प्रस्तुत है प्रौण आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण :-
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प्रतिदिन की यह सदाचार वेला आचार्य जी के अनुभवों पर आधारित है इसलिये हमें इसका श्रवण कर अधिक से अधिक लाभ लेने का प्रयास करना चाहिये सामान्य रूप से सभी के अन्तःसूत्र संयुत रहते हैं बाहर के आकार प्रकार भिन्न दिखाई देते हैं रूप नाम अलग हो सकते हैं लेकिन तत्त्वतः सब एक हैं भगवान् शंकराचार्य ने विवेक चूडामणि में तात्त्विक विषयों को रोचक छन्दों में प्रस्तुत किया है प्रारब्धसूत्रग्रथितं शरीरं प्रयातु वा तिष्ठतु गोरिव स्रक् । न तत्पुनः पश्यति तत्त्ववेत्ता (आ) नन्दात्मनि ब्रह्मणि लीनवृत्तिः ॥ ४१६ ॥ आचार्य जी ने इसकी व्याख्या करते हुए बताया कि जिनकी चित्तवृत्ति ब्रह्मस्वरूप में लीन हो गई है वो शरीर के विकारों का ध्यान नहीं रखते यह भाव कठिन है लेकिन मनुष्य ही इसका अनुभव कर सकता है और जब इस भाव का अनुभव अनुभाव में प्रकट होने लगता है तो हम कहते हैं कि वह तो बहुत तेजस्वी है तपस्वी है लेकिन तेजस्विता को पहचानने के लिये पहचान करने वाले को अपने स्तर को ऊपर उठाना होता है आत्मानुभूति परमात्मानुभूतिहै लेकिन यह सबके वश की नहीं है कर सब सकते हैं लेकिन इसके लिये शरीर को सबसे पहले साधने की आवश्यकता है आचार्य जी ने डा सुनील गुप्त जी से संबन्धित एक प्रसंग का उल्लेख किया जिसमें किसी के शरीर की सारी क्रियाएं चलने के बाद भी वह व्यक्ति जीवित है या नहीं यह पता करना मुश्किल हो रहा था यही रहस्य जिसको समझ में आ जाता है वह संसार में अनुरक्ति के साथ विरक्ति का अभ्यासी हो जाता है पूज्य गुरु जी ने शरीर को शरीर की भांति चलाया और cancer के operation के बाद विद्यालय में हनुमान जी की प्राण प्रतिष्ठा की थी उनका एक लम्बा भाषण परिपूर्ण मानव नामक छपा था उस योगी ने राष्ट्र के लिये अपना जीवन समर्पित किया आचार्य जी ने उन पर एक गीत लिखा था ओ तपस्वी ओ तपस्वी इसे भैया स्व अर्पण ने गाया था आचार्य जी ने शौर्य प्रमण्डित अध्यात्म पर पुनः आज जोर दिया आत्मीयता दिखाते हुए अपने साथियों को गलत कार्यों पर टोंके भ्रम भय निराशा त्याग कर राष्ट्र के लिये समर्पण दिखायें |