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रंगभूमि अध्याय 27

4 फरवरी 2022

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नायकराम मुहल्लेवालों से बिदा होकर उदयपुर रवाना हुए। रेल के मुसाफिरों को बहुत जल्द उनसे श्रध्दा हो गई। किसी को तम्बाकू मलकर खिलाते, किसी के बच्चे को गोद में लेकर प्यार करते। जिस मुसाफिर को देखते, जगह नहीं मिल रही है, इधर-उधर भटक रहा है, जिस कमरे में जाता है, धक्के खाता है, उसे बुलाकर अपनी बगल में बैठा लेते। फिर जरा देर में सवालों का ताँता बाँध देते-कहाँ मकान है? कहाँ जाते हो? कितने लड़के हैं? क्या कारोबार होता है? इन प्रश्नों का अंत इस अनुरोध पर होता कि मेरा नाम नायकराम पंडा है; जब कभी काशी जाओ,मेरा नाम पूछ लो, बच्चा-बच्चा जानता है; दो दिन, चार दिन, महीने, जब तक इच्छा हो, आराम से काशीवास करो; घर-द्वार, नौकर-चाकर सब हाजिर हैं, घर का-सा आराम पाओगे; वहाँ से चलते समय जो चाहो, दे दो, न दो, घर आकर भेज दो, इसकी कोई चिंता नहीं। यह कभी मत सोचो, अभी रुपये नहीं हैं, फिर चलेंगे। शुभ काम के लिए महूरत नहीं देखा जाता, रेल का किराया लेकर चल खड़े हो। काशी में तो मैं हूँ ही,किसी बात की तकलीफ न होगी। काम पड़ जाए तो जान लड़ा दें, तीरथ-जात्रा के लिए टालमटोल मत करो। कोई नहीं जानता, कब बड़ी जात्रा करनी पड़ जाए, संसार के झगड़े तो सदा लगे ही रहेंगे।
दिल्ली पहुँचे, तो कई नए मुसाफिर गाड़ी में आए। आर्य समाज के किसी उत्सव में जा रहे थे। नायकराम ने उनसे वही जिरह शुरू की। यहाँ तक कि एक महाशय गर्म होकर बोले-तुम हमारे बाप-दादे का नाम पूछकर क्या करोगे? हम तुम्हारे फंदे में फँसनेवाले नहीं हैं। यहाँ गंगाजी के कायल नहीं और न काशी ही को स्वर्गपुरी समझते हैं।
नायकराम जरा भी हताश नहीं हुए। मुस्कराकर बोले-बाबूजी, आप आरिया होकर ऐसा कहते हैं। आरिया लोगों ही ने तो हिंदू-धरम की लाज रखी, नहीं तो अब तक सारा देश मुसलमान-किरसतान हो गया होता। हिंदू-धरम के उध्दारक होकर आप काशी को भला कैसे न मानेंगे! उसी नगरी में राजा हरिसचंद की परीक्षा हुई थी, वहीं बुध्द भगवान ने अपना धरम-चक्र चलाया था, वहीं शंकर भगवान् ने मंडल मिसिर से सास्त्रार्थ किया था; वहाँ जैनी आते हैं, बौध्द आते हैं, वैस्नव आते हैं, वह हिंदुओं की नगरी नहीं है, सारे संसार की नगरी वही है। दूर-दूर के लोग भी जब तक काशी के दरसन न कर लें, उनकी जात्रा सुफल नहीं होती। गंगाजी मुकुत देती हैं, पाप काटती हैं, यह सब तो गँवारों को बहलाने की बातें हैं। उनसे कहो कि चलकर उस पवित्र नगरी को देख आओ, जहाँ कदम-कदम पर आरिया जाति के निसान मिलते हैं, जिसका नाम लेते ही सैकड़ों महात्माओं, रिसियों-मुनियों की याद आ जाती है, तो उनकी समझ में यह बात न आएगी। पर जथारथ में बात यही है। कासी का महातम इसीलिए है कि वह आरिया जाति की जीति-जागती पुरातन पुरी है।
इन महाशयों को फिर काशी की निंदा करने का साहस न हुआ। वे मन में लज्जित हुए और नायकराम के धार्मिक ज्ञान के कायल हो गए, हालाँकि नायकराम ने ये थोड़े-से वाक्य ऐसे अवसरों के लिए किसी व्याख्याता के भाषण से चुनकर रट लिए थे।
रेल के स्टेशन पर वह जरूर उतरते और रेल के कर्मचारियों का परिचय प्राप्त करते। कोई उन्हें पान खिला देता, कोई जलपान करा देता। सारी यात्रा समाप्त हो गई, पर वह लेटे तक नहीं, जरा भी आँख नहीं झपकी। जहाँ दो मुसाफिरों को लड़ते-झगड़ते देखते, तुरंत तीसरे बन जाते और उनमें मेल करा देते। तीसरे दिन वह उदयपुर पहुँच गए और रियासत के अधिकारियों से मिलते-जुलते, घूमते-घामते जसवंतनगर में दाखिल हुए। देखा, मिस्टर क्लार्क का डेरा पड़ा हुआ है। बाहर से आने-जानेवालों की बड़ी जाँच-पड़ताल होती है, नगर का द्वार बंद-सा है,लेकिन पंडे को कौन रोकता? कस्बे में पहुँचकर सोचने लगे, विनयसिंह से क्योंकर मुलाकात हो? रात को तो धर्मशाला में ठहरे, सबेरा होते ही जेल के दारोगा के मकान में जा पहुँचे। दारोगाजी सोफी को बिदा करके आए थे और नौकर को बिगड़ रहे थे कि तूने हुक्का क्यों नहीं भरा,इतने में बरामदे में पंडाजी की आहट पाकर बाहर निकल आए। उन्हें देखते ही नायकराम ने गंगा-जल की शीशी निकाली और उनके सिर पर जल छिड़क दिया।
दारोगाजी ने अन्यमनस्क होकर कहा-कहाँ से आते हो?
नायकराम-महाराज, अस्थान तो परागराज है; पर आ रहा हूँ बड़ी दूर से। इच्छा हुई, इधर भी जजमानों को आसीरबाद देता चलूँ।
दारोगाजी का लड़का, जिसकी उम्र चौदह-पंद्रह वर्ष की थी, निकल आया। नायकराम ने उसे नख से शिख तक बड़े धयान से देखा, मानो उसके दर्शनों से हार्दिक आनंद प्राप्त प्राप्त हो रहा है और तब दारोगाजी से बोले-यह आपके चिरंजीव पुत्र हैं न? पिता-पुत्र की सूरत कैसी मिलती है दूर से ही पहचाना जाए। छोटे ठाकुर साहब, क्या पढ़ते हो?
लड़के ने कहा-अंगरेजी पढ़ता हूँ।
नायकराम-यह तो मैं पहले ही समझ गया था। आजकल तो इसी विद्या का दौरदौरा है, राजविद्या ठहरी। किस दफे में पढ़ते हो भैया?
दारोगा-अभी तो हाल ही में अंगरेजी शुरू की है, उस पर भी पढ़ने में मन नहीं लगाते, अभी थोड़ी ही पढ़ी है।
लड़के ने समझा, मेरा अपमान हो रहा है। बोला-तुमसे से तो ज्यादा पढ़ा हूँ।
नाकयराम-इसकी कोई चिंता नहीं, सब आ जाएगा, अभी इनकी औस्था ही क्या है। भगवान की इच्छा होगी, तो कुल का नाम रोसन कर देंगे। आपके घर पर कुछ जगह-जमीन भी है?
दारोगाजी ने अब समझा। बुध्दि बहुत तीक्ष्ण न थी। अकड़कर कुर्सी पर बैठ गए और बोले-हाँ, चित्तौर के इलाके में कई गाँव हैं। पुरानी जागीर है। मेरे पिता महाराना के दरबारी थे। हल्दीघाटी की लड़ाई में राना प्रताप ने मेरे पूर्वजों को यह जागीर दी थी। अब भी मुझे दरबार में कुर्सी मिलती है और पान-इलायची से सत्कार होता है। कोई कार्य-प्रयोजन होता है, तो महाराना के यहाँ से आदमी आता है। बड़ा लड़का मरा था, तो महाराना ने शोकपत्र भेजा था।
नायकराम-जागीरदार का क्या कहना! जो जागीरदार, वही राजा; नाम का फरक है। असली राजा तो जागीरदार ही होते हैं, राज तो नाम के हैं।
दारोगा-बराबर राजकुल से आना-जाना लगा रहता है।
नायकराम-अभी इनकी कहीं बातचीत तो नहीं हो रही है?
दारोगा-अजी, लोग तो जान खा रहे हैं, रोज एक-न-एक जगह से संदेशा आता रहता है; पर मैं सबों को टका-सा जवाब देता हूँ। जब तक लड़का पढ़-लिख न ले, तब तक उसका विवाह कर देना नादानी है।
नायकराम-यह आपने पक्की बात कही। जथारथ में ऐसा ही होना चाहिए। बड़े आदमियों की बुध्दि भी बड़ी होती है। पर लोक-रीति पर चलना ही पड़ता है। अच्छा, अब आज्ञा दीजिए, कई जगह जाना है। जब तक मैं लौटकर न आऊँ, किसी को जवाब न दीजिएगा। ऐसी कन्या आपको न मिलेगी और न ऐसा उत्ताम कुल ही पाइएगा।
दारोगा-वाह-वाह! इतनी जल्दी चले जाइएगा? कम-से-कम भोजन तो कर लीजिए। कुछ हमें भी तो मालूम हो कि आप किस का संदेसा लाए हैं? वह कौन हैं; कहाँ रहते हैं?
नायकराम-सब कुछ मालूम हो जाएगा, पर अभी बताने का हुक्म नहीं है।
दारोगा ने लड़के से कहा-तिलक, अंदर जाओ, पंडितजी के लिए पान बनवा लाओ, कुछ नाश्ता भी लेते आना।
यह कहकर तिलक के पीछे-पीछे खुद अंदर चले गए और गृहिणी से बोले-लो कहीं से तिलक के ब्याह का संदेसा आया है। पान तश्तरी में भेजना। नाश्ते के लिए कुछ नहीं है? वह तो मुझे पहले ही मालूम था। घर में कितनी ही चीज आए, दुबारा देखने को नहीं मिलती। न जाने कहाँ के मरभुखे जमा हो गए हैं। अभी कल ही एक कैदी के घर से मिठाइयों का पूरा थाल आया था, क्या हो गया?
स्त्री-इन्हीं लड़कों से पूछो, क्या हो गया। मैं तो हाथ से छूने की भी कसम खाती हूँ। यह कोई संदूक में बंद करके रखने की चीज तो है नहीं। जिसका जब जी चाहता है, निकालकर खाता है। कल से किसी ने रोटियों की ओर नहीं ताका।
दारोगा-तो आखिर तुम किस मरज की दवा हो? तुमसे इतना भी नहीं हो सकता कि जो चीज घर में आए, उसे यत्न से रखो, हिसाब से खर्च करो। वह लौंडा कहाँ गया?
स्त्री-तुम्हीं ने तो अभी उसे डाँटा था, बस चला गया। कह गया है कि घड़ी-घड़ी की डाँट-फटकार बरदाश्त नहीं हो सकती।
दारोगा-यह और मुसीबत हुई। ये छोटे आदमी दिन-दिन सिर चढ़ते जाते हैं, कोई कहाँ तक इनकी खुशामद करे, अब कौन बाजार से मिठाइयाँ लाए? आज तो किसी सिपाही को भी नहीं भेज सकता, न जाने सिर से कब यह बला टलेगी। तुम्हीं चले जाओ तिलक!
तिलक-शर्बत क्यों नहीं पिला देते?
स्त्री-शकर भी तो नहीं है। चले क्यों नहीं जाते?
तिलक-हां, चले क्यों नहीं जाते! लोग देखेंगे हजरत मिठाई लिए जाते हैं।
दारोगा-तो इसमें क्या गाली है, किसी के घर चोरी तो नहीं कर रहे हो? बुरे काम से लजाना चाहिए, अपना काम करने में क्या लाज?
तिलक यों तो लाख सिर पटकने पर भी बाजार न जाते, पर इस वक्त अपने विवाह की खुशी थी, चले गए। दारोगाजी ने तश्तरी में पान रखे और नायकराम के पास लाए।
नायकराम-सरकार, आपके घर पान नहीं खाऊँगा।
दारोगा-अजी, अभी क्या हरज है, अभी तो कोई बात भी नहीं हुई।
नायकराम-मेरा मन बैठ गया, तो सब ठीक समझिए।
दारोगा-यह तो आपने बुरी पख लगाई। यह बात नहीं हो सकती कि आप हमारे द्वार पर आएँ और हम बिना यथेष्ट आदर-सत्कार किए आपको जाने दें। मैं तो मान भी जाऊँगा, पर तिलक की माँ किसी तरह राजी न होंगी।
नायकराम-इसी से मैं यह संदेसा लेकर आने से इनकार कर रहा था। जिस भले आदमी के द्वार पर जाइए, वह भोजन और दच्छिना के बगैर गला नहीं छोड़ता। इसी से तो आजकल कुछ लबाड़ियों ने बर खोजने को ब्यौसाय बना लिया है। इससे यह काम करते हुए और भी संकोच होता है।
दारोगा-ऐसे धूर्त यहाँ नित्य ही आया करते हैं; पर मैं तो पानी को भी नहीं पूछता। जैसा मुँह होता है, वैसा बीड़ा मिलता है। यहाँ तो आदमी को एक नजर देखा और उसकी नस-नस पहचान गया। आप यों न जाने पाएँगे।
नायकराम-मैं जानता कि आप इस तरह पीछे पड़ जाएँगे, तो लबाड़ियों ही की-सी बातचीत करता। गला तो छूट जाता।
दारोगा-यहाँ ऐसा अनाड़ी नहीं हूँ, उड़ती चिड़िया पहचानता हूँ।
नायकराम डट गए। दोपहर होते-होते बच्चे-बच्चे से उनकी मैत्री हो गई। दारोगाइन ने भी पालागन कहला भेजा। इधर से भी आशीर्वाद दिया गया। दारोगा तो दस बजे दफ्तर चले गए। नायकराम के लिए पूरियाँ-कचौरियाँ, चटनी, हलवा बड़ी विधि से बनाया गया। पंडितजी ने भीतर जाकर भोजन किया। रायता, दही; स्वामिनी ने स्वयं पंखा झला। फिर तो उन्होंने और रंग जमाया। लड़के-लड़कियों के हाथ देखे। दारोगाइन ने भी लजाते हुए हाथ दिखाया। पंडितजी ने अपने भाग्य-रेखा-ज्ञान का अच्छा परिचय दिया। और भी धाक जम गई। शाम को दारोगाजी दफ्तर से लौटे, तो पंडितजी शान से मसनद लगाए बैठे हुए थे और पड़ोस के कई आदमी उन्हें घेरे खड़े थे।
दारोगा ने कुर्सी पर लेटकर कहा-यह पद तो इतना ऊँचा नहीं, और न ही वेतन ही कुछ ऐसा अधिक मिलता है, पर काम इतना जिम्मेदारी का है कि केवल विश्वासपात्रों को ही मिलता है। बड़े-बड़े आदमी किसी-न-किसी अपराध के लिए दंड पाकर आते हैं। अगर चाहूँ,तो उनके घरवालों से एक-एक मुलाकात के लिए हजारों रुपये ऐंठ लूँ; लेकिन अपना यह ढंग नहीं। जो सरकार से मिलता है, उसी को बहुत समझता हूँ। किसी भीरु पुरुष का तो यहाँ घड़ी-भर निबाह न हो। एक-से-एक खूनी, डकैत, बदमाश आते रहते हैं, जिनके हजारों साथी होते हैं;चाहें तो दिन-दहाड़े जेल को लुटवा लें, पर ऐसे ढंग से उन पर रोब जमाता हूँ कि बदनामी भी न हो और नुकसान भी न उठाना पड़े। अब आज-ही-कल देखिए, काशी के कोई करोड़पति राजा हैं महाराजा भरतसिंह, उनका पुत्र राजविद्रोह के अभियोग में फँस गया है। हुक्काम तक उसका इतना आदर करते हैं कि बड़े साहब की मेम साहब दिन में दो-दो बार उसका हाल-चाल पूछने आती हैं और सरदार नीलकंठ बराबर पत्रों द्वारा उसका कुशल-समाचार पूछते रहते हैं। चाहूँ तो महाराजा भरतसिंह से एक मुलाकात के लिए लाखों रुपये उड़ा लूँ; पर यह अपना धर्म नहीं।
नायकराम-अच्छा! क्या राजा भरतसिंह का पुत्र यहीं कैद है?
दारोगा-और यहाँ सरकार को किस पर इतना विश्वास है?
नायकराम-आप-जैसे महात्माओं के दरसन दुरलभ हैं। किंतु बुरा न मानिए, तो कहूँ, बाल-बच्चों का भी धयान रखना चाहिए। आदमी घर से चार पैसे कमाने ही के लिए निकलता है।
दारोगा-अरे, तो क्या कोई कसम खाई है, पर किसी का गला नहीं दबाता। चलिए, आपको जेलखाने की सैर कराऊँ। बड़ी साफ-सुथरी जगह है। मेरे यहाँ तो जो कोई मेहमान आता है, उसे वहीं ठहरा देता हूँ। जेल के दारोगा की दोस्ती से जेल की हवा खाने के सिवा और क्या मिलेगा?
यह कहकर दारोगा मुस्कराए। वह नायकराम को किसी बहाने से यहाँ से टालना चाहते थे। नौकर भाग गया था, कैदियों और चपरासियों से काम लेने का मौका न था। सोचा, अपने हाथ चिलम भरनी पड़ेगी, बिछावन बिछाना पड़ेगा, मर्यादा में बाधा उपस्थित होगी, घर का परदा खुल जाएगा। इन्हें वहाँ ठहरा दूँगा, खाना भिजवा दूँगा, परदा ढका रह जाएगा।
नायकराम-चलिए, कौन जाने, कभी आपकी सेवा में आना ही पड़े। पहले से ठौर-ठिकान देख लूँ। महाराजा साहब के लड़के ने कौन कसूर किया था?
दारोगा-कसूर कुछ नहीं था, बस हाकिमों की जिद है। यहाँ देहातों में घूम-घूमकर लोगों को उपदेश करता था, बस, हाकिमों को उस पर संदेह हो गया कि यह राजविद्रोह फैला रहा है। यहाँ लाकर कैद कर दिया। मगर आप तो अभी उसे देखिएगा ही, ऐसा गम्भीर, शांत, विचारशील आदमी आज तक मैंने नहीं देखा। हाँ, किसी से दबा नहीं। खुशामद करके चाहे कोई पानी भरा लें; पर चाहें कि रोब से उसे दबा लें, तो जौ-भर भी न दबेगा।
नायकराम दिल में खुश था कि बड़ी अच्छी साइत में चला था कि भगवान् आप ही सब द्वार खोल देते हैं। देखूँ, अब विनयसिंह से क्या बात होती है। यों तो वह न जाएँगे, पर रानीजी की बीमारी का बहाना करना पड़ेगा। वह राजी हो जाएँ, यहाँ से निकाल ले जाना तो मेरा काम है। भगवान् की इतनी दया हो जाती, तो मेरी मनो-कामना पूरी हो जाती, घर बस जाता, जिंदगी सुफल हो जाती। 

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रचनाएँ
रंगभूमि
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। रंगभूमि (1924-1925) उपन्यास ऐसी ही कृति है। नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मध्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है। प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का प्रकाशन 1925 में हुआ था। इससे पहले देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1920 ईस्वी में शुरू हुए असहयोग आन्दोलन का प्रभाव राष्ट्रव्यापी पड़ा था। समाज बड़े पैमाने पर जाग्रत हो गया था और भारतीय समाज की अलग-अलग धाराओं, विचारों, धर्मों, जातियों का द्वंद्व अपने चरम पर था। सबसे बढ़कर एक उत्साही युवा वर्ग देश को विदेशी शासन से मुक्त करवाने के लिए उत्साह के साथ सकारात्मक हो गया था। ‘रंगभूमि’ उपन्यास के पाठ को समझने के लिए भारत की इस तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखना जरूरी है। यह उपन्यास महज अपने कैनवस, विजन में ही बड़ा नहीं है बल्कि यह प्रेमचंद का सबसे अधिक पृष्ठों का उपन्यास है।
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संध्‍या हो गई थी। किंतु फागुन लगने पर भी सर्दी के मारे हाथ-पाँव अकड़ते थे। ठंडी हवा के झोंके शरीर की हड्डियों में चुभे जाते थे। जाड़ा, इंद्र की मदद पाकर फिर अपनी बिखरी हुई शक्तियों का संचय कर रहा था औ

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अरावली की हरी-भरी झूमती हुई पहाड़ियों के दामन में जसवंतनगर यों शयन कर रहा है, जैसे बालक माता की गोद में। माता के स्तन से दूध की धारें, प्रेमोद्गार से विकल, उबलती, मीठे स्वरों में गाती निकलती हैं और बा

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रंगभूमि अध्याय 27

4 फरवरी 2022
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नायकराम मुहल्लेवालों से बिदा होकर उदयपुर रवाना हुए। रेल के मुसाफिरों को बहुत जल्द उनसे श्रध्दा हो गई। किसी को तम्बाकू मलकर खिलाते, किसी के बच्चे को गोद में लेकर प्यार करते। जिस मुसाफिर को देखते, जगह न

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रंगभूमि अध्याय 28

4 फरवरी 2022
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सोफिया के चले जाने के बाद विनय के विचार-स्थल में भाँति-भाँति की शंकाएँ होने लगीं। मन एक भीरु शत्रु है, जो सदैव पीठ के पीछे से वार करता है। जब तक सोफी सामने बैठी थी, उसे सामने आने का साहस न हुआ। सोफी क

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रंगभूमि अध्याय 29

4 फरवरी 2022
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मिस्टर विलियम क्लार्क अपने अन्य स्वदेश-बंधुओं की भाँति सुरापान के भक्त थे, पर उसके वशीभूत न थे। वह भारतवासियों की भाँति पीकर छकना न जानते थे। घोड़े पर सवार होना जानते थे, उसे काबू से बाहर न होने देते

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रंगभूमि अध्याय 30

4 फरवरी 2022
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शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्यि भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहान

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रंगभूमि अध्याय 31

4 फरवरी 2022
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भैरों के घर से लौटकर सूरदास अपनी झोंपड़ी में आकर सोचने लगा, क्या करूँ कि सहसा दयागिरि आ गए और बोले-सूरदास, आज तो लोग तुम्हारे ऊपर बहुत गरम हो रहे हैं, इसे घमंड हो गया है। तुम इस माया-जाल में क्यों पड़

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रंगभूमि अध्याय 32

4 फरवरी 2022
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सूरदास के मुकदमे का फैसला सुनने के बाद इंद्रदत्ता चले, तो रास्ते में प्रभु सेवक से मुलाकात हो गई। बातें होने लगी। इंद्रदत्ता-तुम्हारा क्या विचार है, सूरदास निर्दोष है या नहीं? प्रभु सेवक-सर्वथा निर्

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रंगभूमि अध्याय 33

4 फरवरी 2022
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फैक्टरी करीब-करीब तैयार हो गई थी। अब मशीनें गड़ने लगीं। पहले तो मजदूर-मिस्त्री आदि प्राय: मिल के बरामदों ही में रहते थे, वहीं पेड़ों के नीचे खाना पकाते और सोते; लेकिन जब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई, तो मु

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रंगभूमि अध्याय 34

4 फरवरी 2022
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प्रभु सेवक ने घर आते ही मकान का जिक्र छेड़ दिया। जान सेवक यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए कि अब इसने कारखाने की ओर धयान देना शुरू किया। बोले-हाँ, मकानों का बनना बहुत जरूरी है। इंजीनियर से कहो, एक नक्शा बनाए

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रंगभूमि अध्याय 35

4 फरवरी 2022
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विनयसिंह आबादी में दाखिल हुए, तो सबेरा हो गया था। थोड़ी दूर चले थे कि एक बुढ़िया लाठी टेकती सामने से आती हुई दिखाई दी। इन्हें देखकर बोली-बेटा, गरीब हूँ। बन पडे, तो कुछ दे दो। धरम होगा। नायकराम-सवेरे

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रंगभूमि अध्याय 36

4 फरवरी 2022
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मिस्टर जॉन सेवक ने ताहिर अली की मेहनत और ईमानदारी से प्रसन्न होकर खालों पर कुछ कमीशन नियत कर दिया था। इससे अब उनकी आय अच्छी हो गई थी, जिससे मिल के मजदूरों पर उनका रोब था, ओवरसियर और छोटे-छोटे क्लर्क उ

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रंगभूमि अध्याय 37

4 फरवरी 2022
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प्रभु सेवक बड़े उत्साही आदमी थे। उनके हाथ से सेवक-दल में एक नई सजीवता का संचार हुआ। संख्या दिन-दिन बढ़ने लगी। जो लोग शिथिल और उदासीन हो रहे थे, फिर नए जोश से काम करने लगे। प्रभु सेवक की सज्जनता और सहृ

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रंगभूमि अध्याय 38

4 फरवरी 2022
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सोफिया और विनय रात-भर तो स्टेशन पर पड़े रहे। सबेरे समीप के गाँव में गए, जो भीलों की एक छोटी-सी बस्ती थी। सोफिया को यह स्थान बहुत पसंद आया। बस्ती के सिर पर पहाड़ का साया था, पैरों के नीचे एक पहाड़ी नाल

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रंगभूमि अध्याय 40

4 फरवरी 2022
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मिल के तैयार होने में अब बहुत थोड़ी कसर रह गई थी। बाहर से तम्बाकू की गाड़ियाँ लदी चली आती थीं। किसानों को तम्बाकू बोने के लिए दादनी दी जा रही थी। गवर्नर से मिल को खोलने की रस्म अदा करने के लिए प्रार्थ

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रंगभूमि अध्याय 41

4 फरवरी 2022
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प्रभु सेवक ने तीन वर्ष अमेरिका में रहकर और हजारों रुपये खर्च करके जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया था, वह मि. जॉन सेवक ने उनकी संगति से उतने ही महीनों में प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं, प्रभु सेवक की भा

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रंगभूमि अध्याय 42

4 फरवरी 2022
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अदालत ने अगर दोनों युवकों को कठिन दंड दिया, तो जनता ने भी सूरदास को उससे कम कठिन दंड न दिया। चारों ओर थुड़ी-थुड़ी होने लगी। मुहल्लेवालों का तो कहना ही क्या, आस-पास के गाँववाले भी दो-चार खोटी-खरी सुना

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रंगभूमि अध्याय 43

4 फरवरी 2022
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सोफिया के धार्मिक विचार, उसका आचार-व्यवहार, रहन-सहन, उसकी शिक्षा-दीक्षा, ये सभी बातें ऐसी थीं, जिनसे एक हिंदू महिला को घृणा हो सकती थी। पर इतने दिनों के अनुभव ने रानीजी की सभी शंकाओं का समाधान कर दिया

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रंगभूमि अध्याय 44

4 फरवरी 2022
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गंगा से लौटते दिन के नौ बज गए। हजारों आदमियों का जमघट, गलियाँ तंग और कीचड़ से भरी हुई, पग-पग पर फूलों की वर्षा, सेवक-दल का राष्ट्रीय संगीत, गंगा तक पहुँचते-पहुँचते ही सबेरा हो गया था। लौटते हुए जाह्नव

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रंगभूमि अध्याय 45

4 फरवरी 2022
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पाँड़ेपुर में गोरखे अभी तक पड़ाव डाले हुए थे। उनके उपलों के जलने से चारों तरफ धुआँ छाया हुआ था। उस श्यामावरण में बस्ती के ख्रडहर भयानक मालूम होते थे। यहाँ अब भी दिन में दर्शकों की भीड़ रहती थी। नगर मे

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रंगभूमि अध्याय 46

4 फरवरी 2022
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चारों आदमी शफाखाने पहुँचे, तो नौ बज चुके थे। आकाश निद्रा में मग्न, आँखें बंद किए पड़ा हुआ था, पर पृथ्वी जाग रही थी। भैरों खड़ा सूरदास को पंखा झल रहा था। लोगों को देखते ही उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे।

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रंगभूमि अध्याय 47

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संधया हो गई थी। मिल के मजदूर छुट्टी पा गए थे। आजकल दूनी मजदूरी देने पर भी बहुत थोड़े मजदूर काम करने आते थे। पाँड़ेपुर में सन्नाटा छाया हुआ था। वहाँ अब मकानों के भग्नावशेष के सिवा कुछ नजर न आता था। हाँ

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रंगभूमि अध्याय 48

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काशी के म्युनिसिपल बोर्ड में भिन्न-भिन्न राजनीतिक सम्प्रदायों के लोग मौजूद थे। एकवाद से लेकर जनसत्तावाद तक सभी विचारों के कुछ-न-कुछ आदमी थे। अभी तक धन का प्राधान्य नहीं था, महाजनों और रईसों का राज्य थ

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रंगभूमि अध्याय 49

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इधर सूरदास के स्मारक के लिए चंदा जमा किया जा रहा था, उधर कुलियों के टोले में शिलान्यास की तैयारियाँ हो रही थीं। नगर के गण्यमान्य पुरुष निमंत्रित हुए थे। प्रांत के गवर्नर से शिला-स्थापना की प्रार्थना क

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रंगभूमि अध्याय 50

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कुँवर विनयसिंह की वीर मृत्यु के पश्चात रानी जाह्नवी का सदुत्साह दुगुना हो गया। वह पहले से कहीं ज्यादा क्रियाशील हो गईं। उनके रोम-रोम में असाधारण स्फूर्ति का विकास हुआ। वृध्दावस्था की आलस्यप्रियता यौवन

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