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रंगभूमि अध्याय 41

4 फरवरी 2022

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प्रभु सेवक ने तीन वर्ष अमेरिका में रहकर और हजारों रुपये खर्च करके जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया था, वह मि. जॉन सेवक ने उनकी संगति से उतने ही महीनों में प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं, प्रभु सेवक की भाँति वह केवल बतलाए हुए मार्ग पर आँखें बंद करके चलने पर ही संतुष्ट न थे; उनकी निगाह आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ भी रहती थी। विशेषज्ञों में एक संकीर्णता होती है, जो उनकी दृष्टि को सीमित कर देती है। वह किसी विषय पर स्वाधीन होकर विस्तीर्ण दृष्टि नहीं डाल सकते, नियम, सिध्दांत और परम्परागत व्यवहार उनकी दृष्टि को फैलने नहीं देते। वैद्य प्रत्येक रोग की औषधि ग्रंथों में खोजता है; वह केवल निदान का दास है, लक्षणों का गुलाम; वह यह नहीं जानता कि कितने ही रोगों की औषधि लुकमान के पास भी न थी। सहज बुध्दि अगर सूक्ष्मदर्शी नहीं होती, तो संकुचित भी नहीं होती। वह हरएक विषय पर व्यापक रीति से विचार कर सकती है, जरा-जरा-सी बातों में उलझकर नहीं रह जाती। यही कारण है कि मंत्री-भवन में बैठा हुआ सेना-मंत्री सेनापति पर शासन करता है। प्रभु सेवक से पृथक हो जाने से मि. जॉन सेवक लेशमात्र भी चिंतित नहीं हुए थे। वह दूने उत्साह से काम करने लगे। व्यवहार-कुशल मनुष्य थे। जितनी आसानी से कार्यालय में बैठकर बहीखाते लिख सकते थे, उतनी ही आसानी से अवसर पड़ने पर एंजिन के पहियों को भी चला सकते थे। पहले कभी-कभी सरसरी निगाह से मिल को देख लिया करते थे, अब नियमानुसार और यथासमय जाते। बहुधा दिन को भोजन वहीं करते और शाम को घर जाते। कभी रात को नौ-दस बजे जाते। वह प्रभु सेवक को दिखा देना चाहते थे कि मैंने तुम्हारे ही बलबूते पर यह काम नहीं उठाया है; कौवे के न बोलने पर भी दिन निकल ही आता है। उनके धन-प्रेम का आधार संतान-प्रेम न था। वह उनके जीवन का मुख्य अंग, उनकी जीवन-धार का मुख्य-श्रोत था। संसार के और सभी धंधे इसके अंतर्गत थे।

मजदूरों और कारीगरों के लिए मकान बनवाने की समस्या अभी तक हल न हुई थी। यद्यपि जिले के मजिस्टे्रट से उन्होंने मेल-जोल पैदा कर लिया था, चतारी के राजा साहब की ओर से उन्हें बड़ी शंका थी। राजा साहब एक बार लोकमत की उपेक्षा करके इतने बदनाम हो चुके थे कि उससे कहीं महत्तवपूर्ण विजय की आशा भी अब उन्हें वे चोटें खाने के लिए उत्तोजित न कर सकती थी। मिल बड़ी धूम से चल रही थी, लेकिन उसकी उन्नति के मार्ग में मजदूरों के मकानों का न होना सबसे बड़ी बाधा थी। जॉन सेवक इसी उधोड़-बुन में पड़े रहते थे।
संयोग से परिस्थितियों में कुछ ऐसा उलट-फेर हुआ कि विकट समस्या बिना विशेष उद्योग के हल हो गई। प्रभु सेवक के असहयोग ने वह काम कर दिखाया, जो कदाचित् उनके सहयोग से भी न हो सकता था।

जब से सोफिया और विनयसिंह आ गए थे, सेवक-दल बड़ी उन्नति कर रहा था। उसकी राजनीति की गति दिन-दिन तीव्र और उग्र होती जाती थी। कुँवर साहब ने जितनी आसानी से पहली बार अधिकारियों की शंकाओं को शांत कर दिया था, उतनी आसानी से अबकी बार न कर सके। समस्या कहीं विषम हो गई थी। प्रभु सेवक को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करना मुश्किल न था, विनय को घर से निकाल देना,उसे अधिकारियों की दया पर छोड़ देना, कहीं मुश्किल था। इसमें संदेह नहीं कि कुँवर साहब निर्भीक पुरुष थे, जाति-प्रेम में पगे हुए,स्वच्छंद, नि:स्पृह और विचारशील। उनको भोग-विलास के लिए किसी बड़ी जाएदाद की बिलकुल जरूरत न थी। किंतु प्रत्यक्ष रूप से अधिकारियों के कोपभाजन बनने के लिए वह तैयार न थे। वह अपना सर्वस्व जाति-हित के लिए दे सकते थे; किंतु इस तरह कि हित का साधन उनके हाथ में रहे। उनमें वह आत्मसमर्पण की क्षमता न थी, जो निष्काम और नि:स्वार्थ भाव से अपने को मिटा देती है। उन्हें विश्वास था कि हम आड़ में रहकर उससे कहीं अधिक उपयोगी बन सकते हैं, जितने सामने आकर। विनय का दूसरा ही मत था। वह कहता था, हम जाएदाद के लिए अपनी आत्मिक स्वतंत्रता की हत्या क्यों करें? हम जाएदाद के स्वामी बनकर रहेंगे, उसके दास बनकर नहीं। अगर सम्पत्तिा से निवृत्तिा न प्राप्त कर सके, तो इस तपस्या का प्रयोजन ही क्या? यह तो गुनाहे बेलज्जत है। निवृत्तिा ही के लिए तो यह साधना की जा रही है। कुँवर साहब इसका यह जवाब देते कि हम इस जाएदाद के स्वामी नहीं, केवल रक्षक हैं। यह आनेवाली संतानों की धरोहर-मात्र है। हमको क्या अधिकार है कि भावी संतान से वह सुख और सम्पत्तिा छीन लें, जिसके वे वारिस होंगे? बहुत सम्भव है, वे इतने आदर्शवादी न हों, या उन्हें परिस्थिति के बदल जाने से आत्मत्याग की जरूरत ही न रहे। यह भी सम्भव है कि उनमें वे स्वाभाविक गुण न हों, जिनके सामने सम्पत्तिा की कोई हस्ती नहीं। ऐसी ही युक्तियों से वह विनय का समाधान करने की विफल चेष्टा किया करते थे। वास्तव में बात यह थी कि जीवन-पर्यंत ऐश्वर्य का सुख और सम्मान भोगने के पश्चात् वह निवृत्तिा का यथार्थ आशय ही न ग्रहण कर सकते थे। वह संतान न चाहते थे, सम्पत्तिा के लिए संतान चाहते थे। जाएदाद के सामने संतान का स्थान गौण था। उन्हें अधिकारियों की खुशामद से घृणा थी, हुक्काम की हाँ में हाँ मिलना हेय समझते थे; किंतु हुक्काम की नजरों में गड़ना, उनके हृदय में खटकना, इस हद तक कि वे शत्रुता पर तत्पर हो जाएँ, उन्हें बेवकूफी मालूम होती थी। कुँवर साहब के हाथों में विनय को सीधी राह पर लाने का एक ही उपाय था, और वह यह कि सोफिया से उसका विवाह हो जाए। इस बेड़ी में जकड़कर उसकी उद्दंडता को वह शांत करना चाहते थे; लेकिन अब जो कुछ विलम्ब था, वह सोफिया की ओर से। सोफिया को अब भी भय था कि यद्यपि रानी मुझ पर बड़ी कृपा-दृष्टि रखती हैं, पर दिल से उन्हें यह सम्बंध पसंद नहीं। उसका यह भय सर्वथा अकारण भी न था। रानी भी सोफिया से प्रेम कर सकती थीं और करती थीं, उसका आदर कर सकती थीं और करती थीं, पर अपनी वधू में वह त्याग और विचार की अपेक्षा लज्जाशीलता, सरलता, संकोच और कुल-प्रतिष्ठा को अधिक मूल्यवान समझती थीं, संन्यासिनी वधू नहीं, भोग करनेवाली वधू चाहती थीं। किंतु वह अपने हृदयगत भावों को भूलकर भी मुँह से न निकालती थीं। न ही वह इस विचार को मन में आने ही देना चाहती थीं, इसे कृतघ्नता समझती थीं।

कुँवर साहब कई दिन तक इसी संकट में पड़े रहे। मि. जॉन सेवक से बातचीत किए बिना विवाह कैसे ठीक होता? आखिर एक दिन इच्छा न होने पर भी विवश होकर उनके पास गए। संधया हो गई थी। मि. जॉन सेवक अभी-अभी मिल से लौटे थे और मजदूरों के मकानों की स्कीम सामने रखे हुए कुछ सोच रहे थे। कुँवर साहब को देखते ही उठे और बड़े तपाक से हाथ मिलाया।
कुँवर साहब कुर्सी पर बैठते हुए बोले-आप विनय और सोफिया के विवाह के विषय में क्या निश्चय करते हैं? आप मेरे मित्र और सोफिया के पिता हैं, और दोनों ही नाते से मुझे आपसे यह कहने का अधिकार है कि अब इस काम में देर न कीजिए।
जॉन सेवक-मित्रता के नाते चाहे जो सेवा ले सकते हैं, लेकिन (गम्भीर भाव से) सोफिया के पिता के नाते मुझे कोई निश्चय करने का अधिकार नहीं। उसने मुझे इस अधिकार से वंचित कर दिया। नहीं तो उसे इतने दिन यहाँ आए हो गए, क्या एक बार भी यहाँ तक न आती? उसने हमसे यह अधिकार छीन लिया।
इतने में मिसेज सेवक भी आ गईं। पति की बातें सुनकर बोलीं-मैं तो मर जाऊँगी, लेकिन उसकी सूरत न देखूँगी। हमारा उससे अब कोई सम्बंध न रहा।
कुँवर-आप लोग सोफिया पर अन्याय कर रहे हैं। जब से वह आई है, एक दिन के लिए भी घर से नहीं निकली। इसका कारण केवल संकोच है, और कुछ नहीं। शायद डरती है कि बाहर निकलूँ, और किसी पुराने परिचित से साक्षात् हो जाए, तो उससे क्या बात करूँगी। थोड़ी देर के लिए कल्पना कर लीजिए कि हममें से कोई भी उसकी जगह होता, तो उसके मन में कैसे भाव आते। इस विषय में वह क्षम्य है। मैं तो इसे अपना दुर्भाग्य समझ्रूगा, अगर आप लोग उससे विरक्त हो जाएँगे। अब विवाह में विलम्ब न होना चाहिए।
मिसेज सेवक-खुदा वह दिन न लाए! मेरे लिए तो वह मर गई, उसका फातेहा पढ़ चुकी, उसके नाम को जितना रोना था, रो चुकी!
कुँवर-यह ज्यादती आप लोग मेरे रियासत के साथ कर रहे हैं। विवाह एक ऐसा उपाय है, जो विनय की उद्दंडता को शांत कर सकता है।
जॉन सेवक-मेरी तो सलाह है कि आप रियासत को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के सिपुर्द कर दीजिए। गवर्नमेंट आपके प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लेगी और आपके प्रति उसका सारा संदेह शांत हो जाएगा। तब कुँवर विनयसिंह की राजनीतिक उद्दंडता का रियासत पर जरा भी असर न पड़ेगा; और यद्यपि इस समय आपको यह व्यवस्था बुरी मालूम होगी, लेकिन कुछ दिनों बाद जब उनके विचारों में प्रौढ़ता आ जाएगी, तो वह आपके कृतज्ञ होंगे और आपको अपना सच्चा हितैषी समझेंगे। हाँ, इतना निवेदन है कि इस काम में हाथ डालने से पहले आप अपने को खूब दृढ़ कर लें। उस वक्त अगर आपकी ओर से जरा भी पसोपेश हुआ, तो आपका सारा प्रयत्न विफल हो जाएगा, आप गवर्नमेंट के संदेह को शांत करने की जगह और भी उकसा देंगे।
कुँवर-मैं जाएदाद की रक्षा के लिए सब कुछ करने को तैयार हूँ। मेरी इच्छा केवल इतनी है कि विनय को आर्थिक कष्ट न होने पाए। बस,अपने लिए मैं कुछ नहीं चाहता।
जॉन सेवक-आप प्रत्यक्ष रूप से तो कुँवर विनयसिंह के लिए व्यवस्था नहीं कर सकते। हाँ, यह हो सकता है कि आप अपनी वृत्तिा में से जितना उचित समझें, उन्हें दे दिया करें।
कुँवर-अच्छा, मान लीजिए, विनय इसी मार्ग पर और भी अग्रसर होते गए, तो?
जॉन सेवक-तो उन्हें रियासत पर कोई अधिकार न होगा।
कुँवर-लेकिन उनकी संतान को तो यह अधिकार रहेगा?
जॉन सेवक-अवश्य।
कुँवर-गवर्नमेंट स्पष्ट रूप से यह शर्त मंजूर कर लेगी?
जॉन सेवक-न मंजूर करने का कोई कारण नहीं मालूम पड़ता।
कुँवर-ऐसा तो न होगा कि विनय के कामों का फल उनकी संतान को भोगना पड़े? सरकार रियासत को हमेशा के लिए जब्त कर ले? ऐसा दो-एक जगह हुआ है। बरार ही को देखिए।
जॉन सेवक-कोई खास बात पैदा हो जाए, तो नहीं कह सकते; लेकिन सरकार की यह नीति कभी नहीं रही। बरार की बात जाने दीजिए। वह इतना बड़ा सूबा है कि किसी रियासत में उसका मिल जाना राजनीतिक कठिनाइयों का कारण हो सकता है।
कुँवर-तो मैं कल डॉक्टर गांगुली को शिमले से तार भेजकर बुलाए लेता हूँ?
जॉन सेवक-आप चाहें, तो बुला लें। मैं तो समझता हूँ, यहीं से मसबिदा बनाकर उनके पास भेज दिया जाए या मैं स्वयं चला जाऊँ और सारी बातें आपकी इच्छानुसार तय कर आऊँ।
कुँवर साहब ने धन्यवाद दिया और घर चले गए। रात-भर वह इसी हैस-वैस में पड़े रहे कि विनय और जाह्नवी से इस निश्चय का समाचार कहूँ या न कहूँ। उनका जवाब उन्हें मालूम था। उनसे उपेक्षा और दुराग्रह के सिवा सहानुभूति की जरा भी आशा नहीं। कहने से फायदा ही क्या? अभी तो विनय को कुछ भय भी है। यह हाल सुनेगा, तो और भी दिलेर हो जाएगा। अंत को उन्होंने यह निश्चय किया कि अभी बतला देने से कोई फायदा नहीं, और विघ्न पड़ने की सम्भावना है। जब काम पूरा हो जाएगा, तो कहने-सुनने को काफी समय मिलेगा।
मिस्टर जॉन सेवक पैरों-तले घास न जमने देना चाहते थे। दूसरे ही दिन उन्होंने एक बैरिस्टर से प्रार्थना-पत्र लिखवाया और कुँवर साहब को दिखाया। उसी दिन वह कागज डॉक्टर गांगुली के पास भेज दिया गया। डॉक्टर गांगुली ने इस प्रस्ताव को बहुत पसंद किया और खुद शिमले से आए। यहाँ कुँवर साहब से परामर्श किया और दोनों आदमी प्रांतीय गवर्नर के पास पहुँचे। गवर्नर को इसमें क्या आपत्तिा हो सकती थी, विशेषत: ऐसी दशा में जब रियासत पर एक कौड़ी भी कर्ज न था? कर्मचारियों ने रियासत के हिसाब-किताब की जाँच शुरू की और एक महीने के अंदर रियासत पर सरकारी अधिकार हो गया। कुँवर साहब लज्जा और ग्लानि के मारे इन दिनों विनय से बहुत कम बोलते,घर में बहुत कम आते, आँखें चुराते रहते थे कि कहीं यह प्रसंग न छिड़ जाए। जिस दिन सारी शतर्ें तय हो गईं, कुँवर साहब से न रहा गया, विनयसिंह से बोले-रियासत पर तो सरकारी अधिकार हो गया।
विनय ने चौंककर पूछा-क्या जब्त हो गई?
कुँवर-नहीं, मैंने कोर्ट ऑफ वार्ड्स के सिपुर्द कर दिया!
यह कहकर उन्होंने शर्तों का उल्लेख किया और विनीत भाव से बोले-क्षमा करना, मैंने तुमसे इस विषय में सलाह नहीं ली।
विनय-मुझे इसका बिलकुल दु:ख नहीं है, लेकिन आपने व्यर्थ ही अपने को गवर्नमेंट के हाथ में डाल दिया। अब आपकी हैसियत केवल एक वसीकेदार की है, जिसका वसीका किसी वक्त बंद किया जा सकता है।
कुँवर-इसका इलजाम तुम्हारे सिर है।
विनय-आपने यह निश्चय करने से पहले ही मुझसे सलाह ली होती, तो यह नौबत न आने पाती। मैं आजीवन रियासत से पृथक् रहने का प्रतिज्ञापत्र लिख देता और आप उसे प्रकाशित करके हुक्काम को प्रसन्न रख सकते थे।
कुँवर-(सोचकर) उस दशा में भी यह संदेह हो सकता था कि मैं गुप्त रीति से तुम्हारी सहायता कर रहा हूँ। इस संदेह को मिटाने के लिए मेरे पास और कौन साधन था?
विनय-तो मैं इस घर से निकल जाता और आपसे मिलना-जुलना छोड़ देता। अब भी अगर आप इस इंतजाम को रद्द करा सकें, तो अच्छा हो। मैं अपने खयाल से नहीं, आप ही के खयाल से कह रहा हूँ। मैं अपने निर्वाह की कोई राह निकाल लूँगा।
कुँवर साहब सजल नयन होकर बोले-विनय, मुझसे ऐसी कठोर बातें न करो। मैं तुम्हारे तिरस्कार का नहीं, तुम्हारी सहानुभूति और दया का पात्र होने योग्य हूँ। मैं जानता हूँ, केवल सामाजिक सेवक से हमारा उध्दार नहीं हो सकता। यह भी जानता हूँ कि हम स्वच्छंद होकर सामाजिक सेवा भी नहीं कर सकते। कोई आयोजना, जिससे देश में अपनी दशा को अनुभव करने की जागृति उत्पन्न हो, जो भ्रातृत्व और जातीयता के भावों को जगाए, संदेह से मुक्त नहीं रह सकती। यह सब जानते हुए मैंने सेवा-क्षेत्र में कदम रखे थे। पर यह न जानता था कि थोड़े ही समय में यह संस्था यह रूप धारण करेगी और इसका परिणाम यह होगा! मैंने सोचा था, मैं परोक्ष में इसका संचालन करता रहूँगा;यह न जानता था कि इसके बदले मुझे अपना सर्वस्व-और अपना ही नहीं, भावी संतान का सर्वस्व भी-होम कर देना पड़ेगा। मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझमें इतने महान् त्याग की सामर्थ्य नहीं।
विनय ने इसका कुछ जवाब न दिया। अपने या सोफी के विषय में उन्हें कोई चिंता न थी, चिंता थी सेवक-दल के संचालन की। इसके लिए धन कहाँ से आएगा? उन्हें कभी भिक्षा माँगने की जरूरत न पड़ी थी। जनता से रुपये कैसे मिलते हैं, यह गुर न जानते थे। कम-से-कम पाँच हजार माहवार का खर्च था। इतना धन एकत्र करने के लिए एक संस्था की अलग ही जरूरत थी। अब उन्हें अनुभव हुआ कि धन-सम्पत्ति इतनी तुच्छ वस्तु नहीं। पाँच हजार रुपये माहवार, 60 हजार रुपये साल के लिए 12 लाख का स्थायी कोश होना आवश्यक था। कुछ बुध्दि काम न करती थी। जाह्नवी के पास निज का कुछ धन था, पर वह उसे देना न चाहती थीं और अब तो उसकी रक्षा करने की और भी जरूरत थी, क्योंकि वह विनय को दरिद्र नहीं बनाना चाहती थीं।
तीसरे पहर का समय था। विनय और इंद्रदत्ता, दोनों रुपयों की चिंता में मग्न बैठे हुए थे सहसा सोफिया ने आकर कहा-मैं एक उपाय बताऊँ?
इंद्रदत्ता-भिक्षा माँगने चलें?
सोफिया-क्यों न एक ड्रामा खेला जाए! ऐक्टर हैं ही, कुछ परदे बनवा लिए जाएँ, मैं भी परदे बनाने में मदद दूँगी।
विनय-सलाह तो अच्छी है, लेकिन नायिका तुम्हें बनना पड़ेगा।
सोफिया-नायिका का पार्ट इंदुरानी खेलेंगी, मैं परिचारिका का पार्ट लूँगी।
इंद्रदत्ता-अच्छा, कौन-सा नाटक खेला जाए? भट्टजी का 'दुर्गावती' नाटक।
विनय-मुझे तो 'प्रसाद' का 'अजातशत्रु' बहुत पसंद है।
सोफिया-मुझे 'कर्बला' बहुत पसंद आया। वीर और करुण, दोनों ही रसों का अच्छा समावेश है।
इतने में एक डाकिया अंदर दाखिल हुआ और एक मुहरबंद रजिस्टर्ड लिफाफा विनय के हाथ में रखकर चला गया। लिफाफे पर प्रभु सेवक की मुहर थी। लंदन से आया था।
विनय-अच्छा, बताओ, इसमें क्या होगा?
सोफिया-रुपये तो होंगे नहीं, और चाहे जो हो। वह गरीब रुपये कहाँ पाएगा? वहाँ होटल का खर्च ही मुश्किल से दे पाता होगा?
विनय-और मैं कहता हूँ कि रुपयों के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता।
इंद्रदत्ता-कभी नहीं। कोई नई रचना होगी।
विनय-तो रजिस्ट्री कराने की क्या जरूरत थी?
इंद्रदत्ता-रुपये हो तो, तो बीमा न कराया होता?
विनय-मैं कहता हूँ, रुपये हैं, चाहे शर्त बद लो।
इंद्रदत्ता-मेरे पास कुल पाँच रुपये हैं, पाँच-पाँच की बाजी है।
विनय-यह नहीं। अगर इसमें रुपये हों, तो मैं तुम्हारी गर्दन पर सवार होकर यहाँ से कमरे के उस सिरे तक जाऊँगा। न हुए, तो तुम मेरी गर्दन पर सवार होना। बोलो?
इंद्रदत्ता-मंजूर है, खोलो लिफाफा।
लिफाफा खोला गया, तो चेक निकला। पूरे दस हजार रुपये का। लंदन बैंक के नाम। विनय उछल पड़े। बोले-मैं कहता न था! यहाँ सामुद्रिक विद्या पढ़े हैं। आइए, लाइए गर्दन।
इंद्रदत्ता-ठहरो-ठहरो, गर्दन तोड़के रख दोगे क्या! जरा खत तो पढ़ो, क्या लिखा है, कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं? लगे सवारी गाँठने।
विनय-जी नहीं, यह नहीं होने का। आपको सवारी देनी होगी। गर्दन टूटे या रहे, इसका मैं जिम्मेदार नहीं। कुछ दुबले-पतले तो हो नहीं,खासे देव तो बने हुए हो।
इंद्रदत्ता-भाई, आज मंगल के दिन नजर न लगाओ। कुल दो मन पैंतीस सेर तो रह गया हूँ। राजपूताना जाने के पहले तीन मन से ज्यादा का था।
विनय-खैर, देर न कीजिए, गर्दन झुकाकर खड़े हो जाइए।
इंद्रदत्ता-सोफिया, मेरी रक्षा करो। तुम्हीं ने पहले कहा था, इसमें रुपये न होंगे। वही सुनकर मैंने भी कह दिया था।
सोफिया-मैं तुम्हारे झगड़ों में नहीं पड़ती। तुम जानो, यह जानें। यह कहकर उसने खत शुरू किया-
प्रिय बंधुवर,
मैं नहीं जानता कि मैं यह पत्र किसे लिख रहा हूँ। कुछ खबर नहीं कि आजकल व्यवस्थापक कौन है। मगर सेवक-दल से मुझे अब भी वही प्रेम है, जो पहले था। उसकी सेवा करना अपना कर्तव्य समझता हूँ। आप मेरा कुशल समाचार जानने के लिए उत्सुक होंगे। मैं पूना ही में था कि वहाँ के गवर्नर ने मुझे मुलाकात करने को बुलाया। उनसे देर तक साहित्य-चर्चा होती रही। एक ही मर्मज्ञ हैं। हमारे देश में ऐसे रसिक कम निकलेंगे। विनय (उसका कुछ हाल नहीं मालूम हुआ) के सिवा मैंने और किसी को इतना काव्य-रस-चतुर नहीं पाया। कितनी सजीव सहृदयता थी! गवर्नर महोदय की प्रेरणा से मैं यहाँ आया, और जब से आया हूँ, आतिथ्य का अविरल प्रवाह हो रहा है। वास्तव में जीवित राष्ट्र ही गुणियों का आदर करना जानते हैं। बड़े ही सहृदय, उदार, स्नेहशील प्राणी हैं। मुझे इस जाति से अब श्रध्दा हो गई है, और मुझे विश्वास हो गया कि इस जाति के हाथों हमारा अहित कभी नहीं हो सकता। कल यूनिवर्सिटी की ओर से मुझे एक अभिनंदन-पत्र दिया गया। साहित्य-सेवियों का ऐसा समारोह मैंने काहे को कभी देखा था! महिलाओं का स्नेह और सत्कार देखकर मैं मुग्ध हो गया। दो दिन पहले इंडिया-हाउस में भोज था।

आज साहित्य-परिषद् ने निमंत्रित किया है। कल 'लिबरल' एसोसिएशन दावत देगा। परसों पारसी समाज का नम्बर है। उसी दिन यूनियन क्लब की ओर से पार्टी दी जाएगी। मुझे स्वप्न में भी आशा न थी कि मैं इतना जल्द बड़ा आदमी हो जाऊँगा। मैं ख्याति और सम्मान के निंदकों में नहीं हूँ। इसके सिवा गुणियों को और क्या पुरस्कार मिल सकता है? मुझे कब मालूम हुआ कि मैं क्या करने के लिए संसार में आया हूँ? मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? अब तक भ्रम में पड़ा हुआ था। अब से मेरे जीवन का मिशन होगा प्राच्य और पाश्चात्य को प्रेम-सूत्र में बाँधना, पारस्परिक द्वंद्व को मिटाना और दोनों में समान भावों को जागृत करना। मैं यही व्रत धारण करूँगा। पूर्व ने किसी जमाने में पश्चिम को धर्म का मार्ग दिखाया था; अब उसे प्रेम का शब्द सुनाएगा, प्रेम का पथ दिखाएगा। मेरी कविताओं का पहला संग्रह मैकमिलन कम्पनी द्वारा शीघ्र प्रकाशित होगा। गवर्नर महोदय मेरी उन कविताओं की भूमिका लिखेंगे। इस संग्रह के लिए प्रकाशकों ने मुझे चालीस हजार रुपये दिए हैं। इच्छा तो यही थी कि ये सब रुपये अपनी प्यारी संस्था को भेंट करता; पर विचार हो रहा है कि अमेरिका की सैर भी करूँ। इसलिए इस समय जो कुछ भेजता हूँ, उसे स्वीकार कीजिए। मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया है। इसलिए धन्यवाद की आशा नहीं रखता। हाँ, इतना निवेदन करना आवश्यक समझता हूँ कि आपको सेवा के उच्चादर्शों का पालन करना चाहिए, और राजनीतिक परिस्थितियों से विरक्त होकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के प्रचार को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। मेरे व्याख्यानों की रिपोर्ट आपको यहाँ के समाचार-पत्रों में मिलेगी। आप देखेंगे कि मेरे राजनीतिक विचारों में कितना अंतर हो गया है। मैं अब स्वदेशी नहीं, सर्वदेशीय हूँ, अखिल संसार मेरा स्वदेश है; प्राणिमात्र से मेरा बंधुत्व है और भौगोलिक तथा जातीय सीमाओं को मिटाना मेरे जीवन का उद्देश्य है। प्रार्थना कीजिए कि अमेरिका से सकुशल लौट आऊँ।
आपका सच्चा बंधु
प्रभु सेवक
सोफिया ने पत्र मेज पर रख दिया और गम्भीर भाव से बोली-इसके दोनों ही अर्थ हो सकते हैं, आत्मिक उत्थान या पतन। मैं तो पतन ही समझती हूँ।
विनय-क्यों? उत्थान क्यों नहीं?
सोफिया-इसलिए कि प्रभु सेवक की आत्मा शृंगारप्रिय है। वह कभी स्थिर चित्ता नहीं रहे। जो प्राणी सम्मान से इतना फूल उठता है, वह उपेक्षा से इतना ही हताश भी हो जाएगा।
विनय-यह कोई बात नहीं। कदाचित् मैं भी इसी तरह फूल उठता। यह तो बिलकुल स्वाभाविक है। यहाँ उनकी क्या कद्र हुई? मरते दम तक गुमनाम पड़े रहते।
इंद्रदत्ता-जब हमारे काम के नहीं रहे, तो प्रसिध्द हुआ करें। ऐसे विश्व-प्रेमियों से कभी किसी का उपकार न हुआ है, न होगा। जिसमें अपना नहीं, उसमें पराया क्या होगा?
सोफिया-सार्वदेशिकता हमारे कई कवियों को ले डूबी, इन्हें भी ले डूबेगी। इनका होना, न होना हमारे लिए दोनों बराबर है; बल्कि मुझे तो अब इनसे हानि पहुँचने की शंका है। मैं जाकर अभी इस पत्र का जवाब लिखती हूँ।
यह कहते हुए सोफिया वह पत्र हाथ में लिए हुए अपने कमरे में चली गई। विनय ने कहा-क्या करूँ, रुपये वापस कर दूँ।
इंद्रदत्ता-रुपये क्यों वापस करोगे? उन्होंने कोई शर्त तो की नहीं है! मित्रोचित सलाह दी है और बहुत अच्छी सलाह दी हैं हमारा भी तो वही उद्देश्य है। अंतर केवल इतना है कि वह समता के बिना ही बंधुत्व का प्रचार करना चाहते हैं, हम बंधुत्व के लिए समता को आवश्यक समझते हैं।
विनय-यों क्यों नहीं कहते कि बंधुत्व समता पर ही स्थित है?
इंद्रदत्ता-सोफिया देवी खूब खबर लेंगी।
विनय-अच्छा, अभी रुपये रखे लेता हूँ, पीछे देखा जाएगा।
इंद्रदत्ता-दो-चार ऐसे ही मित्र और मिल जाएँ, तो हमारा काम चल निकले।
विनय-सोफिया का ड्रामा खेलने की सलाह कैसी है?
इंद्रदत्ता-क्या पूछना, उनका अभिनय देखकर लोग दंग रह जाएँगे।
विनय-तुम मेरी जगह होते, तो उसे स्टेज पर लाना पसंद करते?
इंद्रदत्ता-पेशा समझकर तो नहीं, लेकिन परोपकार के लिए स्टेज पर लाने में शायद मुझे आपत्तिा न होगी।
विनय-तो तुम मुझसे कहीं ज्यादा उदार हो। मैं तो इसे किसी हालत में पसंद न करूँगा। हाँ, यह तो बताओ, सोफिया आजकल कुछ उदास मालूम होती है! कल इसने मुझसे जो बातें की, वे बहुत निराशाजनक थीं। उसको भय है कि उसी के कारण रियासत का यह हाल हुआ है। माताजी तो उस पर जान देती हैं, पर वह उनसे दूर भागती है। फिर वही आधयात्मिक बातें करती है, जिनका आशय आज तक मेरी समझ में नहीं आया-मैं तुम्हारे पाँव की बेड़ी नहीं बनना चाहती, मेरे लिए केवल तुम्हारी स्नेह-दृष्टि काफी है, और जाने क्या-क्या। और मेरा यह हाल है कि घंटे-भर भी उसे न देखूँ, तो चित्ता विकल हो जाता है।
इतने में मोटर की आवाज आई और एक क्षण में इंदु आ पहुँची।
इंद्रदत्ता-आइए, इंदुरानी, आइए। आप ही का इंतजार था।
इंदु-झूठे हो, मेरी इस वक्त जरा भी चर्चा न थी, रुपये की चिंता में पड़े हुए हो।
इंद्रदत्ता-तो मालूम होता है, आप कुछ लाई हैं। लाइए, वास्तव में हम लोग बहुत चिंतित हो रहे थे।
इंदु-मुझसे माँगते हो? मेरा हाल जानकर भी? एक बार चंदा देकर हमेशा के लिए सीख गई। (विनय से) सोफिया कहाँ है? अम्माँजी तो अब राजी हैं न?
विनय-किसी की दिल की बात कोई क्या जाने।
इंदु-मैं तो समझती हूँ अम्माँजी राजी भी हो जाएँ, तो भी तुम सोफी को न पाओगे। तुम्हें इन बातों से दु:ख तो अवश्य होगा; लेकिन किसी आघात के लिए पहले से तैयार रहना इससे कहीं अच्छा है कि वह आकस्मिक रीति से सिर पर आ पड़े।
विनय ने आँसू पीते हुए कहा-मुझे भी कुछ ऐसा ही अनुमान होता है।
इंदु-सोफिया कल मुझसे मिलने गई थी। उसकी बातों ने उसे भी रुलाया और मुझे भी। बड़े धर्मसंकट में पड़ी हुई है। न तुम्हें निराश करना चाहती है, न माताजी को अप्रसन्न करना चाहती है। न जाने क्यों उसे अब भी संदेह है कि माताजी उसे अपनी वधू नहीं बनाना चाहतीं। मैं समझती हूँ कि यह केवल उसका भ्रम है, वह स्वयं अपने मन के रहस्य को नहीं समझती। वह स्त्री नहीं है, केवल एक कल्पना है। भावों और आकांक्षाओं से भरी हुई। तुम उसका रसास्वादन कर सकते हो, पर उसे अनुभव नहीं कर सकते, उसे प्रत्यक्ष नहीं देख सकते। कवि अपने अंतरतम भावों को व्यक्त नहीं कर सकता। वाणी में इतना सामर्थ्य ही नहीं। सोफिया वही कवि की अंतर्तम भावना है।
इंद्रदत्ता-और आपकी यह सब बातें भी कोरी कवि-कल्पना हैं। सोफिया न कवि-कल्पना है और न कोई गुप्त रहस्य; न देवी है न देवता। न अप्सरा है न परी। जैसी अन्य स्त्रियाँ होती हैं, वैसी ही एक स्त्री वह भी है, वही उसके भाव हैं, वही उसके विचार हैं। आप लोगों ने कभी विवाह की तैयारी की, कोई भी ऐसी बात की, जिससे मालूम हो कि आप लोग विवाह के लिए उत्सुक हैं? तो जब आप लोग स्वयं उदासीन हो रहे हैं, तो उसे क्या गरज पड़ी हुई है कि इसकी चर्चा करती फिरे। मैं तो अक्खड़ आदमी हूँ। उसे लाख विनय से प्रेम हो, पर अपने मुँह से तो विवाह की बात न कहेगी। आप लोग वही चाहते हैं, जो किसी तरह नहीं हो सकता। इसलिए अपनी लाज की रक्षा करने को उसने यही युक्ति निकाल रखी है। आप लोग तैयारियाँ कीजिए, फिर उसकी ओर से आपत्तिा हो, तो अलबत्ता उससे शिकायत हो सकती है। जब देखती है,आप लोग स्वयं धुकुर-पुकुर कर रहे हैं, तो वह भी इन युक्तियों से अपनी आबरू बचाती है।
इंदु-ऐसा कहीं भूलकर भी न करना, नहीं तो वह इस घर में भी न रहेगी।
इतने में सोफिया वह पत्र लिए हुए आती दिखाई दी, जो उसने प्रभु सेवक के नाम लिखा था। इंदु ने बात पलट दी, और बोली-तुम लोगों को तो अभी खबर न होगी, मि. सेवक को पाँड़ेपुर मिल गया।
सोफिया ने इंदु को गले मिलते हुए पूछा-पापा वह गाँव लेकर क्या करेंगे?
इंदु-अभी तुम्हें मालूम ही नहीं? वह मुहल्ला खुदवाकर फेंक दिया जाएगा और वहाँ मिल के मजदूरों के लिए घर बनेंगे।
इंद्रदत्ता-राजा साहब ने मंजूर कर लिया? इतनी जल्दी भूल गए। अबकी शहर में रहना मुश्किल हो जाएगा।
इंदु-सरकार का आदेश था, कैसे न मंजूर करते।
इंद्रदत्ता-साहब ने बड़ी दौड़ लगाई। सरकार पर भी मंत्र चला दिया।
इंदु-क्यों, इतनी बड़ी रियासत पर सरकार का अधिकार नहीं करा दिया? एक राजद्रोही राज को अपंग नहीं बना दिया? एक क्रांतिकारी संस्था की जड़ नहीं खोद डाली? सरकार पर इतने एहसान करके यों ही छोड़ देते? चतुर व्यवसायी न हुए, कोई राजा-ठाकुर हुए। सबसे बड़ी बात तो यह है कि कम्पनी ने पच्चीस सैकड़े नफा देकर बोर्ड के अधिकांश सदस्यों को वशीभूत कर लिया।
विनय-राजा साहब को पद-त्याग कर देना चाहिए। इतनी बड़ी जिम्मेदारी सिर पर लेने से तो यह कहीं अच्छा होता।
इंदु-कुछ सोच-समझकर तो स्वीकार किया होगा। सुना, पाँडेपुरवाले अपने घर छोड़ने पर राजी नहीं होते।
इंद्रदत्ता-न होना चाहिए।
सोफिया-जरा चलकर देखना चाहिए, वहाँ क्या हो रहा है। लेकिन कहीं मुझे पापा नजर आ गए, तो? नहीं, मैं न जाऊँगी, तुम्हीं लोग जाओ।
तीनों आदमी पाँड़ेपुर की तरफ चले। 

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रचनाएँ
रंगभूमि
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। रंगभूमि (1924-1925) उपन्यास ऐसी ही कृति है। नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मध्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है। प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का प्रकाशन 1925 में हुआ था। इससे पहले देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1920 ईस्वी में शुरू हुए असहयोग आन्दोलन का प्रभाव राष्ट्रव्यापी पड़ा था। समाज बड़े पैमाने पर जाग्रत हो गया था और भारतीय समाज की अलग-अलग धाराओं, विचारों, धर्मों, जातियों का द्वंद्व अपने चरम पर था। सबसे बढ़कर एक उत्साही युवा वर्ग देश को विदेशी शासन से मुक्त करवाने के लिए उत्साह के साथ सकारात्मक हो गया था। ‘रंगभूमि’ उपन्यास के पाठ को समझने के लिए भारत की इस तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखना जरूरी है। यह उपन्यास महज अपने कैनवस, विजन में ही बड़ा नहीं है बल्कि यह प्रेमचंद का सबसे अधिक पृष्ठों का उपन्यास है।
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रंगभूमि अध्याय 1

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शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्ये भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहान

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रंगभूमि अध्याय 2

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सूरदास लाठी टेकता हुआ धीरे-धीरे घर चला। रास्ते में चलते-चलते सोचने लगा-यह है बड़े आदमियों की स्वार्थपरता! पहले कैसे हेकड़ी दिखाते थे, मुझे कुत्तो से भी नीचा समझा; लेकिन ज्यों ही मालूम हुआ कि जमीन मेरी

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रंगभूमि अध्याय 3

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मि. जॉन सेवक का बँगला सिगरा में था। उनके पिता मि. ईश्वर सेवक ने सेना-विभाग में पेंशन पाने के बाद वहीं मकान बनवा लिया था, और अब तक उसके स्वामी थे। इसके आगे उनके पुरखों का पता नहीं चलता, और न हमें उसकी

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रंगभूमि अध्याय 4

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चंचल प्रकृति बालकों के लिए अंधे विनोद की वस्तु हुआ करते हैं। सूरदास को उनकी निर्दय बाल-क्रीड़ाओं से इतना कष्ट होता था कि वह मुँह-अंधोरे घर से निकल पड़ता और चिराग जलने के बाद लौटता। जिस दिन उसे जाने मे

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रंगभूमि अध्याय 5

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चतारी के राजा महेंद्रकुमार सिंह यौवनावस्था ही में अपनी कार्य-दक्षता और वंश प्रतिष्ठा के कारण म्युनिसिपैलिटी के प्रधान निर्वाचित हो गए थे। विचारशीलता उनके चरित्र का दिव्य गुण थी। रईसों की विलास-लोलुपता

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रंगभूमि अध्याय 6

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धर्मभीरुता में जहाँ अनेक गुण हैं, वहाँ एक अवगुण भी है; वह सरल होती है। पाखंडियों का दाँव उस पर सहज ही में चल जाता है। धर्मभीरु प्राणी तार्किक नहीं होता। उसकी विवेचना-शक्ति शिथिल हो जाती है। ताहिर अली

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रंगभूमि अध्याय 7

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संध्‍या हो गई थी। किंतु फागुन लगने पर भी सर्दी के मारे हाथ-पाँव अकड़ते थे। ठंडी हवा के झोंके शरीर की हड्डियों में चुभे जाते थे। जाड़ा, इंद्र की मदद पाकर फिर अपनी बिखरी हुई शक्तियों का संचय कर रहा था औ

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रंगभूमि अध्याय 8

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सोफ़िया को इंदु के साथ रहते चार महीने गुजर गए। अपने घर और घरवालों की याद आते ही उसके हृदय में एक ज्वाला-सी प्रज्वलित हो जाती थी। प्रभु सेवक नित्यप्रति उससे एक बार मिलने आता; पर कभी उससे घर का कुशल-समा

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रंगभूमि अध्याय 9

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सोफ़िया इस समय उस अवस्था में थी, जब एक साधारण हँसी की बात, एक साधारण आँखों का इशारा, किसी का उसे देखकर मुस्करा देना, किसी महरी का उसकी आज्ञा का पालन करने में एक क्षण विलम्ब करना, ऐसी हजारों बातें, जो

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रंगभूमि अध्याय 10

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बालकों पर प्रेम की भाँति द्वेष का असर भी अधिक होता है। जबसे मिठुआ और घीसू को मालूम हुआ था कि ताहिर अली हमारा मैदान जबरदस्ती ले रहे हैं, तब से दोनों उन्हें अपना दुश्मन समझते थे। चतारी के राजा साहब और स

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रंगभूमि अध्याय 11

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भैरों पासी अपनी माँ का सपूत बेटा था। यथासाधय उसे आराम से रखने की चेष्टा करता रहता था। इस भय से कि कहीं बहू सास को भूखा न रखे, वह उसकी थाली अपने सामने परसा लिया करता था और उसे अपने साथ ही बैठाकर खिलाता

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रंगभूमि अध्याय 12

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प्रभु सेवक ताहिर अली के साथ चले, तो पिता पर झल्लाए हुए थे-यह मुझे कोल्हू का बैल बनाना चाहते हैं। आठों पहर तम्बाकू ही के नशे में डूबा पड़ा रहूँ, अधिकारियों की चौखट पर मस्तक रगड़ूँ, हिस्से बेचता फिरूँ,

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रंगभूमि अध्याय 13

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विनयसिंह के जाने के बाद सोफ़िया को ऐसा प्रतीत होने लगा कि रानी जाह्नवी मुझसे खिंची हुई हैं। वह अब उसे पुस्तकें तथा पत्र पढ़ने या चिट्ठियाँ लिखने के लिए बहुत कम बुलातीं; उसके आचार-व्यवहार को संदिग्ध दृ

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रंगभूमि अध्याय 14

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सोफ़िया को होश आया तो वह अपने कमरे में चारपाई पर पड़ी हुई थी। कानों में रानी के अंतिम शब्द गूँज रहे थे-क्या यही सत्य की मीमांसा है? वह अपने को इस समय इतनी नीच समझ रही थी कि घर का मेहतर भी उसे गालियाँ

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रंगभूमि अध्याय 15

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राजा महेंद्रकुमार सिंह यद्यपि सिध्दांत के विषय में अधिकारियों से जौ-भर भी न दबते थे; पर गौण विषयों में वह अनायास उनसे विरोध करना व्यर्थ ही नहीं, जाति के लिए अनुपयुक्त भी समझते थे। उन्हें शांत नीति पर

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रंगभूमि अध्याय 16

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अरावली की पहाड़ियों में एक वट-वृक्ष के नीचे विनयसिंह बैठे हुए हैं। पावस ने उस जन-शून्य, कठोर, निष्प्रभ, पाषाणमय स्थान को प्रेम,प्रमोद और शोभा से मंडित कर दिया है, मानो कोई उजड़ा हुआ घर आबाद हो गया हो।

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रंगभूमि अध्याय 17

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विनयसिंह छ: महीने से कारागार में पड़े हुए हैं। न डाकुओं का कुछ पता मिलता है और न उन पर अभियोग चलाया जाता है। अधिकारियों को अब भी भ्रम है कि इन्हीं के इशारे से डाका पड़ा था। इसीलिए वे उन पर नाना प्रकार

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रंगभूमि अध्याय 18

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सोफ़िया घर आई, तो उसके आत्मगौरव का पतन हो चुका था; अपनी ही निगाहों में गिर गई थी। उसे अब न रानी पर क्रोध था, न अपने माता-पिता पर। केवल अपनी आत्मा पर क्रोध था, जिसके हाथों उसकी इतनी दुर्गति हुई थी, जिस

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रंगभूमि अध्याय 19

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सोफ़िया अपनी चिंताओं में ऐसी व्यस्त हो रही थी कि सूरदास को बिल्कुल भूल-सी गई थी। उसकी फरियाद सुनकर उसका हृदय काँप उठा। इस दीन प्राणी पर इतना घोर अत्याचार! उसकी दयालु प्रकृति यह अन्याय न सह सकी। सोचने

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मि. क्लार्क ने मोटर से उतरते ही अरदली को हुक्म दिया-डिप्टी साहब को फौरन हमारा सलाम दो। नाजिर, अहलमद और अन्य कर्मचारियों को भी तलब किया गया। सब-के-सब घबराए-यह आज असमय क्यों तलबी हुई, कोई गलती तो नहीं प

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सैयद ताहिर अली को पूरी आशा थी कि जब सिगरेट का कारखाना बनना शुरू हो जाएगा, तो मेरी कुछ-न-कुछ तरक्की हो जाएगी। मि. सेवक ने उन्हें इसका वचन दिया था। इस आशा के सिवा उन्हें अब तक ऋणों को चुकाने का कोई उपाय

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अब तक सूरदास शहर में हाकिमों के अत्याचार की दुहाई देता रहा, उसके मुहल्ले वाले जॉन सेवक के हितैषी होने पर भी उससे सहानुभूति करते रहे। निर्बलों के प्रति स्वभावत: करुणा उत्पन्न हो जाती है। लेकिन सूरदास क

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सूरदास की जमीन वापस दिला देने के बाद सोफ़िया फिर मि. क्लार्क से तन गई। दिन गुजरते जाते थे और वह मि. क्लार्क से दूरतर होती जाती थी। उसे अब सच्चे अनुराग के लिए अपमान, लज्जा, तिरस्कार सहने की अपेक्षा कृत

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रंगभूमि अध्याय 25

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साल-भर तक राजा महेंद्रकुमार और मिस्टर क्लार्क में निरंतर चोटें चलती रहीं। पत्र का पृष्ठ रणक्षेत्र था और शृंखलित सूरमों की जगह सूरमों से कहीं बलवान् दलीलें। मनों स्याही बह गई, कितनी ही कलमें काम आईं। द

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अरावली की हरी-भरी झूमती हुई पहाड़ियों के दामन में जसवंतनगर यों शयन कर रहा है, जैसे बालक माता की गोद में। माता के स्तन से दूध की धारें, प्रेमोद्गार से विकल, उबलती, मीठे स्वरों में गाती निकलती हैं और बा

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रंगभूमि अध्याय 27

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नायकराम मुहल्लेवालों से बिदा होकर उदयपुर रवाना हुए। रेल के मुसाफिरों को बहुत जल्द उनसे श्रध्दा हो गई। किसी को तम्बाकू मलकर खिलाते, किसी के बच्चे को गोद में लेकर प्यार करते। जिस मुसाफिर को देखते, जगह न

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सोफिया के चले जाने के बाद विनय के विचार-स्थल में भाँति-भाँति की शंकाएँ होने लगीं। मन एक भीरु शत्रु है, जो सदैव पीठ के पीछे से वार करता है। जब तक सोफी सामने बैठी थी, उसे सामने आने का साहस न हुआ। सोफी क

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मिस्टर विलियम क्लार्क अपने अन्य स्वदेश-बंधुओं की भाँति सुरापान के भक्त थे, पर उसके वशीभूत न थे। वह भारतवासियों की भाँति पीकर छकना न जानते थे। घोड़े पर सवार होना जानते थे, उसे काबू से बाहर न होने देते

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रंगभूमि अध्याय 30

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शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्यि भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहान

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भैरों के घर से लौटकर सूरदास अपनी झोंपड़ी में आकर सोचने लगा, क्या करूँ कि सहसा दयागिरि आ गए और बोले-सूरदास, आज तो लोग तुम्हारे ऊपर बहुत गरम हो रहे हैं, इसे घमंड हो गया है। तुम इस माया-जाल में क्यों पड़

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रंगभूमि अध्याय 32

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सूरदास के मुकदमे का फैसला सुनने के बाद इंद्रदत्ता चले, तो रास्ते में प्रभु सेवक से मुलाकात हो गई। बातें होने लगी। इंद्रदत्ता-तुम्हारा क्या विचार है, सूरदास निर्दोष है या नहीं? प्रभु सेवक-सर्वथा निर्

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फैक्टरी करीब-करीब तैयार हो गई थी। अब मशीनें गड़ने लगीं। पहले तो मजदूर-मिस्त्री आदि प्राय: मिल के बरामदों ही में रहते थे, वहीं पेड़ों के नीचे खाना पकाते और सोते; लेकिन जब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई, तो मु

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प्रभु सेवक ने घर आते ही मकान का जिक्र छेड़ दिया। जान सेवक यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए कि अब इसने कारखाने की ओर धयान देना शुरू किया। बोले-हाँ, मकानों का बनना बहुत जरूरी है। इंजीनियर से कहो, एक नक्शा बनाए

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विनयसिंह आबादी में दाखिल हुए, तो सबेरा हो गया था। थोड़ी दूर चले थे कि एक बुढ़िया लाठी टेकती सामने से आती हुई दिखाई दी। इन्हें देखकर बोली-बेटा, गरीब हूँ। बन पडे, तो कुछ दे दो। धरम होगा। नायकराम-सवेरे

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मिस्टर जॉन सेवक ने ताहिर अली की मेहनत और ईमानदारी से प्रसन्न होकर खालों पर कुछ कमीशन नियत कर दिया था। इससे अब उनकी आय अच्छी हो गई थी, जिससे मिल के मजदूरों पर उनका रोब था, ओवरसियर और छोटे-छोटे क्लर्क उ

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प्रभु सेवक बड़े उत्साही आदमी थे। उनके हाथ से सेवक-दल में एक नई सजीवता का संचार हुआ। संख्या दिन-दिन बढ़ने लगी। जो लोग शिथिल और उदासीन हो रहे थे, फिर नए जोश से काम करने लगे। प्रभु सेवक की सज्जनता और सहृ

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सोफिया और विनय रात-भर तो स्टेशन पर पड़े रहे। सबेरे समीप के गाँव में गए, जो भीलों की एक छोटी-सी बस्ती थी। सोफिया को यह स्थान बहुत पसंद आया। बस्ती के सिर पर पहाड़ का साया था, पैरों के नीचे एक पहाड़ी नाल

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मिल के तैयार होने में अब बहुत थोड़ी कसर रह गई थी। बाहर से तम्बाकू की गाड़ियाँ लदी चली आती थीं। किसानों को तम्बाकू बोने के लिए दादनी दी जा रही थी। गवर्नर से मिल को खोलने की रस्म अदा करने के लिए प्रार्थ

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प्रभु सेवक ने तीन वर्ष अमेरिका में रहकर और हजारों रुपये खर्च करके जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया था, वह मि. जॉन सेवक ने उनकी संगति से उतने ही महीनों में प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं, प्रभु सेवक की भा

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अदालत ने अगर दोनों युवकों को कठिन दंड दिया, तो जनता ने भी सूरदास को उससे कम कठिन दंड न दिया। चारों ओर थुड़ी-थुड़ी होने लगी। मुहल्लेवालों का तो कहना ही क्या, आस-पास के गाँववाले भी दो-चार खोटी-खरी सुना

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रंगभूमि अध्याय 43

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सोफिया के धार्मिक विचार, उसका आचार-व्यवहार, रहन-सहन, उसकी शिक्षा-दीक्षा, ये सभी बातें ऐसी थीं, जिनसे एक हिंदू महिला को घृणा हो सकती थी। पर इतने दिनों के अनुभव ने रानीजी की सभी शंकाओं का समाधान कर दिया

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रंगभूमि अध्याय 44

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गंगा से लौटते दिन के नौ बज गए। हजारों आदमियों का जमघट, गलियाँ तंग और कीचड़ से भरी हुई, पग-पग पर फूलों की वर्षा, सेवक-दल का राष्ट्रीय संगीत, गंगा तक पहुँचते-पहुँचते ही सबेरा हो गया था। लौटते हुए जाह्नव

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रंगभूमि अध्याय 45

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पाँड़ेपुर में गोरखे अभी तक पड़ाव डाले हुए थे। उनके उपलों के जलने से चारों तरफ धुआँ छाया हुआ था। उस श्यामावरण में बस्ती के ख्रडहर भयानक मालूम होते थे। यहाँ अब भी दिन में दर्शकों की भीड़ रहती थी। नगर मे

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रंगभूमि अध्याय 46

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चारों आदमी शफाखाने पहुँचे, तो नौ बज चुके थे। आकाश निद्रा में मग्न, आँखें बंद किए पड़ा हुआ था, पर पृथ्वी जाग रही थी। भैरों खड़ा सूरदास को पंखा झल रहा था। लोगों को देखते ही उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे।

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रंगभूमि अध्याय 47

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संधया हो गई थी। मिल के मजदूर छुट्टी पा गए थे। आजकल दूनी मजदूरी देने पर भी बहुत थोड़े मजदूर काम करने आते थे। पाँड़ेपुर में सन्नाटा छाया हुआ था। वहाँ अब मकानों के भग्नावशेष के सिवा कुछ नजर न आता था। हाँ

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रंगभूमि अध्याय 48

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काशी के म्युनिसिपल बोर्ड में भिन्न-भिन्न राजनीतिक सम्प्रदायों के लोग मौजूद थे। एकवाद से लेकर जनसत्तावाद तक सभी विचारों के कुछ-न-कुछ आदमी थे। अभी तक धन का प्राधान्य नहीं था, महाजनों और रईसों का राज्य थ

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रंगभूमि अध्याय 49

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इधर सूरदास के स्मारक के लिए चंदा जमा किया जा रहा था, उधर कुलियों के टोले में शिलान्यास की तैयारियाँ हो रही थीं। नगर के गण्यमान्य पुरुष निमंत्रित हुए थे। प्रांत के गवर्नर से शिला-स्थापना की प्रार्थना क

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रंगभूमि अध्याय 50

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कुँवर विनयसिंह की वीर मृत्यु के पश्चात रानी जाह्नवी का सदुत्साह दुगुना हो गया। वह पहले से कहीं ज्यादा क्रियाशील हो गईं। उनके रोम-रोम में असाधारण स्फूर्ति का विकास हुआ। वृध्दावस्था की आलस्यप्रियता यौवन

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