एक मुक्त काव्य......
“यही तो सिखाते थे”
सुबह शाम बाग में होती थी चहल पहल
सहारे की लकड़ी हाथों में टहल टहल
कुछ का दौड़ना कुछ का थकना
दंड बैठक भगाड़े पर तरीके से रहना
धूल में सान सान कर दांव आजमाते थे
हमारे पहलवान बाबा यही तो सिखाते थे॥
अनपढ़ अखाड़े पर कुश्ती का तमगा
भीगे हुये चने संग प्रभाती रस मनका
खेत खलिहान खूब करते थे वर्जिस
सरसों के फूल साथ हँसती थी नर्गिस
दौड़ते थे दौड़ाते थे अखाड़े पर बुलाते थे
हमारे पहलवान बाबा यही तो सिखाते थे॥
बीच में विराम हुआ टूट गया सपना
योगी का योग गया छूट गया अपना
आज फिर झूमती चली है पुरवाई
बागों में चहल-पहल लिए तरुनाई
अंगुली घूमा के नाक-कान पकड़ पाते थे
हमारे पहलवान बाबा यही तो सिखाते थे॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी