करसि पान सोवसि दिनु राती । सुधि नहिं तव सिर पर आराती ॥
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा । हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा ॥4॥
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ । श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ ॥
संग तें जती कुमंत्र ते राजा । मान ते ग्यान पान तें लाजा ॥5॥
प्रस्तुत है श्रील सुनामन् आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण मां सरस्वती वाणी -विधान को शक्ति,गति,मति आदि न दें तो मनुष्य कुछ कर ही नहीं सकता केवल बोल सकता है अभिभावक का,शिक्षक का, पितृवत् व्यवहार करने वाले व्यक्ति का यह भाव होना चाहिए कि हर व्यक्ति के साथ उसका सामञ्जस्य बैठ जाए यही भाव जब विकसित हो जाता है तो इसको नीति, व्यवस्था, नियम, विधि कहते हैं यही नीति जब राज्य व्यवस्था में रहती है तो इसे राजनीति कहते हैं | राज्य बिना नीति के नहीं चलता है परिवार में भी राज्य व्यवस्था रहती है हमारी संस्कृति ने परिवारभाव को राज्य व्यवस्था में परिणत किया और वसुधैव कुटुम्बकम् कहा बृहस्पतिदेव गुरु हैं गुरु अर्थात् अन्धकार को हरण करने वाला (गु = अन्धकार, रु =हरण करने वाला ) शुक्राचार्य दैत्यों के गुरु हैं सुर असुर संसार की विधि व्यवस्था है बृहस्पतिदेव के रथ का नाम नीतिघोष है यानि उसके चलने से जो स्वर निकलते हैं उसमें भी एक व्यवस्था है इन्हें देवताओं ने अपना गुरु बनाया और शुक्राचार्य में अपार शक्तियां हैं लेकिन एक न्यूनता रह गई कि उनमें ईर्ष्या का भाव समाप्त नहीं हुआ और असुरों को इसी भाव से समझाने की चेष्टा की जैसे समुद्रमन्थन में एक दृष्टान्त है आचार्य जी ने परामर्श दिया कि हम लोग शास्त्रीय अध्ययन थोड़े थोड़े अंशों में करते चलें चार्वाक दर्शन , विश्वामित्र द्वारा सृष्टि रचना आदि पौराणिक ज्ञान में बहुत सारे तत्त्व हैं इसी तरह गीता मानस में भी बहुत से कथानक हैं ये सब हमारे मार्गदर्शक बन गए हैं लेकिन शिक्षा का आधार इन्हें नहीं बनाया गया इसके अतिरिक्त देहाध्यासी क्या है, देहाभ्यासी क्या है, भैया आशीष जोग, भैया मनीष कृष्णा, भैया पुनीत श्रीवास्तव और भैया अरविन्द तिवारी जी का नाम आचार्य ी ने क्यों लिया आदि जानने के लिए सुनें |