प्रस्तुत है आर्यशील आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण
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राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे । सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥
राम -कथा के श्रवण, गायन, मनन, चर्चा से संकटकाल के उद्धार का सहारा मिलता है
तुलसीदास जी ने राम -कथा को कामधेनु कहा है सदाचारी जीवन के साथ जीवन व्यतीत करते हुए हम लोगों ने भिन्न भिन्न तौर तरीकों से परमात्माश्रित होकर अपनी संस्कृति की रक्षा की है यह सनातन संस्कृति मानव संस्कृति है आधार संस्कृति है हम लोग मध्यममार्ग के हैं घर दीन्हे घर जात है, घर छोड़े घर जाय। ‘तुलसी’ घर बन बीच रहू, राम प्रेम-पुर छाय॥ हम लोगों की संस्कृति में त्रिकाल संध्या है तीन संधि वेलाओं में गायत्री सावित्री सरस्वती तीनों स्वरूपों को स्मरण कराने के लिए , इन सब के साथ हम इस समाज और संसार की भी चिन्ता करें | समाज में दुर्जन भी हैं कहु ‘रहीम’ कैसे निभै, बेर केर को संग। वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग॥
अर्थ: बेर और केले का साथ-साथ कैसे निभाव हो सकता है? बेर का पेड़ तो अपनी मस्ती में डोल रहा है, लेकिन उसके डोलने से केला फटा जा रहा है। दुर्जन की संगति में सज्जन की भी ऐसी ही गति होती है। हम अपने वास्तविक इतिहास को देखें कितने संघर्ष हुए क्यों हुए इस्लाम के आक्रमण से केवल राजनीति ही प्रभावित नहीं हुई भारतीय अध्यात्म प्रज्ञा के मन में आंदोलन हुए कि यदि इतना क्रूर भी कोई हो सकता है तो इसके लिए समाज को जगाना होगा तब ही अध्यात्म को शौर्य के साथ संयुत किया गया है आचार्य जी ने समर्थ रामदास गुरु का उदाहरण दिया जिसने शिवाजी को प्रेरित कर दिया इसी तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उदय हुआ कि समाज में रहते हुए हम संन्यास धर्म का पालन करेंगे संन्यास धर्म है खुद जागो दूसरे को जगाओ भारत मां तेरा वैभव वापस कैसे आये इसका प्रयास हुआ हिंदू समाज को कई मोर्चों पर शक्ति मिली है आशा और विश्वास के साथ वर्तमान के प्रति सचेत रहें अतीत से शिक्षा लें भविष्य का निर्माण करें संगठन के महत्त्व को समझें इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने एक प्रसंग बताया जब वे संघ के प्रचारक थे तो रिक्शे वाला क्यों भौंचक्का हो गया रामकृष्ण परमहंस विवेकानन्द से क्यों नाराज हुए आदि जानने के लिए सुनें |