(आंसू...)
कितने मासूम होते हैं ना ये आंसू भी,कभी भी कहीं भी बहने लगते हैं आंखों से ,
हमे पता भी नही लगता की कब ये आकार इकठ्ठे हो जाते हैं , पलकों की कोरों पर, ना जाने कब किस एहसास का रूप लेकर ये हो जाते हैं व्याकुल आंखों से बरस जाने ले लिए,
न जाने , मगर कुछ कुछ पल को ठहरते हैं पलकों की कोरोँ पर ताकि हम वक्त रहते उन्हें औरों से छुपा सके,हम फेर लें निगाहे उस तरफ,जिस तरफ कोई देख न पाए इन आंसुओ को छलकते हुए...!
और सही भी तो है साहब,आखिर समझता ही कौन है अब किसी के एहसासों को ,सब देखकर मजाक बनाते हैं बस और कुछ नही,और तो और अब तो कोई सांत्वना तक देना चाहता किसी को खैर ....
हां मगर आंसू हैं जो हमारे दर्द को जरूर हल्का कर देते हैं,वो इक गुबार सा जो भीतर ही भीतर एक गुबार बन लगता है,ये आंसू उस गुबार को आंसुओ के ज़रिए बहा लाते हैं बाहर,
और काफी हद तक हल्का कर देते हैं मन के भीतर की वेदना को...
और कभी कभी कोई खुशी जब हद से ज्यादा मिल जाए अचानक ही तब भी आंसू ही हैं जो दिखाते हैं कि आखिर खुशी का स्तर क्या और कितना है,
वो बातें जो हम अक्सर होंठो से कह नही पाते , उन सभी बातों को कितने सहज तरीके से बयान कर देते हैं आंसू,यदि कोई समझने वाला इंसान हो तो ...
वर्ना मूर्खों की भी कोई कमी नहीं है इस संसार में
ये ना होते तो कैसे बयां होती अप्रत्याशित खुशी,
खुशी के आंसू कहां बहाते लोग,
ये ना होते तो न हो पाते कम कभी दर्द दिल के,
ये न होते तो जाने अपने गम से ,
कितनी दफा मर जाते लोग..