है भरा समय-सागर में
जग की आँखों का पानी,
अंकित है इन लहरों पर
कितनों की करुण कहानी।
कितने ही विगत विभव के
सपने इसमें उतराते,
जानें, इसके गह्वर में
कितने निज राग गुँजाते।
अरमानों के ईंधन में
ध्वंसक ज्वाला सुलगा कर
कितनों ने खेल किया है
यौवन की चिता बनाकर।
दो गज़ झीनी कफनी में
जीवन की प्यास समेटे
सो रहे कब्र में कितने
तनु से इतिहास लपेटे।
कितने उत्सव-मन्दिर पर
जम गई घास औ’ काई,
रजनी भर जहाँ बजाते
झींगुर अपनी शहनाई।
यह नियति-गोद में देखो,
मोगल-गरिमा सोती है,
यमुना-कछार पर बैठी
विधवा दिल्ली रोती है।
खो गये कहाँ भारत के
सपने वे प्यारे-प्यारे?
किस गगनाङ्गण में डूबे
वह चन्द्र और वे तारे?
जयदीप्ति कहाँ अकबर के
उस न्याय-मुकुट मणिमय की?
छिप गई झलक किस तम में
मेरे उस स्वर्ण-उदय की?
वह मादक हँसी विभव की
मुरझाई किस अंचल में?
यमुने! अलका वह मेरी
डूबी क्या तेरे जल में?
मेरा अतीत वीराना
भटका फिरता खँडहर में,
भय उसे आज लगता है
आते अपने ही घर में।
बिजली की चमक-दमक से
अतिशय घबराकर मन में
वह जला रहा टिमटिम-सा
दीपक झंखाड़ विजन में।
दिल्ली! सुहाग की तेरे
बस, है यह शेष निशानी।
रो-रो, पतझर की कोयल,
उजड़ी दुनिया की रानी।
कह, कहाँ सुनहले दिन वे?
चाँदी-सी चकमक रातें?
कुंजों की आँखमिचौनी?
हैं कहाँ रसीली बातें?
साकी की मस्त उँगलियाँ?
अलसित आँखें मतवाली?
कम्पित, शरमीला चुम्बन?
है कहाँ सुरा की प्याली?
गूँजतीं कहाँ कक्षों में
कड़ियाँ अब मधु गायन की?
प्रिय से अब कहाँ लिपटती
तरुणी प्यासी चुम्बन की?
झाँकता कहाँ उस सुख को
लुक-छिप विधु वातायन से?
फिर घन में छिप जाता है
मादकता चुरा अयन से!
वे घनीभूत गायन-से
अब महल कहाँ सोते हैं?
वे सपने अमर कला के
किस खँडहर में रोते हैं?
वह हरम कहाँ मुगलों की?
छवियों की वह फुलवारी?
है कहाँ विश्व का सपना,
वह नूरजहाँ सुकुमारी?