दुष्ट अंधा!
साईस-हाँ हुजूर, वह एक औरत को निकाल ले गया है।
राजा-अच्छा! उसे तो लोग कहते थे, बड़ा भला आदमी है। अब यह स्वाँग रचने लगा!
साईस-हाँ हुजूर, उसका आदमी फरियाद करने आया है। हूकुम हो, तो लाऊँ।
राजा साहब ने सिर हिलाकर अनुमति दी और एक क्षण में भैरों दबकता हुआ आकर खड़ा हो गया।
राजा-तुम्हारी औरत है?
भैरों-हाँ हुजूर, अभी कुछ दिन पहले तो मेरी ही थी!
राजा-पहले से कुछ आमद-रफ्त थी?
भैरों-होगी सरकार, मुझे मालूम नहीं।
राजा-लेकर कहाँ चला गया?
भैरों-कहीं गया नहीं सरकार, अपने घर में है।
राजा-बड़ा ढीठ है। गाँववाले कुछ नहीं बोलते?
भैरों-कोई नहीं बोलता, हुजूर!
राजा-औरत को मारते बहुत हो?
भैरों-सरकार, औरत से भूल-चूक होती है, तो कौन नहीं मारता?
राजा-बहुत मारते हो कि कम?
भैरों-हुजूर, क्रोध में यह विचार कहाँ रहता है।
राजा-कैसी औरत है, सुंदर?
भैरों-हाँ, हुजूर, देखने-सुनने में बुरी नहीं है।
राजा-समझ में नहीं आता, सुंदर स्त्री ने अंधो को क्यों पसंद किया! ऐसा तो नहीं हुआ कि तुमने दाल में नमक ज्यादा हो जाने पर स्त्री को मारकर निकाल दिया हो और अंधो ने रख लिया हो?
भैरों-सरकार, औरत मेरे रुपये चुराकर सूरदास को दे आई। सबेरे सूरदास रुपये लौटा गया। मैंने चकमा देकर पूछा, तो उसने चोर को भी बता दिया। इस बात पर मारता न, तो क्या करता?
राजा-और कुछ हो, अंधा है दिल का साफ।
भैरों-हुजूर, नीयत का अच्छा नहीं।
यद्यपि महेंद्रकुमारसिंह बहुत न्यायशील थे और अपने कुत्सित मनोविचारों को प्रकट करने में बहुत सावधान रहते थे। ख्याति-प्रिय मनुष्य को प्राय: अपनी वाणी पर पूर्ण अधिकार होता है; पर वह सूरदास से इतने जले हुए थे, उसके हाथों इतनी मानसिक यातनाएँ पाई थीं कि इस समय अपने भावों को गुप्त न रख सके। बोले-अजी, उसने मुझे यहाँ इतना बदनाम किया कि घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। क्लार्क साहब ने जरा उसे मुँह क्या लगा लिया कि सिर चढ़ गया। यों मैं किसी गरीब को सताना नहीं चाहता, लेकिन यह भी नहीं देख सकता कि वह भले आदमियों के बाल नोचे। इजलास तो मेरा ही है, तुम उस पर दावा कर दो। गवाह मिल जाएँगे न?
भैरों-हुजूर, सारा मुहल्ला जानता है।
राजा-सबों को पेश करो। यहाँ लोग उसके भक्त हो गए हैं। समझते हैं, वह कोई ऋषि है। मैं उसकी कलई खोल देना चाहता हूँ। इतने दिनों बाद यह अवसर मेरे हाथ आया है। मैंने अगर अब तक किसी से नीचा देखा, तो इसी अंधो से। उस पर न पुलिस का जोर था, न अदालत का। उसकी दीनता और दुर्बलता उसका कवच बनी हुई थी। यह मुकदमा उसके लिए वह गहरा गङ्ढा होगा, जिसमें से वह निकल न सकेगा। मुझे उसकी ओर से शंका थी, पर एक बार जहाँ परदा खुला कि मैं निश्ंचित हुआ। विष के दाँत टूट जाने पर साँप से कौन डरता है? हो सके, तो जल्दी ही मुकदमा दायर कर दो।
किसी बड़े आदमी को रोते देखकर हमें उससे स्नेह हो जाता है। उसे प्रभुत्व से मंडित देखकर हम थोड़ी देर के लिए भूल जाते हैं कि वह भी मनुष्य है। हम उसे साधारण मानवीय दुर्बलताओं से रहित समझते हैं। वह हमारे लिए एक कुतूहल का विषय होता है। हम समझते हैं,वह न जाने क्या खाता होगा, न जाने क्या पीता होगा, न जाने क्या सोचता होगा, उसके दिल में सदैव ऊँचे-ऊँचे विचार आते होंगे, छोटी-छोटी बातों की ओर तो उसका धयान ही न जाता होगा-कुतूहल का परिष्कृत रूप ही आदर है। भैरों को राजा साहब के सम्मुख जाते हुए भय लगता था, लेकिन अब उसे ज्ञात हुआ कि यह भी हमीं-जैसे मनुष्य हैं। मानो उसे आज एक नई बात मालूम हुई। जरा बेधड़क होकर बोला-हुजूर, है तो अंधा, लेकिन बड़ा घमंडी है। आपने आगे तो किसी को समझता ही नहीं। मुहल्लेवाले जरा सूरदास-सूरदास कह देते हैं, तो बस, फूल उठता है। समझता है, संसार में जो कुछ हूँ, मैं ही हूँ। हुजूर, उसकी ऐसी सजा कर दें कि चक्की पीसते-पीसते दिन जाएँ। तब उसकी सेखी किरकिरी होगी।
राजा साहब ने त्योरी बदली। देखा, यह गँवार अब ज्यादा बहकने लगा। बोले-अच्छा, अब जाओ।
भैरों दिल में समझ रहा था, मैंने राजा साहब को अपनी मुट्ठी में कर लिया। अगर उसे चले जाने का हुक्म न मिला होता, तो एक क्षण में उसका 'हुजूर' 'आप' हो जाता। संधया तक उसकी बातों का ताँता न टूटता। वह न जाने कितनी झूठी बातें गढ़ता। पर-निंदा का मनुष्य की जिह्ना पर कभी इतना प्रभुत्व नहीं होता, जितना सम्पन्न पुरुषों के सम्मुख। न जानें क्यों हम उनकी कृपा-दृष्टि के इतने अभिलाषी होते हैं! हम ऐसे मनुष्यों पर भी, जिनसे हमारा लेश मात्र भी वैमनस्य नहीं है, कटाक्ष करने लगते हैं। कोई स्वार्थ की इच्छा न रखते हुए भी हम उनका सम्मान प्राप्त करना चाहते हैं। उनका विश्वासपात्र बनने की हमें एक अनिवार्य आंतरिक प्रेरणा होती है। हमारी वाणी उस समय काबू से बाहर हो जाती है।
भैरों यहाँ से कुछ लज्जित होकर निकला, पर उसे अब इसमें संदेह न था कि मनोकामना पूरी हो गई। घर आकर उसने बजरंगी से कहा-तुम्हें गवाही करनी पड़ेगी। निकल न जाना।
बजरंगी-कैसी गवाही?
भैरों-यही मेरे मामले की। इस अंधो की हेकड़ी अब नहीं देखी जाती। इतने दिनों तक सबर किए बैठा रहा कि अब भी वह सुभागी को निकाल दे, उसका जहाँ जी चाहे, चली जाए, मेरी आँखों के सामने से दूर हो जाए। पर देखता हूँ, तो दिन-दिन उसकी पेंग बढ़ती ही जाती है। अंधा छैला बना जाता है। महीनों देह पर पानी नहीं पड़ता था, अब नित्य स्नान करता है। वह पानी लाती है, उसकी धोती छाँटती है,उसके सिर में तेल मलती है। यह अँधेर नहीं देखा जाता।
बजरंगी-अँधेर तो है ही, आँखों से देख रहा हूँ। सूरे को इतना छिछोरा न समझता था। पर मैं कहीं गवाही-साखी करने न जाऊँगा।
जमुनी-क्यों कचहरी में कोई तुम्हारे कान काट लेगा?
बजरंगी-अपना मन है, नहीं जाते।
जमुनी-अच्छा तुम्हारा मन है! भैरों, तुम मेरी गवाही लिखा दो। मैं चलकर गवाही दूँगी। साँच को आँच क्या?
बजरंगी-(हंसकर) तू कचहरी जाएगी?
जमुनी-क्या करूँगी जब मरदों की वहाँ जाते चूड़ियाँ मैली होती हैं, तो औरत ही जाएगी। किसी तरह उस कसबिन के मुँह में कालिख तो लगे।
बजरंगी-भैरों, बात यह है कि सूरे ने बुराई जरूर की, लेकिन तुम भी तो अनीत ही पर चलते थे। कोई अपने घर के आदमी को इतनी बेदरदी से नहीं मारता। फिर तुमने मारा ही नहीं, मारकर निकाल भी दिया। जब गाय की पगहिया न रहेगी तो वह दूसरों के खेत में जाएगी ही। इसमें उसका क्या दोस?
जमुनी-तुम इन्हें बकने दो भैरों, मैं तुम्हारी गवाही करूँगी।
बजरंगी-तू सोचती होगी, यह धमकी देने से मैं कचहरी जाऊँगा; यहाँ इतने बुध्दू नहीं हैं। और, सच्ची बात तो यह है कि सूरे लाख बुरा हो,मगर अब भी हम सबों से अच्छा है। रुपयों की थैली लौटा देना कोई छोटी बात नहीं।
जमुनी-बस चुप रहो, मैं तुम्हें खूब समझती हूँ। तुम भी जाकर चार गाल हँस-बोल आते हो न, क्या इतनी यारी भी न निभाओगे! सुभागी को सजा हो गई, तो तुम्हें भी तो नजर लड़ाने को कोई न रहेगा।
बजरंगी यह लांछन सुनकर तिलमिला उठा। जमुनी उसका आसन पहचानती थी, बोला-मुँह में कीड़े पड़ जाएँगे।
जमुनी-तो फिर गवाही देते क्यों कोर दबती है?
बजरंगी-लिखा दो भैरों, मेरा नाम, यह चुडैल मुझे जीने न देगी। मैं अगर हारता हूँ, तो इसी से। पीठ में अगर धूल लगाती है, तो यह। नहीं तो यहाँ कभी किसी से दबकर नहीं चले। जाओ, लिखा दो।
भैरों यहाँ से ठाकुरदीन के पास गया और वही प्रस्ताव किया। ठाकुरदीन ने कहा-हाँ-हाँ, मैं गवाही करने को तैयार हूँ। मेरा नाम सबसे पहले लिखा दो। अंधो को देखकर मेरी तो अब आँखें फूटती हैं। अब मुझे मालूम हो गया कि उसे जरूर कोई सिध्दि है; नहीं तो क्या सुभागी उसके पीछे यों दौड़ी-दौड़ी फिरती।
भैरों-चक्की पीसेे, तो बचा को मालूम हो जाएगा।
ठाकुरदीन-ना भैया, उसका अकबाल भारी है, वह कभी चक्की न पीसेगा, वहाँ से भी बेदाग लौट आएगा। हाँ, गवाही देना मेरा धरम है, वह मैं दे दूँगा। जो आदमी सिध्दि से दूसरों को अनभल करे, उसकी गरदन काट लेनी चाहिए। न जाने क्यों भगवान् संसार में चोरों और पापियों को जन्म देते हैं। यही समझ लो कि जब से मेरी चोरी हुई, कभी नींद-भर नहीं सोया। नित्य वही चिंता बनी रहती है। यही खटका लगा रहता है कि कहीं फिर न वही नौबत आ जाए। तुम तो एक हिसाब से मजे में रहे कि रुपये सब मिल गए, मैं तो कहीं का न रहा।
भैरों-तो तुम्हारी गवाही पक्की रही?
ठाकुरदीन-हाँ, एक बार नहीं, सौ बार पक्की। अरे, मेरा बस चलता, तो इसे खोदकर गाड़ देता। यों मुझसे सीधा कोई नहीं है, लेकिन दुष्टों के हक में मुझसे टेढ़ा भी कोई नहीं है। इनको सजा दिलाने के लिए मैं झूठी गवाही देने को भी तैयार हूँ। मुझे तो अचरज होता है कि इस अंधो को क्या हो गया। कहाँ तो धरम-करम का इतना विचार, इतना परोपकार, इतना सदाचार, और कहाँ यह कुकर्म!
भैरों यहाँ से जगधर के पास गया, जो अभी खेचा बेचकर लौटा था और धोती लेकर नहाने जा रहा था।
भैरों-तुम भी मेरे गवाह हो न?
जगधर-तुम हक-नाहक सूरे पर मुकदमा चला रहे हो। सूरे निरपराध हैं।
भैरों-कसम खाओगे?
जगधर-हाँ, जो कसम कहो, खा जाऊँ। तुमने सुभागी को अपने घर से निकाल दिया, सूरे ने उसे अपने घर में जगह दे दी। नहीं तो अब तक वह न जाने किस घाट लगी होती। जवान औरत है, सुंदर है, उसके सैकड़ों गाहक हैं। सूरे ने तो उसके साथ नेकी की कि उसे कहीं बहकने नहीं दिया। अगर तुम फिर उसे घर में लाकर रखना चाहो, और वह उसे आने न दे, तुमसे लड़ने पर तैयार हो जाए, तब मैं कहूँगा कि उसका कसूर है। मैंने अपने कानों से उसे सुभागी को समझाते सुना है। वह आती ही नहीं, तो बेचारा क्या करे?
भैरों समझ गया कि यह एक लोटे जल से प्रसन्न हो जानेवाले देवता नहीं, इसे कुछ भेंट करनी पड़ेगी। उसकी लोभी प्रकृत्तिा से वह परिचित था।
बोला-भाई, मुआमला इज्जत का है। ऐसी उड़नझाइयाँ न बताओ। पड़ोसी का हक बहुत कुछ होता है; पर मैं तुमसे बाहर नहीं हूँ, जो कुछ दस-बीस कहो, हाजिर है। पर गवाही तुम्हें देनी पड़ेगी।
जगधर-भैरों, मैं बहुत नीच हूँ, लेकिन इतना नीच नहीं कि जान-सुनकर किसी भले आदमी को बेकसूर फँसाऊँ।
भैरों ने बिगड़कर कहा-तो क्या समझते हो कि तुम्हारे ही नाम खुदाई लिख गई है? जिस बात को सारा गाँव कहेगा, उसे एक तुम न कहोगे, तो क्या बिगड़ जाएगा? टिवी के रोके आँधी नहीं रुक सकती।
जगधर-तो भाई, उसे पीसकर पी जाओ। मैं कब कहता हूँ कि मैं उसे बचा लूँगा। हाँ, मैं उसे पीसने में तुम्हारी मदद न करूँगा।
भैरों तो उधर गया, इधर वही स्वार्थी, लोभी, ईष्यालु, कुटिल जगधर उसके गवाहों को फोड़ने का प्रयत्न करने लगा। उसे सूरदास से इतनी भक्ति न थी, जितनी भैरों से ईष्या। भैरों अगर किसी सत्कर्म में भी उसकी सहायता माँगता, तो भी वह इतनी ही तत्परता से उसकी उपेक्षा करता।
उसने बजरंगी के पास जाकर कहा-क्यों बजरंगी, तुम भी भैरों की गवाही कर रहे हो?
बजरंगी-हाँ, जाता तो हूँ।
जगधर-तुमने अपनी आँखों कुछ देखा है।
बजरंगी-कैसी बातें करते हो, रोज की देखता हूँ, कोई बात छिपी थोड़े ही है।
जगधर-क्या देखते हो? यही न कि सुभागी सूरदास के झोंपड़े में रहती है? अगर कोई एक अनाथ औरत का पालन करे, तो बुराई है?अंधो आदमी के जीवट का बखान तो न करोगे कि जो काम किसी से न हो सका, वह उसने कर दिखाया, उलटे उससे और बैर साधते हो। जानते हो, सूरदास उसे घर से निकाल देगा, तो उसकी क्या गत होगी? मुहल्ले की आबरू पुतलीघर के मजदूरों के हाथ बिकेगी। देख लेना। मेरा कहना मानो, गवाही-साखी के फेर में न पड़ो, भलाई के बदले बुराई हो जाएगी। भैरों तो सुभागी से इसलिए जल रहा है कि उसने उसके चुराए हुए रुपये सूरदास को क्यों लौटा दिए। बस, सारी जलन इसी की है। हम बिना जाने-बूझे क्यों किसी की बुराई करें? हाँ, गवाही देने ही जाते हो, तो पहले खूब पता लगा लो कि दोनों कैसे रहते हैं...
बजरंगी-(जमुनी की तरफ इशारा करके) इसी से पूछो, यही अंतरजामी है, इसी ने मुझे मजबूर किया है।
जमुनी-हाँ, किया तो है, क्या अब भी दिल काँप रहा है?
जगधर-अदालत में जाकर गवाही देना क्या तुमने हँसी समझ ली है? गंगाजली उठानी पड़ती है, तुलसी-जल लेना पड़ता है, बेटे के सिर पर हाथ रखना पड़ता है। इसी से बाल-बच्चेवाले डरते हैं कि और कुछ!
जमुनी-सच कहो, ये सब कसमें भी खानी पड़ती हैं?
जगधर-बिना कसम खाए तो गवाही होती ही नहीं।
जमुनी-तो भैया, बाज आई ऐसी गवाहों से, कान पकड़ती हूँ। चूल्हे में जाए सूरा और भाड़ में जाए भैरों, कोई बुरे दिन काम न आएगा। तुम रहने दो।
बजरंगी-सूरदास को लकड़पन से देख रहे हैं, ऐसी आदत तो उसमें न थी।
जगधर-न थी, न है और न होगी। उसकी बड़ाई नहीं करता, पर उसे लाख रुपये भी दो, तो बुराई में हाथ न डालेगा। कोई दूसरा होता, तो गया हुआ धन पाकर चुपके से रख लेता, किसी को कानोंकान खबर भी न होती। वह तो जाकर सब रुपये दे आया। उसकी सफाई तो इतने ही से हो जाती है।
बजरंगी को तोड़कर जगधर ने ठाकुरदीन को घेरा। पूजा करके भोजन करने जा रहा था। जगधर की आवाज सुनकर बोला-बैठो, खाना खाकर आता हूँ।
जगधर-मेरी बात सुन लो, तो खाने बैठो। खाना कहीं भागा नहीं जाता है। तुम भी भैरों की गवाही देने जा रहे हो?
ठाकुरदीन-हाँ, जाता हूँ। भैरों ने न कहा होता, तो आप ही जाता। मुझसे यह अनीत नहीं देखी जाती। जमाना दूसरा है, नहीं नवाबी होती,तो ऐसे आदमी का सिर काट लिया जाता। किसी की बहू-बेटी को निकाल ले जाना कोई हँसी-ठट्ठा है?
जगधर-जान पड़ता है, देवतों की पूजा करते-करते तुम भी अंतरजामी हो गए हो। पूछता हूँ, किस बात की गवाही दोगे?
ठाकुरदीन-कोई लुका-छिपी बात है, सारा देस जानता है।
जगधर-सूरदास बड़ा गबरू जवान है, इसी से सुंदरी का मन उस पर लोट-पोट हो गया होगा, या उसके घर रुपये-पैसे, गहने-जेवर के ढेर लगे हुए हैं, इसी से औरत लोभ में पड़ गई होगी। भगवान् को देखा नहीं, लेकिन अकल से तो पहचानते हो। आखिर क्या देखकर सुभागी ने भैरों को छोड़ दिया और सूरे के घर पड़ गई?
ठाकुरदीन-कोई किसी के मन की बात क्या जाने, और औरत के मन की बात तो भगवान् भी नहीं जानते। देवता लोग तक उससे त्राह-त्राह करते हैं!
जगधर-अच्छा, तो जाओ, मगर यह कहे देता हूँ कि इसका फल भोगना पड़ेगा। किसी गरीब पर झूठा अपराध लगाने से बड़ा दूसरा पाप नहीं होता।
ठाकुरदीन-झूठा अपराध है?
जगधर-झूठा है, सरासर झूठा; रत्ती-भर भी सच नहीं। बेकस की वह हाय पड़ेगी कि जिंदगानी भर याद करोगे। जो आदमी अपना गया हुआ धन पाकर लौटा दे, वह इतना नीच नहीं हो सकता।
ठाकुरदीन-(हँसकर) यही तो अंधो की चाल है। कैसी दूर की सूझी है कि जो सुने, चक्कर में आ जाए।
जगधर-मैंने जता दिया, आगे तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। रखोगे सुभागी को अपने घर में? मैं उसे सूरे के घर से लिवाए लाता हूँ,अगर फिर कभी सूरे को उससे बातें करते देखना, तो जो चाहना, सो करना। रखोगे?
ठाकुरदीन-मैं क्यों रखने लगा!
जगधर-तो अगर शिवजी ने संसार-भर का बिस माथे पर चढ़ा लिया, तो क्या बुरा किया? जिसके लिए कहीं ठिकाना नहीं था, उसे सूरे ने अपने घर में जगह दी। इस नेकी की उसे यह सजा मिलनी चाहिए? यही न्याय है? अगर तुम लोगों के दबाव में आकर सूरे ने सुभागी को घर से निकाल दिया और उसकी आबरू बिगड़ी, तो उसका पाप तुम्हारे सिर भी पड़ेगा। याद रखना।
ठाकुरदीन देवभीरु आत्मा था, दुविधा में पड़ गया। जगधर ने आसन पहचाना, इसी ढंग से दो-चार बातें और कीं। आखिर ठाकुरदीन गवाही देने से इनकार करने लगा। जगधर की ईष्या किसी साधु के उपदेश का काम कर गई। संधया होते-होते भैरों को मालूम हो गया कि मुहल्ले में कोई गवाह न मिलेगा। दाँत पीसकर रह गया। चिराग जल रहे थे। बाजार की और दूकानें बंद हो रही थीं। ताड़ी की दूकान खोलने का समय आ रहा था। ग्राहक जमा होते जाते थे। बुढ़िया चिखौने के लिए मटर के दालमोट और चटपटे पकौड़े बना रही थी, और भैरों द्वार पर बैठा हुआ जगधर को, मुहल्लेवालों को और सारे संसार को चौपालियाँ सुना रहा था-सब-के-सब नामरदे हैं, आँख के अंधो, जभी यह दुरदसा हो रही है। कहते हैं, सूखा क्यों पड़ता है, प्लेग क्यों आता है, हैजा क्यों फैलता है, जहाँ ऐसे-ऐसे बेईमान, पापी, दुष्ट बसेंगे, वहाँ और होगा ही क्या। भगवान इस देस को गारत क्यों नहीं कर देते, यही अचरज है। खैर, जिंदगानी है, तो हम और जगधर इसी जगह रहते हैं, देखी जाएगी।
क्रोध के आवेश में अपनी नेकियाँ बहुत याद आती हैं। भैरों उन उपकारों का वर्णन करने लगा, जो उसने जगधर के साथ किए थे-इसकी घरवाली मर रही थी। किसी ने बता दिया, ताजी ताड़ी पिए, तो बच जाए। मुँह-अंधोरे पेड़ पर चढ़ता था और ताजी ताड़ी उतारकर उस पिलाता था। कोई पाँच रुपये भी देता, तो उतने सबेरे पेड़ पर न चढ़ता। मटकों ताड़ी पिला दी होगी। तमाखू पीना होता है, तो यहीं आता है। रुपये-पैसे का काम लगता है, तो मैं ही काम आता हूँ, और मेरे साथ यह घाट! जमाना ही ऐसा है।
जगधर का घर मिला हुआ था। यह सब सुन रहा था और मुँह न खोलता था। वह सामने से वार करने में नहीं, पीछे से वार करने में कुशल था।
इतने में मिल का एक मिस्त्री, नीम-आस्तीन पहने, कोयले की भभूत लगाए और कोयले ही का-सा रंग, हाथ में हथौड़ा लिए, चमरौधा जूता डाटे, आकर बोला-चलते हो दुकान पर कि इसी झंझट में पड़े रहोगे? देर हो रही है, अभी साहब के बँगले पर जाना है।
भैरों-अजी जाओ, तुम्हें दुकान की पड़ी हुई है। यहाँ ऐसा जी जल रहा है कि गाँव में आग लगा दूँ।
मिस्त्री-क्या है क्या? किस बात पर बिगड़ रहे हो, मैं भी सुनूँ।
भैरों ने संक्षिप्त रूप से सारी कथा सुना दी और गाँववालों की कायरता और असज्जनता का दुखड़ा रोने लगा।
मिस्त्री-गाँववालों को मारो गोली। तुम्हें कितने गवाह चाहिए? जितने गवाह कहो, दे दूँ, एक-दो, दस-बीस। भले आदमी, पहले ही क्यों न कहा? आज ही ठीक-ठाक किए देता हूँ। बस, सबों को भर-भर पेट पिला देना।
भैरों की बाँछें खिल गईं, बोला-ताड़ी की कौन बात है, दूकान तुम्हारी है, जितनी चाहो, पियो; पर जरा मोतबर गवाह दिलाना।
मिस्त्री-अजी, कहो तो बाबू लोगों को हाजिर कर दूँ। बस, ऐसी पिला देना कि सब यहीं से गिरते हुए घर पहुँचें।
भैरों-अजी, कहो तो इतना पिला दूँ कि दो-चार लाशें उठ जाएँ।
यों बातें करते हुए दोनों दूकान पहुँचे। वहाँ 20-25 आदमी, जो इसी कारखाने के नौकर थे, बड़ी उत्कंठा से भैरों की राह देख रहे थे। भैरों ने तो पहुँचते ही ताड़ी नापनी शुरू कर की, और इधर मिस्त्री ने गवाहों को तैयार करना शुरू किया। कानों में बातें होने लगीं।
एक-मौका अच्छा है। अंधो के घर से निकलकर जाएगी कहाँ! भैरों अब उसे न रखेगा।
दूसरा-आखिर हमारे दिल-बहलाव का भी तो कोई सामान होना चाहिए।
तीसरा-भगवान् ने आप ही भेज दिया। बिल्ली के भागों छींका टूटा।
इधर तो यह मिसकौट हो रही थी, उधर सुभागी सूरदास से कह रही थी-तुम्हारे ऊपर दावा हो रहा है।
सूरदास ने घबराकर पूछा-कैसा दावा?
सुभागी-मुझे भगा लाने का। गवाह ठीक किए जा रहे हैं। गाँव का तो कोई आदमी नहीं मिला, लेकिन पुतलीघर के बहुत-से मजूरे तैयार हैं। मुझसे अभी जगधर कह रहे थे, पहले गाँव के सब आदमी गवाही देने जा रहे थे।
सूरदास-फिर रुक कैसे गए?
सुभागी-जगधर ने सबको समझा-बुझाकर रोक लिया।
सूरदास-जगधर बड़ा भलामानुस है, मुझ पर बड़ी दया करता रहता है।
सुभागी-तो अब क्या होगा?
सूरदास-दावा करने दे, डरने की कोई बात नहीं। तू यही कह देना कि मैं भैरों के साथ न रहूँगी। कोई कारन पूछे, तो साफ-साफ कर देना,वह मुझे मारता है।
सुभागी-लेकिन इसमें तुम्हारी बदनामी होगी।
सूरदास-बदनामी की चिंता नहीं, जब तक वह तुझे रखने को राजी न होगा, मैं तुझे जाने ही न दूँगा।
सुभागी-वह राजी भी होगा, तो उसके घर न जाऊँगी। वह मन का बड़ा मैला आदमी है, इसकी कसर जरूर निकालेगा। तुम्हारे घर से भी चली जाऊँगी।
सूरदास-मेरे घर क्यों चली जाएगी? मैं तो तुझे नहीं निकालता।
सुभागी-मेरे कारन तुम्हारी कितनी जगहँसाई होगी। मुहल्लेवालों का तो मुझे कोई डर न था। मैं जानती थी कि किसी को तुम्हारे ऊपर संदेह न होगा, और होगा भी, तो छिन-भर में दूर हो जाएगा। लेकिन ये पुतलीघर के उजव् मजूरे तुम्हें क्या जानें। भैरों के यहाँ सब-के-सब ताड़ी पीते हैं। वह उन्हें मिलाकर तुम्हारी आबरू बिगाड़ देगा। मैं यहाँ न रहूँगी, तो उसका कलेजा ठंडा हो जाएगा। बिस की गाँठ तो मैं हूँ।
सूरदास-जाएगी कहाँ?
सुभागी-जहाँ उसके मुँह में कालिख लगा सकूँ, जहाँ उसकी छाती पर मूँग दल सकूँ।
सूरदास-उसके मुँह मे कालिख लगेगी, तो मेरे मुँह में पहले ही न लग जाएगी, तू मेरी बहन ही तो है?
सुभागी-नहीं, मै तुम्हारी कोई नहीं हूँ। मुझे बहन-बेटी न बनाओ।
सूरदास-मैं कहे देता हूँ, इस घर से न जाना।
सुभागी-मैं अब तुम्हारे साथ रहकर तुम्हें बदनाम न करूँगी।
सूरदास-मुझे बदनामी कबूल है, लेकिन जब तक यह न मालूम हो जाए कि तू कहाँ जाएगी, तब तक मैं तुझे जाने ही न दूँगा।
भैरों ने रात तो किसी तरह काटी। प्रात:काल कचहरी दौड़ा। वहाँ अभी द्वार बंद थे, मेहतर झाड़ई लगा रहे थे, अतएव वह एक वृक्ष के नीचे धयान लगाकर बैठ गया। नौ बजे से अमले, बस्ते बगल में दबाए, आने लगे और भैरों दौड़-दौड़कर उन्हें सलाम करने लगा। ग्यारह बजे राजा साहब इजलास पर आए तो भैरों ने मुहर्रिर से लिखवाकर अपना इस्तगासा दायर कर दिया। संधया-समय घर आया, तो बफरने लगा-अब देखता हूँ, कौन माई का लाल इनकी हिमायत करता है। दोनों के मुँह में कालिख लगवाकर यहाँ से निकाल न दिया, तो बाप का नहीं।
पाँचवें दिन सूरदास और सुभागी के नाम सम्मन आ गया। तारीख पड़ गई। ज्यों-ज्यों पेशी का दिन निकट आता जाता था, सुभागी के होश उड़े जाते थे। बार-बार सूरदास से उलझती-तुम्हीं यह सब करा रहे हो, अपनी मिट्टी खराब कर रहे हो और अपने साथ मुझे भी घसीट रहे हो। मुझे चले जाने दिया होता, तो कोई तुमसे क्यों बैर ठानता? वहाँ भरी कचहरी में जाना, सबके सामने खड़ी होना, मुझे जहर ही-सा लग रहा है। मैं उसका मुँह न देखूँगी, चाहे अदालत मुझे मार ही डाले।
आखिर पेशी की नियत तिथि आ गई। मुहल्ले में इस मुकदमे की इतनी धूम थी कि लोगों ने अपने-अपने काम बंद कर दिए और अदालत में जा पहुँचे। मिल के श्रमजीवी सैकड़ों की संख्या में गए। शहर में सूरदास को कितने ही आदमी जान गए थे। उनकी दृष्टि में सूरदास निरपराध था। हजारों आदमी कुतूहल-वश अदालत में आए। प्रभु सेवक पहले ही पहुँच चुके थे, इंदु रानी और इंद्रदत्ता भी मुकदमा पेश होते-होते आ पहुँचे। अदालत में यों ही क्या कम भीड़ रहती है, और स्त्री का आना तो मंडप में वधू का आना है। अदालत में एक बारजा-सा लगा हुआ था। इजलास पर दो महाशय विराजमान थे-एक तो चतारी के राजा साहब, दूसरे एक मुसलमान, जिन्होंने योरपीय महासमर में रंगरूट भरती करने में बड़ा उत्साह दिखाया था। भैरों की तरफ से एक वकील भी था।
भैरों का बयान हुआ। गवाहों का बयान हुआ। तब उसके वकील ने उनसे अपना पक्ष-समर्थन करने के लिए जिरह की।
तब सूरदास का बयान हुआ। उसने कहा-मेरे साथ इधर कुछ दिनों से भैरों की घरवाली रहती है। मैं किसी को क्या खिलाऊँ-पिलाऊँगा,पालनेवाले भगवान् है। वह मेरे घर में रहती है अगर भैरों उसे रखना चाहे और वह रहना चाहे, तो आज ही चली जाए, यही तो मैं चाहता हूँ। इसीलिए मैंने उसे अपने यहाँ रखा है, नहीं तो न जाने कहाँ होती।
भैरों के वकील ने मुस्कराकर कहा-सूरदास, तुम बड़े उदार मालूम होते हो; लेकिन युवती सुंदरियों के प्रति उदारता का कोई महत्तव नहीं रहता।
सूरदास-इसी से न यह मुकदमा चला है। मैंने कोई बुराई नहीं की। हाँ, संसार जो चाहे, समझे। मैं तो भगवान को जानता हूँ। वही सबकी करनी को देखनेवाला है। अगर भैरों उसे अपने घर न रखेगा और न सरकार कोई ऐसी जगह बताइएगी, जहाँ यह औरत इज्जत-आबरू के साथ रह सके, तो मैं उसे अपने घर से निकलने न दूँगा। वह निकलना भी चाहेगी, तो न जाने दूँगा। इसने तो जब से इस मुकदमे की खबर सुनी है, यही कहा करती है कि मुझे जाने दो, पर मैं उसे जाने नहीं देता।
वकील-साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि मैंने उसे रख लिया है।
सूरदास-हाँ, रख लिया है, जैसे भाई अपनी बहन को रख लेता है, बाप बेटी को रख लेता है। अगर सरकार ने उसे जबरदस्ती मेरे घर से निकाल दिया, तो उसकी आबरू की जिम्मेदारी उसी के सिर होगी।
सुभागी का बयान हुआ-भैरों मुझे बेकसूर मारता, गालियाँ देता। मैं उसके साथ न रहँगी। सूरदास भला आदमी है, इसीलिए उसके पास रहती हूँ। भैरों यह नहीं देख सकता; सूरदास के घर से मुझे निकालना चाहता है।
वकील-तू पहले भी सूरदास के घर जाती थी?
सुभागी-जभी अपने घर मार खाती थी, तभी जान बचाकर उसके घर भाग जाती थी। वह मेरे आड़े आ जाता था। मेरे कारन उसके घर में आग लगी, मार पड़ी, कौन-कौन-सी दुर्गत नहीं हुई। अदालत की कसर थी, वह भी पूरी हो गई।
राजा-भैरों, तुम अपनी औरत रखोगे?
भैरों-हाँ सरकार, रखूँगा।
राजा-मारोगे तो नहीं?
भैरों-कुचाल न चलेगी, तो क्यों मारूँगा।
राजा-सुभागी, तू अपने आदमी के घर क्यों नहीं जाती? वह तो कह रहा है, न मारूँगा।
सुभागी-उस पर मुझे विश्वास नहीं। आज ही मार-मारकर बेहाल कर देगा।
वकील-हुजूर, मुआमला साफ है, अब मजीद-सबूत की जरूरत नहीं रही। सूरदास पर जुर्म साबित हो गया।
अदालत ने फैसला सुना दिया-सूरदास पर 200 रु. जुर्माना और जुर्माना न अदा करे, तो छ: महीने की कड़ी कैद। सुभागी पर 100 रु. जुर्माना, जुर्माना न दे सकने पर तीन महीने की कड़ी कैद। रुपये वसूल हों तो भैरों को दिए जाएँ।
दर्शकों में इस फैसले पर आलोचना होने लगी।
एक-मुझे तो सूरदास बेकसूर मालूम होता है।
दूसरा-सब राजा साहब की करामात है। सूरदास ने जमीन के बारे में उन्हें बदनाम किया था न। यह उसी की कसर निकाली गई है। ये हमारे यश-मान-भोगी लीडरों के कृत्य हैं।
तीसरा-औरत चरबाँक नहीं मालूम होती?
चौथा-भरी अदालत में बातें कर रही है, चरबाँक नहीं, तो और क्या है?
पाँचवाँ-वह तो यही कहती है कि मैं भैरों के पास न रहूँगी।
सहसा सूरदास ने उच्च स्वर में कहा-मैं इस फैसले की अपील करूँगा।
वकील-इस फैसले की अपील नहीं हो सकती।
सूरदास-मेरी अपील पंचों से होगी। एक आदमी के कहने से मैं अपराधी नहीं हो सकता, चाहे वह कितना ही बड़ा आदमी हो। हाकिम ने सजा दे दी, सजा काट लूँगा; पर पंचों का फैसला भी सुन लेना चाहता हूँ।
यह कहकर उसने दर्शकों की ओर मुँह फेरा और मर्मस्पर्शी शब्दों में कहा-दुहाई है पंचो, आप इतने आदमी जमा हैं। आप लोगों ने भैरों और उसके गवाहों के बयान सुने, मेरा और सुभागी का बयान सुना, हाकिम का फैसला भी सुन लिया। आप लोगों से मेरी विनती है कि क्या आप भी मुझे अपराधी समझते हैं? क्या आपको विश्वास आ गया कि मैंने सुभागी को बहकाया और अब अपनी स्त्री बनाकर रखे हुए हूँ?अगर आपको विश्वास आ गया है, तो मैं इसी मैदान में सिर झुकाकर बैठता हूँ, आप लोग मुझे पाँच-पाँच लात मारें। अगर मैं लात खाते-खाते मर भी जाऊँ, तो मुझे दु:ख न होगा। ऐसे पापी का यही दंड है। कैद से क्या होगा! और अगर आपकी समझ में बेकसूर हूँ, तो पुकारकर कह दीजिए, हम तुझे निरपराध समझते हैं। फिर मैं कड़ी-से-कड़ी कैद भी हँसकर काट लूँगा।
अदालत के कमरे में सन्नाटा छा गया। राजा साहब, वकील, अमले, दर्शक, सब-के-सब चकित हो गए। किसी को होश न रहा कि इस समय क्या करना चाहिए। सिपाही दर्जनों थे, पर चित्र-लिखित-से खड़े थे। परिस्थिति ने एक विचित्र रूप धारण कर लिया था, जिसकी अदालत के इतिहास में कोई उपमा न थी। शत्रु ने ऐसा छापा मारा था कि उससे प्रतिपक्षी सेना का पूर्व-निश्चित क्रम भंग हो गया।
सबसे पहले राजा साहब सँभले। हुक्म दिया, इसे बाहर ले जाओ। सिपाहियों ने दोनो अभियुक्तों को घेर लिया और अदालत के बाहर ले चले। हजारों दर्शक पीछे-पीछे चले।
कुछ दूर चलकर सूरदास जमीन पर बैठ गया और बोला-मैं पंचों का हुकुम सुनकर तभी आगे जाऊँगा।
अदालत के बाहर अदालत की मर्यादा भंग होने का भय न था। कई हजार कंठों से धवनि उठी-तुम बेकसूर हो, हम सब तुम्हें बेकसूर समझते हैं।
इंद्रदत्ता-अदालत बेईमान है!
कई हजार आवाजों ने दुहराया-हाँ, अदालत बेईमान है!
इंद्रदत्ता-अदालत नहीं, दीनों की बलि-वेदी है।
कई हजार कंठों से प्रतिधवनि निकली-अमीरों के हाथ में अत्याचार का यंत्र है!
चौकीदारों ने देखा, प्रतिक्षण भीड़ बढ़ती और लोग उत्तोजित होते जाते हैं, तो लपककर एक बग्घीवाले को पकड़ा और दोनों को उसमें बैठाकर ले चले। लोगों ने कुछ दूर तक तो गाड़ी का पीछा किया, उसके बाद अपने-अपने घर लौट गए।
इधर भैरों अपने गवाहों के साथ घर चला, तो राह में अदालत के अरदली ने घेरा। उसे दो रुपये निकालकर दिए। दूकान में पहुँचते ही मटके खुल गए और ताड़ी के दौर चलने लगे। बुढ़िया पकौड़ियाँ और पूरियाँ पकाने लगी।
एक बोला-भैरों, यह बात ठीक नहीं, तुम भी बैठो, पियो और पिलाओ। हम-तुम बद-बदकर पिएँ।
दूसरा-आज इतनी पिऊँगा कि चाहे यहीं ढेर हो जाऊँ। भैरों, यह कुल्हड़ भर-भरकर क्या देते हो, हाँडी ही बढ़ा दो।
भैरों-अजी, मटके में मुँह डाल दो, हाँडी-कुल्हड़ की क्या बिसात है! आज मुद्दई का सिर नीचा हुआ है।
तीसरा-दोनों हिरासत में पड़े रो रहे होंगे। मगर भई, सूरदास को सजा हो गई, तो क्या, वह है बेकसूर।
भैरों-आ गए तुम भी उसके धोखे में। इसी स्वाँग की तो वह रोटी खाता है। देखो, बात-की-बात में कैसा हजारों आदमियों का मन फेर दिया।
चौथा-उसे किसी देवता का इष्ट है।
भैरों-इष्ट तो तब जानें कि जेहल से निकल आए।
पहला-मैं बद कर कहता हूँ, वह कल जरूर जेहल से निकल आएगा।
दूसरा-बुढ़िया, पकौड़ियाँ ला।
तीसरा-अबे, बहुत न पी, नहीं मर जाएगा। है कोई घर पर रोनेवाला?
चौथा-कुछ गाना हो, उतारो ढोल-मँजीरा।
सबों ने ढोल-मँजीरा सँभाला और खडे होकर गाने लगे :
छत्तीसी, क्या नैना झमकावै!
थोड़ी देर में एक बुङ्ढा मिस्त्री उठकर नाचने लगा। बुढ़िया से अब न रहा गया। उसने भी घूँघट निकाल लिया और नाचने लगी। शूद्रों में नृत्य और गान स्वाभाविक गुण हैं, सीखने की जरूरत नहीं। बुङ्ढा और बुढ़िया, दोनों अश्लील भाव से कमर हिला-हिलाकर थिरकने लगे। उनके अंगों की चपलता आश्चर्यजनक थी।
भैरों-मुहल्लेवाले समझते थे, मुझे गवाह ही न मिलेंगे।
एक-सब गीदड़ हैं, गीदड़।
भैरों-चलो, जरा सबों के मुँह में कालिख लगा आएँ।
सब-के-सब चिल्ला उठे-हाँ, हाँ, नाच होता चले।
एक क्षण में जुलूस चला। सब-के-सब नाचते-गाते, ढोल पीटते, ऊलजलूल बकते, हू-हा करते, लड़खड़ाते हुए चले। पहले बजरंगी का घर मिला। यहाँ सब रुक गए, और गाया:
ग्वालिन की गैया हिरानी, तब दूध मिलावै पानी।
रात ज्यादा भीग चुकी थी, बजरंगी के द्वार बंद थे। लोग यहाँ से ठाकुरदीन के द्वार पर पहुँचे और गाया :
तमोलिन के नैना रसीले, यारो से नजर मिलावै।
ठाकुरदीन भोजन कर रहा था, पर डर के मारे बाहर न निकला। जुलूस आगे बढ़ा, तो सूरदास की झोंपड़ी मिली।
भैरों बोला-बस, यहीं डट जाओ।
'ढोल ढीली पड़ गई।
'सेंको, सेंको; झोंपड़े में से फूस ले लो।'
एक आदमी ने थोड़ा-सा फूस निकाला, दूसरे ने और ज्यादा, तीसरे ने एक बोझ खींच लिया। फिर क्या था, नशे की सनक मशहूर ही है,एक ने जलता हुआ फूस झोंपड़ी पर डाल दिया और बोला-होली है, होली है! कई आदमियों ने कहा-होली है, होली है!
भैरों-यारो, यह तुम लोग लोगों ने बुरा किया। भाग चलो, नहीं तो धर लिए जाओगे।
भय नशे में भी हमारा पीछा नहीं छोड़ता। सब-के-सब भागे।
उधर ज्वाला प्रचंड हुई, तो मुहल्ले के लोग दौड़ पड़े। लेकिन फूस की आग किसके वश की थी! झोंपड़ा जल रहा था और लोग खड़े दु:ख और क्रोध की बातें कर रहे थे।
ठाकुरदीन-मैं तो भोजन पर बैठा, तभी सबों को आते देखा।
बजरंगी-ऐसा जी चाहता है कि जाकर भैरों को मारते-मारते बेदम कर दूँ।
जगधर-जब तक एक दफे अच्छी तरह मार न खा जाएगा, इसके सिर से भूत न उतरेगा।
बजरंगी-हाँ, अब यही होगा। घिसुआ, जरा लाठी तो निकाल ला। आज दो-चार खून हो जाएँगे, तभी आग बुझेगी!
जमुनी-तुम्हें क्या पड़ी है, चलकर लेटो। जो जैसा करेगा, उसका फल आप भगवान् से पाएगा।
बजरंगी-भगवान् चाहे फल दें या न दें, पर मैं तो अब नहीं मानता, जैसे देह में आग लगी हुई है।
जगधर-आग लगने की बात ही है। ऐसे पापी का तो सिर काट लेना भी पाप नहीं।
ठाकुरदीन-जगधर, आग पर तेल छिड़कना अच्छी बात नहीं। अगर तुमको भैरों से बैर है, तो आप जाकर उसे क्यों नहीं ललकारते, दूसरों को क्या उकसाते हो? यही चाहते हो कि ये दोनों लड़ मरें और मैं तमाशा देखूँ। हो बड़े नीच!
जगधर-अगर कोई बात कहना उकसाना है, तो लो, चुप रहूँगा।
ठाकुरदीन-हाँ, चुप रहना ही अच्छा है। तुम भी जाकर सोओ बजरंगी! भगवान् आप पापी को दंड देंगे। उन्होंने तो रावन-जैसे प्रतापी को न छोड़ा, यह किस खेत की मूली है! यह अँधेर उनसे भी न देखा जाएगा।
बजरंगी-मारे घमंड के पागल हो गया है। चलो जगधर, जरा इन सबों से दो-दो बातें कर लें।
जगधर-न भैया, मुझे साथ न ले जाओ। कौन जाने, वहाँ मार-पीट हो जाए, तो सारा इलजाम मेरे सिर जाए कि इसी ने लड़ा दिया। मैं तो आप झगड़े से कोसों दूर रहता हूँ।
इतने में मिठुआ दौड़ा हुआ आया। बजरंगी ने पूछा-कहाँ सोया था रे?
मिट्ठू-पंडाजी के दालान में तो। अरे, यह तो मेरी झोंपड़ी जल रही है! किसने आग लगाई?
ठाकुरदीन-इतनी देर में जागे हो। सुन नहीं रहे हो, गाना-बजाना हो रहा है?
मिट्ठू-भैरों ने लगाई है क्या! अच्छा बच्चा, समझूँगा।
जब लोग अपने-अपने घर लौट गए, तो मिठुआ धीरे-धीरे भैरों की दूकान की तरफ गया। महफिल उठ चुकी थी। अंधोरा छाया हुआ था। जाड़े की रात, पत्ता तक न खड़कता था। दूकान के द्वार पर उपले जल रहे थे। ताड़ीखानों में आग कभी नहीं बुझती, पारसी पुरोहित भी इतनी सावधानी से आग की रक्षा न करता होगा। मिठुआ ने एक जलता हुआ उपला उठाया और दूकान के छप्पर पर फेंक दिया। छप्पर में आग लग गई, तो मिठुआ बगटुट भागा और पंडाजी के दालान में मुँह ढाँपकर सो रहा, मानो उसे कुछ खबर ही नहीं। जरा देर में ज्वाला प्रचंड हुई, सारा मुहल्ला आलोकित हो गया, चिड़ियाँ वृक्षों पर से उड़-उड़कर भागने लगीं, पेड़ो की डालें हिलने लगीं, तालाब का पानी सुनहरा हो गया और बाँसों की गाँठें जोर-जोर से चिटकने लगीं। आधा घंटे तक लंकादहन होता रहा, पर यह सारा शोर वन्यरोदन के सदृश था। दूकान बस्ती से हटकर थी। भैरों नशे में बेसुध पड़ा था, बुढ़िया नाचते-नाचते थक गई थी। और कौन था, जो इस वक्त आग बुझाने जाता? अग्नि ने निर्विघ्न अपना काम समाप्त किया। मटके टूट गए, ताड़ी बह गई। जब जरा आग ठंडी हुई, तो कई कुत्तों ने आकर वहाँ विश्राम किया।
प्रात:काल भैरों उठा, तो दूकान सामने न दिखाई दी। दूकान और उसके घर के बीच के दो फरलाँग का अंतर था, पर कोई वृक्ष न होने के कारण दूकान साफ नजर आती थी। उसे विस्मय हुआ, दूकान कहाँ गई! जरा और आगे बढ़ा, तो राख का ढेर दिखाई दिया। पाँव-तले से मिट्टी निकल गई। दौड़ा। दूकान में ताड़ी के सिवा बिक्री के रुपये भी थे। ढोल-मँजीरा भी वहीं रखा रहता था। प्रत्येक वस्तु जलकर राख हो गई। मुहल्ले के लोग उधर तालाब में मुँह-हाथ धोने जाएा करते थे। सब आ पहुँचे। दूकान सड़क पर थी। पथिक भी खड़े हो गए। मेला लग गया।
भैरों ने रोकर कहा-मैं तो मिट्टी में मिल गया।
ठाकुरदीन-भगवान् की लीला है। उधर वह तमाशा दिखाया, इधर यह तमाशा दिखाया। धन्य हो महाराज!
बजरंगी-किसी मिस्त्री की सरारत होगी। क्यों भैरों, किसी से अदावत तो नहीं थी?
भैरों-अदावत सारे मुहल्ले से है, किससे नहीं है। मैं जानता हूँ, जिसकी यह बदमासी है। बँधवा न दिया, तो कहना। अभी एक को लिया है,अब दूसरे की बारी है।
जगधर दूर ही से आनंद ले रहा था। निकट न आया कि कहीं भैरों कुछ कह बैठे, तो बात बढ़ जाए। ऐसा हार्दिक आनंद उसे अपने जीवन में कभी न प्राप्त हुआ था।
इतने में मिल के कई मजदूर आ गए। काला मिस्त्री बोला-भाई, कोई माने या न माने, मैं तो यही कहूँगा कि अंधो को किसी का इष्ट है।
ठाकुरदीन-इष्ट क्यों नहीं है। मैं बराबर यही कहता आता हूँ। उससे जिसने बैर ठाना, उसने नीचा देखा।
भैरों-उसके इष्ट को मैं जानता हूँ। जरा थानेदार जा जाएँ, तो बता दूँ, कौन इष्ट है।
बजरंगी जलकर बोला-अपनी बेर कैसी सूझ रही है! क्या वह झोंपड़ा न था, जिसमें पहले आग लगी? ईंट का जवाब पत्थर मिलता ही है। जो किसी के लिए गढ़ा खोदेगा, उसके लिए कुआँ तैयार है। क्या उस झोंपड़े में आग लगाते समय समझे थे कि सूरदास का कोई है ही नहीं?
भैरों-उसके झोंपड़े में मैंने आग लगाई?
बजरंगी-और किसने लगाई?
भैरों-झूठे हो!
ठाकुरदीन-भैरों, क्यों सीनाजोरी करते हो! तुमने लगाई या तुम्हारे किसी यार ने लगाई, एक ही बात है। भगवान ने उसका बदला चुका दिया, तो रोते क्यों हो?
भैरों-सब किसी से समझ्रूगा।
ठाकुरदीन-यहाँ कोई तुम्हारा दबैल नहीं है।
भैरों ओठ चबाता हुआ चला गया। मानव-चरित्र कितना रहस्यमय है! हम दूसरों का अहित करते हुए जरा भी नहीं झिझकते, किंतु जब दूसरें के हाथों हमें कोई हानि पहुँचती है, तो हमारा खून खौलने लगता है। 

48
रचनाएँ
रंगभूमि
0.0
प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। रंगभूमि (1924-1925) उपन्यास ऐसी ही कृति है। नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मध्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है। प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का प्रकाशन 1925 में हुआ था। इससे पहले देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1920 ईस्वी में शुरू हुए असहयोग आन्दोलन का प्रभाव राष्ट्रव्यापी पड़ा था। समाज बड़े पैमाने पर जाग्रत हो गया था और भारतीय समाज की अलग-अलग धाराओं, विचारों, धर्मों, जातियों का द्वंद्व अपने चरम पर था। सबसे बढ़कर एक उत्साही युवा वर्ग देश को विदेशी शासन से मुक्त करवाने के लिए उत्साह के साथ सकारात्मक हो गया था। ‘रंगभूमि’ उपन्यास के पाठ को समझने के लिए भारत की इस तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखना जरूरी है। यह उपन्यास महज अपने कैनवस, विजन में ही बड़ा नहीं है बल्कि यह प्रेमचंद का सबसे अधिक पृष्ठों का उपन्यास है।
1

रंगभूमि अध्याय 1

4 फरवरी 2022
1
0
0

शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्ये भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहान

2

रंगभूमि अध्याय 2

4 फरवरी 2022
1
0
0

सूरदास लाठी टेकता हुआ धीरे-धीरे घर चला। रास्ते में चलते-चलते सोचने लगा-यह है बड़े आदमियों की स्वार्थपरता! पहले कैसे हेकड़ी दिखाते थे, मुझे कुत्तो से भी नीचा समझा; लेकिन ज्यों ही मालूम हुआ कि जमीन मेरी

3

रंगभूमि अध्याय 3

4 फरवरी 2022
0
0
0

मि. जॉन सेवक का बँगला सिगरा में था। उनके पिता मि. ईश्वर सेवक ने सेना-विभाग में पेंशन पाने के बाद वहीं मकान बनवा लिया था, और अब तक उसके स्वामी थे। इसके आगे उनके पुरखों का पता नहीं चलता, और न हमें उसकी

4

रंगभूमि अध्याय 4

4 फरवरी 2022
0
0
0

चंचल प्रकृति बालकों के लिए अंधे विनोद की वस्तु हुआ करते हैं। सूरदास को उनकी निर्दय बाल-क्रीड़ाओं से इतना कष्ट होता था कि वह मुँह-अंधोरे घर से निकल पड़ता और चिराग जलने के बाद लौटता। जिस दिन उसे जाने मे

5

रंगभूमि अध्याय 5

4 फरवरी 2022
0
0
0

चतारी के राजा महेंद्रकुमार सिंह यौवनावस्था ही में अपनी कार्य-दक्षता और वंश प्रतिष्ठा के कारण म्युनिसिपैलिटी के प्रधान निर्वाचित हो गए थे। विचारशीलता उनके चरित्र का दिव्य गुण थी। रईसों की विलास-लोलुपता

6

रंगभूमि अध्याय 6

4 फरवरी 2022
0
0
0

धर्मभीरुता में जहाँ अनेक गुण हैं, वहाँ एक अवगुण भी है; वह सरल होती है। पाखंडियों का दाँव उस पर सहज ही में चल जाता है। धर्मभीरु प्राणी तार्किक नहीं होता। उसकी विवेचना-शक्ति शिथिल हो जाती है। ताहिर अली

7

रंगभूमि अध्याय 7

4 फरवरी 2022
0
0
0

संध्‍या हो गई थी। किंतु फागुन लगने पर भी सर्दी के मारे हाथ-पाँव अकड़ते थे। ठंडी हवा के झोंके शरीर की हड्डियों में चुभे जाते थे। जाड़ा, इंद्र की मदद पाकर फिर अपनी बिखरी हुई शक्तियों का संचय कर रहा था औ

8

रंगभूमि अध्याय 8

4 फरवरी 2022
0
0
0

सोफ़िया को इंदु के साथ रहते चार महीने गुजर गए। अपने घर और घरवालों की याद आते ही उसके हृदय में एक ज्वाला-सी प्रज्वलित हो जाती थी। प्रभु सेवक नित्यप्रति उससे एक बार मिलने आता; पर कभी उससे घर का कुशल-समा

9

रंगभूमि अध्याय 9

4 फरवरी 2022
1
0
0

सोफ़िया इस समय उस अवस्था में थी, जब एक साधारण हँसी की बात, एक साधारण आँखों का इशारा, किसी का उसे देखकर मुस्करा देना, किसी महरी का उसकी आज्ञा का पालन करने में एक क्षण विलम्ब करना, ऐसी हजारों बातें, जो

10

रंगभूमि अध्याय 10

4 फरवरी 2022
0
0
0

बालकों पर प्रेम की भाँति द्वेष का असर भी अधिक होता है। जबसे मिठुआ और घीसू को मालूम हुआ था कि ताहिर अली हमारा मैदान जबरदस्ती ले रहे हैं, तब से दोनों उन्हें अपना दुश्मन समझते थे। चतारी के राजा साहब और स

11

रंगभूमि अध्याय 11

4 फरवरी 2022
0
0
0

भैरों पासी अपनी माँ का सपूत बेटा था। यथासाधय उसे आराम से रखने की चेष्टा करता रहता था। इस भय से कि कहीं बहू सास को भूखा न रखे, वह उसकी थाली अपने सामने परसा लिया करता था और उसे अपने साथ ही बैठाकर खिलाता

12

रंगभूमि अध्याय 12

4 फरवरी 2022
0
0
0

प्रभु सेवक ताहिर अली के साथ चले, तो पिता पर झल्लाए हुए थे-यह मुझे कोल्हू का बैल बनाना चाहते हैं। आठों पहर तम्बाकू ही के नशे में डूबा पड़ा रहूँ, अधिकारियों की चौखट पर मस्तक रगड़ूँ, हिस्से बेचता फिरूँ,

13

रंगभूमि अध्याय 13

4 फरवरी 2022
0
0
0

विनयसिंह के जाने के बाद सोफ़िया को ऐसा प्रतीत होने लगा कि रानी जाह्नवी मुझसे खिंची हुई हैं। वह अब उसे पुस्तकें तथा पत्र पढ़ने या चिट्ठियाँ लिखने के लिए बहुत कम बुलातीं; उसके आचार-व्यवहार को संदिग्ध दृ

14

रंगभूमि अध्याय 14

4 फरवरी 2022
0
0
0

सोफ़िया को होश आया तो वह अपने कमरे में चारपाई पर पड़ी हुई थी। कानों में रानी के अंतिम शब्द गूँज रहे थे-क्या यही सत्य की मीमांसा है? वह अपने को इस समय इतनी नीच समझ रही थी कि घर का मेहतर भी उसे गालियाँ

15

रंगभूमि अध्याय 15

4 फरवरी 2022
0
0
0

राजा महेंद्रकुमार सिंह यद्यपि सिध्दांत के विषय में अधिकारियों से जौ-भर भी न दबते थे; पर गौण विषयों में वह अनायास उनसे विरोध करना व्यर्थ ही नहीं, जाति के लिए अनुपयुक्त भी समझते थे। उन्हें शांत नीति पर

16

रंगभूमि अध्याय 16

4 फरवरी 2022
0
0
0

अरावली की पहाड़ियों में एक वट-वृक्ष के नीचे विनयसिंह बैठे हुए हैं। पावस ने उस जन-शून्य, कठोर, निष्प्रभ, पाषाणमय स्थान को प्रेम,प्रमोद और शोभा से मंडित कर दिया है, मानो कोई उजड़ा हुआ घर आबाद हो गया हो।

17

रंगभूमि अध्याय 17

4 फरवरी 2022
0
0
0

विनयसिंह छ: महीने से कारागार में पड़े हुए हैं। न डाकुओं का कुछ पता मिलता है और न उन पर अभियोग चलाया जाता है। अधिकारियों को अब भी भ्रम है कि इन्हीं के इशारे से डाका पड़ा था। इसीलिए वे उन पर नाना प्रकार

18

रंगभूमि अध्याय 18

4 फरवरी 2022
0
0
0

सोफ़िया घर आई, तो उसके आत्मगौरव का पतन हो चुका था; अपनी ही निगाहों में गिर गई थी। उसे अब न रानी पर क्रोध था, न अपने माता-पिता पर। केवल अपनी आत्मा पर क्रोध था, जिसके हाथों उसकी इतनी दुर्गति हुई थी, जिस

19

रंगभूमि अध्याय 19

4 फरवरी 2022
0
0
0

सोफ़िया अपनी चिंताओं में ऐसी व्यस्त हो रही थी कि सूरदास को बिल्कुल भूल-सी गई थी। उसकी फरियाद सुनकर उसका हृदय काँप उठा। इस दीन प्राणी पर इतना घोर अत्याचार! उसकी दयालु प्रकृति यह अन्याय न सह सकी। सोचने

20

रंगभूमि अध्याय 20

4 फरवरी 2022
0
0
0

मि. क्लार्क ने मोटर से उतरते ही अरदली को हुक्म दिया-डिप्टी साहब को फौरन हमारा सलाम दो। नाजिर, अहलमद और अन्य कर्मचारियों को भी तलब किया गया। सब-के-सब घबराए-यह आज असमय क्यों तलबी हुई, कोई गलती तो नहीं प

21

रंगभूमि अध्याय 22

4 फरवरी 2022
0
0
0

सैयद ताहिर अली को पूरी आशा थी कि जब सिगरेट का कारखाना बनना शुरू हो जाएगा, तो मेरी कुछ-न-कुछ तरक्की हो जाएगी। मि. सेवक ने उन्हें इसका वचन दिया था। इस आशा के सिवा उन्हें अब तक ऋणों को चुकाने का कोई उपाय

22

रंगभूमि अध्याय 23

4 फरवरी 2022
0
0
0

अब तक सूरदास शहर में हाकिमों के अत्याचार की दुहाई देता रहा, उसके मुहल्ले वाले जॉन सेवक के हितैषी होने पर भी उससे सहानुभूति करते रहे। निर्बलों के प्रति स्वभावत: करुणा उत्पन्न हो जाती है। लेकिन सूरदास क

23

रंगभूमि अध्याय 24

4 फरवरी 2022
0
0
0

सूरदास की जमीन वापस दिला देने के बाद सोफ़िया फिर मि. क्लार्क से तन गई। दिन गुजरते जाते थे और वह मि. क्लार्क से दूरतर होती जाती थी। उसे अब सच्चे अनुराग के लिए अपमान, लज्जा, तिरस्कार सहने की अपेक्षा कृत

24

रंगभूमि अध्याय 25

4 फरवरी 2022
0
0
0

साल-भर तक राजा महेंद्रकुमार और मिस्टर क्लार्क में निरंतर चोटें चलती रहीं। पत्र का पृष्ठ रणक्षेत्र था और शृंखलित सूरमों की जगह सूरमों से कहीं बलवान् दलीलें। मनों स्याही बह गई, कितनी ही कलमें काम आईं। द

25

रंगभूमि अध्याय 26

4 फरवरी 2022
0
0
0

अरावली की हरी-भरी झूमती हुई पहाड़ियों के दामन में जसवंतनगर यों शयन कर रहा है, जैसे बालक माता की गोद में। माता के स्तन से दूध की धारें, प्रेमोद्गार से विकल, उबलती, मीठे स्वरों में गाती निकलती हैं और बा

26

रंगभूमि अध्याय 27

4 फरवरी 2022
0
0
0

नायकराम मुहल्लेवालों से बिदा होकर उदयपुर रवाना हुए। रेल के मुसाफिरों को बहुत जल्द उनसे श्रध्दा हो गई। किसी को तम्बाकू मलकर खिलाते, किसी के बच्चे को गोद में लेकर प्यार करते। जिस मुसाफिर को देखते, जगह न

27

रंगभूमि अध्याय 28

4 फरवरी 2022
0
0
0

सोफिया के चले जाने के बाद विनय के विचार-स्थल में भाँति-भाँति की शंकाएँ होने लगीं। मन एक भीरु शत्रु है, जो सदैव पीठ के पीछे से वार करता है। जब तक सोफी सामने बैठी थी, उसे सामने आने का साहस न हुआ। सोफी क

28

रंगभूमि अध्याय 29

4 फरवरी 2022
0
0
0

मिस्टर विलियम क्लार्क अपने अन्य स्वदेश-बंधुओं की भाँति सुरापान के भक्त थे, पर उसके वशीभूत न थे। वह भारतवासियों की भाँति पीकर छकना न जानते थे। घोड़े पर सवार होना जानते थे, उसे काबू से बाहर न होने देते

29

रंगभूमि अध्याय 30

4 फरवरी 2022
0
0
0

शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्यि भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहान

30

रंगभूमि अध्याय 31

4 फरवरी 2022
0
0
0

भैरों के घर से लौटकर सूरदास अपनी झोंपड़ी में आकर सोचने लगा, क्या करूँ कि सहसा दयागिरि आ गए और बोले-सूरदास, आज तो लोग तुम्हारे ऊपर बहुत गरम हो रहे हैं, इसे घमंड हो गया है। तुम इस माया-जाल में क्यों पड़

31

रंगभूमि अध्याय 32

4 फरवरी 2022
0
0
0

सूरदास के मुकदमे का फैसला सुनने के बाद इंद्रदत्ता चले, तो रास्ते में प्रभु सेवक से मुलाकात हो गई। बातें होने लगी। इंद्रदत्ता-तुम्हारा क्या विचार है, सूरदास निर्दोष है या नहीं? प्रभु सेवक-सर्वथा निर्

32

रंगभूमि अध्याय 33

4 फरवरी 2022
0
0
0

फैक्टरी करीब-करीब तैयार हो गई थी। अब मशीनें गड़ने लगीं। पहले तो मजदूर-मिस्त्री आदि प्राय: मिल के बरामदों ही में रहते थे, वहीं पेड़ों के नीचे खाना पकाते और सोते; लेकिन जब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई, तो मु

33

रंगभूमि अध्याय 34

4 फरवरी 2022
0
0
0

प्रभु सेवक ने घर आते ही मकान का जिक्र छेड़ दिया। जान सेवक यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए कि अब इसने कारखाने की ओर धयान देना शुरू किया। बोले-हाँ, मकानों का बनना बहुत जरूरी है। इंजीनियर से कहो, एक नक्शा बनाए

34

रंगभूमि अध्याय 35

4 फरवरी 2022
0
0
0

विनयसिंह आबादी में दाखिल हुए, तो सबेरा हो गया था। थोड़ी दूर चले थे कि एक बुढ़िया लाठी टेकती सामने से आती हुई दिखाई दी। इन्हें देखकर बोली-बेटा, गरीब हूँ। बन पडे, तो कुछ दे दो। धरम होगा। नायकराम-सवेरे

35

रंगभूमि अध्याय 36

4 फरवरी 2022
0
0
0

मिस्टर जॉन सेवक ने ताहिर अली की मेहनत और ईमानदारी से प्रसन्न होकर खालों पर कुछ कमीशन नियत कर दिया था। इससे अब उनकी आय अच्छी हो गई थी, जिससे मिल के मजदूरों पर उनका रोब था, ओवरसियर और छोटे-छोटे क्लर्क उ

36

रंगभूमि अध्याय 37

4 फरवरी 2022
0
0
0

प्रभु सेवक बड़े उत्साही आदमी थे। उनके हाथ से सेवक-दल में एक नई सजीवता का संचार हुआ। संख्या दिन-दिन बढ़ने लगी। जो लोग शिथिल और उदासीन हो रहे थे, फिर नए जोश से काम करने लगे। प्रभु सेवक की सज्जनता और सहृ

37

रंगभूमि अध्याय 38

4 फरवरी 2022
0
0
0

सोफिया और विनय रात-भर तो स्टेशन पर पड़े रहे। सबेरे समीप के गाँव में गए, जो भीलों की एक छोटी-सी बस्ती थी। सोफिया को यह स्थान बहुत पसंद आया। बस्ती के सिर पर पहाड़ का साया था, पैरों के नीचे एक पहाड़ी नाल

38

रंगभूमि अध्याय 40

4 फरवरी 2022
0
0
0

मिल के तैयार होने में अब बहुत थोड़ी कसर रह गई थी। बाहर से तम्बाकू की गाड़ियाँ लदी चली आती थीं। किसानों को तम्बाकू बोने के लिए दादनी दी जा रही थी। गवर्नर से मिल को खोलने की रस्म अदा करने के लिए प्रार्थ

39

रंगभूमि अध्याय 41

4 फरवरी 2022
0
0
0

प्रभु सेवक ने तीन वर्ष अमेरिका में रहकर और हजारों रुपये खर्च करके जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया था, वह मि. जॉन सेवक ने उनकी संगति से उतने ही महीनों में प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं, प्रभु सेवक की भा

40

रंगभूमि अध्याय 42

4 फरवरी 2022
0
0
0

अदालत ने अगर दोनों युवकों को कठिन दंड दिया, तो जनता ने भी सूरदास को उससे कम कठिन दंड न दिया। चारों ओर थुड़ी-थुड़ी होने लगी। मुहल्लेवालों का तो कहना ही क्या, आस-पास के गाँववाले भी दो-चार खोटी-खरी सुना

41

रंगभूमि अध्याय 43

4 फरवरी 2022
0
0
0

सोफिया के धार्मिक विचार, उसका आचार-व्यवहार, रहन-सहन, उसकी शिक्षा-दीक्षा, ये सभी बातें ऐसी थीं, जिनसे एक हिंदू महिला को घृणा हो सकती थी। पर इतने दिनों के अनुभव ने रानीजी की सभी शंकाओं का समाधान कर दिया

42

रंगभूमि अध्याय 44

4 फरवरी 2022
0
0
0

गंगा से लौटते दिन के नौ बज गए। हजारों आदमियों का जमघट, गलियाँ तंग और कीचड़ से भरी हुई, पग-पग पर फूलों की वर्षा, सेवक-दल का राष्ट्रीय संगीत, गंगा तक पहुँचते-पहुँचते ही सबेरा हो गया था। लौटते हुए जाह्नव

43

रंगभूमि अध्याय 45

4 फरवरी 2022
0
0
0

पाँड़ेपुर में गोरखे अभी तक पड़ाव डाले हुए थे। उनके उपलों के जलने से चारों तरफ धुआँ छाया हुआ था। उस श्यामावरण में बस्ती के ख्रडहर भयानक मालूम होते थे। यहाँ अब भी दिन में दर्शकों की भीड़ रहती थी। नगर मे

44

रंगभूमि अध्याय 46

4 फरवरी 2022
0
0
0

चारों आदमी शफाखाने पहुँचे, तो नौ बज चुके थे। आकाश निद्रा में मग्न, आँखें बंद किए पड़ा हुआ था, पर पृथ्वी जाग रही थी। भैरों खड़ा सूरदास को पंखा झल रहा था। लोगों को देखते ही उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे।

45

रंगभूमि अध्याय 47

4 फरवरी 2022
0
0
0

संधया हो गई थी। मिल के मजदूर छुट्टी पा गए थे। आजकल दूनी मजदूरी देने पर भी बहुत थोड़े मजदूर काम करने आते थे। पाँड़ेपुर में सन्नाटा छाया हुआ था। वहाँ अब मकानों के भग्नावशेष के सिवा कुछ नजर न आता था। हाँ

46

रंगभूमि अध्याय 48

4 फरवरी 2022
0
0
0

काशी के म्युनिसिपल बोर्ड में भिन्न-भिन्न राजनीतिक सम्प्रदायों के लोग मौजूद थे। एकवाद से लेकर जनसत्तावाद तक सभी विचारों के कुछ-न-कुछ आदमी थे। अभी तक धन का प्राधान्य नहीं था, महाजनों और रईसों का राज्य थ

47

रंगभूमि अध्याय 49

4 फरवरी 2022
0
0
0

इधर सूरदास के स्मारक के लिए चंदा जमा किया जा रहा था, उधर कुलियों के टोले में शिलान्यास की तैयारियाँ हो रही थीं। नगर के गण्यमान्य पुरुष निमंत्रित हुए थे। प्रांत के गवर्नर से शिला-स्थापना की प्रार्थना क

48

रंगभूमि अध्याय 50

4 फरवरी 2022
0
0
0

कुँवर विनयसिंह की वीर मृत्यु के पश्चात रानी जाह्नवी का सदुत्साह दुगुना हो गया। वह पहले से कहीं ज्यादा क्रियाशील हो गईं। उनके रोम-रोम में असाधारण स्फूर्ति का विकास हुआ। वृध्दावस्था की आलस्यप्रियता यौवन

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए