विवेक और मैं प्रियंका। हम बचपन से स्कूल में साथ पड़ते थे। ज्यादा समय एक दूसरे के साथ बिताते थे। इतनी गहरी दोस्ती की एक दूसरे के दिल की हर बात समझते थे। विवेक जनता था कि जब मैं उदास होती हूं तो मुझे हंसाना कैसे है। वो हमेशा मेरा मूड अच्छा कर देता था। विवेक मुझे प्रिया बुलाता था।
इंजीनियरिंग के बाद विवेक को यू.एस.ए में बहुत अच्छी नौकरी मिल गई। पर वो मुझे छोड़ कर जाना नही चाहता था। वो मुझसे मिले बिना एक दिन भी नहीं रह पाता था। हम हमेशा साथ में घूमते थे। सबको लगता था कि हम शादी करेंगे। पर हमारा रिश्ता वैसा नहीं था। एक पवित्र रिश्ता था। जिसे दोस्ती का रिश्ता कहते है।
फिर मेरी शादी के लिए एक रिश्ता आया। सब बहुत बढ़िया था और अविनाश के साथ मेरी शादी तय हो गई। विवेक जोर शोर से मेरी शादी की तैयारी में लग गया। कुछ दिन बाद मेरी शादी हो गई। अविनाश बहुत अच्छा था। मेरा खूब ध्यान रखता था। मैं भी हर तरह से उसको खुश रखने की कोशिश करती थी। मैने विवेक से भी अविनाश को मिलवाया।
विवेक और मै अभी भी पहले की तरह ही मिलते थे। खूब हंसी मजाक, लड़ाई - झगड़ा। कुछ महीने तक सब अच्छा चलता रहा। धीरे-धीरे अविनाश को मेरा विवेक से मिलना, बात करना, उसका घर आना परेशान करने लगा। अविनाश मुझसे उखड़ा हुआ रहने लगा। मैं कुछ समझ नही पा रही थी।
एक दिन अविनाश ने मुझसे कह दिया कि या तो उसके साथ रहो या मेरे। दोनो में से एक को चुन लो। मैं उदास रहने लगी। समझ नही आ रहा था कैसे अविनाश को समझाऊं। शायद विवेक सब समझ गया था। उसने मुझसे पूछा क्या हुआ और मैं उससे झूठ ना बोल पाई। फूट फूट कर रोने लगी और उसे सब बता दिया।
विवेक ने मुझसे कहा कि तुम चिंता मत करो। मैने यू.एस.ए की नौकरी स्वीकार कर ली है। मैं हमेशा के लिए यहां से जा रहा हूं। उसके जाने के बाद हमारी बात भी बंद हो गई।
धीरे धीरे अविनाश भी ठीक हो गया। खूब हंसता मुस्कुराता। मैं भी हंस देती। मुझसे कहने लगा तुम भी आजकल बहुत खुश नज़र आती हो। हां मैं बाहर से खुश नजर आती थी। पर मेरे अंदर के दर्द को कोई नहीं समझता था। क्युकी मेरे अंदर की उदासी को पढ़ने वाला तो बहुत दूर जा चुका था।