मन ....
व्याकुलताओं का अथाह भरा एक कोना,
जिसमे भरी हैं न जाने कितनी वेदनाएं,
पीड़ाएं,कितने आंसू,कितने ही खुशी के क्षण,
उठती गिरती समुंदर की लहरों की भांति,
मन के भीतर भी उठता ख़ामोश होता एक सैलाब सा है,
अश्रुओं की बहती एक निर्मल सी गंगा,
जो छलक जाती है अनायास ही आंखो से,
कभी अविश्वसनीय खुशी बनकर या फिर,
असहनीय पीड़ा बनकर....
मन कभी शांत नही रहता,
ये रहता है ना जाने किस किस उधेड़बुन में,
पल पल विचलित ,बहुत कुछ बड़बड़ाता
भीतर ही भीतर कुछ ,
कभी मुस्कुरा जाता कुछ अच्छा याद करके,
तो कभी बस सिसक उठता जैसे चुभ गया हो कांटा कोई,
इसके अंदर न जाने कितना कुछ स्थिर है,
कभी कभी तो बाहरी संसार से भी बड़ा लगता है,
इस मन के भीतर का संसार,
जिसे न कोई जान पाया न समझ पाया ,
न इसका कोई छोर है ना कोई अंत,
जितने जीवन के पल उससे कई गुना ज्यादा ,
मन के अंदर की भावनाएं,
कभी सहज कभी असहज सी,
कभी आपे से बाहर होती,
जहां हमारा खुद का भी बस नही चल पाता,
इस मन की दृढ़ता के आगे ,
कभी कभी तो हम खुद को बहुत बेबस महसूस करने लगते हैं,
हम कहां चल पाते हैं एक भी कदम,
अपने मन के खिलाफ ,
ये जहां चाहे हमे वहां ले चलता है,
हम मन को अपने हिसाब से नहीं ढाल पाते,
अपितु ये हमे अपने हिसाब से ढाल लेता है...
हम मनुष्य किस्मत के आगे भी बेबस हो जाते हैं ,
और स्वयं अपने मन के आगे भी नतमस्तक..