प्रेम......
तुम से मिलकर ही तो जाना,
प्रेम का स्वरूप मैने,
मैंने समझा उस प्रेम को,
जिसे किताबों में पढ़ा मैने,
तुम्हारी बोलती आंखो में पढ़े,
अनकहे प्रेम के कितने ग्रंथ,
प्रेम जब तलक,
अपने मन के अंदर प्रवेश न करे,
तब तक पूर्णतः प्रेम को समझ पाना नामुमकिन है,
केवल संभावनाओं से कुछ हासिल नहीं होता,
जब तलक आपका प्रेम,
आपके होंठो की मद्धम सी मुस्कान न बन जाए,
जो सदैव आपके होंठो पर सजी रहती है,
आपके प्रेम की पहचान बनकर,
मंदिर में बजती घंटियों के गुंजन पर,
मन में किसी के मुस्कुराते चेहरे का होना,
किसी दरगाह पर सिर झुकाते वक्त,
आंखे बंद करते ही उसका चेहरा दिखाई देना,
न जाने कहां कहां पाया मैने,
उस प्रेम को,
जिसे पढ़कर समझना नामुमकिन था,
उस प्रेम को जीकर समझा मैंने...!