प्रस्तुत है व्युत्पन्न आचार्य श्री ओम शंकर जी (पौष कृष्ण पञ्चमी ) का सदाचार संप्रेषण
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रविवार दिनांक 26 दिसम्बर को युग भारती बैच 96 का रजत जयन्ती सम्मान समारोह आयोजित कर रही है। जो लोग पीड़ित, परेशान,समस्याग्रसित हैं युग भारती उनकी पीड़ाओं को शमित करती है ऐसे कार्यक्रमों के माध्यम से हम लोग अपनी पुरानी स्मृतियों को ताजा करते हैं विद्यालय में हम लोगों को अनुशासन के महत्त्व को समझाया जाता था अनुशासन का अर्थ है अपने ऊपर लगाया हुआ नियन्त्रण स्वैराचार से कई उपद्रव होते हैं श्वेताश्वतर उपनिषद्जो दस प्रधान उपनिषदों के अनंतर एकादश एवं शेष उपनिषदों में अग्रणी है कृष्ण यजुर्वेद का अंग है। छह अध्याय और 113 मंत्रों के इस उपनिषद् को यह नाम इसके प्रवक्ता श्वेताश्वतर ऋषि के कारण प्राप्त है।
इसी उपनिषद् से ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः की आचार्य जी ने व्याख्या की हम जो ज्ञान प्राप्त करें तेजपूर्ण हो हमारे आश्रमों में उत्तम से उत्तम आचरण कठोर से कठोर व्यवहार सिखाया गया कर्ण की एक कथा है परशुरामजी ने कर्ण की प्रतिभा को जानकर उन्हें अपना शिष्य बना लिया। एक दिन अभ्यास के समय जब परशुराम थक चुके थे तो उन्होंने कर्ण से कहा कि वे थोड़ा आराम करना चाहते हैं। तब कर्ण बैठ गए और उनकी जंघा पर सिर रखकर परशुराम आराम करने लगे। थोड़े समय बाद वहां एक बिच्छू आया, जिसने कर्ण की जंघा को काट लिया। अब कर्ण ने सोचा कि अगर वह हिले और बिच्छू को हटाने की कोशिश की तो गुरुदेव की नींद टूट जाएगी। इसलिए उन्होंने बिच्छू को हटाने की बजाय उसे डंक मारने दिया, जिससे उनका खून बहने लगा। इससे कर्ण को भयंकर कष्ट होने लगा और रक्त की धारा बहने लगी। जब धीरे-धीरे रक्त गुरु परशुराम के शरीर तक पहुंचा तो उनकी नींद खुल गई। परशुराम ने देखा कि कर्ण की जांघ से खून बह रहा है। यह देखकर परशुराम क्रोधित हो गए कि इतनी सहनशीलता केवल क्षत्रिय में ही हो सकती है। तुमने मुझसे झूठ बोलकर ज्ञान प्राप्त किया है इसलिए मैं तुमको शाप देता हूं कि जब भी तुम्हें मेरी दी हुई विद्या की सबसे ज्यादा जरूरत होगी, उस समय वह काम नहीं आएगी । दरअसल परशुरामजी क्षत्रियों को ज्ञान नहीं देते थे। कर्ण को उन्होंने सूत पुत्र जानकर ज्ञान प्रदान किया था navbharattimes.indiatimes.com से साभार ) आचार्य जी ने किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठाः। अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्॥ ब्रह्म पर चर्चा करते हुए ऋषिगण प्रश्न करते हैं: क्या
ब्रह्म (जगत का) कारण है? हम कहाँ से उत्पन्न हुए, किसके द्वारा जीवित रहते हैं और अन्त में किसमें विलीन हो जाते हैं? हे ब्रह्मविदो! वह कौन अधिष्ठाता है जिसके मार्गदर्शन में हम सुख-दुःख के विधान का पालन करते हैं? कालः स्वभावो
नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या। संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः॥ काल, प्रकृति, नियति, यदृच्छा, जड़-पदार्थ, प्राणी इनमें से कोई या इनका संयोग भी कारण नहीं हो सकता क्योंकि इनका भी अपना जन्म होता है, अपनी पहचान है और अपना अस्तित्व है। जीवात्मा भी कारण नहीं हो सकता, क्योंकि वह भी सुख-दुःख से मुक्त नहीं है। (http://upanishads.org.in से साभार )
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥
दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, जो साथ-साथ रहने वाले तथा परस्पर सखा हैं, समान वृक्ष पर ही आकर रहते हैं;उनमें से एक उस वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, दूसरा खाता नहीं है, केवल देखता है। के माध्यम से बताया कि मायामय संसार में लिप्त होकर हम अपने को भूले हुए हैं अध्यात्मपरक चिन्तन न होने से सामञ्जस्य बैठाने में भी हमें दिक्कत आती है हम अपना भोक्ताभाव समाप्त कर द्रष्टाभाव ले आएं तो हम वही हो जाते हैं आचार्य जी ने परामर्श दिया कि हम लोग सामान्य ध्यान प्राणायाम सीखें स्वभाव को परिवर्तित करें स्वाध्याय करें तो हमारे अन्दर आत्मशक्ति जाग्रत होगी जिससे हमें आनन्द आयेगा दूसरा प्रभावित होगा |