प्रस्तुत है परिकाङ्क्षित आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण
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आचार्य जी ने बताया कि भैया जीतेन्द्र सिंह त्यागी (बैच 1988) आचार्य जी से मिलने के लिये सरौंहां पहुंच रहे हैं परमात्मा की लीला अपार है सृष्टि संचालन अनवरत चलता रहता है l मनुष्य का स्वभाव है जो उसके भावों के साथ संयुत हो जाता है वह उसका प्रिय है और जो संयुत नहीं हो पाता वह उसका अप्रिय हो जाता है दार्शनिक सिद्धान्त है कि यह संसार नाम रूपात्मक है और व्यावहारिक बात है कि मनुष्य का नाम से भी लगाव हो जाता है और रूप से भी बाल कांड में समुझत सरिस नाम अरु नामी । प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी समझने में नाम व नामी एक जैसे हैं लेकिन दोनों में स्वामी और सेवक के समान प्रेम है प्रभु श्रीराम अपने 'राम' नाम का ही अनुगमन करते हैं नाम और रूप दोनों ईश्वर की उपाधि हैं, ये अनिर्वचनीय और अनादि हैं शुद्ध बुद्धि से ही इनका दिव्य अविनाशी रूप जानने में आता है |
को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू॥
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥
नाम और रूप में कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है। इनके गुणों का तारतम्य सुनकर साधु पुरुष खुद
ही समझ लेंगे। रूप नाम के अधीन दिखाई देते हैं, नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता इस नाम रूपात्मक जगत्
में हमारे देश का नाम भारत है उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् | वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ||
सागर के उत्तर में एवं हिमालय के दक्षिण में जो देश है उसका नाम भारत है और उसकी सन्तति को भारती कहते हैं। विष्णु पुराण २.३.१ भारत की संस्कृति अति प्राचीन है हिमालय के आँगन में उसे, किरणों का दे उपहार उषा ने हँस अभिनंदन किया, और पहनाया हीरक हार। जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक व्योमतम पुंज हुआ तब नष्ट, खिल संसृति हो उठी अशोक। हम और कहीं से नहीं आये थे यह भ्रामक बात है कि हम बाहर से आये थे हमें सूझबूझ के साथ ध्ययन करने की आवश्यकता है हमारे साहित्य की परंपरा सुदर्शन चक्र जी की पुस्तक में देखी जा सकती है महाभारत में चीन से भी युद्ध करने योद्धा आये थे पांडवों के यज्ञों में बहुत दूर दूर से लोग उपहार देने आये थे भारत के तो टीले भी पवित्र माने जाते हैं भारतवर्ष के चिन्तन में जड़ता नहीं है पूरे भारत में देवस्थान हैं हम कौवे को भी पूजते हैं हम अपनी मातृभूमि की पूजा करते हैं स्वामी रामतीर्थ अपने को बादशाह राम कहते थे भारत की भावना के साथ हमारी भावनाएं संयुत हो जाती हैं तो हम भारत ही हो जाते हैं आचार्य जी ने परामर्श दिया कि हम भारत से प्रेम करना सीखें देश के प्रति प्रेम की पराकाष्ठा हिलोरे लेने लगती है तो हमारा भाव हो जाता है कि देश के प्रति जिसका भाव दूषित हो उसको सबक सिखाएं इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बैलगाड़ी से संबन्धित एक प्रसंग बताया |