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नैना जोगिन

19 जुलाई 2022

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रतनी ने मुझे देखा तो घुटने से ऊपर खोंसी हुई साड़ी को 'कोंचा' की जल्दी से नीचे गिरा लिया। सदा साइरेन की तरह गूँजनेवाली उसकी आवाज कंठनली में ही अटक गई। साड़ी की कोंचा नीचे गिराने की हड़बड़ी में उसका 'आँचर' भी उड़ गया।

उस सँकरी पगडंडी पर, जिसके दोनों और झरबेरी के काँटेदार बाड़े लगे हों, अपनी 'भलमनसाहत' दिखलाने के लिए गरदन झुका कर, आँख मूँद लेने के अलावा बस एक ही उपाय था। मैंने वही किया। अर्थात पलट गया। मेरे पीछे-पीछे रतनी ने अपने उघड़े हुए 'तन-बदन' को ढँक लिया और उसके कंठ में लटकी हुई एक उग्र-अश्लील गाली पटाके की तरह फूट पड़ी।

मैं लौट कर अपने दरवाजे पर आ गया और बैठ कर रतनी की गालियाँ सुनने लगा।

नहीं, वह मुझे गाली नहीं दे रही थी। जिसकी बकरियों ने उसके 'पाट' का सत्यानाश किया है, उन बकरीवालियों को गालियाँ दे रही है वह। सारा गाँव, गाँव के बूढ़े-बच्चे-जवान, औरत-मर्द उसकी गालियाँ सुन रहे हैं। लेकिन... लेकिन क्यों, शायद सच ही, उनके सुनने और मेरे सुनने में फर्क है। मैं 'सचेतन रुपेण' अर्थात जिस तरह रेडियो से प्रसारित महत्वपूर्ण वार्ताएँ सुनता हूँ, इन गालियों को सुन रहा हूँ। कान में उँगली डालने के ठीक विपरीत... एक-एक गाली को कान में डाल रहा हूँ। उसकी एक-एक गाली नंगी, अश्लील तसवीर बनाती है - 'ब्लू फिल्मों' के दृश्य।

...उदाहरण? उदाहरण दे कर 'थाना-पुलिस-अदालत-फौजदारी' को न्योतना नहीं चाहता।

रमेसर की माँ ने टोका शायद!

गाँव-भर की बकरीवालियों को सार्वजनिक गालियाँ दागने के बाद रतनी ने रमेसर की माँ के 'प्रजास्थान' को लक्ष्य करके एक महास्थूल गाली दी। रमेसर की माँ ने टोका - 'पहले खेत में चल कर देखो। एक भी पत्ती जो कहीं चरी हो...।'

रतनी अब तक इसी टोक की प्रतीक्षा में थी, शायद। अब उसकी बोली लयबद्ध हो गई। वह प्रत्येक शब्द पर विशेष बल दे कर, हाथ और उँगलियों से भाव बतला कर कहने लगी कि 'वह पाट के खेत में जा कर क्या देखेगी, अपना...?' (भले घर की लड़की होती तो कहती 'अपना सिर', किंतु रतनी सिर के बदले में अपने अन्य हिस्से का नाम लेती है!)

इसके बाद बहुत देर तक रतनी की बातें सुनता रहा। ...लेकिन उन्हें लिख नहीं सकता। वारंट का डर है।

किंतु, रतनी के बारे में अब कुछ नहीं लिखा गया तो जीवन में कभी नहीं लिखा जाएगा। क्योंकि रतनी की गालियों में मर्माहत और अपमानित करने के अलावा उत्तेजित करने की तीव्र शक्ति है - यह मैं हलफ ले कर कह सकता हूँ।

रतनी का नाम 'नैना जोगिन' मैने ही दिया था, एक दिन। तब वह सात-आठ साल की रही होगी। ...नैना जोगिन? देहात में झाड़-फूँक करनेवाले ओझा-गुणियों के हर 'मंतर' के अंतिम आखर में बंधन लगाते हुए कहा जाता है - दुहाए इस्सर महादेव गौरा पारबती, नैना जोगिन... इत्यादि। लगता है, कोई नैना जोगिन नाम की भैरवी ने इन मंत्रों को सिद्ध किया था।

...सात साल की उम्र में ही रतनी ने गाँव के एक धनी, प्रतिष्ठित वृद्ध को 'फिलचक्कर' में डाल दिया था। उसकी बेवा माँ, वृद्ध की हवेली की नौकरानी थी। पंचायत में सात साल की रतनी ने अपना बयान जिस बुलंदी और विस्तार से दिया था, कोई जन्मजात नैना जोगिन ही दे सकती थी! अब तो उसकी जामुन की तरह कजराई आँखें भी उसके नाम को सार्थक करती हैं, किंतु सात साल की उम्र में ही इलाके में कहर मचानेवाली लड़की से आँख मिलाने की ताकत गाँव के किसी बहके हुए नौजवान में भी नहीं हुई कभी। उसको देखते ही आँखों के सामने पंचायत, थाना, पुलिस, फौजदारी, अदालत, जेल नाचने लगते।

...रतनी की माँ सरकारी वकील को भी कानून सिखा आई है। ...बहस कर आई है सेशन-कोर्ट में!

सो, पिछले ग्यारह वर्षों में रतनी की माँ ने मुँह के जोर से ही पंद्रह एकड़ जमीन 'अरजा' है। पिछवाड़े में लीची के पेड़ हैं, दरवाजे पर नीबू। सूद पर रुपए लगाती है। 'दस पैसा' हाथ में है और घर में अनाज भी। इसलिए अब गाँव की जमींदारिन भी है वही। गाँव के पुराने जमींदार और मालिक जब किसी रैयत पर नाराज होते तो इसी तरह गुस्सा उतारते थे। यानी उसकी बकरी, गाय वगैरह को परती जमीन पर से ही हाँक कर दरवाजे पर ले आते थे और गालियाँ देते, मार-पीट करते और अँगूठे का निशान ले कर ही खुश होते थे।

रमेसर की माँ कल हाट जाते समय लीची की टोकरी नहीं ले गई ढो कर, इसलिए रतनी और रतनी की माँ ने आज इस झगड़े का 'सिरजन' किया है - जान-बूझ कर।

रमेसर का बाप मेरा हलवाहा है। रमेसर हमारे भैंसों का रखवाला यानी 'भैंसवार' है। रमेसर की माँ हमारे घर बर्तन-बासन माँजती है, धान कूटती है। इसलिए रतना अब अपनी गालियों का मुख धीरे-धीरे हमारी ओर करने लगी - 'तू किसका डर दिखलाती है? सहर से आए भतार का? रोज मांस-मछली और 'ब्राँडिल' पी कर तेरे (प्रजास्थान में) तेल बढ़ गया है! एँ...?'

मुझे अचानक रमेसर की माँ की गंदी - हल्दी-प्याज-लहसन पसीना-मैल की सम्मिलित गंध-भरी साड़ी की महक लगी। लगा, अब रतनी मुझे बेपर्द करेगी। नंगा करेगी। खुद अपने को उसने पिछले एक घंटे में साठ बार नंगा किया है अर्थात जब-जब उसने गाली का रुख हमारी ओर किया, हर बार यह कहना ना भूली कि रमेसर की माँ जिसका डर दिखलाती है वह 'मुनसा'(व्यक्ति!) रतनी का 'अथि' भी नहीं उखाड़ सकता! ...ऐसे-ऐसे 'मद्दकी मुनसा' को वह अपने 'अथि' में दाहिने-बाएँ बाँध रखेगी। ...बगुला-पंखी धोती-कुरता और घड़ी-छड़ी-जूतावाले शहरी छैलचिकनियाँ लोग ऊपर से लकदक और भीतर फोक होते हैं। ...सफाचट मोंछ मुँडाए मुछमुँडा लोगों की सूरत देख कर भूलनेवाली बेटी नहीं रतनी! ...रतनी की माँ को इसका गुमान है कि बड़े-बड़े वकील-मुख्तार के बेटों को देख कर भी उसकी बेटी की 'अथि' अर्थात जीभ नहीं पनियायी कभी। डकार भी नहीं किया।

रतनी अपने आँगन से निकल आई थी। रमेसर की माँ ने कोई जवाब दिया होगा शायद। अब रतनी और रतनी की माँ दोनों मिल कर नाचने लगीं। उसका घर दरवाजे से दस रस्सी दूर है, लेकिन सामने है। मैं रतनी और रतनी की माँ का नाच देखने को बाध्य था। रतनी की काव्य-प्रतिभा ने मुझे अचंभे में डाल दिया। उसकी टटकी और तुरत रची हुई पंक्तियों में वह सब कुछ था जो कविता में होता है - बिंब, प्रतीक, व्यंग तथा गंध! बतौर बानगी - अटना का साहब और पटना की मेम, रात खाए मुरगी और सुबह करे नेम, तेरा झुमका और नथिया और साबुन महकौवा - तू पान में जरदा खाए नखलौवा...!

रतनी और रतनी की माँ की यह काव्य-नाटिका समाप्त हुई तो मैंने दरवाजे पर बैठे - गाँव के दो-तीन नौजवानों की ओर देखा। मेरा चेहरा तमतमाया हुआ था, किंतु वे निर्विकार और निर्मल मुद्रा में थे। परिवार तथा 'पट्टीदार' के 'मर्द पुरुषों' की ओर देखा, वे पान चबा रहे थे, हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। लगता था, इन लोगों ने रतनी की गालियाँ सुनी ही नहीं। मैंने जब भोजन के समय बात चलाई तो परिवार के एक व्यक्ति ने (जिन्हें शहर के नाम से ही जड़ैया बुखार धर दबाता है) हँस कर कहा, 'शहर से आने के बाद आप कुछ दिन तक ऐसी असभ्यता ही करेगें, यह हमें मालूम है। इन छोटे लोगों की गाली पर इस तरह ध्यान कोई भलामानुस नहीं देता। इस तरह गालियों के अर्थ को प्याज के छिलके की तरह उतार-उतार कर समझने का क्या मतलब? शहर में क्या औरतें गाली नहीं देतीं?'

अजब इंसाफ है - गाली सुन कर समझना अन्याय है! असभ्यता है! मन में मैल है मेरे?

अश्लील और घिनौने मुकदमे के कारण रतनी की बदनामी बचपन से ही फैलती गई। जवान हुई तो बदनामियाँ भी जवान हुईं। फलत: गाँव के हिसाब से 'पक' जाने पर भी कोई दूल्हा नहीं मिला। मिलता भी तो 'घर-जमाई' हो कर नहीं रहना चाहता था। दो साल हुए, निमोंछिया जवान न जाने किस गाँव से आया साँझ में और रात में भात खाने के लिए घर के अंदर गया तो रतनी की माँ एक हाथ में सिंदूर की पुड़िया और दूसरे में फरसा लेकर खड़ी थी - 'छदोड़ी की सीथ में सिंदूर डालो, नहीं तो अभी हल्ला करती हूँ, घर में चोर घुसा है।'...तो सींकिया नौजवान जो हर सुबह को शीशम की कोमल पत्तियाँ तोड़ कर ले जाता है, वही है रतनी का रतन-धन!

पूछताछ करने पर पता चला कि हाल ही में एक रात को रतनी ने इसको लात से मारा, घर से निकाल कर चिल्लाने लगी, 'पूछे कोई इससे कि इतना दूध, मलाई, दही, मांस-मछली, कबूतर तिस पर 'धात-पुष्टई' दवा, तो अलान-ढेकान खा कर भी जिस 'मर्द' को आधी रात को हँफनी शुरु हो, उसका क्या कहा जाए? लोग 'दोख' देते हैं मेरे कोख को, कि रतनी बाँझ है। निमकहराम और किसको कहते हैं?'

मैं अब इसे मानसिक विकार मानने लगा हूँ। अब तक 'सामाजिक' समझ रहा था कि छोटी जात की औरत गाँव की मालकिन हुई है...।

नहीं, सामाजिक भी है। मेरे पट्टीदार के एक भाई ने कहा, 'कोई उसका क्या बिगाड़ सकता है। गाँव के सभी किस्म के चोर अर्थात लती-पती और सिन्नाजोर दिन डूबते ही उसके आँगन में जमा हो जाते हैं। इलाके का मशहूर डकैत परमेसरा रतनी की बात पर उठता-बैठता है। मुखिया और सरपंच रतनी की माँ के खिलाफ चूँ भी नहीं कर सकते। ...रतनी की माँ से कोई 'रार' मोल नहीं लेना चाहता इसीलिए, दिन-भर गाँव के हर टोले में दोनों घूम-घूम कर झगड़ा करती फिरती है। ...रतनी अकेली खस्सी (बकरे) को जिबह कर देती है, रतनी की माँ चोरी का माल खरीदती है - थाली-लोटा-गिलास...।'

सुबह को मालूम हुआ, शहर से आया हुआ मेरा प्रेस्टिज प्रेशर कुकर गायब है। दोपहर के बाद धोती गुम! रात में रमेसर की माँ फिसफिसा कर आँगन में कह रही थी - 'रतनी बोलती थी कि 'सिध' करके छोड़ेगी इस बार! ...उस दिन इस तरह पीठ दिखाना अच्छा नहीं हुआ शायद!'

और यह सब इसलिए कि मैंने रतनी के तथाकथित 'पुरुष' को बुला कर उसका पता-ठिकाना पूछा था, और उसको समझाया था कि गाँव में अब एक नई बात चल पड़ी है। उसने बीवी की मार सह ली - नतीजा यह हुआ है कि कई औरतों ने अपने घरवालों को पीटा इस गाँव में...।

रतनी ने चिल्ला-चिल्ला कर सारे गाँव के लोगों को सूचना देने के लहजे से सुनाया था, 'सुन लो हो लोगों! अब इस गाँव में फिर एक सेशन मोकदमा उठेगा सो जान लो। ई शहर का कानून यहाँ छाँटने आया है! कोई अपने घरवाले को लात मारे या 'चुम्मा' ले, दूसरा कोई बोलनेवाला कौन? देहात से ले कर शहर तक तो 'छुछुआते' फिरता है, काहे न कोई 'मौगी' मुँह में चुम्मा लेती है?'

मैं रोज हारता, रतनी रोज जीतती। मुझे स्वजनों ने सतर्क किया - साँझ होने के पहले ही मैदान से घर लौट आया करुँ। किसी ने शहर लौट जाने की सलाह दी। मुझे लगता, रोज ताल ठोक कर एक नंगी औरत-पहलवान मुझे चुनौती देती है। थप्पड़-घूँसे चलाती है। भागूँगा तो गाँव की सीमा के बाहर तक पीछे-पीछे फटा कनस्तर पीटती और बकरे की तरह 'बो बो बो बो' करती जाएगी, गाँव-भर के लोग तालियाँ बजा कर हँसेंगे।

मुझे हथियार डाल देना चाहिए। एक औरत, सो भी ऐसी औरत से टकराना बुद्धिमानी नहीं। एक सप्ताह तक चोरी-चपाटी करवाने के बाद एक नया उत्पात शुरु किया। रात-भर हमारे दरवाजे और आँगन में हड्डियों की 'बरखा' होती। ...नंगी औरत ताल ठोक कर ललकार रही है - मर्द का बेटा है तो मैदान में आ...!

मैदान में मुझे उतरना ही पड़ा। रात में नींद खुली। दरवाजे के सामने जो नया बाग हम लोगों ने लगाया है, उसमें भैंस का बच्चा घुस गया है, शायद! मैं धीरे-धीरे बाड़े के पास गया। पट्ट...!

अमलतास के कोमल पौधे को तोड़ कर, गुलमोहर की ओर बढ़ते हुए हाथ को मैंने 'खप्प' से पकड़ा। कलम-घिसाई के बावजूद पंजे की पकड़ में अब तक खम बचा हुआ था! ...'क्यों?' मैंने बहुत धीरे से पूछा।

'छोड़िए!' जवाब भी उसी अंदाज में मिला।

'क्यों तोड़ा है? क्या मिला? क्यों?'

'तोड़ा तो क्या कर लीजिएगा?'

'मैं लोगों को पुकारता हूँ।'

'खुद फँस जाइएगा। ...हाथ छोड़िए।'

'फँसा के देखो। मैं नहीं डरता हूँ।'

'क्या चाहते है आप?'

'मैं जानना चाहता हूँ कि तुम... तुम इस तरह मेरे पीछे क्यों पड़ी हो? इस पौधे को क्यों तोड़ा है?'

'वह तो पौधा ही है। जी तो आप को ही तोड़ देने को करता है। ...हाथ छोड़िए!'

मैंने देखा उसकी कनपटी पर एक साँप का फण - फण नहीं, भाला! बरछे की फली! मैंने हाथ छोड़ दिया। वह भागी नहीं, खड़ी रही। मुझे चुप और अवाक देख कर बोली, 'चिल्लाऊँ?'

'कोढ़ी डरावे थूक से!'

रतनी हँसी। तारों की रोशनी में उसकी हँसी झिलमिलाई।

'जाइए, थोड़ा 'ब्राँडिल' और चढ़ाइए!'

'तुम - तुम नैना जोगिन...!'

'हाँ, नैना जोगिन ही हूँ। तब? माधो बाबू... अब रतनी करीब सट आई, 'मेरा क्या कसूर है जो बारह साल से बनवास दिये हुए हैं आप लोग! उस बूढ़े को करनी का फल चखाया तो क्या बेजा किया? मैं उस समय उसकी पोती की उम्र की थी। ...सो, आप लोगों ने खासकर आप दोनों भाइयो ने हम लोगों को 'रंडी' से बदतर कर दिया। ...आखिर आपके जन्म के दिन रतनी की माँ ही सौर-घर में थी - पाँच साल तक आप रतनी की माँ की गोद और आँचर में रहे, और आप की आँख में जरा भी पानी नहीं। ...मै जवान हुई, आप लोगों ने आँख उठा कर कभी देखा नहीं कि आखिर गाँव-घर की एक लड़की ऐसी जवान हो गई और शादी क्यों नहीं होती? ...अब इस बार आए हैं तो कभी आपके मन में यह नहीं हुआ कि रतनी की शादी हुए ढाई साल हो रहे हैं और रतनी को कोई बच्चा क्यों न हुआ? अटना-पटना-दिल्ली-दरभंगा में आपके इतने डागडर-डागडरनी जान-पहचान के हैं - आखिर, रतनी के माँ का दूध साल-भर तक पिया है आपने। रतनी की माँ को बहुत दिन तक आपने माँ कहा था, लोगों को याद है। ...दूध का भी एक संबंध होता है।'

मैंने कहा, 'रतनी! रमेसर जग रहा है।...मैं कुछ नहीं समझता। तुम जाओ। कोई देख लेगा।'

'देख कर क्या कर लेगा?'

रतनी ने बेलाग-बेलौस एक अश्लील बात अँधेरे में, आग की तरह उगल दी - 'देख कर आपका 'अथि' और मेरा 'अथि' उखाड़ लेगा? ...बोलिए, मैं पापिन हूँ? मैं अछूत हूँ? रंडी हूँ? जो भी हूँ, आपकी हवेली में पली हूँ... तकदीर का फेर... माधो बाबू... रतनी नाम भी आपके ही बाबू जी का दिया है। आपने उसको बिगाड़ कर नैना जोगिन दिया! किस कसूर पर? आप लोगों का क्या बिगाड़ा था रतनी की माँ ने जो इस तरह बोल-चाल, उठ-बैठ एकदम बंद!'

मैंने धीरे से कहा, 'ऐसे गाँव में अब कोई भला आदमी कैसे रह सकता है?'

लगा, नागिन को ठेस लगी, फुफकार उठी - 'भला-आदमी? भला आदमी? भला आदमी को 'पूछ-सिंग' होता है?'

'नहीं होता है। इसीलिए...।'

पूछ-सिंग... जानवर... औरत-मर्द... नंगे... बेपर्द... अंधकार... प्रकाश... गुर्राहट... आँखों की चमक... बड़े-बड़े नाखून... बिल्ली... शिवा... गॄद्धासया... योनिस्या भगिनी... भोगिनी... महांकुश... स्वरूप... छिन्नमस्ता अट्टहास...!

अट्टहास सुन कर चौंका - रतनी कहाँ है? वह तो साक्षात नील सरस्वती थी!

इस बार गाँव में, गाँव के आसपास, यह खबर बहुत तेजी से फैली की नैना जोगिन का 'जोग' माधो बाबू पर खूब ठिकाने से लगा है! ...रमेसर की माँ को एक दिन खोई हुई चीजें टोकरी में मिलीं - घर में ही। रतनी ने माधो बाबू को 'भेड़ा' बनाया है तो माधो बाबू ने रतनी का 'विषदंत' उखाड़ दिया है। बोले तो एक भी गाली - गंदी या अच्छी?

रतनी और उसके नामर्द मर्द को मैं अपने साथ शहर लेता आया हूँ। डॉक्टर को अचरज होता है कि मैं रतनी के लिए इतना चिंतित क्यों हूँ! उन्हें कैसे समझाऊँ कि यदि रतनी को कोई बच्चा नहीं हुआ तो वह... वह मेरे बाग के हर पौधे तोड़ देगी, गाँव के सभी पेड़-पौधे को तोड़ देगी, गाँव के सभी लोगों को तोड़ेगी, गाँव में हड्डियाँ बरसावेगी, नंगी नाचेगी, अश्लील गालियाँ देती हुई सभी को ललकारेगी! वह साँवली-सलोनी लंबी स्वरुप पूर्ण यौवना नैना जोगिन! जाँच-पड़ताल के समय जब रतनी की लंबाई नापी जाती है, वजन लिया जाता है, पेट टटोला जाता है... तो... मेडिकल कॉलेज की लेडी स्टूडेंट्‌स से ले कर डॉक्टर तक हैरत से मुँह बाए रहते हैं!... औरत, ऐसी?

पाँच दिन हुए हैं, पड़ोस के मलहोत्रा साहब की नौकरानी को दो दिन वह फ्लैट के नीचे उठा कर फेंकने की धमकी दे चुकी है। ...शहर की सड़ी हुई गरमी को रोज पाँच अश्लील गालियाँ देती है!

उसका घरवाला गाँव लौटने को कुनमुनाता है तो वह घुड़क देती है... 'हाँ, जब आ गई हूँ तो यहाँ हो चाहे लहेरिया सराय, चाहे कलकत्ता... जहाँ से हो, कोख तो भरके ही लौटूँगी, गाँव तुमको जाना हो तो माधो बाबू टिकस कटा कर गाड़ी में बैठा देंगे। मैं किस मुँह से लौटूँगी खाली...?'

कोई जादू जानती है सचमुच रतनी!

कोई शब्द उसके मुँह में अश्लील नहीं लगता!

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बट बाबा

19 जुलाई 2022
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गाँव से सटे, सड़क के किनारे का वह पुराना वट-वृक्ष। इस बार पतझ्ड़ में उसके पत्ते जो झड़े तो लाल-लाल कोमल पत्तियों को कौन कहे, कोंपल भी नहीं लगे। धीरे-धीरे वह सूखतां गया और एकदम सूख गया-खड़ा ही खड़ा ।

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मन का रंग

19 जुलाई 2022
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मैं समझ गया, वह जो आदमी दो बार इस बेंच के आस-पास चक्कर लगाकर मेरे चेहरे को गौर से देखकर गया है न-वह मेरे पास ही आकर बैठेगा। बैठने से पहले मद्धिम आवाज में “कपट विनय” भरे शब्दों से मुझे जरा-सा खिसक जान

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रसप्रिया

19 जुलाई 2022
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धूल में पड़े कीमती पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई - अपरूप-रूप! चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पँचकौड़ी मिरदंगिया के मुँह से निकल पड़ा अपरूप-रूप! ....खेतों, मैंदानों, बाग-बगी

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रेखाएँ : वृत्तचक्र

19 जुलाई 2022
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ऊँहूँ। नहीं, यह सबकुछ भी नहीं सोचूँगा। मुझे ऐसा कुछ भी नहीं सोचना चाहिए, जिससे कि मेरा दिल कमजोर पड़ जाए। मेरा घाव जल्दी ही भर जाएगा, मैं चंगा हों जाऊँगा। मैं भी कैसा हूँ! मरने से डरता हूँ! मरने क

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लालपान की बेगम

19 जुलाई 2022
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'क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?' बिरजू की माँ शकरकंद उबाल कर बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थी अपने आँगन में। सात साल का लड़का बिरजू शकरकंद के बदले तमाचे खा कर आँगन में लोट-पोट कर सारी देह मे

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विकट संकट

19 जुलाई 2022
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दिग्विजय बाबू को जो लोग अच्छी तरह जानते-पहचानते हैं, वे यह कभी नहीं विश्वास करेंगे कि दिग्विजय उर्फ दिगो बाबू कभी क्रोध से पागल होकर सड़क पर, खाली देह और ऊँची आवाज में किसी को अश्लील गालियाँ दे सकते

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संकट

19 जुलाई 2022
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मैं यह नहीं कहता कि मेरा 'सिक्स्थ-सेंस” बहुत तेज है। आदमी को यह विशेष ज्ञान नहीं दिया है, प्रकृति ने। पशुओं में, कुत्ते की षष्ठेन्द्रिय बहुत सक्रिय होती है। मैं, आदमी होकर यह दावा कैसे कर सकता हूँ ?

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ईश्वर रे, मेरे बेचारे.

19 जुलाई 2022
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अपने संबंध में कुछ लिखने की बात मन में आते ही मन के पर्दे पर एक ही छवि 'फेड इन' हो जाया करती है : एक महान महीरुह... एक विशाल वटवृक्ष... ऋषि तुल्य, विराट वनस्पति! फिर, इस छवि के ऊपर 'सुपर इंपोज' होती ह

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अक्ल और भैंस

19 जुलाई 2022
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जब अखबारों में 'हरी क्रान्ति’ की सफलता और चमत्कार की कहानियाँ बार-बार विस्तारपूर्वक प्रकाशित होने लगीं, तो एक दिन श्री अगमलाल 'अगम’ ने भी शहर का मोह त्यागकर, खेती करने का फैसला कर लिया। गाँव में, उनके

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अभिनय

19 जुलाई 2022
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छन्दा ने जिस दिन घर-भर के लोगों के छप्पर - फोड़ ठहाके के बीच मुझे 'दादू” कहकर सम्बोधित किया, मैं थोड़ा अप्रतिभ हुआ था। मेरे (अकाल) परिपक्व केश के कारण ही छन्दा (जिसकी माँ मुझे देवर मानती है और जिसकी

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उच्चाटन

19 जुलाई 2022
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ठीक वही हुआ, उसी तरह शुरू हुआ, जैसा उसने सोचा था। बरसों से मन में गुनी हुई बात अक्षर-अक्षर फल गई। रात की गाड़ी से वह गाँव लौटा-दों साल के बाद। और “मरकट-महाजन' बूढ़े मिसर को रात में ही खबर मिल गई।

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एक आदिम रात्रि की महक

19 जुलाई 2022
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न ...करमा को नींद नहीं आएगी। नए पक्के मकान में उसे कभी नींद नहीं आती। चूना और वार्निश की गंध के मारे उसकी कनपटी के पास हमेशा चौअन्नी-भर दर्द चिनचिनाता रहता है। पुरानी लाइन के पुराने 'इस्टिसन' सब हजार

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कपड़घर

19 जुलाई 2022
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ग्यारह साल की सरकारी नौकरी से, गत माह मैंने इस्तीफा दे दिया है। परिस्थिति के चाप से-और स्वेच्छा से भी। सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट होकर बिरनियाँ जिला आया। ग्यारह साल तक सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट ही रहा। बिरनि

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कस्बे की लड़की

19 जुलाई 2022
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“लल्लन काका! दादाजी कह गए हैं कि लल्लन काका से कहना कि ऱरोज फुआ के साथ... !” लल्लन काका अर्थात्‌ प्रियव्रत ने अपनी भतीजी बन्दना उर्फ बून्दी को मद्धिम आवाज में डॉट बताई, “जा-जा! मालूम है जो कह गए हैं

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कुत्ते की आवाज़

19 जुलाई 2022
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मेरा गांव ऐसे इलाके में जहां हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की – कोशी, पनार, महानन्दा और गंगा की – बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं, सावन-भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरत

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जलवा

19 जुलाई 2022
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फातिमादि को कभी देखूँगा और इस तरह देखूँगा, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। इसलिए, कुछ देर तक 'पंटना-मार्केट” को स्वप्नलोक समझकर खोया - खोया - सा खड़ा रहा-जूते की दूकान पर । बुरके में सिर से पैर तक

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जैव

19 जुलाई 2022
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निर्मल ने मन्द-मन्द मुस्कुराती, कमरे में प्रवेश करती हुई-विभावती से पूछा-“क्यों क्या बात है ?” विभावती हँसती हुई बोली-“बात कया होगी ? बात जो होनी थी सो हो गई ।” विभा ने स्वामी के हाथ में आज की डाक

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ठेस

19 जुलाई 2022
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खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते। लोग उसको बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं। इसलिए, खेत-खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को। क्या होगा, उसको बुला कर? दूसरे

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तीन बिंदियाँ

19 जुलाई 2022
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गीताली दास अपने को सुरजीवी कहती है। नाद-सुर-ताल आदि के सहारे ही वह इस मंज़िल तक पहुँच सकी है। सभी कहते हैं, उसकी साधना सफल हुई है।…कितने भोले और बेचारे होते हैं लोग! साधना के सफल-अफसल होने की घोषणा करन

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धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे

19 जुलाई 2022
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भादों की रात। तुरत बारिस बन्द हुई है। मेढक टरटरा रहे हैं। साँप ने बेंग को पकड़ा है, बेंग की दर्द-भरी पुकार पर दिल में दया आने के बदले, भय मालूम होता है। आसपास की झाड़ियों में फैला हुआ अन्धकार और भी

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ना जाने केहि वेष में

19 जुलाई 2022
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उस दिन अखबार में अपने दैनिक राशिफल में देखा-आदि से अन्त तक हर जगह 'शुभ' और “लाभ' ही लिखा हुआ था। यात्रा : शुभ, अमृतयोग धनागम, राज्य-सम्मान तथा मित्र-लाभ ! पता नहीं, चार दिन के बाद राशिफल में कौन-सा

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नेपथ्य का अभिनेता

19 जुलाई 2022
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यद्यपि उसे पहले भी पच्चासों बार देख चुका हूँ, किन्तु उस दिन देखकर चिहुँक-सा उठा। चकित हो गया। लगा, जैसे बिना मौसम के कोई फूल या फल देख रहा होऊँ। सावन-भादों के किचकिच में, लगातार बारिश में ई कहाँ से

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प्राणों में घुले हुए रंग

19 जुलाई 2022
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शैशव की सुनहली स्मृति, नील-गगन में उड़ते हुए रंग-बिरंगे पतंगों और मनमोहक रंगीन खिलौनों के आकर्षण को मैं जान-बूझकर छोड़े देता। उन दिनों मैं स्वयं किन्ही की रंगीन आशाओं और कल्पनाओं का केन्द्र था! मेडि

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पंचलाईट

19 जुलाई 2022
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पिछले पन्द्रह दिनों से दंड-जुरमाने के पैसे जमा करके महतो टोली के पंचों ने पेट्रोमेक्स खरीदा है इस बार, रामनवमी के मेले में। गाँव में सब मिलाकर आठ पंचायतें हैं। हरेक जाति की अलग-अलग सभाचट्टी है। सभी पं

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पुरानी कहानी : नया पाठ

19 जुलाई 2022
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बंगाल की खाड़ी में डिप्रेशन - तूफान - उठा! हिमालय की किसी चोटी का बर्फ पिघला और तराई के घनघोर जंगलों के ऊपर काले-काले बादल मँडराने लगे। दिशाएँ साँस रोके मौन-स्तब्ध! कारी-कोसी के कछार पर चरते हुए पशु

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बीमारों की दुनिया में

19 जुलाई 2022
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बीरेन की जवानी में घुन लग गया। बुखार-100० 101० 102०,..। खाँसी-भीषण ! रोग-क्ष॑य के लक्षण। कथाकारों के नायक प्रायः क्षय ही से पीड़ित होते हैं। खून की के करते हैं। कथाकार इस रोग को “रोमांटिक” रोग समझ

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रखवाला

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रक्त की प्यासी सभ्य दुनिया से दूर-बहुत-दूर-हिमायल के एक पहाड़ी गावं का अंचल। छोटा-सा झोंपड़ा। पहाड़ी की ओट से छनकर आती हुई सूर्य की किरणों में छोटा-सा सरकंडे का झोंपड़ा सोने के झोंपड़े की तरह चमक रहा था।

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रसूल मिसतिरी

19 जुलाई 2022
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बहुत कम अर्से में ही इस छोटे-से गँवारू शहर में काफी परिवर्तन हो गए हैं। आशा से अधिक और शायद आवश्यकता से भी अधिक। स्कूल और होस्टल की भव्य इमारत को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि आज से महज आठ स

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लफड़ा

19 जुलाई 2022
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उस बार 'युनिट” के 'प्रोडक्शन मैनेजर” ने मेरे ठहरने की व्यवस्था “दि डायना गेस्ट हाउस' में की थी। इसके पहले मुझे खार स्टेशन के पास 'होटल सदाबहार! में टिकाया जाता था। इसलिए, नई जगह के बारे में तरह-तरह

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वंडरफुल स्टुडियो

19 जुलाई 2022
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फोटो तो अपने दर्जनों पोज में उतारे हुए अलबम में पड़े हैं, फ्रेम में मढ़े हुए अपने तथा दोस्तों के कमरों में लटक रहे हैं और एक जमाने में, यानी दो-तीन साल पहले, उन तस्‍वीरों को देखकर मुझे पहचाना भी जा सक

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विघटन के क्षण

19 जुलाई 2022
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रानीडिह की ऊँची जमीन पर - लाल माटीवाले खेत में-अक्षत-सिन्दूर बिखरे हुए हैं  हजारों गौरैया-मैना सूरज की पहली किरण फूटने के पहले ही खेत के बीच में 'कचर-पचर' कर रही हैं। बीती हुई रात के तीसरे पहर तक, ज

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संवदिया

19 जुलाई 2022
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हरगोबिन को अचरज हुआ - तो, आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस जमाने में, जबकि गांव गांव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज

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जै गंगा

19 जुलाई 2022
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जै गंगा ... इस दिन आधी रात को 'मनहरना’ दियारा के बिखरे गांवों और दूर दूर के टोलों में अचानक एक सम्मिलित करूण पुकार मची, नींद में माती हुई हवा कांप उठी – 'जै गंगा मैया की जै...’ !! अंधेरी रात में गंग

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