राम की जय पर खड़ी है रोटियों की जय
त्याग कि कहने लग गया लँगोटियों की जय
हाथ के तज काम हों आदर्श के बस काम
राम के बस काम क्यों? हों काम के बस राम।
अन्ध-भाषा अन्ध-भावों से भरा हो देश
ईश का सिर झुक रहा हो रूढ़ि के आदेश
प्रेम का वध ही जहाँ हो धर्म का व्यवसाय
जब हिमायत ही बनी हो श्रेष्ठता का न्याय
भूत कुछ पचता न हो, भावी न रुचता हाय
क्यों न वह युग वर्तमानों में पड़ा मर जाय?
जब कलम रचने लगी नव-नवल-कुंभीपाक
तीन से अनगिनित पत्ते जन रहा जब ढाक।
जब कि वाणी-कामिनी, नित पहिन घुँघुरू यार
गूँजती मेले लगा कर अन्नदाता-द्वार
उस दिवस, क्या कह उठे तुम साधना क्या मोह
माँगने दो आज पीढ़ी को सखे विद्रोह
आज मीठे कीच में ऊगे प्रलय की बेल
कलम कर कर उठे, फूलें, सिर चढों का खेल
प्रणय-पथ मिलने लगें अब प्रलय-पथ से दौड़
सूलियों पर ऊगने में युग लगाये होड़
ज्वार से? ना ना किसी तलवार से सिर जाय
प्यार से सिर आय तो ललकार दो सिर जाय।।