प्रस्तुत है दृष्टसार आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण आचार्य जी ने कल एक अद्भुत स्वप्न देखा - कई उच्च कोटि के विद्वान विचारक ज्ञानी तपस्वी चिन्तक अपने अपने ढंग से इस सृष्टि की संरचना पर विचार कर रहें हैं आचार्य जी भी उसमें सम्मिलित हो गए हैं और सब लोग एक तट पर पहुंच गए श्रद्धा भक्ति के साथ लहरें देख रहे हैं आचार्य जी के मन में भाव उठता है कि क्या परमात्मा इसमें विद्यमान नहीं है इसके बाद अन्य लोगों ने परमात्मा के रूप व्याख्यायित किये फिर विचार हो रहा है कि अध्यात्म का एक विद्यालय चलाया जाए क्योंकि अध्यात्म गम्भीर विषय है और लोग समझ नहीं रहे हैं l इसी तरह विद्यालय में आचार्य जी को हनुमान जी ने दर्शन दिए थे यह स्वप्न का संसार भी अत्यधिक अद्भुत है स्वप्न जगत पर भी बहुत से शोध हुए हैं |
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि, व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं, लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्।। (गीता 11/20)
हे महात्मन् ! अन्तरिक्ष और पृथ्वी के बीच का सम्पूर्ण आकाश तथा सब दिशाएं एक मात्र आप से ही परिपूर्ण हैं आपके इस अलौकिक, भयंकर रूप को देख कर तीनों लोक अत्यन्त व्यथित हो रहे हैं ।
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति, केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः, स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिःपुष्कलाभिः।। (गीता 11/21)
वे देवताओं के समूह आप में ही प्रवेश कर रहे हैं और कई भयभीत होकर आप के गुणों का गान कर रहे हैं महर्षि आदि स्वस्ति वाचन अर्थात 'कल्याण हो', ऐसा कहते हुए आपकी स्तुति कर रहे हैं ऋषित्व भी अद्भुत है पहले के गुरुकुल दिव्य होते थे उन गुरुकुलों में शक्ति सामर्थ्य श्रद्धा भक्ति सेवा समर्पण संयम आदि बहुत कुछ था जिसके कारण ही भारत विश्वगुरु बन गया और बाद में ऐसी स्थितियां हुईं कि लोग इन्हीं पर अविश्वास करने लगे कादंबिनी पत्रिका में कभी निकला था कि बिठूर में एक आश्रम में काष्ठ डूब जाता है और पत्थर तैरता है भाव को कभी शमित तो कभी उद्दीप्त करने की आवश्यकता होती है अन्यथा यह अत्यधिक वैचित्र्य स्थापित करता है इस भाव की साधना शिक्षा में की गई है आचार्य जी चाहते हैं कि अध्यात्म पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आर्यसमाज की बहुत सी पद्धतियों को सीखकर आगे चला है आचार्य जी ने महर्षि दयानन्द की लिखी ग्वेदादिभाष्यभूमिका की चर्चा की जिसमें 34 विषय हैं और दुःख की बात है कि इसको पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया गया इसी तरह वैदिक गणित की भी उपेक्षा है गांवों में संस्कृति अभी भी कुछ हद तक सुरक्षित है शहरों से तो विलुप्त होती गई अविश्वास का बहुत अधिक अन्धकार व्याप्त हो गया है| अतः हमें आत्मदीप होने की आवश्यकता है l