त्यौहार का माह नवंबर । हम इस माह अधिकतर दशहरा,दीवाली,देवउठनी या गुरुनानक जयंती मनाते हैं । लोग प्राचीन काल से त्योहार मनाते आ रहे है ।आखिर ये परम्पराएं किसने शुरू की होगी ऐसा विशेष दिन मनाने का क्या कारण है ? आदमी हर दिन त्यौहार क्यो नहीं मना सकता।एक ही दिन क्यो? खुश रहना है तो एक ही दिन किसलिए रोज क्यो नहीं । भारत के किसी भी त्योहार में बड़ी तैयारी करते हैं ,घर दुकान को सजाते हैं बड़ी खर्च करने पड़ते है ।सप्ताहभर पहले से घरों तैयारियाँ चलती रहती है ।व्यवस्था के लिए काफी दौड़ धुप करते है । नयापन लाने का प्रयास करते हैं और एक दिन वो समय आ जाता है जिसकी दौड़ धूप चल रही थी हम उत्सव मनाते है अपने को प्रसन्न रखते हैं । पुजा अर्चना कर,पकवान बनाकर,अपने को तैयार कर, नृत्य करके एक दूसरे से मुलाकात कर हम त्यौहार मनाते हैं । कई बार तो शुभ मुहूर्त के लिए घंटो इन्तज़ार भी करते है । बाहर से हम नयापन लाने,प्रसन्न रहने का बेहतर प्रयास करते है । काम की अधिकता के कारण हम थक भी जाते है ।कुछ लोगों के मुँह से ये भी सुनने-सुनाने को मिलता है कि अब पहले जैसे त्यौहार में वो मजा नही ।ये बात अधिक उम्र के लोगों के मुँह सुनने को मिलता है । बच्चे तो आनंद और अपने में मगन रहते है ।बूढ़े भी अपने काम में लगे रहते हैं । युवा वर्ग मायुस से रहते और कहते पहले और बात थी। क्या त्यौहार मनाने के अगले दिन हमारी खुशी बनी रहती है । इस तरह हम हर दिन प्रसन्न क्यो नही रह सकते हैं? इससे ये साबित होता है कि हमारी प्रसन्नता उथला हैं । प्रसन्नता का स्रोत कहाँ से फूटती है क्या बाहरी दुनिया चीजों से इनका नाता है । पद,प्रतिष्ठा,पैसे से इसका नाता है । हा पैसे मिलता है तो हम खुश रहते है कोई सम्मान देता है तो हम खुश होते हैं ,नौकरी मिलती है तो खुश होते है लेकिन ये प्रसन्नता ज्यादा देर तक नहीं बनी रहती है ।अंतत: हम अपनी प्रारम्भिक स्थिति में आ जाते हैं । उदास,चिंतित डरे से । त्यौहार कुछ समय के लिये हमे हमारी उदासीनता को जरुर दूर करता है । आनंद किन लोगों को उपलब्ध होगा,लोग कैसा जीवन जीते होंगे । कहाँ हैं आनंद का खजाना । क्या हम हर पल मुखौटा पहन लिए हैं जो है उसे छुपाते हैं ,जो नही है उसे दिखाने का प्रयास करते हैं । और भाई कैसे हो मजे में ;यही हम बोल लेते हैं ।
एक तरह से त्यौहार का मनाना ठीक है ,नही तो हम बेरंग हो जाते ।उसकी ओर इशारा समझ नहीं पाते कि ऐसा आनंद है जो हर दिन रहता है । भीतर के अन्धकार को मिटाने होंगे ।जड़ सुखा पड़ा है हम पत्तियों को पानी से धो रहे है ।कब तक पानी पत्ती को हरा रख पायेगा। एक दिन उसकी अपनी असलियत दिखेगी और धोखे से और बड़ती जायेगी। उस स्रोत को हमे खोजना होगा उस दीये को जलाना होगा जो बुझा पड़ा है ,वरना हम जेल की दिवारों को घर मान बैठे हैं जैसे और कोई संसार नहीं है ।त्यौहार में मन बहला लेते हैं ।मनोरंजन कर लेते है पर यही पर नहीं रुकना है ।अन्धकार से प्रकाश की ओर जाना है ।मृत्यु से अमृत की ओर जाना है ।जीवन रहते अपना दिया जला लेना है ।