(अय ताइरे-लाहूती ! उस रिज़्क से मौत अच्छी,
जिस रिज़्क से आती हो परवाज़ में कोताही।-इक़बाल)
(1)
आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ?
मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ?
आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं,
पर, कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।
(2)
हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले,
पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले।
इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है ?
है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ?
(3)
झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ?
आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ?
है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी,
बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी।
(4)
केवल रोटी ही नहीं, मुक्ति मन का उल्लास अभय भी है,
आदमी उदर है जहाँ, वहाँ वह मानस और हृदय भी है ।
बुझती स्वतन्त्रता क्या पहले रोटियाँ हाथ से जाने से ?
गुम होती है वह सदा भोग का धुआँ प्राण पर छाने से ।
(5)
स्वातंत्र्य गर्व उनका, जो नर फाकों में प्राण गँवाते हैं,
पर, नहीं बेच मन का प्रकाश रोटी का मोल चुकाते हैं ।
स्वातंत्रय गर्व उनका, जिन पर संकट की घात न चलती है,
तूफानों में जिनकी मशाल कुछ और तेज हो जलती है ।
(6)
स्वातंत्र्य गर्व उनका, जिनका आराध्य सुखों का भोग नहीं,
जो सह सकते सब कुछ, स्वतन्त्रता का बस एक वियोग नहीं ।
धन-धाम छोड़कर जा बसते जो वीरानों, सहरायों में,
सोचा है, वे क्या ज्योति जुगाते फिरते दरी-गुफायों में?
(7)
स्वातंत्र्य उमंगों की तरंग, नर में गौरव की ज्वाला है,
स्वातंत्र्य रूह की ग्रीवा में अनमोल विजय की माला है ।
स्वातंत्र्य भाव नर का अदम्य, वह जो चाहे, कर सकता है,
शासन की कौन बिसात ? पांव विधि की लिपि पर धर सकता है ।
(8)
स्वातंत्र्य सोचने का हक है, जैसे भी मन की धार चले,
स्वातंत्र्य प्रेम की सत्ता है, जिस ओर हृदय का प्यार चले
।
स्वातंत्र्य बोलने का हक है, जो कुछ दिमाग में आता हो,
आजादी है यह चलने की, जिस और हृदय ले जाता हो ।
(9)
फरमान नबी-नेताओं के जो हैं राहों में टंगे हुए,
अवतार और ये पैगम्बर जो हैं पहरे पर लगे हुए,
ये महज मील के पत्थर हैं, मत इन्हें पन्थ का अन्त मान,
जिंदगी माप की चीज नहीं, तू इसको अगम, अनन्त मान ।
(10)
जिन्दगी वहीं तक नहीं, ध्वजा जिस जगह विगत युग ने गाड़ी,
मालूम किसी को नहीं अनागत नर की दुविधाएँ सारी।
सारा जीवन नप चुका, कहे जो, वह दासता-प्रचारक है,
नर के विवेक का शत्रु, मनुज की मेधा का संहारक है ।
(11)
जो कहें, 'सोच मत स्वयं, बात जो कहूं मानता चल उसको',
नर की स्वतन्त्रता की मनि का तू कह आराति प्रबल उसको ।
नर के स्वतन्त्र चिन्तन से जो डरता, कदर्य, अविचारी है,
बेड़ियां बुद्धि को जो देता, जुल्मी है, अत्याचारी है।
(12)
मन के ऊपर जंजीरों का तू किसी लोभ से भार न सह,
चिन्तन से मुक्त करे तुझको, उसका कोई उपचार न सह ।
तेरे विचार के तार अधिक जितना चढ़ सकें चढ़ाता चल,
पथ और नया खुल सकता है, आगे को पांव बढ़ाता चल ।
(13)
लक्ष्मण-रेखा के दास तटों तक ही जाकर फिर जाते हैं,
वर्जित समुद्र में नाव लिए स्वाधीन वीर ही जाते हैँ।
आजादी है अधिकार खोज की नई राह पर आने का,
आजादी है अधिकार नये द्वीपों का पता लगाने का ।
(14)
आजादी है परिधान पहनना वही जो कि तन में आए,
आजादी है मानना उसे जो बात ठीक मन को भाये ।
ढल कभी नहीं मन के विरुद्ध निर्दिष्ट किसी भी ढांचे में,
अपनी ऊंचाई छोड़ समा मत कभी काठ के साँचे में ।
(15)
स्वाधीन हुआ किस लिए? गर्व से ऊपर शीश उठाने को?
पशु के समान क्या खूंटे पर घास पेट भर खाने को?
उस रोटी को धिक्कार, बचे जिससे मनुष्य का मान नहीं,
खा जिसे गरुड़ की पांखों में रह पाती मुक्त उड़ान नहीं ।
(16)
रोटी उसकी, जिसका अनाज, जिसकी जमीन, जिसका श्रम है,
अब कौन उलट सकता स्वतन्त्रता का सुसिद्ध सीधा क्रम है?
आजादी है अधिकार परिश्रम का पुनीत फल पाने का,
आजादी है अधिकार शोषणों की धज्जियाँ उड़ाने का ।
(17)
कानों-कानों की सही नहीं, चुपके-चुपके छिप आह न कर,
तू बोल, सोचता है जो कुछ, पहरों की टुक परवाह न कर ।
अब नहीं गाँव में भिक्षु और दिल्ली में कोई दानी है,
तू दास किसी का नहीं, स्वयं स्वाधीन देश का प्राणी है ।
(18)
है कौन जगत में, जो स्वतन्त्र जनसत्ता का अवरोध करे ?
रह सकता सत्तारूढ़ कौन, जनता जब उस पर क्रोध करे?
आजादी केवल नहीं आप अपनी सरकार बनाना ही,
आजादी है उसके विरुद्ध खुलकर विद्रोह मचाना भी ।
(19)
गौरव की भाषा नई सीख, भिखमंगों की आवाज बदल,
सिमटी बाँहों को खोल गरुड़ ! उड़ने का अब अन्दाज बदल ।
स्वाधीन मनुज की इच्छा के आगे पहाड़ हिल सकते हैं,
रोटी क्या? ये अम्बरवाले सारे सिंगार मिल सकते हैं ।