प्रस्तुत है सावष्टम्भ आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण
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आचार्य जी का यह प्रयास रहता है नित्य का यह संप्रेषण खण्डित न हो इसी बात का ध्यान आचार्य जी संघ की शाखा जाते समय भी करते थे हम सब भी नित्यता का ध्यान रखें भीड़ किसी समस्या का समाधान नहीं करती है| आचार्य जी ने भर्तृहरि के वाक्यपदीय से शब्द के विस्तार को बताता एक श्लोक बताया इस शरीर में अनन्त शक्तियां हैं रंग और रूप रमात्मा की अद्भुत सांसारिक अभिक्रिया है इस अभिक्रिया को जो समझ जाते हैं कि संसार क्या है संसार का आधार क्या है हम कौन हैं हम इस संसार और उस आधार का समन्वित स्वरूप हैं जिनको यह समझ में आ जाता है वे स्वयं तो आनन्दित रहते हैं अपने शब्दों से वे दूसरे को भी आनन्दित करते हैं हमारे यहां वाणी विज्ञान का बहुत गहराई से विचार किया गया।
ऋग्वेद में एक ऋचा आती है-
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्व्राह्मणा ये मनीषिण:
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥
ऋग्वेद १-१६४-४५ अर्थात् वाणी के चार पाद होते हैं, जिन्हें विद्वान मनीषी जानते हैं। इनमें से तीन शरीर के अंदर होने से गुप्त हैं परन्तु चौथे को अनुभव कर सकते हैं। इसकी विस्तृत व्याख्या करते हुए पाणिनी कहते हैं, वाणी के चार पाद या रूप हैं-
१. परा, २. पश्यन्ती, ३. मध्यमा, ४. वैखरी
(http://vaigyanik-bharat.blogspot.com/2010/06/blog-post_5586.html?m=1 से साभार )
परा वाणी मूलाधार में पश्यन्ती नाभि में और मध्यमा हृदय में है जिनकी परा वाणी वैखरी में प्रकट होती है उसका प्रभाव बहुत दिखता है ब्रह्मज्ञानियों को सचमुच में यह अनुभूति होती है जिज्ञासा के साथ यदि त्वरा शामिल है तो इसका अर्थ है कि हमारी शक्तियां क्षीण हो रही हैं धैर्य सुस्थिर करें जब विचार धैर्य के साथ संयोग करते हैं तो क्रिया प्रभावशाली होती है आत्मा परमात्मा पर विश्वास करें वर्तमान में आनन्द की अनुभूति करें आचार्य जी ने अध्यात्म के आधार और अध्यात्म के प्राप्तव्य को बताया विषय निर्धारित करके योजनापूर्वक कार्यक्रम करें उनकी समीक्षा करें, जो सुनें उसे क्रिया रूप में परिवर्तित करें |