सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान। सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।
प्रस्तुत है इष आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण कल आचार्य जी के बड़े भाई साहब का स्वास्थ्य
एकदम से खराब हो गया तो भैया अमित गुप्त जी आदि की सहायता से स्थिति नियन्त्रित हुई |
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।3.8।।
को उद्धृत करते हुए आचार्य जी ने बताया कि कर्म शरीर के लिए बहुत आवश्यक है और अनपेक्षः शुचिर्दक्ष
उदासीनो गतव्यथः। सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।12.16।।
को उद्धृत करते हुएआपने कहा सारे प्रयत्न करें लेकिन फल की इच्छा न करें हम जिसकी सेवा करते हैं तो सोचते हैं कि वो स्वस्थ हो जाए प्रसन्न हो जाए हम अपने शरीर रूपी वाहन को स्वच्छ भी रखते हैं और इससे हमारा लगाव भी हो जाता है लेकिन इसे बहुत पीड़ित नहीं करना चाहिए इसे कभी कभी आराम भी देना चाहिए तर्कातीत होकर जब हम विचार करते हैं तो हम देखते हैं कि संसार में संघर्ष है तो शान्ति भी है विचार है तो विकार भी है सुख है तो दुःख भी है और हमें इस प्रकार के चिन्तन के साथ रहने का अभ्यास हो जाए तो हमें अपने को धन्य समझना चाहिए | इसी प्रकार आचार्य जी ने प्रेम, स्वाभिमान का महत्त्व बताया और Jaipur Dialogue, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, प्रो सिद्धनाथ मिश्र, विद्याभारती,तोतापुरी महाराज, सुन्दरकांड के पाठ की चर्चा की और लोक -संग्रह, लोक -संस्कार और लोक -व्यवस्था की जानकारी दी किसी भी संगठन को एक विचार के साथ बांधना कठिन तो है लेकिन आवश्यक भी है युग- भारती परस्पर विमर्श के कार्यक्रम अवश्य करे |