प्रस्तुत है शुचिस्मित आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण : -
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हमें जब तक किसी बात का स्मरण न हो हम सांसारिक प्रपंचों में उलझे रहें विचारों का आवागमन होता रहे विविध क्रियाएं संपादित होती रहें तो हम लोग पुरानी स्मृतियां भूल जाते हैं लेकिन इतिहास का स्मरण करना संसार का स्वधर्म है इतिहास को भूलना या उसके प्रति अज्ञान पशुवत् जीवन यापन है कल युगपुरुष पं दीनदयाल जी का निर्वाण दिवस था ऐसे अवसर हमें स्मरण दिलाने के लिये होते हैं ये इतिहास की बहुत सी घटनाओं को जोड़ देते हैं वैचारिक संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है दीनदयाल जी की कूटरचित हत्या को याद कर आचार्य जी बहुत भावापन्न हो जाते हैं दीनदयाल जी हमारे अन्तर्मन में आज भी विद्यमान हैं संसार तो बहुत अद्भुत है वह किसी के भगवत् स्वरूप के अंश को जान नहीं पाता जैसे भगवान् कृष्ण को शिशुपाल, दुर्योधन ने नहीं पहचान गीता में नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः। मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।7.25।। अपनी योगमाया से आवृत्त मैं सबके सामने प्रकट नहीं होता हूँ। यह लोक मुझ अज , अविनाशी को नहीं जानता है।। प्रतिभासंपन्न ज्ञानसंपन्न दीनदयाल जी का बहुत लोग सम्मान करते थे तो कुछ ऐसे भी थे जिन्हें उनमें कोई विशेषता नहीं दिखती थी भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः। ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।18.55।। मुझे जानने के लिये भक्ति की आवश्यकता है और भक्ति के मूल में विश्वास होता है मूर्ति मात्र मूर्ति नहीं है मैं इसकी पूजा करता हूं मुझे तो यह विश्वास है कि मेरे अन्दर का जो परमात्म भाव है वही उसमें प्रविष्ट है लेकिन यह सबके वश का नहीं है चाहे मूर्ति हो राष्ट्र हो शिक्षक हो या अन्य कोई हो हमारा उनसे भाव तभी जुड़ेगा जब हम भावात्मक बुद्धि का प्रयोग करेंगे विश्लेषणात्मक बुद्धि का नहीं आचार्य जी ने बताया कि हमारे भाव से प्रकृति की दोहन क्रिया स माप्त हो गई और उसका स्थान शोषण क्रिया ने ले लिया इसी ने हमारी व्याकुलता बढ़ा इसी व्याकुलता को शान्त करने के लिये प्रकृति के संस्पर्श की आवश्यकता है प्रकृति यदि विकृति के रूप में हमारे न में आ जाती है तो हम व्याकुल रहते हैं ये ही दीनदयाल जी के सिद्धान्त थे आचार्य जी ने राजनीति में दीनदयाल जी के श्रेष्ठ सिद्धान्त बताये वे राजनीति के क्षितिज पर जगमगाते सूर्य थे समाज को सही दिशा देने के लिये हमें आगे आना होगा |