प्रस्तुत है ससम्पद्आ चार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण आचार्य जी हम लोगों से भावनात्मक रूप से संपर्क करते रहें और हम लोगों का अधिक से अधिक मार्गदर्शन करें स्थूल से सूक्ष्म की ओर स्वयं चलते हुए हमें भी उस ओर उन्मुख करें यह उनका प्रयास रहता है स्थूल और सूक्ष्म के संयोजन से हम आगे तो बढ़ रहे हैं लेकिन बहुत अधिक तात्त्विक चिन्तन और मनन का अभ्यास नहीं है तो हम परेशान होते हैं हमारी प्राचीन परम्परा बहुत आश्वस्तिपूर्ण थी लेकिन अब ऐसा नहीं है आचार्य जी से बहुत लोग अपनी समस्याएं सुलझाने का प्रयास करते हैं संसार-सागर बहुत विचित्र है इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को पुरुषार्थ साधना संयम करना पड़ेगा | इसमें आकर्षण भी हैं और भय भी है सागर को रत्नाकर भी कहा जाता है इसके रत्नों में चमक और आकर्षण है इन रत्नों का आदान -प्रदान मूल्य से होता है फिर इन रत्नों से आकर्षण धीरे धीरे कम होने लगता है यह संसार का सत्य है ञ्चप्राणों ( प्राण अपान उदान समान व्यान ) की उपनिषदों अरण्यकों आदि में बहुत चर्चा है ये सब सामञ्जस्यपूर्ण ढंग से चलते रहें तो जीवन उत्साहपूर्वक चलता रहता है कभी हमारी सांसारिक समस्याओं को सुलझाने के लिए आचार्य जी को व्यावहारिक होना पड़ता है और कभी आचार्य जी को तात्त्विक होना पड़ता है जब उन्हें लगता है कि हम बड़े हो गए हैं और अब हमें तत्त्व को जानने की आवश्यकता है आचार्य जी को यह सब अब अच्छा लगने लगा है क्योंकि इसका उन्हें अभ्यास हो गया है संसार में जीवन जीने की हमारी शैली क्या हो इस पर इस सदाचार वेला में विचार होता है हमें तत्त्व की भी जानकारी हो और सत्य की भी इस तत्त्व और सत्य का संयोजन हम तब ही कर सकते हैं जब हम अभ्यास करेंगे हमें इस क्षरणशील संसार में रहते हुए संसार के साथ सामञ्जस्य स्थापित करना और अपने शौर्य पराक्रम का उपयोग भी करना चाहिए |