स्वप्निल विभूति जगती की,
हँसता यह ताजमहल है।
चिन्तित मुमताज़-विरह में
रोता यमुना का जल है।
ठुकरा सुख राजमहल का,
तज मुकुट विभव-जल-सीचे,
वह, शाहजहाँ सोते हैं
अपनी समाधि के नीचे।
कैसे श्मशान में हँसता
रे, ताजमहल अभिमानी
दम्पति की इस बिछुड़न पर
आता न आँख में पानी?
तू खिसक, भार से अपने
ताज को मुक्त होने दे,
प्रिय की समाधि पर गिर कर
पल भर उसको रोने दे।
किस-किसके हित मैं रोऊँ?
पूजूँ किसको दृग-जल से?
सबको समाधि ही प्यारी
लगती है यहाँ महल से।
तज कुसुम-सेज, निज प्रिय का
परिरम्भण-पाश छुड़ाकर
कुछ सुन्दरियाँ सोई हैं
वह, उधर कब्र में जाकर।
जिन पर झाड़ी-झुरमुट में
खरगोश खुरच बिल करते,
निशि-भर उलूक गाते औ’
झींगुर अपना स्वर भरते।
चुपके गम्भीर निशा में
दुनिया जब सो जाती है,
तब चन्द्र-किरण मलयानिल
को साथ लिये आती है।
कहती- "सुन्दरि! इस भू पर
फिर एक बार तो आओ,
नीरस जग के कण-कण में
माधुरी-स्रोत सरसाओ।"
तब कब्रों के नीचे से
कोई स्वर यों कहता है,
"चंद्रिके! कहाँ आई हो?
क्यों अनिल यहाँ बहता है?
"वैभव-मदिरा पी-पीकर
हो गई विसुध मतवाली,
तो भी न कभी भर पाई
जीवन की छोटी प्याली।
"इस तम में निज को खोकर
मैं उसको भर पाई हूँ,
छेड़ती मुझे क्यों अब तू?
तेरा क्या ले आई हूँ?
उस ओर, जहाँ निर्जन में
कब्रों का बसा नगर है;
ढह एक राजगृह सुन्दर
बन गया शून्य खँडहर है।
उस भग्न महल के उर में
विधवा-सी सुषमा बसती,
टूटे-फूटे अंगों में
संध्या-सी कला बिहँसती।
पावस ने उसे लगा दी
विधवा-चंदन-सी काई।
जम गये कहीं वट, पीपल,
कुछ घास कहीं उग आई।
नीरव निशि में विधु आकर
किरणों से उसे नहाता;
प्रेयसि-समाधि पर चुपके
प्रेमी ज्यों अश्रु बहाता।
उस क्षण, उसके आनन पर
सुषमा सजीव खिल आती;
उर की कृतज्ञता आँसू
बन दूबों पर छा जाती।
मूर्छित स्वर एक विजन से
उठ टकराता अम्बर में,
गूँजता एक क्रन्दन-सा
झंखाड़ शून्य खँडहर में।
जो कह जाता, "छवि पर मत
भूलो जीवन नश्वर है,
वैभव के ही उपवन में
उस सर्वनाश का घर है।"
तृण पर जब ओस-कणों को
ऊषा रँगने आती है,
सुख, सौरभ, श्री, सोने से
जगती जब भर जाती है;
वृद्धा तब एक यहाँ तक
आती कुटीर से चलके
जिसके सम्मुख बीते हैं
स्वर्णिम दिन भग्न महल के।
अपलक उदास आँखों से
विस्मित भूली अपने को,
खोजती भग्न खँडहर में
वह गत वैभव-सपने को।
सोचती- "राज-सिंहासन
उस ऊँचे टीले पर था,
उस ताल-निकट हय-गज थे,
रानी का महल उधर था।
"थीं सिंह-द्वार हो आती
सेनाएँ विजय-समर से,
उत्सव करने उस थल पर
आते थे लोग नगर से।"
तूफान एक उठ जाता
इतने में उसके मन में,
वह मन-ही-मन रोती है,
छा जाते अश्रु नयन में।
क्या कहूँ, शून्य निशि रोती
सुन कितनी करुण पुकारें;
संस्मृति ले सिसक रही हैं
कितनी सुनसान मज़ारें?
जगती की दीन दशा पर
रोते निशीथ में तारे,
सिसका फिरता सूने में
मलयानिल सरित-किनारे।
रोता भावुक मन मेरा,
कैसे इसको बहलाऊँ?
पृथिवी श्मशान है सारी,
तज इसे कहाँ मैं जाऊँ?
है भरा विश्व-नयनों में
उन्माद प्रलय-आसव का,
पद-पद पर इस मरघट में
सोता कंकाल विभव का।
यह नालन्दा-खँडहर में
सो रहा मगध बलशाली।
लिच्छवियों की तुरबत पर
वह कूक रही वैशाली।
ढूँढ़ते चिह्न गौतम के,
मन-ही-मन कुछ अकुलाती,
वन, विपिन, गाँव, नगरों से
गंगा है बहती जाती।
कण-कण में सुप्त विभव है,
कैसे मैं छेड़ जगाऊँ?
बीते युग के गायन को
अब किसके स्वर में गाऊँ?
लेखनी! धीर धर मन में,
अब ये आवाहन ठहरें।
उठती ही इस सागर में
रहती सुख-दुख की लहरें।
युग-युग होता जायेगा
अभिनय यह हास-रुदन का,
कुछ मिट्टी से ही होगा
नित मोल मधुर जीवन का।
रज-कण में गिरि लोटेंगे,
सूखेंगी झिलमिल नदियाँ,
सदियों के महाप्रलय पर
रोती जायेंगी सदियाँ।
मैं स्वयं चिता-रथ पर चढ़
निज देश चला जाऊँगा।
सपनों की इस नगरी में
जानें फिर कब आऊँगा?
तब कुशल पूछता मेरी
कोई राही आयेगा,
नभ की नीरव वाणी में
यह उत्तर सुन पायेगा--
"मैंने देखा उस अलि को
कविता पर नित मँडराते,
वैभव के कंकालों को
लखकर अवाक रह जाते।
"आजीवन वह विस्मित था
लख जग पर छाँह प्रलय की,
था बाट जोहता निशि-दिन
भू पर अमरत्व-उदय की।
"पर, स्वयं एक दिन वह भी
हो गया विलीन अनल में,
वह अब सुख से सोता है
प्रभु के शास्वत अंचल में।"
सुन इस सिहर जायेगा
पल भर उस राही का मन,
ताकेगा वह ज्यों नभ को,
छलकेंगे त्यों आँसू-कण।