श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
(नवधा भक्ति ) प्रस्तुत है चित्रकथालापसुख आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण:-
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यह भावमय संसार अद्भुत है भाव हम सब के अंदर होते हैं किसी के सुप्त किसी के अव्यवस्थित तो किसी के मार्गान्तरित भी हो सकते हैं, इस भावभूमि का संस्पर्श हम सबको करना चाहिये मानस में अरण्यकांड में शबरी के आश्रम के बारे में, शबरी द्वारा बेर खिलाना आदि को अनेक ग्रन्थों में विस्तार से बताया गया है कथावाचकों ने ऐसे भाव व्यक्त किये हैं ताकि हमारे अन्दर वो भावानुभूति हो जाये कथाएं मन के भाव से संयुत होती हैं, कथाएं इतिहास नहीं होती हैं कथाओं और साहित्य में इतिहास ढूंढने का हमें प्रयास नहीं करना चाहिये इतिहास और साहित्य एक दूसरे से गुंथे होते हैं अपने विवेक से हमें उनका विश्लेषण करना चाहिये इन कथाओं में कुछ ऐसे अंश संयुत हैं जो अपने भाव जाग्रत करने के लिये हैं और तर्कातीत हैं | साहित्यकार को आसपास का पर्यावरण प्रभावित करता है वह अकबर का ही समय था जब तुलसी का जन्म हुआ उस समय महिलाओं के बाजार लगते थे स्त्री - स्वातन्त्र्य विचार असंभव था |
अधम ते अधम अधम अति नारी । तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी ॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता । मानउँ एक भगति कर नाता॥2॥
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई । धन बल परिजन गुन चतुराई ॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा । बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥3॥
की व्याख्या में आचार्य जी ने बताया कि भक्तिहीन मनुष्य उसी तरह होता है जैसा जलविहीन बादल भक्ति ऐसी शक्ति है कि मनुष्य उसे यदि पहचान ले तो सर्वस्व प्रदान कर सकती है कुछ राष्ट्र -भक्ति के दास हैं कुछ ईश्वर -भक्ति के दास हैं इसी तरह वैराग्य -भक्ति के भी दास होते हैं |
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं । सावधान सुनु धरु मन माहीं ॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा । दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ॥4॥
गुर पद पकंज सेवा तीसरि भगति अमान । चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ।।
मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा । पंचम भजन सो बेद प्रकासा ।।
छठ दम सील बिरति बहु करमा । निरत निरंतर सज्जन धरमा ।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा । मोतें संत अधिक करि लेखा ।।
आठवँ जथालाभ संतोषा । सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ।।
नवम सरल सब सन छलहीना । मम भरोस हियँ हरष न दीना ।।
इस तरह भक्ति के नौ प्रकार हैं आचार्य जी ने इसके अतिरिक्त राजेश्वरनन्द जी महाराज की भी चर्चा की |