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अतिथि-सत्कार

19 जुलाई 2022

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भला आदमी मन्दाक्रान्ता गति से बातें कर रहा था, गा-गाकर बोलता हो मानो।

मैंने बाधा डालते हुए पूछा था, “किन्तु प्रधान अतिथि क्‍यों?”

उनकी मन्द मुस्कुराहट जरा भी मन्द नहीं हुई और उन्होंने मेरे इस सवाल में छिपे सवाल को समझकर मेरा मुँह बन्द कर दिया। वह बोले, “जी, सभापतित्व तो हमारी तोच्छ संस्था में...बस हमारे सभापति ही कर सकते हैं। यों तो, हमारी उत्कट अभिलाषा तो थी... ।”

मैंने यह पहले ही लक्ष्य कर लिया था कि भले आदमी “तो” का अति उदार भाव से यत्र-तत्र व्यवहार तो करते ही हैं।

एक ऐसा भी 'तो” आता है, जहाँ पहुँचकर श्रीमान्‌ एक विनीत मुद्रा बनाकर हाथ मलने लगते हैं।

उनका यह हाथ मलना मुझे पहले अच्छा नहीं लगा। अब उनका यह कर्म भला ही जँचने लगा। बाद में देखा कि श्रीमान्‌ विनीत मुद्रा से एक सप्तक आगे तक भी जा सकते हैं।

हाथ मलते हुए, खीसें निपोड़कर, पान-सुर्ती-रंजित बत्तीसी दिखलाकर पहाड़ को भी पिघला सकते हैं।

इस बार उन्होंने मुझे जीत लिया। मैंने पूछा, “तो?”

“तो अभिलाषा तो थी कि आपके कर-कमलों से अपनी तोच्छ संस्था का उद्घाटन करवाया जाए, किन्तु उसके लिए तो पहले से आदमी तय था।”

मैंने टोका, “आप बार-बार तोच्छ संस्था क्‍यों कहते हैं?”

“जी, नाम ही तोच्छ संस्था है ।” वह फिर हाथ मलने लगे। इस बार हाथ मलते समय उनका मुखमंडल गम्भीर हो गया।

मुझे अचरज में थोड़ी देर तक पड़ा रहने दिया। फिर उन्होंने रहस्योद्घाटन किया, “जी, “तो” का अर्थ हुआ तोतापुर और “च्छ' हुआ लच्छी बाबू के नाम का एक मात्राहीन संयुक्ताक्षर। दोनों मिलकर हुआ तोच्छ। तो... ।'

“यह लच्छी बाबू कौन हैं?”

“जी, मैंने तो पहले ही अर्ज किया था कि वह हैं हमारी इस संस्था के एकमात्र संस्थापक, संचालक, सभापति ।”

“ओ! और यह तोच्छ संस्था नामकरण भी...?”

“जी हाँ, तो ऐसा नाम भला हमारी तुच्छ बुद्धि में कहाँ से पनपेगा?”

मुझे उत्सुक देखकर वह हर्षित हुए। बोले, “हमारे लच्छी बाबू उच्चकोटि के कल्चर-जीवी व्यक्ति हैं। सुखी-सम्पन्न तो हैं ही। उनकी रुचि-सम्पन्नता का ही परिपक्व फल है यह तोच्छ संस्था ।”

इस संस्था का उच्च और पावन उद्देश्य पूछकर भले आदमी को छोटा करने का जी नहीं हुआ। पूछा, “आपकी इस संस्था में होता क्या-क्या है?”

“जी, सबकुछ । कुश्ती-दंगल से लेकर संगीत और कवि-दरबार तक। तो, कहा न, हमारे अनुमंडल और प्रमंडल में जितने ग्राम हैं, उसमें सर्वोपरि है हमारा ग्राम- तोतापुर। अखबार में बराबर खबर छपती है।”

इसके बाद विनीत मुद्रा-सह हाथ मलने की प्रक्रिया। मेरी इच्छा इनकी बत्तीसी देखने की तनिक भी नहीं थी, किन्तु मेरे मन में एक प्रश्न बहुत देर से पाँखें फड़फड़ा रहा था। पूछ लिया, “क्या तोतापुर में तोते बहुत होते हैं?”

जी, तोते? तोते तो... !”

मैंने उन्हें समझाया, “प्रधान अतिथि वगैरह का झंझट-बखेड़ा हटाइए। मैं यों ही आऊँगा।"”

“जी, यों ही आऊँगा माने? हम तोतापुरी अपने प्रधान अतिथि का सम्मान करना जानते हैं। हालाँकि स्टेशन से हमारा गाँव बीस माइल दूर है, रास्ते में पाँच-पाँच नदियाँ हैं; फिर भी आप देखिएगा तो कहिएगा कि तोतापुर आखिर तोतापुर ही है।”

चलते-चलते अन्तिम अस्त्र का प्रयोग करके देख लिया भले आदमी ने। बोले, “तो, देहात में और कुछ शुद्ध मिले या न मिले, भोजन आदि की सामग्री आपको “'पियोर विशुद्ध मिलेगी।”

आँखों के आगे देहाती दूध पर पड़ी हुई मोटी मलाई, रबड़ी, दही और घी की नदी उमड़ने लगी। मैंने वचन दे दिया।

मैंने कहा, “आप तो देखते ही हैं, मैं यों ही बातें करने में भी तुतलाता हूँ। भाषण-वाषण देने को कहिएगा तो बोली ही बन्द हो जाएगी।”

“तो, उसके लिए आप कोई चिन्ता न करें।”

क्या कहता है यह आदमी? मेरी बोली बन्द हो जाएगी और मैं कोई चिन्ता ही न करूँ!

उन्होंने उठते समय फिर एक मुद्रा बनाई, जिसका यही अर्थ हो सकता है कि बोली बन्द हो जाएगी, तो बोली का इन्तजाम भी है।...सब इन्तजाम है!

बोले, “तो, आज्ञा दीजिए। अब जरा लाउडस्पीकरवाले के यहाँ जाना है।”

तो, निश्चित तिथि को मैंने चुपचाप तोतापुर के लिए प्रस्थान कर दिया। तोतापुर जाने के लिए सेमलबन स्टेशन का टिकट कटाना पड़ता है। अचरज की बात! तोच्छ

संस्था, कल्चर-जीवी लच्छी बाबू, तोतापुर और सेमलबन।

सेमलबन स्टेशन छोटा-सा गँवई स्टेशन है, जहाँ गाड़ी मानो बहुत अनिच्छा से ठहरती है। मेरे हाथ में तो मात्र झोली थी। किन्तु उस लाउडस्पीकरवाले के साथ बहुत-कुछ लटकन-झटकन सामान था। भोंपा उतारकर गाड़ी पर चढ़ा तो फिर उतर नहीं सका। चलती हुई गाड़ी से बड़े-बड़े लकड़ी के बक्सों के साथ कैसे उतरता? उसने तार-स्वर में मुझसे कुछ कहा । समझ गया, भोंपे की निगरानी करने के लिए कह गया और यह कि लौटती गाड़ी से वह वापस आ रहा है।

सेमलबन स्टेशन पर कुछ नहीं दिखलाई पड़ा-न गाड़ी, न घोड़ा, न साइकिल । बार-बार उस व्यक्ति की बातें “तोकार' के साथ ध्वनित होने लगीं-““तो, अपने प्रधान अतिथि का यथोचित आदर करना हम तोतापुरी जानते हैं।”

स्टेशन पर कोई कुली नहीं। एक व्यक्ति पर जरा सन्देह हुआ और शायद मन-ही-मन पुकारा, 'कुली!

वह आदमी तमककर खड़ा हो गया। आँखें तरेरकर बोला, “क्या बोला?”

मैंने तत्परता से परिस्थिति को सँभाल लिया। “जी, आपसे मिलकर धन्य हो गया। कहिए, आपकी क्‍या सेवा करूँ?”

वह आदमी भी तुरन्त तैश में आ गया। बोला, “यहाँ कोई भी कुली का काम नहीं करता, लेकिन ऐसे कहिए तो दस कोस तक अपने माथे पर सामान ढोकर ले जाएंगे यहाँ के लोग । लाइए झोली इधर । और यह ससुर भोंपा भारी ही कितना होगा!”

दस कोस तक ढोकर ले जानेवाला बन्धु मिल गया। धन्य तो पहले -ही हुआ। अब पुलकित भी होने लगा रह-रहकर। स्टेशन से कुछ दूर कई झोंपड़े थे। मेरे बन्धु का घर इन झोंपड़ों के उस पार है। घर के नाम पर एक मड़ैया...जोरू-जाता कुछ नहीं। मड़ैया के सामने बाँस का मचान।

भोंपा देखते ही गाँव के सब बच्चे पीछे लगे और अनुनय करने लगे, “बाजा बजाइए! बजाइए न बाजा, ऐ बाजावाला !”

मैंने उन्हें सच्ची बात बता दी, “बजनेवाली चीज़ पीछे ही रह गई है। आएगी, तो बाजा बजेगा ।” लेकिन यह सतयुग तो नहीं। बच्चों ने विश्वास ही नहीं किया। बहरहाल बच्चों का रटना भी जारी रहा और हम लोगों का चलना भी। अचरज हुआ...इन बारह-तेरह झोंपड़ों में ही इतने बच्चे! सबसे आगे भोंपे को कन्धे पर लादे मेरा बन्धु, उसके पीछे मैं और पीछे बच्चों का हजूम। मुझे 'पाइड पाइपर ऑफ़ हेमलिन” की याद आई। एक सबसे छोटे, नंग-धड़ंग बालक ने तो बाजाप्ता धमकी भी दी, “ऐ बाडावाला...बाडा बडा!”

बच्चों के बाद औरतों की बारी आई। मुझसे नहीं, मेरे बन्धु से ही वे बातें कर रही थीं। लेकिन बातें कर रही थीं मेरे ही बारे में, इस बाजे के सम्बन्ध में। वे अपनी ही बोली बोल रही थीं। उसका हिन्दी अनुवाद अक्षरशः नहीं लिख सकता। भावार्थ यही था, “अरे धन्नू! इस मूड़ीकाट बाजेवाले को कहाँ से बझा लाया?”

दूसरी ने कहा, “यह सूथनावाला दवा-बूटी भी बेचता है क्या?”

एक बोली, “अरे ई तो बीड़ीवाला है। बाजा बजावेगा, फिर बीड़ी लुटावेगा ।”

अब इसके बाद बाजा और बीड़ी दोनों की सम्मिलित माँगों के नारे बुलन्द होने लगे, “बीड़ी लुटाओ...बाजा बजाओ!”

मैं अपने मित्र धन्‍नू की शरण में था, इसलिए उसने दो-तीन उच्च स्तर की गालियाँ देकर बच्चों को भगाने की चेष्टा की। नतीजा उलटा हुआ। झगड़ा खड़ा हुआ, ऐसा झगड़ा, जिसमें एक साथ दर्जनों औरतें दल बाँधकर भाग ले रही हों, खुले गले से।

झगड़े में 'तेरे बाजे को और तेरे बाजेवाले को” लक्ष्य करके कितनी ही फूहड़ गालियाँ बरसाई गईं। बच्चों ने भोंपे पर कंकड़ी फेंककर नारे लगाने शुरू किए-“बीड़ी लुटाओ...बाजा बजाओ!”

लुटाने के लिए तो क्या, मेरे पास पीने के लिए भी बीड़ी नहीं थी। धन्नू को बीड़ी के लिए पैसे देते हुए कहा, “धन्नूजी, बीड़ी खरीदकर लुटा दीजिए।”

इसी समय गाँव के पूरब एक मैंसागाड़ी दृष्टिगोचर हुई। सभी की आँखें भैंसागाड़ी की ओर मुड़ीं। गाड़ी करीब आती गई।

गाड़ी पर आधे दर्जन से ज़्यादा लोग और उससे ज़्यादा लाठियाँ दिखलाई पड़ीं।

बैठे हुए लोगों में एक परिचित मुखड़े पर दृष्टि पड़ी। मन प्रसन्‍न हो गया। लेकिन भैंसागाड़ी! सो भी बिना नाथ के!

गाड़ी रुकी। सब उतरे। सभी तोतापुरी ही थे। सभी के होंठ पान से 'लालम लाल” सभी के हाथ में तेल पीकर लाल हुई लाठियाँ। मैंने मुस्कुराते हुए कुछ कहा। किन्तु “तोच्छ संस्था” के प्रतिनिधि की हैसियत से जो मुझे निमन्त्रण देने गए थे, उन्होंने मुझे नमस्कार तक नहीं किया। देखा, उनकी छाती पर स्वागत-उपमन्त्री का बिलला लटका हुआ है। और सबसे ज़्यादा लटका हुआ था उनका मुँह।

एक ने स्वागत-उपमन्त्री से पूछा, “यही है ?”

स्वागत-उपमन्त्री ने कहा, “है तो यही।”

मेरी बुद्धि में कोई बात नहीं समा रही थी। मैंने पूछा, “क्यों? इसी भैंसागाड़ी पर ही जाना होगा तो?”

स्वागत-उपमन्त्री ने कहा, “कहाँ जाना होगा? अभी तो... ।”

कहाँ जाना होगा? क्या कहता है यह भला आदमी! कहाँ गईं इनकी वे विनीत मुद्राएँ...! इनकी बत्तीसी आज कटकटा क्‍यों रही है? उन्होंने अपने दल के सरगना से कुछ कहा। सरगना आगे बढ़ आया मेरे पास।

मुझसे पूछा, “आपका नाम?!

मैं हैरान! धन्‍नू की मड्रैया के पास गाँव-भर के लोग आकर जमा होने लगे...बाजा चुराकर भागनेवाला पकड़ा गया है। चोर...बाजाचोर

स्वागत-उपमन्त्री ने विषण्ण मुद्रा में कहा, “तो बता दीजिए नाम। नाम छिपाने का क्‍या मतलब है?”

तोतापुरी गाड़ीवान ने ऊँची आवाज में कहा, “अरे नाम-धाम पूछकर कया होगा! जब यही आदमी है, तो लगाइए न हाथ। देरी क्‍यों?”

सभी तोतापुरियों ने लाठी तान लीं। मैंने अपना नाम बताया ।

सरगना ने कहा, “तो वहाँ जो कल से ही प्रधान अतिथि बनकर “पुजा” रहा है, वह कौन है?”

“माने?” मेरे मुँह से बरबस निकला।

“जी हाँ, उसका भी वही नाम है जो आपका है। वह कल ही पहुँच चुका है।”

मैंने स्वागत-उपमन्त्री की ओर देखा। वह बोले, “तो कहिए, आपने पहले ही, उसी दिन, क्‍यों न बतला दिया कि आप “असली आप” नहीं हैं? आप भी साहित्यिक, वह पहुँचा हुआ आदमी भी साहित्यिक असल-नकल का क्या प्रमाण, क्या पहचान?”

मैंने कहा, “मैं तुतलाता हूँ।”

“वह भी तुतलाता है।'

तोतापुरी सरगना ने आपस में तोतापुरी बोली में ही बातें कीं, “गजब का नकल उतारा है। कुर्ता-पाजामा से बुलबुली-बावड़ी तक हू-ब-हू उसी की तरह!”

सरगना बोला, “देखिए साहब, आपने हमारी तोच्छ संस्था के साथ धोखेबाजी की है, गद्दारी की है, हमारे प्रतिनिधि को फुसलाकर गुमराह किया है। चलिए, असली प्रधान अतिथि दस कोस जमीन पर आकर बैठा है मिट्टी लगाकर । वहीं असल-नकल की पहचान होगी ।”

सरगना ने मेरा हाथ पकड़कर उठाया। मेरी बोली ही बन्द हो गई। लगा, हाथ उखड़कर अलग हो गया देह से। मैंने कलेजा मज़बूत करके कहा, “मुझे कोई पहचान नहीं करवानी है। मैं वापस जा रहा हूँ।”

सभी तोतापुरियों ने हुंकार भरकर कहा, “क्या? वापस?”

ती, वापस भी नहीं जाने देंगे? मेरे तो हाथ के तोते उड़ गए।

सरगना ने कहा, “मैंने कहा न, वही आदमी असली है। दस कोस आगे बढ़ आया है। देह में मिट्टी लगाकर बैठा है।”

“तो कुश्ती?”

“नहीं तो और क्या? देहाती समझकर ठगने चले थे!”

मेरी कलाई रह-रहकर सरगना की पकड़ में कड़मड़ा रही थी। मैंने कहा, “कोई जबरदस्ती है! मुझे जाने दीजिए ”

गाँववालों ने कहा, “भागने न पावे। पकड़े रहो ।”

स्वागत-उपमन्त्री ने कहा, “तो मैंने कहा था न, हमारा तोतापुर अनुमंडल और प्रमंडल के ग्रामों में सर्वोपरि है। बराबर अखबार में खबर छपती है-तोतापुर के पास दिन-दहाड़े हत्या!”

अन्त में बहुत मुश्किल से समझौता हुआ। लम्बी कहानी है, क्या कीजिएगा किसी के बेपानी होने की कहानी सुनकर। पच्चीस रुपये तेरह आने बतौर हरजाने के अदा करने का हुक्म हुआ। मेरे पास सिर्फ बीस थे।

एक तोतापुरी के पैर में मेरा नया जूता आ गया, वह ले गया। गाँव के सरगना ने हल्ला मचाना शुरू किया, “वाह, वाह! जिस गाँव में चोर पकड़ा गया, वहाँ के लोगों को कुछ नहीं! नहीं छोड़ेंगे आसामी को...पकड़ रे!” सरगना ने धन्नू के हाथ से मेरी झोली ले ली।

तोतापुरियों ने जाते-जाते लाठी दिखलाकर चेतावनी दी, “फिर ऐसा काम मत कीजिएगा ।” धन्नू से कहा, “स्टेशन तक सकुशल पहुँचा सकोगे, बन्धु?”

धन्नू ने कहा, “ऐसे कहिए, तो दस कोस तक यों ही पहुँचा दे सकता हूँ। आखिर ससुर भारी ही कितना है!”

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रचनाएँ
फणीश्वरनाथ रेणु जी की प्रसिद्ध कहानियाँ
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फणीश्वरनाथ रेणु भारत वर्ष के साहिया समाज के बहुत ही जाने माने कविकार और कहानीकार थे| उनके लेखन ने बहुत से लोगो को मनोरंजित किया है| उनका जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया में हुआ था| उन्होंने अपने साहित्य जीवन में बहुत से उपन्यासों को सराया गया| उनकी एक बहुत ही मशहूर उपन्यास मैला आंचल को बहुत ख्याति मिली की उनको पद्म विभूषण पुरस्कार से नवाज़ा गया| हम आपके लिये फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियाँ, मारे गये गुलफाम (तीसरी कसम) एक आदिम रात्रि की महक, लाल पान की बेगम , पंचलाइट, तबे एकला चलो रे, ठेस , संवदियास्वतंत्र भारत में उनकी रचनाएं विकास को शहर-केंद्रित बनाने वालों का ध्यान अंचल के समस्याओं की ओर खींचती है। वे अपनी गहरी मानवीय संवेदनाओं के कारण अभावग्रस्त जनता की बेबसी और पीड़ा भोगते से लगते हैं। उनकी इस संवेदनशीलता के साथ यह विश्वास भी जुड़ा है कि आज के त्रस्त मनुष्य में अपने जीवन दशा को बदल लेने की शक्ति भी है।
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कपड़घर

19 जुलाई 2022
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ग्यारह साल की सरकारी नौकरी से, गत माह मैंने इस्तीफा दे दिया है। परिस्थिति के चाप से-और स्वेच्छा से भी। सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट होकर बिरनियाँ जिला आया। ग्यारह साल तक सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट ही रहा। बिरनि

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कस्बे की लड़की

19 जुलाई 2022
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“लल्लन काका! दादाजी कह गए हैं कि लल्लन काका से कहना कि ऱरोज फुआ के साथ... !” लल्लन काका अर्थात्‌ प्रियव्रत ने अपनी भतीजी बन्दना उर्फ बून्दी को मद्धिम आवाज में डॉट बताई, “जा-जा! मालूम है जो कह गए हैं

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कुत्ते की आवाज़

19 जुलाई 2022
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मेरा गांव ऐसे इलाके में जहां हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की – कोशी, पनार, महानन्दा और गंगा की – बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं, सावन-भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरत

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जलवा

19 जुलाई 2022
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फातिमादि को कभी देखूँगा और इस तरह देखूँगा, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। इसलिए, कुछ देर तक 'पंटना-मार्केट” को स्वप्नलोक समझकर खोया - खोया - सा खड़ा रहा-जूते की दूकान पर । बुरके में सिर से पैर तक

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जैव

19 जुलाई 2022
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निर्मल ने मन्द-मन्द मुस्कुराती, कमरे में प्रवेश करती हुई-विभावती से पूछा-“क्यों क्या बात है ?” विभावती हँसती हुई बोली-“बात कया होगी ? बात जो होनी थी सो हो गई ।” विभा ने स्वामी के हाथ में आज की डाक

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ठेस

19 जुलाई 2022
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खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते। लोग उसको बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं। इसलिए, खेत-खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को। क्या होगा, उसको बुला कर? दूसरे

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तीन बिंदियाँ

19 जुलाई 2022
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गीताली दास अपने को सुरजीवी कहती है। नाद-सुर-ताल आदि के सहारे ही वह इस मंज़िल तक पहुँच सकी है। सभी कहते हैं, उसकी साधना सफल हुई है।…कितने भोले और बेचारे होते हैं लोग! साधना के सफल-अफसल होने की घोषणा करन

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धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे

19 जुलाई 2022
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भादों की रात। तुरत बारिस बन्द हुई है। मेढक टरटरा रहे हैं। साँप ने बेंग को पकड़ा है, बेंग की दर्द-भरी पुकार पर दिल में दया आने के बदले, भय मालूम होता है। आसपास की झाड़ियों में फैला हुआ अन्धकार और भी

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ना जाने केहि वेष में

19 जुलाई 2022
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उस दिन अखबार में अपने दैनिक राशिफल में देखा-आदि से अन्त तक हर जगह 'शुभ' और “लाभ' ही लिखा हुआ था। यात्रा : शुभ, अमृतयोग धनागम, राज्य-सम्मान तथा मित्र-लाभ ! पता नहीं, चार दिन के बाद राशिफल में कौन-सा

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नेपथ्य का अभिनेता

19 जुलाई 2022
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यद्यपि उसे पहले भी पच्चासों बार देख चुका हूँ, किन्तु उस दिन देखकर चिहुँक-सा उठा। चकित हो गया। लगा, जैसे बिना मौसम के कोई फूल या फल देख रहा होऊँ। सावन-भादों के किचकिच में, लगातार बारिश में ई कहाँ से

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प्राणों में घुले हुए रंग

19 जुलाई 2022
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शैशव की सुनहली स्मृति, नील-गगन में उड़ते हुए रंग-बिरंगे पतंगों और मनमोहक रंगीन खिलौनों के आकर्षण को मैं जान-बूझकर छोड़े देता। उन दिनों मैं स्वयं किन्ही की रंगीन आशाओं और कल्पनाओं का केन्द्र था! मेडि

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पंचलाईट

19 जुलाई 2022
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पिछले पन्द्रह दिनों से दंड-जुरमाने के पैसे जमा करके महतो टोली के पंचों ने पेट्रोमेक्स खरीदा है इस बार, रामनवमी के मेले में। गाँव में सब मिलाकर आठ पंचायतें हैं। हरेक जाति की अलग-अलग सभाचट्टी है। सभी पं

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पुरानी कहानी : नया पाठ

19 जुलाई 2022
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बंगाल की खाड़ी में डिप्रेशन - तूफान - उठा! हिमालय की किसी चोटी का बर्फ पिघला और तराई के घनघोर जंगलों के ऊपर काले-काले बादल मँडराने लगे। दिशाएँ साँस रोके मौन-स्तब्ध! कारी-कोसी के कछार पर चरते हुए पशु

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बीमारों की दुनिया में

19 जुलाई 2022
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बीरेन की जवानी में घुन लग गया। बुखार-100० 101० 102०,..। खाँसी-भीषण ! रोग-क्ष॑य के लक्षण। कथाकारों के नायक प्रायः क्षय ही से पीड़ित होते हैं। खून की के करते हैं। कथाकार इस रोग को “रोमांटिक” रोग समझ

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रखवाला

19 जुलाई 2022
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रक्त की प्यासी सभ्य दुनिया से दूर-बहुत-दूर-हिमायल के एक पहाड़ी गावं का अंचल। छोटा-सा झोंपड़ा। पहाड़ी की ओट से छनकर आती हुई सूर्य की किरणों में छोटा-सा सरकंडे का झोंपड़ा सोने के झोंपड़े की तरह चमक रहा था।

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रसूल मिसतिरी

19 जुलाई 2022
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बहुत कम अर्से में ही इस छोटे-से गँवारू शहर में काफी परिवर्तन हो गए हैं। आशा से अधिक और शायद आवश्यकता से भी अधिक। स्कूल और होस्टल की भव्य इमारत को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि आज से महज आठ स

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लफड़ा

19 जुलाई 2022
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उस बार 'युनिट” के 'प्रोडक्शन मैनेजर” ने मेरे ठहरने की व्यवस्था “दि डायना गेस्ट हाउस' में की थी। इसके पहले मुझे खार स्टेशन के पास 'होटल सदाबहार! में टिकाया जाता था। इसलिए, नई जगह के बारे में तरह-तरह

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वंडरफुल स्टुडियो

19 जुलाई 2022
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फोटो तो अपने दर्जनों पोज में उतारे हुए अलबम में पड़े हैं, फ्रेम में मढ़े हुए अपने तथा दोस्तों के कमरों में लटक रहे हैं और एक जमाने में, यानी दो-तीन साल पहले, उन तस्‍वीरों को देखकर मुझे पहचाना भी जा सक

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विघटन के क्षण

19 जुलाई 2022
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रानीडिह की ऊँची जमीन पर - लाल माटीवाले खेत में-अक्षत-सिन्दूर बिखरे हुए हैं  हजारों गौरैया-मैना सूरज की पहली किरण फूटने के पहले ही खेत के बीच में 'कचर-पचर' कर रही हैं। बीती हुई रात के तीसरे पहर तक, ज

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संवदिया

19 जुलाई 2022
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हरगोबिन को अचरज हुआ - तो, आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस जमाने में, जबकि गांव गांव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज

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जै गंगा

19 जुलाई 2022
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जै गंगा ... इस दिन आधी रात को 'मनहरना’ दियारा के बिखरे गांवों और दूर दूर के टोलों में अचानक एक सम्मिलित करूण पुकार मची, नींद में माती हुई हवा कांप उठी – 'जै गंगा मैया की जै...’ !! अंधेरी रात में गंग

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