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रंगभूमि अध्याय 18

4 फरवरी 2022

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सोफ़िया घर आई, तो उसके आत्मगौरव का पतन हो चुका था; अपनी ही निगाहों में गिर गई थी। उसे अब न रानी पर क्रोध था, न अपने माता-पिता पर। केवल अपनी आत्मा पर क्रोध था, जिसके हाथों उसकी इतनी दुर्गति हुई थी, जिसने उसे काँटों में उलझा दिया था। उसने निश्चय किया, मन को पैरों से कुचल डालूँगी, उसका निशान मिटा दूँगी। दुविधा में पड़कर वह अपने मन को अपने ऊपर शासन करने का अवसर न देना चाहती थी, उसने सदा के लिए मुँह बंद कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया था। वह जानती थी, मन का मुँह बंद करना नितांत कठिन है; लेकिन वह चाहती थी, अब अगर मन कर्तव्‍य मार्ग से विचलित हो, तो उसे अपने अनौचित्य पर लज्जा आए; जैसे कोई तिलकधारी वैष्णव शराब की भट्ठी में जाते हुए झिझकता है और शर्म से गर्दन नहीं उठा सकता, उसी तरह उसका मन भी संस्कार के बंधनों में पड़कर कुत्सित वासनाओं से झिझके। इस आत्मदान के लिए वह कलुषता और कुटिलता का अपराध सिर पर लेने को तैयार थी;आजीवन नैराश्य और वियोग की आग में जलने के लिए तैयार थी। वह आत्मा से उस अपमान का बदला लेना चाहती थी, जो उसे रानी के हाथों सहना पड़ा था। उसका मन शराब पर टूटता था, वह उसे विष पिलाकर उसकी प्यास बुझाना चाहती थी। उसने निश्चय कर लिया था,अपने को मि. क्लार्क के हाथों में सौंप दूँगी। आत्मदान का इसके सिवा और कोई साधन न था।
किंतु उसका आत्मसम्मान कितना ही दलित हो गया हो, बाह्य सम्मान अपने पूर्ण ओज पर था। अपने घर में उसका इतना आदर-सत्कार कभी न हुआ था। मिसेज़ सेवक की आँखों में वह कभी इतनी प्यारी न थी। उनके मुख से उसने कभी इतनी मीठी बातें न सुनी थीं। यहाँ तक कि वह अब उसकी धार्मिक विवेचनाओं से भी सहानुभूति प्रकट करती थीं। ईश्वरोपासना के विषय में भी अब उस पर अत्याचार न किया जाता था। वह अब अपनी इच्छा की स्वामिनी थी, और मिसेज़ सेवक यह देखकर आनंद से फूली न समाती थीं कि सोफ़िया सबसे पहले गिरजाघर पहुँच जाती थी। वह समझती थीं, मि. क्लार्क के सत्संग से यह सुसंस्कार हुआ है।
परंतु सोफ़िया के सिवा यह और कौन जान सकता है कि उसके दिल पर क्या बीत रही है। उसे नित्य प्रेम का स्वाँग भरना पड़ता था,जिससे उसे मानसिक घृणा होती थी। उसे अपनी इच्छा के विरुध्द कृत्रिम भावों की नकल करनी पड़ती थी। उसे प्रेम और अनुराग के वे शब्द तन्मय होकर सुनने पड़ते थे, जो उसके हृदय पर हथौड़ों की चोटों की भाँति पड़ते थे। उसे उन अनुरक्त चितवनों का लक्ष्य बनना पड़ता था,जिनके सामने वह आँखें बंद कर लेना चाहती थी। मिस्टर क्लार्क की बातें कभी-कभी इतनी रसमयी हो जाती थीं कि सोफी का जी चाहता था,इस स्वरचित रहस्य को खोल दूँ, इस कृत्रिम जीवन का अंत कर दूँ; लेकिन इसके साथ ही उसे अपनी आत्मा की व्यथा और जलन में एक ईर्ष्‍यामय आनंद का अनुभव होता था। पापी तेरी यही सजा है, तू इसी योग्य है; तूने मुझे जितना अपमानित किया है, उसका तुझे प्रायश्चित्त करना पड़ेगा।
इस भाँति वह विरहिणी रो-रोकर जीवन के दिन काट रही थी और विडम्बना यह थी कि वह व्यथा शांत होती नजर न आती थी। सोफ़िया अज्ञात रूप से मि. क्लार्क से कुछ खिंची हुई रहती थी; हृदय बहुत दबाने पर भी उनसे न मिलता था। उसका यह खिंचाव क्लार्क की प्रेमाग्नि को और भी उत्तोजित करता रहता था। सोफ़िया इस अवस्था में भी अगर उन्हें मुँह न लगाती थी, तो इसका मुख्य कारण मि. क्लार्क की धार्मिक प्रवृत्ति थी। उसकी निगाह में धार्मिकता से बढ़कर कोई अवगुण न था। वह इसे अनुदारता, द्वेष, अहंकार और संकीर्णता का द्योतक समझती थी। क्लार्क दिल-ही-दिल समझते थे कि सोफ़िया को मैं अभी नहीं पा सका, और इसलिए बहुत उत्सुक होने पर भी उन्हें सोफ़िया से प्रस्ताव करने का साहस न होता था। उन्हें यह पूर्ण विश्वास न होता था कि मेरी प्रार्थना स्वीकृत होगी। किंतु आशा-सूत्र उन्हें सोफ़िया के दामन से बाँधो हुए था।
इसी प्रकार एक वर्ष से अधिक गुजर गया और मिसेज़ सेवक को अब संदेह होने लगा कि सोफ़िया कहीं हमें सब्ज बाग तो नहीं दिखा रही है? आखिर एक दिन उन्होंने सोफ़िया से कहा-मेरी समझ में नहीं आता, तू रात-दिन मि. क्लार्क के साथ बैठी-बैठी क्या किया करती है! क्या बात है? क्या वह प्रोपोज (प्रस्ताव) ही नहीं करते, या तू ही उनसे भागी-भागी फिरती है?
सोफ़िया शर्म से लाल होकर बोली-वह प्रोपोज ही नहीं करना चाहते, तो क्या मैं उनकी जबान हो जाऊँ?
मिसेज़ सेवक-यह तो हो ही नहीं सकता कि स्त्री चाहे और पुरुष प्रस्ताव न करे। वह तो आठों पहर अवसर देखा करता है। तू ही उन्हें फटकने न देती होगी।
सोफ़िया-मामा, ऐसी बातें करके मुझे लज्जित न कीजिए।
मिसेज़ सेवक-कसूर तुम्हारा है, और अगर तुम दो-चार दिन में मि. क्लार्क को प्रोपोज करने का अवसर न दोगी, तो फिर तुम्हें रानी साहबा के पास भेज दूँगी और फिर बुलाने का नाम भी न लूँगी।
सोफी थर्रा गई। रानी के पास लौटकर जाने से मर जाना कहीं अच्छा था। उसने मन में ठान लिया-आज वह करूँगी, जो आज तक किसी स्त्री ने न किया होगा। साफ कह दूँगी, मेरे घर का द्वार मेरे लिए बंद है। अगर आप मुझे आश्रय देना चाहते हो, तो दीजिए, नहीं तो मैं अपने लिए कोई और रास्ता निकालूँ। मुझसे प्रेम की आशा न रखिए। आप मेरे स्वामी हो सकते हैं, प्रियतम नहीं हो सकते। यह समझकर आप मुझे अंगीकार करते हों, तो कीजिए; वरना फिर मुझे अपनी सूरत न दिखाइएगा।
संध्‍या हो गई थी। माघ का महीना था; उस पर हवा, फिर बादल; सर्दी के मारे हाथ-पाँव अकड़े जाते थे। न कहीं आकाश का पता था, न पृथ्वी का। चारों तरफ कुहरा-ही-कुहरा नजर आता था। रविवार था। ईसाई स्त्रियाँ और पुरुष साफ-सुथरे कपड़े और मोटे-मोटे ओवरकोट पहने हुए एक-एक करके गिरजाघर में दाखिल हो रहे थे। एक क्षण में जॉन सेवक, उनकी स्त्री , प्रभु सेवक और ईश्वर सेवक फिटन से उतरे। और लोग तुरंत अंदर चले गए, केवल सोफ़िया बाहर रह गई। सहसा प्रभु सेवक ने बाहर आकर पूछा-क्यों सोफी, मिस्टर क्लार्क अंदर गए?
सोफ़िया-हाँ, अभी-अभी गए हैं।
प्रभु सेवक-और तुम?
सोफ़िया ने दीन भाव से कहा-मैं भी चली जाऊँगी।
प्रभु सेवक-आज तुम बहुत उदास मालूम होती हो।
सोफ़िया की आँखें अश्रुपूर्ण हो गईं। बोली-हाँ प्रभु, आज मैं बहुत उदास हूँ। आज मेरे जीवन में सबसे महान् संकट का दिन है, क्योंकि आज मैं क्लार्क को प्रोपोज करने के लिए मजबूर करूँगी। मेरा नैतिक और मानसिक पतन हो गया। अब मैं अपने सिध्दांतों पर जान देनेवाली, अपने ईमान को ईश्वरीय इच्छा समझनेवाली, धर्म-तत्तवों को तर्क की कसौटी पर रखनेवाली सोफ़िया नहीं हूँ। वह सोफ़िया संसार में नहीं है। अब मैं जो कुछ हूँ, वह अपने मुँह से कहते हुए मुझे स्वयं लज्जा आती है।
प्रभु सेवक कवि होते हुए भी उस भावना-शक्ति से वंचित था, जो दूसरों के हृदय में पैठकर उनकी दशा का अनुभव करती है। वह कल्पना-जगत् में नित्य विचरता रहता था और ऐहिक सुख-दु:ख से अपने को चिंतित बनाना उसे हास्यास्पद जान पड़ता था। ये दुनिया के मेले हैं,इनमें क्यों सिर खपाएँ, मनुष्य को भोजन करना और मस्त रहना चाहिए। यही शब्द सोफ़िया उसके मुख से सैकड़ों बार सुन चुकी थी। झुँझलाकर बोला-तो इसमें रोने-धोने की क्या जरूरत है? मामा से साफ-साफ क्यों नहीं कह देतीं? उन्होंने तुम्हें मजबूर तो नहीं किया है?
सोफ़िया ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा-प्रभु, ऐसी बातों से दिल न दु:खाओ। तुम क्या जानो, मेरे दिल पर क्या गुजर रही है। अपनी इच्छा से कोई विष का प्याला नहीं पीता। शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो कि मैं तुमसे अपनी सैकड़ों बार की कही हुई कहानी न कहती होऊँ। फिर भी तुम कहते हो, तुम्हें मजबूर किसने किया? तुम तो कवि हो, तुम इतने भाव-शून्य कैसे हो गए? मजबूरी के सिवा आज मुझे कौन यहाँ खींच लाया? आज मेरी यहाँ आने की जरा भी इच्छा नहीं थी; पर यहाँ मौजूद हूँ। मैं तुमसे सत्य कहती हूँ, धर्म का रहा-सहा महत्व भी मेरे दिल से उठ गया। मूर्खों को यह कहते हुए लज्जा नहीं आती कि मजहब खुदा की बरकत है। मैं कहती हूँ, वह ईश्वरीय कोप है-दैवी वज्र है, जो मानव जाति के सर्वनाश के लिए अवतरित हुआ है। इसी कोप के कारण आज मैं विष का घूँट पी रही हूँ। रानी जाह्नवी जैसी सहृदय महिला के मुझसे यों आँखें फेर लेने का और क्या कारण था? मैं उस देव-पुरुष से क्यों छल करती, जिसकी हृदय में आज भी उपासना करती हूँ, और नित्य करती रहूँगी? अगर यह कारण न होता, तो मुझे अपनी आत्मा को यह निर्दयतापूर्ण दंड देना ही क्यों पड़ता? मैं इस विषय पर जितना ही विचार करती हूँ, उतना ही धर्म के प्रति अश्रध्दा बढ़ती है। आह! मेरी निष्ठुरता से विनय को कितना दु:ख हुआ होगा, इसकी कल्पना ही से मेरे प्राण सूख जाते हैं। वह देखो, मि. क्लार्क बुला रहे हैं। शायद सरमन (उपदेश) शुरू होनेवाला है। चलना पड़ेगा, नहीं तो मामा जीता न छोड़ेंगी।
प्रभु सेवक तो कदम बढ़ाते हुए जा पहुँचे; सोफ़िया दो-ही-चार कदम चली थी कि एकाएक उसे सड़क पर किसी के गाने की आहट मिली। उसने सिर उठाकर चहारदीवारी के ऊपर से देखा, एक अंधा आदमी, हाथ में ख्रजरी लिए, यह गीत गाता हुआ चला जाता है :
भई, क्यों रन से मुँह मोड़ै?
वीरों का काम है लड़ना, कुछ नाम जगत में करना,
क्यों निज मरजादा छोड़ै?
भई, क्यों रन से मुँह मोड़ै?
क्यों जीत की तुझको इच्छा, क्यों हार की तुझको चिंता,
क्यों दु:ख से नाता जोड़ै?
भई, क्यों रन से मुँह मोड़ै?
तू रंगभूमि में आया, दिखलाने अपनी माया,
क्यों धरम-नीति को तोड़ै?
भई, क्यों रन से मुँह मोड़ै?
सोफ़िया ने अंधे को पहचान लिया; सूरदास था। वह इस गीत को कुछ इस तरह मस्त होकर गाता था कि सुननेवालों के दिल पर चोट-सी लगती थी। लोग राह चलते-चलते सुनने को खड़े हो जाते थे। सोफ़िया तल्लीन होकर यह गीत सुनती रही। उसे इस पद में जीवन का सम्पूर्ण रहस्य कूट-कूटकर भरा हुआ मालूम होता था :
तू रंगभूमि में आया, दिखलाने अपनी माया,
क्यों धरम-नीति को तोड़ै? भई, क्यों रन से मुँह मोड़ै?
राग इतना सुरीला, इतना मधुर , इतना उत्साहपूर्ण था, कि एक समाँ-सा छा गया। राग पर ख्रजरी की ताल और भी आफत करती थी। जो सुनता था, सिर धुनता था।
सोफ़िया भूल गई कि मैं गिरजे में जा रही हूँ, सरमन की जरा भी याद न रही। वह बड़ी देर तक फाटक पर खड़ी यह 'सरमन' सुनती रही। यहाँ तक कि सरमन समाप्त हो गया, भक्तजन बाहर निकलकर चले। मि. क्लार्क ने आकर धीरे से सोफ़िया के कंधो पर हाथ रखा, तो वह चौंक पड़ी।
क्लार्क-लार्ड बिशप का सरमन समाप्त हो गया और तुम अभी तक यहीं खड़ी हो!
सोफ़िया-इतनी जल्द! मैं जरा इस अंधे का गाना सुनने लगी। सरमन कितनी देर हुआ होगा?
क्लार्क-आधा घंटे से कम न हुआ होगा। लार्ड बिशप के सरमन संक्षिप्त होते हैं; पर अत्यंत मनोहर। मैंने ऐसा दिव्य ज्ञान में डूबा हुआ उपदेश आज तक न सुना था, इंग्लैंड में भी नहीं। खेद है, तुम न आईं।
सोफ़िया-मुझे आश्चर्य होता है कि मैं यहाँ आधा घंटे तक खड़ी रही!
इतने में मिस्टर ईश्वर सेवक अपने परिवार के साथ आकर खड़े हो गए। मिसेज़ सेवक ने क्लार्क को मातृस्नेह से देखकर पूछा-क्यों विलियम, सोफी आज के सरमन के विषय में क्या कहती है?
क्लार्क-यह तो अंदर गईं ही नहीं।
मिसेज़ सेवक ने सोफ़िया को अवहेलना की दृष्टि से देखकर कहा-सोफी, यह तुम्हारे लिए शर्म की बात है।
सोफी लज्जित होकर बोली-मामा, मुझसे बड़ा अपराध हुआ। मैं इस अंधे का गाना सुनने के लिए जरा रुक गई, इतने में सरमन समाप्त हो गया!
ईश्वर सेवक-बेटी, आज सरमन सुधा-तुल्य था, जिसने आत्मा को तृप्त कर दिया। जिसने नहीं सुना, वह उम्र-भर पछताएगा। प्रभु, मुझे अपने दामन में छिपा। ऐसा सरमन आज तक न सुना था।
मिसेज़ सेवक-आश्चर्य है कि उस स्वर्गोपम सुधा-वृष्टि के सामने तुम्हें यह ग्रामीण गान अधिक प्रिय मालूम हुआ!
प्रभुसेवक-मामा, यह न कहिए। ग्रामीणों के गाने में कभी-कभी इतना रस होता है, जो बड़े-बड़े कवियों की रचनाओं में भी दुर्लभ है।
मिसेज़ सेवक-अरे, यह तो वही अंधा है, जिसकी जमीन हमने ले ली है। आज यहाँ कैसे आ पहुँचा? अभागे ने रुपये न लिए, अब गली-गली भीख माँगता फिरता है।
सहसा सूरदास ने उच्च स्वर में कहा-दुहाई है पंचो, दुहाई। सेवक साहब और राजा साहब ने मेरी जमीन जबरदस्ती छीन ली है। हम दुखियों की फरियाद कोई नहीं सुनता। दुहाई है!
'दुरबल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।
मुई खाल की साँस सों सार भसम ह्नै जाए॥'
क्लार्क ने मि. सेवक से पूछा-उसकी जमीन तो मुआवजा देकर ली गई थी न? अब यह कैसा झगड़ा है?
मि. सेवक-उसने मुआवजा नहीं लिया। रुपये खजाने में जमा कर दिए गए हैं। बदमाश आदमी है।
एक ईसाई बैरिस्टर ने, जो चतारी के राजा साहब के प्रतियोगी थे, सूरदास से पूछा-क्यों अंधे, कैसी जमीन थी? राजा साहब ने कैसे ले ली?
सूरदास-हुजूर, मेरे बाप-दादों की जमीन है। सेवक साहब वहाँ चुरुट बनाने का कारखाना खोल रहे हैं। उनके कहने से राजा साहब ने वह जमीन मुझसे छीन ली है। दुहाई है सरकार को, दुहाई पंचो, गरीब की कोई नहीं सुनता।
ईसाई बैरिस्टर ने क्लार्क से कहा-मेरे विचार में व्यक्तिगत लाभ के लिए किसी की जमीन पर कब्जा करना मुनासिब नहीं है।
क्लार्क-बहुत अच्छा मुआवजा दिया गया है।
बैरिस्टर-आप किसी को मुआवजा लेने के लिए मजबूर नहीं कर सकते, जब तक आप यह न सिध्द कर दें कि आप जमीन को किसी सार्वजनिक कार्य के लिए ले रहे हैं।
काशी आयरन वक्र्स के मालिक मिस्टर जॉन बर्ड ने, जो जॉन सेवक के पुराने प्रतिद्वंद्वी थे, कहा-बैरिस्टर साहब, क्या आपको नहीं मालूम है कि सिगरेट का कारखाना खोलना परम परमार्थ है? सिगरेट पीनेवाले आदमी को स्वर्ग पहुँचने में जरा भी दिक्कत नहीं होती।
प्रोफेसर चार्ल्स सिमियन, जिन्होंने सिगरेट के विरोध में एक पैंफ्लेट लिखा था, बोले-अगर सिगरेट के कारखाने के लिए सरकार जमीन दिला सकती है, तो कोई कारण नहीं है कि चकलों के लिए न दिलाए। सिगरेट के कारखाने के लिए जमीन पर कब्जा करना उस धारा का दुरुपयोग करना है। मैंने अपने पैम्फलेट में संसार के बड़े-से-बड़े विद्वानों और डॉक्टरों की सम्मतियाँ लिखी थीं। स्वास्थ्य-नाश का मुख्य कारण सिगरेट का बहुत प्रचार है। खेद है, उस पैम्फलेट की जनता ने कदर न की।
काशी रेलवे यूनियन के मंत्री मिस्टर नीलमणि ने कहा-ये सभी नियम पूँजीपतियों के लाभ के लिए बनाए गए हैं, और पूँजीपतियों ही को यह निश्चय करने का अधिकार दिया गया है कि उन नियमों का कहाँ व्यवहार करें। कुत्तो को खाल की रखवाली सौंपी गई है। क्यों अंधे, तेरी जमीन कुल कितनी है?
सूरदास-हुजूर, दस बीघे से कुछ ज्यादा ही होगी। सरकार, बाप-दादों की यही निसानी है। पहले राजा साहब मुझसे मोल माँगते थे, जब मैंने न दिया, तो जबरदस्ती ले ली। हुजूर, अंधा-अपाहिज हूँ, आपके सिवा किससे फरियाद करूँ? कोई सुनेगा तो सुनेगा, नहीं भगवान् तो सुनेंगे!
जॉन सेवक अब वहाँ पल भर भी न ठहर सके। वाद-विवाद हो जाने का भय था और संयोग से उनके सभी प्रतियोगी एकत्र हो गए थे। मिस्टर क्लार्क भी सोफ़िया के साथ अपनी मोटर पर आ बैठे। रास्ते में जॉन सेवक ने कहा-कहीं राजा साहब ने इस अंधे की फरियाद सुन ली,तो उनके हाथ-पाँव फूल जाएँगे।
मिसेज़ सेवक-पाजी आदमी है। इसे पुलिस के हवाले क्यों नहीं करा देते?
ईश्वर सेवक-नहीं बेटा, ऐसा भूलकर भी न करना; नहीं तो अखबारवाले इस बात का बतंगड़ बनाकर तुम्हें बदनाम कर देंगे। प्रभु, मेरा मुँह अपने दामन में छिपा और इस दुष्ट की जबान बंद कर दे।
मिसेज़ सेवक-दो-चार दिन में आप ही शांत हो जाएगा। ठेकेदारों को ठीक कर लिया न?
जॉन सेवक-हाँ, काम तो आजकल में शुरू हो जानेवाला है, मगर इस मूजी को चुप करना आसान नहीं है। मुहल्लेवालों को तो मैंने फोड़ लिया, वे सब इसकी मदद न करेंगे; मगर मुझे आशा थी, उधर से सहारा न पाकर इसकी हिम्मत टूट जाएगी। वह आशा पूरी न हुई। मालूम होता है, बड़े जीवट का आदमी है, आसानी से काबू में आनेवाला नहीं है। राजा साहब का म्युनिसिपल बोर्ड में अब वह जोर नहीं रहा; नहीं तो कोई चिंता न थी। उन्हें पूरे साल-भर तक बोर्डवालों की खुशामद करनी पड़ी, तब जाकर वह प्रस्ताव मंजूर करा सके। ऐसा न हो, बोर्डवाले फिर कोई चाल चलें।
इतने में राजा महेंद्रकुमार की मोटर सामने आकर रुकी। राजा साहब बोले-आपसे खूब मुलाकात हुई। मैं आपके बँगले से लौटा आ रहा हूँ। आइए, हम और आप सैर कर आएँ। मुझे आपसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं।
जब जॉन सेवक मोटर पर आ बैठे, तो बातें होने लगीं। राजा साहब ने कहा-आपका सूरदास तो एक ही दुष्ट निकला। कल से सारे शहर में घूम-घूमकर गाता है और हम दोनों को बदनाम करता है। अंधे गाने में कुशल होते ही हैं। उसका स्वर बहुत ही लोचदार है। बात-की-बात में हजारों आदमी घेर लेते हैं। जब खूब जमाव हो जाता है, तो यह दुहाई मचाता है और हम दोनों को बदनाम करता है।
जॉन सेवक-अभी चर्च में आ पहुँचा था। बस वही दुहाई देता था। प्रोफेसर सिमियन, मि. नीलमणि आदि महापुरुषों को तो आप जानते ही हैं, उसे और भी उकसा रहे हैं। शायद अभी वहीं खड़ा हो।
महेंद्रकुमार-मिस्टर क्लार्क से तो कोई बातचीत नहीं हुई?
जॉन सेवक-थे तो वह भी, उनकी सलाह है कि अंधे को पागलखाने भेज दिया जाए। मैं मना न करता, तो वह उसी वक्त थानेदार को लिखते।
महेंद्रकुमार-आपने बहुत अच्छा किया, उन्हें मना कर दिया। उसे पागलखाने या जेलखाने भेज देना आसान है; लेकिन जनता को यह विश्वास दिलाना कठिन है कि उसके साथ अन्याय नहीं किया गया। मुझे तो उसकी दुहाई-तिहाई की परवा न होती; पर आप जानते हैं, हमारे कितने दुश्मन हैं। अगर उसका यही ढंग रहा, तो दस-पाँच दिनों में हम सारे शहर में नक्कू बन जाएँगे।
जॉन सेवक-अधिकार और बदनामी का तो चोली-दामन का साथ है। इसकी चिंता न कीजिए। मुझे तो यह अफसोस है कि मैंने मुहल्लेवालों को काबू में लाने के लिए बड़े-बड़े वादे कर लिए। जब अंधे पर किसी का कुछ असर न हुआ, तो मेरे वादे बेकार हो गए।
महेंद्रकुमार-अजी, आपकी तो जीत-ही-जीत है; गया तो मैं। इतनी जमीन आपको दस हजार से कम में न मिलती। धर्मशाला बनवाने में आपके इतने ही रुपये लगेंगे। मिट्टी तो मेरी खराब हुई। शायद जीवन में यह पहला ही अवसर है कि मैं जनता की आँखों में गिरता हुआ नजर आता हूँ। चलिए जरा पाँड़ेपुर तक हो आएँ। सम्भव है, मुहल्लेवालों को समझाने का अब भी कुछ असर हो।
मोटर पाँड़ेपुर की तरफ चली। सड़क खराब थी; राजा साहब ने इंजीनियर को ताकीद कर दी थी कि सड़क की मरम्मत का प्रबंध किया जाए; पर अभी तक कहीं कंकड़ भी न नजर आता था। उन्होंने अपनी नोटबुक में लिखा, इसका जवाब तलब किया जाए। चुंगीघर पहुँचे, तो देखा कि चुंगी का मुंशी आराम से चारपाई पर लेटा हुआ है और कई गाड़ियाँ सड़क पर रवन्ने के लिए खड़ी हैं। मुंशीजी ने मन में निश्चय कर लिया है कि गाड़ी पीछे एक रुपये लिए बिना रवन्ना न दूँगा, नहीं तो गाड़ियों को यहीं रात-भर खड़ी रखूँगा। राजा साहब ने जाते-ही-जाते गाड़ीवालों को रवन्ना दिला दिया और मुंशीजी के रजिस्टर पर यह कैफियत लिख दी। पाँड़ेपुर पहुँचे, तो अंधोरा हो चला था। मोटर रुकी। दोनों महाशय उतरकर मंदिर पर आए। नायकराम लुंगी बाँधो हुए भंग घोंट रहे थे, दौड़े हुए आए। बजरंगी नाद में पानी भर रहा था, आकर खड़ा हो गया। सलाम-बंदगी के पश्चात् जॉन सेवक ने नायकराम से कहा-अंधा तो बहुत बिगड़ा हुआ है।
नायकराम-सरकार, बिगड़ा तो इतना है कि जिस दिन डौंड़ी पिटी, उस दिन से घर नहीं आया। सारे दिन शहर में घूमता है; भजन गाता है और दुहाई मचाता है।
राजा साहब-तुम लोगों ने कुछ समझाया नहीं?
नायकराम-दीनबंधु, अपने सामने वह किसी को कुछ समझता ही नहीं। दूसरा आदमी हो, तो मार-पीट की धमकी से सीधा हो जाए; पर उसे तो डर-भय जैसे छू ही नहीं गया। उसी दिन से घर नहीं आया।
राजा साहब-तुम लोग उसे समझा-बुझाकर यहाँ लाओ। सारा संसार छान आए हो; एक मूर्ख को काबू में नहीं ला सकते?
नायकराम-सरकार, समझाना-बुझाना तो मैं नहीं जानता, जो हुकुम हो, हाथ-पैर तोड़कर बैठा दूँ, आज ही चुप हो जाएगा।
राजा साहब-छी, छी, कैसी बातें करते हो! मैं देखता हूँ, यहाँ पानी का नल नहीं है। तुम लोगों को तो बहुत कष्ट होता होगा। मिस्टर सेवक,आप यहाँ नल पहुँचाने का ठेका ले लीजिए।
नायकराम-बड़ी दया है दीनबंधु, नल आ जाए तो क्या कहना है।
राजा साहब-तुम लोगों ने कभी इसके लिए दरख्वास्त ही नहीं दी।
नायकराम-सरकार, यह बस्ती हद-बाहर है।
राजा साहब-कोई हरज नहीं, नल लगा दिया जाएगा।
इतने में ठाकुरदीन ने आकर कहा-सरकार, मेरी भी कुछ खातिरी हो जाए।
यह कहकर उसने चाँदी के वरक में लिपटे हुए पान के बीड़े दोनों महानुभावों की सेवा में अर्पित किए। मि. सेवक को, अंगरेजी वेश-भूषा रहने पर भी, पान से घृणा न थी, शौक से खाया। राजा साहब मुँह में पान रखते हुए बोले-क्या यहाँ लालटेनें नहीं हैं? अंधोरे में तो बड़ी तकलीफ होती होगी?
ठाकुरदीन ने नायकराम की ओर मार्मिक दृष्टि से देखा, मानो यह कह रहा है कि मेरे बीड़ों ने यह रंग जमा दिया। बोला-सरकार, हम लोगों की कौन सुनता है? अब हुजूर की निगाह हो गई है, तो लग ही जाएगी। बस, और कहीं नहीं, इसी मंदिर पर एक लालटेन लगा दी जाए। साधु-महात्मा आते हैं, तो अंधोरे में उन्हें कष्ट होता है। लालटेन से मंदिर की शोभा बढ़ जाएगी। सब आपको आसीरवाद देंगे।
राजा साहब-तुम लोग एक प्रार्थना-पत्र भेज दो।
ठाकुरदीन-हुजूर के प्रताप से दो-एक साधु-संत रोज ही आते रहते हैं। अपने से जो कुछ हो सकता है, उनका सेवा-सत्कार करता हूँ, नहीं तो यहाँ और कौन पूछने वाला है! सरकार, जब से चोरी हो गई, तब से हिम्मत टूट गई।
दोनों आदमी मोटर पर बैठनेवाले ही थे कि सुभागी एक लाल साड़ी पहने, घूँघट निकाले, आकर जरा दूर पर खड़ी हो गई, मानो कुछ कहना चाहती है। राजा साहब ने पूछा-यह कौन है? क्या कहना चाहती है?
नायकराम-सरकार, एक पासिन है। क्या है सुभागी, कुछ कहने आई है?
सुभागी-(धीरे से) कोई सुनेगा?
राजा साहब-हाँ, हाँ, कह, क्या कहती है?
सुभागी-कुछ नहीं मालिक, यही कहने आई थी कि सूरदास के साथ बड़ा अन्याय हुआ है। अगर उनकी फरियाद न सुनी गई, तो वह मर जाएँगे।
जॉन सेवक-उसके मर जाने के डर से सरकार अपना काम छोड़ दे?
सुभागी-हुजूर, सरकार का काम परजा को पालना है कि उजाड़ना? जब से यह जमीन निकल गई है; बेचारे को न खाने की सुध है, न पीने की। हम गरीब औरतों का तो वही एक आधार है, नहीं तो मुहल्ले के मरद कभी औरतों को जीता न छोड़ते और मरदों की मिलीभगत है। मरद चाहे औरत के अंग-अंग, पोर-पोर काट डाले, कोई उसको मने नहीं करता। चोर-चोर मौसेरे भाई हो जाते हैं। वही एक बेचारा था कि हम गरीबों की पीठ पर खड़ा हो जाता था।
भैरों भी आकर खड़ा हो गया था। बोला-हुजूर, सूरे न होता, तो यह आपके सामने खड़ी न होती। उसी ने जान पर खेलकर इसकी जान बचाई थी।
राजा साहब-जीवट का आदमी मालूम होता है।
नायकराम-जीवट क्या है सरकार, बस यह समझिए कि हत्या के बल जीतता है।
राजा साहब-बस, यह बात तुमने बहुत ठीक कही, हत्या ही के बल जीतता है। चाहूँ, तो आज पकड़वा दूँ; पर सोचता हूँ, अंधा है, उस पर क्या गुस्सा दिखाऊँ। तुम लोग उसके पड़ोसी हो, तुम्हारी बात कुछ-न-कुछ सुनेगा ही। तुम लोग उसे समझाओ। नायकराम, हम तुमसे बहुत जोर देकर कहे जाते हैं।
एक घंटा रात जा चुकी थी। कुहरा और भी घना हो गया था। दूकानों के दीपकों के चारों तरफ कोई मोटा कागज-सा पड़ा हुआ जान पड़ता था। दोनों महाशय विदा हुए; पर दोनों ही चिंता में डूबे हुए थे। राजा साहब सोच रहे थे कि देखें, लालटेन और पानी के नल का कुछ असर होता है या नहीं। जॉन सेवक को चिंता थी कि कहीं मुझे जीती जिताई बाजी न खोनी पड़े। 

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रंगभूमि
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। रंगभूमि (1924-1925) उपन्यास ऐसी ही कृति है। नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मध्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है। प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का प्रकाशन 1925 में हुआ था। इससे पहले देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1920 ईस्वी में शुरू हुए असहयोग आन्दोलन का प्रभाव राष्ट्रव्यापी पड़ा था। समाज बड़े पैमाने पर जाग्रत हो गया था और भारतीय समाज की अलग-अलग धाराओं, विचारों, धर्मों, जातियों का द्वंद्व अपने चरम पर था। सबसे बढ़कर एक उत्साही युवा वर्ग देश को विदेशी शासन से मुक्त करवाने के लिए उत्साह के साथ सकारात्मक हो गया था। ‘रंगभूमि’ उपन्यास के पाठ को समझने के लिए भारत की इस तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखना जरूरी है। यह उपन्यास महज अपने कैनवस, विजन में ही बड़ा नहीं है बल्कि यह प्रेमचंद का सबसे अधिक पृष्ठों का उपन्यास है।
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रंगभूमि अध्याय 1

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शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्ये भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहान

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रंगभूमि अध्याय 2

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सूरदास लाठी टेकता हुआ धीरे-धीरे घर चला। रास्ते में चलते-चलते सोचने लगा-यह है बड़े आदमियों की स्वार्थपरता! पहले कैसे हेकड़ी दिखाते थे, मुझे कुत्तो से भी नीचा समझा; लेकिन ज्यों ही मालूम हुआ कि जमीन मेरी

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रंगभूमि अध्याय 3

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मि. जॉन सेवक का बँगला सिगरा में था। उनके पिता मि. ईश्वर सेवक ने सेना-विभाग में पेंशन पाने के बाद वहीं मकान बनवा लिया था, और अब तक उसके स्वामी थे। इसके आगे उनके पुरखों का पता नहीं चलता, और न हमें उसकी

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रंगभूमि अध्याय 4

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चंचल प्रकृति बालकों के लिए अंधे विनोद की वस्तु हुआ करते हैं। सूरदास को उनकी निर्दय बाल-क्रीड़ाओं से इतना कष्ट होता था कि वह मुँह-अंधोरे घर से निकल पड़ता और चिराग जलने के बाद लौटता। जिस दिन उसे जाने मे

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रंगभूमि अध्याय 5

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चतारी के राजा महेंद्रकुमार सिंह यौवनावस्था ही में अपनी कार्य-दक्षता और वंश प्रतिष्ठा के कारण म्युनिसिपैलिटी के प्रधान निर्वाचित हो गए थे। विचारशीलता उनके चरित्र का दिव्य गुण थी। रईसों की विलास-लोलुपता

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रंगभूमि अध्याय 6

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धर्मभीरुता में जहाँ अनेक गुण हैं, वहाँ एक अवगुण भी है; वह सरल होती है। पाखंडियों का दाँव उस पर सहज ही में चल जाता है। धर्मभीरु प्राणी तार्किक नहीं होता। उसकी विवेचना-शक्ति शिथिल हो जाती है। ताहिर अली

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रंगभूमि अध्याय 7

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संध्‍या हो गई थी। किंतु फागुन लगने पर भी सर्दी के मारे हाथ-पाँव अकड़ते थे। ठंडी हवा के झोंके शरीर की हड्डियों में चुभे जाते थे। जाड़ा, इंद्र की मदद पाकर फिर अपनी बिखरी हुई शक्तियों का संचय कर रहा था औ

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रंगभूमि अध्याय 8

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सोफ़िया को इंदु के साथ रहते चार महीने गुजर गए। अपने घर और घरवालों की याद आते ही उसके हृदय में एक ज्वाला-सी प्रज्वलित हो जाती थी। प्रभु सेवक नित्यप्रति उससे एक बार मिलने आता; पर कभी उससे घर का कुशल-समा

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रंगभूमि अध्याय 9

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सोफ़िया इस समय उस अवस्था में थी, जब एक साधारण हँसी की बात, एक साधारण आँखों का इशारा, किसी का उसे देखकर मुस्करा देना, किसी महरी का उसकी आज्ञा का पालन करने में एक क्षण विलम्ब करना, ऐसी हजारों बातें, जो

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रंगभूमि अध्याय 10

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बालकों पर प्रेम की भाँति द्वेष का असर भी अधिक होता है। जबसे मिठुआ और घीसू को मालूम हुआ था कि ताहिर अली हमारा मैदान जबरदस्ती ले रहे हैं, तब से दोनों उन्हें अपना दुश्मन समझते थे। चतारी के राजा साहब और स

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रंगभूमि अध्याय 11

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भैरों पासी अपनी माँ का सपूत बेटा था। यथासाधय उसे आराम से रखने की चेष्टा करता रहता था। इस भय से कि कहीं बहू सास को भूखा न रखे, वह उसकी थाली अपने सामने परसा लिया करता था और उसे अपने साथ ही बैठाकर खिलाता

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रंगभूमि अध्याय 12

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प्रभु सेवक ताहिर अली के साथ चले, तो पिता पर झल्लाए हुए थे-यह मुझे कोल्हू का बैल बनाना चाहते हैं। आठों पहर तम्बाकू ही के नशे में डूबा पड़ा रहूँ, अधिकारियों की चौखट पर मस्तक रगड़ूँ, हिस्से बेचता फिरूँ,

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रंगभूमि अध्याय 13

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विनयसिंह के जाने के बाद सोफ़िया को ऐसा प्रतीत होने लगा कि रानी जाह्नवी मुझसे खिंची हुई हैं। वह अब उसे पुस्तकें तथा पत्र पढ़ने या चिट्ठियाँ लिखने के लिए बहुत कम बुलातीं; उसके आचार-व्यवहार को संदिग्ध दृ

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रंगभूमि अध्याय 14

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सोफ़िया को होश आया तो वह अपने कमरे में चारपाई पर पड़ी हुई थी। कानों में रानी के अंतिम शब्द गूँज रहे थे-क्या यही सत्य की मीमांसा है? वह अपने को इस समय इतनी नीच समझ रही थी कि घर का मेहतर भी उसे गालियाँ

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रंगभूमि अध्याय 15

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राजा महेंद्रकुमार सिंह यद्यपि सिध्दांत के विषय में अधिकारियों से जौ-भर भी न दबते थे; पर गौण विषयों में वह अनायास उनसे विरोध करना व्यर्थ ही नहीं, जाति के लिए अनुपयुक्त भी समझते थे। उन्हें शांत नीति पर

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रंगभूमि अध्याय 16

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अरावली की पहाड़ियों में एक वट-वृक्ष के नीचे विनयसिंह बैठे हुए हैं। पावस ने उस जन-शून्य, कठोर, निष्प्रभ, पाषाणमय स्थान को प्रेम,प्रमोद और शोभा से मंडित कर दिया है, मानो कोई उजड़ा हुआ घर आबाद हो गया हो।

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रंगभूमि अध्याय 17

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विनयसिंह छ: महीने से कारागार में पड़े हुए हैं। न डाकुओं का कुछ पता मिलता है और न उन पर अभियोग चलाया जाता है। अधिकारियों को अब भी भ्रम है कि इन्हीं के इशारे से डाका पड़ा था। इसीलिए वे उन पर नाना प्रकार

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रंगभूमि अध्याय 18

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सोफ़िया घर आई, तो उसके आत्मगौरव का पतन हो चुका था; अपनी ही निगाहों में गिर गई थी। उसे अब न रानी पर क्रोध था, न अपने माता-पिता पर। केवल अपनी आत्मा पर क्रोध था, जिसके हाथों उसकी इतनी दुर्गति हुई थी, जिस

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रंगभूमि अध्याय 19

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सोफ़िया अपनी चिंताओं में ऐसी व्यस्त हो रही थी कि सूरदास को बिल्कुल भूल-सी गई थी। उसकी फरियाद सुनकर उसका हृदय काँप उठा। इस दीन प्राणी पर इतना घोर अत्याचार! उसकी दयालु प्रकृति यह अन्याय न सह सकी। सोचने

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रंगभूमि अध्याय 20

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मि. क्लार्क ने मोटर से उतरते ही अरदली को हुक्म दिया-डिप्टी साहब को फौरन हमारा सलाम दो। नाजिर, अहलमद और अन्य कर्मचारियों को भी तलब किया गया। सब-के-सब घबराए-यह आज असमय क्यों तलबी हुई, कोई गलती तो नहीं प

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सैयद ताहिर अली को पूरी आशा थी कि जब सिगरेट का कारखाना बनना शुरू हो जाएगा, तो मेरी कुछ-न-कुछ तरक्की हो जाएगी। मि. सेवक ने उन्हें इसका वचन दिया था। इस आशा के सिवा उन्हें अब तक ऋणों को चुकाने का कोई उपाय

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अब तक सूरदास शहर में हाकिमों के अत्याचार की दुहाई देता रहा, उसके मुहल्ले वाले जॉन सेवक के हितैषी होने पर भी उससे सहानुभूति करते रहे। निर्बलों के प्रति स्वभावत: करुणा उत्पन्न हो जाती है। लेकिन सूरदास क

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सूरदास की जमीन वापस दिला देने के बाद सोफ़िया फिर मि. क्लार्क से तन गई। दिन गुजरते जाते थे और वह मि. क्लार्क से दूरतर होती जाती थी। उसे अब सच्चे अनुराग के लिए अपमान, लज्जा, तिरस्कार सहने की अपेक्षा कृत

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साल-भर तक राजा महेंद्रकुमार और मिस्टर क्लार्क में निरंतर चोटें चलती रहीं। पत्र का पृष्ठ रणक्षेत्र था और शृंखलित सूरमों की जगह सूरमों से कहीं बलवान् दलीलें। मनों स्याही बह गई, कितनी ही कलमें काम आईं। द

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अरावली की हरी-भरी झूमती हुई पहाड़ियों के दामन में जसवंतनगर यों शयन कर रहा है, जैसे बालक माता की गोद में। माता के स्तन से दूध की धारें, प्रेमोद्गार से विकल, उबलती, मीठे स्वरों में गाती निकलती हैं और बा

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रंगभूमि अध्याय 27

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नायकराम मुहल्लेवालों से बिदा होकर उदयपुर रवाना हुए। रेल के मुसाफिरों को बहुत जल्द उनसे श्रध्दा हो गई। किसी को तम्बाकू मलकर खिलाते, किसी के बच्चे को गोद में लेकर प्यार करते। जिस मुसाफिर को देखते, जगह न

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सोफिया के चले जाने के बाद विनय के विचार-स्थल में भाँति-भाँति की शंकाएँ होने लगीं। मन एक भीरु शत्रु है, जो सदैव पीठ के पीछे से वार करता है। जब तक सोफी सामने बैठी थी, उसे सामने आने का साहस न हुआ। सोफी क

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मिस्टर विलियम क्लार्क अपने अन्य स्वदेश-बंधुओं की भाँति सुरापान के भक्त थे, पर उसके वशीभूत न थे। वह भारतवासियों की भाँति पीकर छकना न जानते थे। घोड़े पर सवार होना जानते थे, उसे काबू से बाहर न होने देते

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रंगभूमि अध्याय 30

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शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्यि भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहान

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रंगभूमि अध्याय 31

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भैरों के घर से लौटकर सूरदास अपनी झोंपड़ी में आकर सोचने लगा, क्या करूँ कि सहसा दयागिरि आ गए और बोले-सूरदास, आज तो लोग तुम्हारे ऊपर बहुत गरम हो रहे हैं, इसे घमंड हो गया है। तुम इस माया-जाल में क्यों पड़

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रंगभूमि अध्याय 32

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सूरदास के मुकदमे का फैसला सुनने के बाद इंद्रदत्ता चले, तो रास्ते में प्रभु सेवक से मुलाकात हो गई। बातें होने लगी। इंद्रदत्ता-तुम्हारा क्या विचार है, सूरदास निर्दोष है या नहीं? प्रभु सेवक-सर्वथा निर्

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फैक्टरी करीब-करीब तैयार हो गई थी। अब मशीनें गड़ने लगीं। पहले तो मजदूर-मिस्त्री आदि प्राय: मिल के बरामदों ही में रहते थे, वहीं पेड़ों के नीचे खाना पकाते और सोते; लेकिन जब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई, तो मु

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रंगभूमि अध्याय 34

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प्रभु सेवक ने घर आते ही मकान का जिक्र छेड़ दिया। जान सेवक यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए कि अब इसने कारखाने की ओर धयान देना शुरू किया। बोले-हाँ, मकानों का बनना बहुत जरूरी है। इंजीनियर से कहो, एक नक्शा बनाए

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रंगभूमि अध्याय 35

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विनयसिंह आबादी में दाखिल हुए, तो सबेरा हो गया था। थोड़ी दूर चले थे कि एक बुढ़िया लाठी टेकती सामने से आती हुई दिखाई दी। इन्हें देखकर बोली-बेटा, गरीब हूँ। बन पडे, तो कुछ दे दो। धरम होगा। नायकराम-सवेरे

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मिस्टर जॉन सेवक ने ताहिर अली की मेहनत और ईमानदारी से प्रसन्न होकर खालों पर कुछ कमीशन नियत कर दिया था। इससे अब उनकी आय अच्छी हो गई थी, जिससे मिल के मजदूरों पर उनका रोब था, ओवरसियर और छोटे-छोटे क्लर्क उ

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प्रभु सेवक बड़े उत्साही आदमी थे। उनके हाथ से सेवक-दल में एक नई सजीवता का संचार हुआ। संख्या दिन-दिन बढ़ने लगी। जो लोग शिथिल और उदासीन हो रहे थे, फिर नए जोश से काम करने लगे। प्रभु सेवक की सज्जनता और सहृ

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रंगभूमि अध्याय 38

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सोफिया और विनय रात-भर तो स्टेशन पर पड़े रहे। सबेरे समीप के गाँव में गए, जो भीलों की एक छोटी-सी बस्ती थी। सोफिया को यह स्थान बहुत पसंद आया। बस्ती के सिर पर पहाड़ का साया था, पैरों के नीचे एक पहाड़ी नाल

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रंगभूमि अध्याय 40

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मिल के तैयार होने में अब बहुत थोड़ी कसर रह गई थी। बाहर से तम्बाकू की गाड़ियाँ लदी चली आती थीं। किसानों को तम्बाकू बोने के लिए दादनी दी जा रही थी। गवर्नर से मिल को खोलने की रस्म अदा करने के लिए प्रार्थ

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रंगभूमि अध्याय 41

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प्रभु सेवक ने तीन वर्ष अमेरिका में रहकर और हजारों रुपये खर्च करके जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया था, वह मि. जॉन सेवक ने उनकी संगति से उतने ही महीनों में प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं, प्रभु सेवक की भा

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रंगभूमि अध्याय 42

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अदालत ने अगर दोनों युवकों को कठिन दंड दिया, तो जनता ने भी सूरदास को उससे कम कठिन दंड न दिया। चारों ओर थुड़ी-थुड़ी होने लगी। मुहल्लेवालों का तो कहना ही क्या, आस-पास के गाँववाले भी दो-चार खोटी-खरी सुना

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रंगभूमि अध्याय 43

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सोफिया के धार्मिक विचार, उसका आचार-व्यवहार, रहन-सहन, उसकी शिक्षा-दीक्षा, ये सभी बातें ऐसी थीं, जिनसे एक हिंदू महिला को घृणा हो सकती थी। पर इतने दिनों के अनुभव ने रानीजी की सभी शंकाओं का समाधान कर दिया

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रंगभूमि अध्याय 44

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गंगा से लौटते दिन के नौ बज गए। हजारों आदमियों का जमघट, गलियाँ तंग और कीचड़ से भरी हुई, पग-पग पर फूलों की वर्षा, सेवक-दल का राष्ट्रीय संगीत, गंगा तक पहुँचते-पहुँचते ही सबेरा हो गया था। लौटते हुए जाह्नव

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रंगभूमि अध्याय 45

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पाँड़ेपुर में गोरखे अभी तक पड़ाव डाले हुए थे। उनके उपलों के जलने से चारों तरफ धुआँ छाया हुआ था। उस श्यामावरण में बस्ती के ख्रडहर भयानक मालूम होते थे। यहाँ अब भी दिन में दर्शकों की भीड़ रहती थी। नगर मे

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रंगभूमि अध्याय 46

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चारों आदमी शफाखाने पहुँचे, तो नौ बज चुके थे। आकाश निद्रा में मग्न, आँखें बंद किए पड़ा हुआ था, पर पृथ्वी जाग रही थी। भैरों खड़ा सूरदास को पंखा झल रहा था। लोगों को देखते ही उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे।

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रंगभूमि अध्याय 47

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संधया हो गई थी। मिल के मजदूर छुट्टी पा गए थे। आजकल दूनी मजदूरी देने पर भी बहुत थोड़े मजदूर काम करने आते थे। पाँड़ेपुर में सन्नाटा छाया हुआ था। वहाँ अब मकानों के भग्नावशेष के सिवा कुछ नजर न आता था। हाँ

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रंगभूमि अध्याय 48

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काशी के म्युनिसिपल बोर्ड में भिन्न-भिन्न राजनीतिक सम्प्रदायों के लोग मौजूद थे। एकवाद से लेकर जनसत्तावाद तक सभी विचारों के कुछ-न-कुछ आदमी थे। अभी तक धन का प्राधान्य नहीं था, महाजनों और रईसों का राज्य थ

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रंगभूमि अध्याय 49

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इधर सूरदास के स्मारक के लिए चंदा जमा किया जा रहा था, उधर कुलियों के टोले में शिलान्यास की तैयारियाँ हो रही थीं। नगर के गण्यमान्य पुरुष निमंत्रित हुए थे। प्रांत के गवर्नर से शिला-स्थापना की प्रार्थना क

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रंगभूमि अध्याय 50

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कुँवर विनयसिंह की वीर मृत्यु के पश्चात रानी जाह्नवी का सदुत्साह दुगुना हो गया। वह पहले से कहीं ज्यादा क्रियाशील हो गईं। उनके रोम-रोम में असाधारण स्फूर्ति का विकास हुआ। वृध्दावस्था की आलस्यप्रियता यौवन

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