स्त्री वेदना ...
मैंने बमुश्किल संभाला है कई बार खुद को,
बहते आंसुओ को कितनी बार रोका है,
कई बार दिल की उदासी को इग्नोर किया है,
दिल की कई बातों को नजरअंदाज कर छोड़ा है,
दिल में उठने वाले हलके हलके दर्द को,
मैने नही दी कभी तवज्जो कोई ,
कितने अरमानों को दी तिलांजलि मैने,
कितने ख्वाबों से मुंह मोड़ा है,
मगर हां अब बदलने लगी हूं बहुत कुछ मैं,
लाग लपेट के हर बंधन को मैंने तोड़ा है,
दूर कर दिया खुद से मलहम लगाने वालों को,
मैंने झूठे रिश्तों की हर जंजीर को खुद तोड़ा है,
भर न सके जो जख्म एक उम्र बीत जाने पर भी,
बन जाने को नासूर अब उन जख्मों को खुला छोड़ा है,
छोड़ दिया है परवाह करना झूठे रस्मों रिवाजों की,
ज़माने की घूरती निगाहों पर दिल ने आजकल सहमना छोड़ा है,
टूटे हुए धागों में नहीं उलझाती फिरती अब खुद को,
नए रास्तों से खुद को जोड़ा है,
बिखर जाने की अब परवाह नहीं मुझको,
मैंने बड़ी देर बाद खुद से खुद को अब जोड़ा है.।