सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्। सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48।।
प्रस्तुत है श्रुतपारदृश्वन् आचार्य श्री ओम शंकर जी का (पौष कृष्ण चतुर्थी ) सदाचार संप्रेषण
< 23 दिसंबर 1921 को रवीन्द्र नाथ टैगोर ने 1913 में प्राप्त नोबेल पुरस्कार राशि से विश्वभारती की स्थापना की थी यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् (यजुर्वेद 32/8)
> https://sadachar.yugbharti.in/ https://youtu.be/YzZRHAHbK1w https://t.me/prav353
आज की सदाचार वेला में संसार के सत्य और संसार के सत्य के साथ सांसारिकता के संबन्ध को समझाने का प्रयास किया गया है प्रचुर मात्रा में उपलब्ध,अनेक संतों, विद्वानों,ज्ञानियों, कर्मयोगियों द्वारा व्याख्यायित गीता और मानस के संपर्क में हम जितना अधिक रहेंगे उतना ही संसार को समझने और सांसारिक व्यवहारों को करने का सलीका प्राप्त हो जायेगा स्वाध्याय (यानि अपने रोग की दवा ) अत्यधिक अनुपम निधि है अपने रोग की दवा हम स्वयं नहीं कर पाते समस्या कुछ निदान कुछ समस्याओं के संधान के तरीके भी अलग अलग हैं जिसको कोई तरीका सलीका मिल जाता है उसके अन्दर सहज या सामयिक आकर्षण पैदा हो जाता है समझदार के मन में थोड़ी देर के लिए ये आकर्षण रहते हैं और फिर विलीन हो जाते हैं बच्चे उलझे रहते हैं गीता के 15 वें अध्याय में ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।15.1।। की व्याख्या करते हुए आचार्य जी ने बताया कि मन क्या है भाषा क्या है अभिव्यक्ति क्या है इस तरह के अनन्त प्रश्नों का जिसे सहज उत्तर मिल जाता है उसे ज्ञानी कहते हैं किसी की बात हमें अच्छी लगती है किसी की बात खराब इन्हीं सारे रहस्यों को गीता मानस में समझाया गया है गीता का कथात्मक स्वरूप गूढ़ है और मानस का सरल अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः। अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ।।15.2।। की व्याख्या करते हुए आचार्य जी ने बताया कि संसार की वास्तविकता में पिपीलिका वृत्ति भी होती है संसार के प्रपंचों से जो व्यक्ति तत्त्व निकाल लेता है वही ज्ञानी है उसी को शिक्षा देने का अधिकार है न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा । अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।15.3।। ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः। तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।15.4।। निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः। द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।15.5।। इन ज्ञान की सीढ़ियों पर चढ़ने के लिए हमारे अन्दर शक्ति बुद्धि विचार आये और संसार में हम आवश्यकता पड़ने पर अपने कर्तव्य का निर्वाह कर सकें गीता यह है |