एक कवि की कल्पना
मैं उसकी बिखरी जुल्फों की
स्याह रात में अटक जाता हैं,
सुरमई उन आंखों की ,
मयकदा सी झील में खो जाता हूं,
उसके काजल की कालिमा
खींच लेती है मुझे अपनी ओर,
मैं पतंग की डोर जैसा,
उसकी ओर खिंचा जाता हूं,
उसके माथे की बिंदिया,
जैसे सम्मोहन का केंद्र हो कोई,
जी भर के देख लूं जरा जो उसको मैं
अपने आस पास की दुनिया ही भूल जाता हूं,
उसके होठों की सुर्खी,
जो हंसी फूलों को मात देती है,
मैं उन मखमली होंठो को देखकर,
मैं कौन हूं मैं क्या हूं ये अक्सर भूल जाता हूं।