वो अब कभी किसी भी गली में दिख नहीं सकते भटकते आवारा, कैद कर लिया है अब उनको, दिल के कारागारों में हमने । @नील पदम्
सुनो, बहुत दुष्कर है तुम्हारे लिए, मुझे स्पर्श कर पाना, तब जबकि मैं मुझ सा मुझमें हूँ । और, असंभव है तब तो, जब मैं मुझ सा, तुझमें हूँ । @नील पदम्
दर्द से इस कदर तड़प रहा था वो कि, अपना दर्द भूल कर उसको दवा दे दी, इस तरह तो कुछ ऐसा हुआ कि, जज को किसी मुल्जिम ने सजा दे दी । @नील पदम्
कुछ भरे-भरे से हैं हम, ये जान कर, वो भी भर आये, मुझे अपना मान कर, और भर लिया हमें अपने आलिंगन में अपने, हम और भी भर आये, इतना पहचान कर । @नील पदम्
इतने भरे हुए थे वो कि छलकने ही वाले थे, बड़ी मशक्कतों-मुश्किल से आँसुओं को सम्भाले थे, उनकी उस दुखती राग पर ही हाथ रख दिया जालिम, जिसकी वजह से उसके दिल में पड़े छाले थे । @नील पदम
अभी भी मैं, उसकी नज़र में हूँ मुसलसल, पर अभी भी वही कि, न ये प्यार नहीं । @नील पदम्
पता नहीं कब सच कहा उसने, पता नहीं कब झूठ बोला उसने, उसकी आँखों को कभी पढ़ा ही नहीं, क्योंकि कभी गौर से देखा नहीं हमने। @नील पदम्
कविता का संसार गढ़ना है, बन प्रेरणा चले आओ, हाँ, मुझे उड़ना है, तुम पँख बनकर लग जाओ । देखना है मुझे, उस क्षितिज के पार क्या है, जानना है मुझे, सपनों का सँसार क्या है । कल्पना के संसार में,
बहुत दिनन के, बाद आयी हमका, मोरे पिहरवा की, याद रे ॥1॥ चाँदी जैसे खेतवा में, सोना जैसन गेहूँ बाली, तपत दुपहरिया में आस रे ॥2॥ अँगना के लीपन में, तुलसी तले दीया, फुसवा के छत की, बरसात रे ॥3॥
साथ सुहाना तब कहो, जब मन साथ में होय, मन भटके कहुं और तो, साथ साथ न होय । @नील पदम्
मीठा फल संतोष का, आगे बढ़कर खाए, स्वाद बहुत मीठा लगे, दूजे को न मन ललचाए । @नील पदम्
आँखों की रौशनी से बड़ी, मन की रौशनी, इल्म की इबादत से जड़ी, स्वर्ण रौशनी, आँखों का देखना कभी, हो जायेगा गलत, पढ़ती नहीं गलत कभी, ये मन की रौशनी । @नील पदम्
सुस्ता लीजिये थोड़ा, थक गए हैं अगर, रुक लीजिये थोड़ा, रुक गए हैं अगर। रुकना है अभिशाप ये जान लें मगर। इस हद तक दौड़ मची हुई है आज, लगती है ज़िंदगी काँटों भरी डगर । वो शुकून जिसको कहते हैं, कि
स्वप्न झर रहे हों यदि, ताबीर हो पाती नहीं, प्रयास अपने गौर कर, रोक कैसी है यदि कहीं। @नील पदम्
मानुष तन तब जानिये, मानुष हृदय संजोए, मानुष मन के अभाव में, कैसा मानुष होय । @नील पदम्
बहुत दिनन के, बाद आयी हमका, मोरे पिहरवा की, याद रे ॥1॥ चाँदी जैसे खेतवा में, सोना जैसन गेहूँ बाली, तपत दुपहरिया में आस रे ॥2॥ अँगना के लीपन में, तुलसी तले दीया, फुसवा के छत की, बरसात रे ॥3॥
कुदरत से थोड़ी सी तो वफाई कर लो, आसमान पिता, धरती को माई कह लो, कब तक बोझ डालोगे पिता की कमाई पर, इस आबो-हवा की, थोड़ी सफाई कर लो । @नील पदम्
एक कूप में जैसे फँसी हो ज़िन्दगी; आधी-अधूरी-चौथाई ज़िन्दगी; टुकड़े-टुकड़े बिखरकर फैली हुई ज़िन्दगी। समेटकर सहेजने के प्रयास में कैकेयी के कोप-भवन सी और बिफरती हुई ज़िन्दगी; संवार कर जोड़ने के उध
आँखें बंद की हैं उनको आजमाने के लिए, वो आयेंगे भी या नहीं हमें मनाने के लिए । @नील पदम्
यहु तो विधाता की भली, स्मृति देत भुलाय, नहिं ते विपदा याद कर, जग जाता बौराय । (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"