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एक आदिम रात्रि की महक

19 जुलाई 2022

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न ...करमा को नींद नहीं आएगी।

नए पक्के मकान में उसे कभी नींद नहीं आती। चूना और वार्निश की गंध के मारे उसकी कनपटी के पास हमेशा चौअन्नी-भर दर्द चिनचिनाता रहता है। पुरानी लाइन के पुराने 'इस्टिसन' सब हजार पुराने हों, वहाँ नींद तो आती है।...ले, नाक के अंदर फिर सुड़सुड़ी जगी ससुरी...!

करमा छींकने लगा। नए मकान में उसकी छींक गूँज उठी।

'करमा, नींद नहीं आती?' 'बाबू' ने कैंप-खाट पर करवट लेते हुए पूछा।

गमछे से नथुने को साफ करते हुए करमा ने कहा - 'यहाँ नींद कभी नहीं आएगी, मैं जानता था, बाबू!'

'मुझे भी नींद नहीं आएगी,' बाबू ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा - 'नई जगह में पहली रात मुझे नींद नहीं आती।'

करमा पूछना चाहता था कि नए 'पोख्ता' मकान में बाबू को भी चूने की गंध लगती है क्या? कनपटी के पास दर्द रहता है हमेशा क्या?...बाबू कोई गीत गुनगुनाने लगे। एक कुत्ता गश्त लगाता हुआ सिगनल-केबिन की ओर से आया और बरामदे के पास आ कर रुक गया। करमा चुपचाप कुत्ते की नीयत को ताड़ने लगा। कुत्ते ने बाबू की खटिया की ओर थुथना ऊँचा करके हवा में सूँघा। आगे बढ़ा। करमा समझ गया - जरूर जूता-खोर कुत्ता है, साला!... नहीं, सिर्फ सूँघ रहा था। कुत्ता अब करमा की ओर मुड़ा। हवा सूँघने लगा। फिर मुसाफिरखाने की ओर दुलकी चाल से चला गया।

बाबू ने पूछा - 'तुम्हारा नाम करमा है या करमचंद या करमू?'

...सात दिन तक साथ रहने के बाद, आज आधी रात के पहर में बाबू ने दिल खोल कर एक सवाल के जैसा सवाल किया है।

'बाबू, नाम तो मेरा करमा ही है। वैसे लोगों के हजार मुँह हैं, हजार नाम कहते हैं।...निताय बाबू कोरमा कहते थे, घोस बाबू करीमा कह कर बुलाते थे, सिंघ जी ने ब दिन कामा ही कहा और असगर बाबू तो हमेशा करम-करम कहते थे। खुश रहने पर दिल्लगी करते थे - हाय मेरे करम!...नाम में क्या है, बाबू? जो मन में आए कहिए। हजार नाम...!'

'तुम्हारा घर संथाल परगना में है, या राँची-हजारीबाग की ओर?'

करमा इस सवाल पर अचकचाया, जरा! ऐसे सवालों के जवाब देते समय वह रमते जोगी की मुद्रा बना लेता है। 'घर? जहाँ धड़, वहाँ घर। माँ-बाप-भगवान जी!'...लेकिन, बाबू को ऐसा जवाब तो नहीं दे सकता!

...बाबू भी खूब हैं। नाम का 'अरथ' निकाल कर अनुमान लगा लिया - घर संथाल परगना या राँची-हजारीबाग की ओर होगा, किसी गाँव में? करमा-पर्व के दिन जन्म हुआ होगा, इसीलिए नाम करमा पड़ा। माथा, कपाल, होंठ और देह की गठन देख कर भी...।

...बाबू तो बहुत 'गुनी' मालुम होते हैं। अपने बारे में करमा को कुछ मालुम नहीं। और बाबू नाम और कपाल देख कर सब कुछ बता रहे हैं। इतने दिन के बाद एक बाबू मिले हैं, गोपाल बाबू जैसे!

करमा ने कहा - 'बाबू, गोपाल बाबू भी यही कहते थे! यह 'करमा' नाम तो गोपाल बाबू का ही दिया हुआ है!'

करमा ने गोपाल बाबू का किस्सा शुरु किया - '...गोपाल बाबू कहते थे, आसाम से लौटती हुई कुली-गाड़ी में एक 'डोको' के अंदर तू पड़ा था, बिना 'बिलटी-रसीद' के ही...लावारिस माल।'

...चलो, बाबू को नींद आ गई। नाक बोलने लगी। गोपाल बाबू का किस्सा अधूरा ही रह गया।

...कुतवा फिर गश्त लगाता हुआ आया। यह कातिक का महीना है न! ससुरा पस्त हो कर आया है। हाँफ रहा है।...ले, तू भी यहीं सोएगा? ऊँह! साले की देह की गंध यहाँ तक आती है - धेत! धेत!

बाबू ने जग कर पूछा, 'हूँ-ऊ-ऊ! तब क्या हुआ तुम्हारे गोपाल बाबू का?'

कुत्ता बरामदे के नीचे चला गया। उलट कर देखने लगा। गुर्राया। फिर, दो-तीन बार दबी हुई आवाज में 'बुफ-बुफ' कर जनाने मुसाफिरखाने के अंदर चला गया, जहाँ पैटमान जी सोता है।

'बाबू, सो गए क्या?'

…चलो, बाबू को फिर नींद आ गई ! बाबू की नाक ठीक 'बबुआनी आवाज' में ही 'डाकती' है!...पैटमान जी तो, लगता है, लकड़ी चीर रहे हैं! - गोपाल बाबू की नाक बीन-जैसी बजती थी - सुर में!!...असगर बाबू का खर्राटा...सिंघ जी फुफकारते थे और साहू बाबू नींद में बोलते थे - 'ए, डाउन दो, गाड़ी छोड़ा...!'

...तार की घंटी! स्टेशन का घंटा! गार्ड साहब की सीटी! इंजिन का बिगुल! जहाज का भोंपो! - सैकडों सीटियाँ...बिगुल...भोंपा...भों-ओं-ओं-ओं...!

- हजार बार, लाख बार कोशिश करके भी अपने को रेल की पटरी से अलग नहीं कर सका, करमा। वह छटपटाया। चिल्लाया, मगर जरा भी टस-से-मस नहीं हुई उसकी देह। वह चिपका रहा। धड़धड़ाता हुआ इंजिन गरदन और पैरों को काटता हुआ चला गया। ...लाइन के एक ओर उसका सिर लुढ़का हुआ पड़ा था, दूसरी ओर दोनों पैर छिटके हुए! उसने जल्दी से अपने कटे हुए पैरों को बटोरा - अरे, यह तो एंटोनी 'गाट' साहब के बरसाती जूते का जोड़ा है! गम-बूट!...उसका सिर क्या हुआ?..धेत,धेत! ससुरा नाक-कान बचा रहा...!

'करमा!'

- धेत-धेत!

'उठ करमा, चाय बना?'

करमा धड़फड़ा कर उठ बैठा।...ले, बिहान हो गया। मालगाड़ी को 'थुरु-पास' करके, पैटमान जी हाथ में बेंत की कमानी घुमाता हुआ आ रहा है। ...साला! ऐसा भी सपना होता है, भला? बारह साल में, पहली बार ऐसा अजूबा सपना देखा करमा ने। बारह साल में एक दिन के लिए भी रेलवे-लाइन से दूर नहीं गया, करमा। इस तरह 'एकसिडंटवाला सपना' कभी नहीं देखा उसने!

करमा रेल-कंपनी का नौकर नहीं। वह चाहता तो पोटर, खलासी पैटमान या पानी पाँडे़ की नौकरी मिल सकती थी। खूब आसानी से रेलवे-नौकरी में 'घुस' सकता था। मगर मन को कौन समझाए! मन माना नहीं। रेल-कंपनी का नीला कुर्ता और इंजिन-छाप बटन का शौक उसे कभी नहीं हुआ!

रेल-कंपनी क्या, किसी की नौकरी करमा ने कभी नहीं की। नामधाम पूछने के बाद लोग पेशे के बारे में पूछते हैं। करमा जवाब देता है - 'बाबू के 'साथ' रहते हैं।'...एक पैसा भी मुसहरा न लेनेवालों को 'नौकर' तो नहीं कह सकते!

...गोपाल बाबू के साथ, लगातार पाँच वर्ष! इसके बाद कितने बाबुओं के साथ रहा, यह गिन कर कर बतलाना होगा! लेकिन, एक बात है - 'रिलिफिया बाबू' को छोड़ कर किसी 'सालटन बाबू' के साथ वह कभी नहीं रहा। ...सालटन बाबू माने किसी 'टिसन' में 'परमानंटी' नौकरी करनेवाला - फैमिली के साथ रहनेवाला!

...जा रे गोपाल बाबू! वैसा बाबू अब कहाँ मिले? करमा का माय-बाप, भाय-बहिन, कुल-परिवार जो बूझिए - सब एक गोपाल बाबू!...बिना 'बिलटी-रसीद' का लावारिस माल था, करमा। रेलवे अस्पताल से छुड़ा कर अपने साथ रखा गोपाल बाबू ने।जहाँ जाते, करमा साथ जाता। जो खाते, करमा भी खाता। ...लेकिन आदमी की मति को क्या कहिए! रिलिफिया काम छोड़ कर सालटानी काम में गए। फिर, एक दिन शादी कर बैठे। ...बौमा ...गोपाल बाबू की 'फैमली' - राम-हो-राम! वह औरत थी? साच्छात चुड़ैल! ...दिन-भर गोपाल बाबू ठीक रहते। साँझ पड़ते ही उनकी जान चिड़िया की तरह 'लुकाती' फिरती।...आधी रात को कभी-कभी 'इसपेसल' पास करने के लिए बाबू निकलते। लगता, अमरीकन रेलवे-इंजिन के 'बायलर' में कोयला झोंक कर निकले हैं। ...करमा 'क्वाटर' के बरामदे पर सोता था। तीन महीने तक रात में नींद नहीं आई, कभी। ...बौमा 'फों-फों' करती - बाबू मिनमिना कुछ बोलते। फिर शुरु होता रोना-कराहना, गाली-गलौज, मारपीट। बाबू भाग कर बाहर निकलते और वह औरत झपट कर माथे का केश पकड़ लेती। ...तब करमा ने एक उपाय निकाला। ऐसे समय में वह उठ कर दरवाजा खटखटा कर कहता - 'बाबू, 'इसपेशल' का 'कल' बोलता है...।' बाबू की जान कितने दिनों तक बचाता करमा? ...बौमा एक दिन चिल्लाई - 'ए छोकरा हरामजदा के दूर करो। यह चोर है, चो-ओ-ओ-र!'

...इसके बाद से ही किसी 'टिसन' के फैमिली क्वाटर को देखते ही करमा के मन में एक पतली आवाज गूँजने लगती है - चो-ओ-ओ-र! हरामजदा! फैमिली क्वाटर ही क्यों - जनाना मुसाफिरखाना, जनाना दर्जा, जनाना... जनाना नाम से ही करमा को उबकाई आने लगती है।

...एक ही साल में गोपाल बाबू को 'हाड़-गोड़' सहित चबा कर खा गई, वह जनाना! फूल-जैसे सुकुमार गोपाल बाबू! जिंदगी में पहली बार फूट-फूट कर रोया था, करमा।

...रमता-जोगी, बहता-पानी और रिलिफिया बाबू! हेड-क्वाटर में चौबीस घंटे हुए कि 'परवाना' कटा - फलाने टिशन का मास्टर बीमार है, सिक-रिपोट आया है। तुरंत 'जोआएन' करो।...रिलिफिया बाबू का बोरिया-बिस्तर हमेशा 'रेडी' रहना चाहिए। कम-से-कम एक सप्ताह रिलिफिया बाबू। ...लकड़ी के एक बक्से में सारी गुहस्थी बंद करके - आज यहाँ, कल वहाँ।...पानीपाड़ा से भातगाँव, कुरैहा से रौताड़ा। पीर, हेड-क्वाटर, कटिहार! ...गोपाल बाबू ने ही घोस बाबू के साथ लगा दिया था - 'खूब भालो बाबू। अच्छी तरह रखेगा। लेकिन, घोस बाबू के साथ एक महीना से ज्यादा नहीं रह सका, करमा। घोस बाबू की बेवजह गाली देने की आदत! गाली भी बहुत खराब-खराब! माँ-बहन की गाली।...इसके अलावा घोस बाबू में कोई ऐब नहीं था। अपने 'समांग' की तरह रखते थे। ...घोस बाबू आज भी मिलते हैं तो गाली से ही बात शुरु करते हैं - 'की रे...करमा? किसका साथ में हैं आजकल मादर्च...?'

घोस बाबू को माँ-बहन की गाली देनेवाला कोई नहीं। नहीं तो समझते कि माँ-बहन की गाली सुन कर आदमी का खून किस तरह खौलने लगता है। किसी भले आदमी को ऐसी खराब गाली बकते नहीं सुना है करमा ने, आज तक।

...राम बाबू की सब आदत ठीक थी। लेकिन - भा-आ-री 'इस्की आदमी।' जिस टिसन में जाते, पैटमान-पोटर-सूपर को एकांत में बुला कर घुसर-फुसर बतियाते। फिर रात में कभी मालगोदाम की ओर तो कभी जनाना मुसाफिरखाना में, तो कभी जनाना-पैखाना में...छिः-छिः...जहाँ जाते छुछुआते रहते - 'क्या जी, असल-माल-वाल का कोई जोगाड़ जंतर नहीं लगेगा?'...आखिर वही हुआ जो करमा ने कहा था - 'माल' ही उनका 'काल' हुआ। पिछले साल, जोगबनी-लाइन में एक नेपाली ने खुकरी से दो टुकड़ा काट कर रख दिया। और उड़ाओ माल! ...जैसी अपनी इज्जत वैसी पराई !

...सिंघ जी भारी 'पुजेगरी'! सिया सहित राम-लछमन की मूर्ति हमेशा उनकी झोली में रहती थी। रोज चार बजे भोर से ही नहा कर पूजा की घंटी हिलाते रहते। इधर 'कल' की घंटी बजती। ...जिस घर में ठाकुर जी की झोली रहती, उसमें बिना नहाए कोई पैर भी नहीं दे सकता। ...कोई अपनी देह को उस तरह बाँध कर हमेशा कैसे रह सकता है? कौन दिन में दस बार नहाए और हजार बार पैर धोए! सो भी, जाड़े के मौसम में! ...जहाँ कुछ छुओ कि हूँहूँहूँ-हाँहाँहाँ-अरेरेरे-छू दिया न? ...ऐसे छुतहा आदमी को रेल-कंपनी में आने की क्या जरुरत? ...सिंघ जी का साथ नहीं निभ सका।

...साहू बाबू दरियादिल आदमी थे। मगर मदक्की ऐसे कि दिन-दोपहर को पचास-दारु एक बोतल पी कर मालगाड़ी को 'थुरुपास' दे दिया और गाड़ी लड़ गई। करमा को याद है, 'एकसिडंट' की खबर सुन कर साहू बाबू ने फिर एक बोतल चढ़ा लिया। ...आखिर डॉक्टर ने दिमाग खराब होने का 'साटिफिटिक' दे दिया।

...लेकिन, उस 'एकसिडंट' के समय भी किसी रात को करमा ने ऐसा सपना नहीं देखा!

...न ...भोर-भार ऐसी कुलच्छन-भरी बात बाबू को सुना कर करमा ने अच्छा नहीं किया। रेलवे की नौकरी में अभी तुरत 'घुसवै' किए हैं।

...न...बाबू के मिजाज का टेर-पता अब तक करमा को नहीं मिला है। करीब एक सप्ताह तक साथ में रहने के बाद, कल रात में पहली बार दिल खोल कर दो सवाल-जवाब किया बाबू ने। इसीलिए, सुबह को करमा ने दिल खोल कर अपने सपने की बात शुरु की थी। चाय की प्याली सामने रखने के बाद उसने हँस कर कहा - 'हँह बाबू, रात में हम एक अ-जू-ऊ-ऊ-बा सपना देखा। धड़धड़ाता इंजिन... लाइन पर चिपकी हमारी देह टस-से-मस- नहीं... सिर इधर और पैर लाइन के उधर... एंटोनी गाट साहब के बरसाती जूते का जोड़ा... गमबोट...!'

'धेत! क्या बेसिर-पैर की बात करते हो, सुबह-सुबह? गाँजा-वाँजा पीता है क्या?'

...करमा ने बाबू को सपने की बात सुना कर अच्छा नहीं किया।

करमा उठ कर ताखे पर रखे हुए आईने में अपना मुँह देखने लगा। उसने 'अ-जू-ऊ-ऊ-बा' कह कर देखा। छिः उसके होंठ तीतर की चोच की तरह...।

'का करमचन? का बन रहा है?'

...पानी पाँड़े भला आदमी है। पुरानी जान-पहचान है इससे, करमा की। कई टिसन में संगत हुआ हैं। लेकिन, यह पैटमान 'लटपटिया' आदमी मालूम होता है। हर बात में पुच-पुच कर हँसनेवाला।

'करमचन, बाबू कौन जाती के हैं?'

'क्यों? बंगाली हैं।'

'भैया, बंगाली में भी साढ़े-बारह बरन के लोग होते है।'

पानी पाँड़े जाते-जाते कह गया, 'थोड़ी तरकारी बचा कर रखना, करमचन!'

...घर कहाँ? कौन जाति? मनिहारी घाट के मस्ताना बाबा का सिखाया हुआ जवाब, सभी जगह नहीं चलता - हरि के भजे सो हरी के होई! मगर, हरि की भी जाति थी! ...ले, यह घटही-गाड़ी का इंजन कैसे भेज दिया इस लाइन में आज? संथाली-बाँसी जैसी पतली सीटी-सी-ई-ई!!

...ले, फक्का! एक भी पसिंजर नहीं उतरा, इस गाड़ी से भी। काहे को इतना खर्चा करके रेल-कंपनी ने यहाँ टिसन बनाया, करमा के बुद्धि में नहीं आता। फायदा? बस, नाम ही आदमपुरा है - आमदनी नदारद। सात दिन में दो टिकट कटे हैं और सिर्फ पाँच पासिंजर उतरे हैं, तिसमें दो बिना टिकट के। ...इतने दिन के बाद पंद्रह बोरा बैंगन उस दिन बुक हुआ। पंद्रह बैंगन दे कर ही काम बना लिया, उस बूढ़े ने।...उस बैंगनवाले की बोली-बानी अजीब थी। करमा से खुल कर गप करना चाहता था बूढ़ा। घर कहाँ है? कौन जाति? घर में कौन-कौन हैं? ...करमा ने सभी सवालों का एक ही जवाब दिया था - ऊपर की ओर हाथ दिखला कर! बूढ़ा हँस पड़ा था। ...अजीब हँसी!

...घटही-गाड़ी! सी-ई-ई-ई!!

करमा मनिहारीघाट टिसन में भी रहा है, तीन महीने तक एक बार, एक महीना दूसरी बार। ...मनिहारीघाट टिसन की बात निराली है। कहाँ मनिहारीघाट और कहाँ आदमपुरा का यह पिद्दी टिसन!

...नई जगह में, नए टिसन में पहुँच कर आसपास के गाँवों में एकाध चक्कर घुमे-फिरे बिना करमा को न जाने 'कैसा-कैसा' - लगता है। लगता है, अंध-कूप में पड़ा हुआ है। ...वह 'डिसटन-सिंगल' के उस पार दूर-दूर तक खेत फैले हैं। ...वह काला जंगल ...ताड़ का वह अकेला पेड़ ...आज बाबू को खिला-पिला कर करमा निकलेगा। इस तरह बैठे रहने से उसके पेट का भात नहीं पचेगा। ...यदि गाँव-घर और खेत मैदान में नहीं घूमता-फिरता, तो वह पेड़ पर चढ़ना कैसे सीखता? तैरना कहाँ सीखता?

...लखपतिया टिसन का नाम कितना 'जब्बड़' है! मगर टिसन पर एक 'सत्तू-फरही' की भी दुकान नहीं। आसपास में, पाँच कोस तक कोई गाँव नहीं। मगर, टिसन से पूरब जो दो पोखरे हैं, उन्हें कैसे भूल सकता है करमा? आईना की तरह झलमलाता हुआ पानी। ...बैसाख महीने की दोपहरी में, घंटो गले-भर पानी में नहाने का सुख! मुँह से कह कर बताया नहीं जा सकता!

...मुदा, कदमपुरा - सचमुच कदमपुरा है। टिसन से शुरु करके गाँव तक हजारों कदम के पेड़ हैं। ...कदम की चटनी खाए एक युग हो गया!

...वारिसगंज टिसन, बीच कस्बा में है। बड़े-बड़े मालगोदाम, हजारों गाँठ-पाट, धान-चावल के बोरे, कोयला-सीमेंट-चूना की ढेरी! हमेशा हजारों लोगों की भीड़! करमा को किसी का चेहरा याद नहीं। ...लेकिन टिसन से सटे उत्तर की ओर मैदान में तंबू डाल कर रहनेवाले गदहावाले मगहिया डोमों की याद हमेशा आती है। ...घाघरीवाली औरतें, हाथ में बड़े-बड़े कड़े, कान में झुमके ...नंगे बच्चे, कान में गोल-गोल कुंडलवाले मर्द! ...उनके मुर्गे! उनके कुत्ते!

...बथनाह टिसन के चारों ओर हजार घर बन गए हैं। कोई परतीत करेगा कि पाँच साल पहले बथनाह टिसन पर दिन-दोपहर को टिटही बोलती थी।

...कितनी जगहों, कितने लोगों की याद आती है! ...सोनबरसा के आम ...कालूचक की मछलियाँ ...भटोतर की दही ...कुसियारगाँव का ऊख!

...मगर सबसे ज्यादा आती है मनिहारीघाट टिसन की याद। एक तरफ धरती, दूसरी ओर पानी। इधर रेलगाड़ी, उधर जहाज। इस पार खेत-गाँव-मैदान, उस पार साहेबगंज-कजरोटिया का नीला पहाड़। नीला पानी - सादा बालू! ...तीन एक, चार-चार महीने तक तीसों दिन गंगा में नहाया है, करमा। चार 'जनम तक' पाप का कोई असर तो नहीं होना चाहिए! इतना बढ़िया नाम शायद ही किसी टिसन का होगा - मनीहार। ...बलिहारी! मछुवे जब नाव से मछलियाँ उतारते तो चमक के मारे करमा की आँखे चौंधिया जातीं।

...रात में, उधर जहाज चला जाता - धू-धू करता हुआ। इधर गाड़ी छकछकाती हुई कटिहार की ओर भागती। अजू साह की दुकान की 'झाँपी' बंद हो जाती। तब घाट पर मस्तानबाबा की मंडली जुटती।

...मस्तानबाबा कुली-कुल के थे। मनिहारीघाट पर ही कुली का काम करते थे। एक बार मन ऐसा उदास हो गया कि दाढ़ी और जटा बढ़ा कर बाबा जी हो गए। खंजड़ी बजा कर निरगुन गाने लगे। बाबा कहते - 'घाट-घाट का पानी पी कर देखा - सब फीका। एक गंगाजल मीठा...।' बाबा एक चिलम गाँजा पी कर पाँच किस्सा सुना देते। सब बेद-पुरान का किस्सा! करमा ने ग्यान की दो-चार बोली मनिहारीघाट पर ही सीखीं। मस्तानबाबा के सत्संग में। लेकिन, गाँजा में उसने कभी दम नहीं लगाया। ...आज बाबू ने झुँझला कर जब कहा, 'गाँजा-वाँजा पीते हो क्या' - तो करमा को मस्तानबाबा की याद आई। बाबा कहते - हर जगह की अपनी खुशबू-बदबू होती है! ...इस आदमपुरा की गंध के मारे करमा को खाना-पीना नहीं रुचता।

...मस्तानबाबा को बाद दे कर मनिहारीघाट की याद कभी नहीं आती।

करमा ने ताखे पर रखे आईने में फिर अपना मुखड़ा देखा। उसने आँखे अधमुँदी करके दाँत निकाल कर हँसते हुए मस्तानबाबा के चेहरे की नकल उतारने की चेष्टा की - 'मस्त रहो! ...सदा आँख-कान खोल कर रहो। ...धरती बोलती है। गाछ-बिरिच्छ भी अपने लोगों को पहचानते हैं। ...फसल को नाचते-गाते देखा है, कभी? रोते सुना है कभी अमावस्या की रात को? है...है...है - मस्त रहो...।'

...करमा को क्या पता कि बाबू पीछे खड़े हो कर सब तमाशा देख रहे हैं। बाबू ने अचरज से पूछा, 'तुम जगे-जगे खड़े हो कर भी सपना देखता है? ...कहता है कि गाँजा नहीं पीता?'

सचमुच वह खड़ा-खड़ा सपना देखने लगा था। मस्तानबाबा का चेहरा बरगद के पेड़ की तरह बड़ा होता गया। उसकी मस्त हँसी आकाश में गूँजने लगी! गाँजे का धुआँ उड़ने लगा। गंगा की लहरे आईं। दूर, जहाज का भोंपा सुनाई पड़ा - भों-ओं-ओं!

बाबू ने कहा, 'खाना परोसो। देखूँ, क्या बनाया है? तुमको लेकर भारी मुश्किल है...।'

मुँह का पहला कौर निगल कर बाबू करमा का मुँह ताकने लगे, 'लेकिन, खाना तिओ बहोत बढ़िया बनाया है!'

खाते-खाते बाबू का मन-मिजाज एकदम बदल गया। फिर रात की तरह दिल खोल कर गप करने लगे, 'खाना बनाना किसने सिखलाया तुमको? गोपाल बाबू की घरवाली ने?'

...गोपाल बाबू की घरवाली? माने बौमा? वह बोला, 'बौमा का मिजाज तो इतना खट्टा था कि बोली सुन कर कड़ाही का ताजा दूध फट जाए। वह किसी को क्या सिखावेगी? फूहड़ औरत?'

'और यह बात बनाना किसने सिखलाया तुमको?'

करमा को मस्तान बाबा की 'बानी' याद आई, 'बाबू,सिखलाएगा कौन? ...सहर सिखाए कोतवाली!'

'तुम्हारी बीबी को खूब आराम होगा!'

बाबू का मन-मिजाज इसी तरह ठीक रहा तो एक दिन करमा मस्तानबाबा का पूरा किस्सा सुनाएगा।

'बाबू, आज हमको जरा छुट्टी चाहिए।'

'छुट्टी! क्यों? कहाँ जाएगा?'

करमा ने एक ओर हाथ उठाते हुए कहा, 'जरा उधर घूमने-फिरने...।'

पैटमान जी ने पुकार कर कहा, 'करमा! बाबू को बोलो, 'कल' बोलता है।'

...तुम्हारी बीबी को खूब आराम होगा! ...करमा की बीबी! वारीसगंज टिसन ...मगहिया डोमो के तंबू ...उठती उमेरवाली छौंड़ी ...नाक में नथिया ...नाक और नथिया में जमे हुए काले मैले ...पीले दाँतो में मिस्सी!!

करमा अपने हाथ का बना हुआ हलवा-पूरी उस छौंड़ी को नहीं खिला सका। एक दिन कागज की पुड़िया में ले गया। लेकिन वह पसीने से भीग गया। उसकी हिम्मत ही नहीं हुई। ...यदि यह छौंड़िया चिल्लाने लगे कि तुम हमको चुरा-छिपा कर हलवा काहे खिलाता है? ...ओ, मइयो-यो-यो-यो-यो-यो...!!

...बाबू हजार कहें, करमा का मन नहीं मानता कि उसका घर संथाल-परगना या राँची की ओर कहीं होगा। मनिहारीघाट में दो-दो बार रह आया है, वह। उस पार के साहेबगंज-कजरौटिया के पहाड़ ने उसको अपनी ओर नहीं खींचा कभी! और वारिसगंज, कदमपुरा, कालूचक, लखपतिया का नाम सुनते ही उसके अंदर कुछ झनझना उठता है। जाने-पहचाने, अचीन्हे, कितने लोगों के चेहरों की भीड़ लग जाती है! कितनी बातें सुख-दुख की! खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, नदी-पोखरे, चिरई-चुरमुन-सभी एक साथ टानते हैं, करमा को!

...सात दिन से वह काला जंगल और ताड़ का पेड़ उसको इशारे से बुला रहे है। जंगल के ऊपर आसमान में तैरती हुई चील आ कर करमा को क्यों पुकार जाती है? क्यों?

रेलवे-हाता पार करने के बाद भी जब कुत्ता नहीं लौटा तो करमा ने झिड़की दी, 'तू कहाँ जाएगा ससुर? जहाँ जाएगा झाँव-झाँव करके कुत्ते दौड़ेंगे। ...जा! भाग! भाग!!'

कुत्ता रुक कर करमा को देखने लगा। धनखेतों से गुजरनेवाली पगडंडी पकड़ कर करमा चल रहा है। धान की बालियाँ अभी फूट कर निकली नहीं हैं। ...करमा को हेडक्वाटर के चौधरी बाबू की गर्भवती घरवाली की याद आई। सुना है, डॉक्टैरनी ने अंदर का फोटो ले कर देखा है - जुड़वाँ बच्चा है पेट में!

...इधर, 'हथिया-नच्छत्तर अच्छा 'झरा' था। खेतों में अभी भी पानी लगा हुआ है। ...मछली?

...पानी में माँगुर मछलियों को देख कर करमा की देह अपने-आप बँध गई। वह साँस रोक कर चुपचाप खड़ा रहा। फिर धीरे-धीरे खेत की मेंड़ पर चला गया। मछलियाँ छलमलाईं। आईने की तरह थिर पानी अचानक नाचने लगा। ...करमा कया करे? ...उधर की मेंड़ से सटा कर एक 'छेंका' दे कर पानी को उलीच दिया जाए तो...?

...हैहै-हैहै! साले! बन का गीदड़, जाएगा किधर? और छ्लमलाओ! ...अरे, काँटा करमा को क्या मारता है? करमा नया शिकारी नहीं।

आठ माँगुर और एक गहरी मछली! सभी काली मछलियाँ! कटिहार हाट में इसी का दाम बेखटके तीन रुपयो ले लेता। ...कर्मा ने गमछे में मछलियों को बाँध लिया। ऐसा 'संतोख' उसको कभी नहीं हुआ, इसके पहले। बहुत-बहुत मछली का शिकार किया उसने!

एक बूढ़ा भैंसवार मिला जो अपनी भैंस को खोज रहा था, 'ए भाय! उधर किसी भैंस पर नजर पड़ी है?'

भैंसवार ने करमा से एक बीड़ी माँगी। उसको अचरज हुआ - कैसा आदमी है, न बीड़ी पीता है, न तंबाकू खाता है। उसने नाराज हो कर जिरह शुरु किया, 'इधर कहाँ जाना है? गाँव में तुम्हारा कौन है? मछली कहाँ ले जा रहे हो?'

...ताड़ का पेड़ तो पीछे की ओर घसकता जाता है! करमा ने देखा, गाँव आ गया। गाँव में कोई तमाशावाला आया है। बच्चे दौड़ रहे हैं। हाँ, भालू वाला ही है। डमरु की बोली सुन कर करमा ने समझ लिया था।

...गाँव की पहली गंध! गंध का पहला झोंका!

...गाँव का पहला आदमी। यह बूढ़ा गोबी को पानी से पटा रहा है। बाल सादा हो गए हैं, मगर पानी भरते समय बाँह में जवानी ऐंठती है! ...अरे, यह तो वही बूढ़ा है जो उस दिन बैंगन बुक कराने गया था और करमा से घुल-मिल कर गप करना चाहता था। करमा से खोद-खोद कर पूछता था - माय-बाप है नहीं या माय-बाप को छोड़ भाग आए हो? ...ले, उसने भी करमा को पहचान लिया!

'क्या है, भाई! इधर किधर?'

'ऐसे ही। घूमने-फिरने! ...आपका घर इसी गाँव में है?'

बूढ़ा हँसा। घनी मूँछें खिल गई। ...बूढ़ा ठीक सत्तो बाबू टीटी के बाप की तरह हँसता है।

एक लाल साड़ीवाली लड़की हुक्के पर चिलम चढ़ा कर फूँकती हुई आई। चिलम को फूँकते समय उसके दोनों गाल गोल हो गए थे। करमा को देख कर वह ठिठकी। फिर गोभी के खेत के बाड़े को पार करने लगी। बूढ़े ने कहा, 'चल बेटी, दरवाजे पर ही हम लोग आ रहे हैं।'

बूढ़ा हाथ-पैर धो कर खेत से बाहर आया, 'चलो!'

लड़की ने पूछा, 'बाबा, यह कौन आदमी है?'

'भालू नचानेवाला आदमी।'

'धेत्त!'

करमा लजाया। ...क्या उसका चेहरा-मोहरा भालू नचानेवाले-जैसा है? बूढ़े ने पूछा, 'तुम रिलिफिया बाबू के नौकर हो न?'

'नहीं, नौकर नहीं।...ऐसे ही साथ में रहता हूँ।'

'ऐसे ही? साथ में? तलब कितना मिलता है?'

'साथ में रहने पर तलब कितना मिलेगा?'

...बूढ़ा हुक्का पीना भूल गया। बोला, 'बस? बेतलब का ताबेदार?'

बूढ़े ने आँगन की ओर मुँह करके कहा, 'सरसतिया! जरा माय को भेज दो, यहाँ। एक कमाल का आदमी...।'

बूढ़ी टट्टी की आड़ में खड़ी थी। तुरत आई। बूढ़े ने कहा, 'जरा देखो, इस किल्लाठोंक-जवान को। पेट भात पर खटता है। ...क्यों जी, कपड़ा भी मिलता है?...इसी को कहते हैं - पेट-माधोराम मर्द!'

...आँगन में एक पतली खिलखिलाहट! ...भालू नचानेवाला कहीं पड़ोस में ही तमाशा दिखा रहा है। डमरु ने इस ताल पर भालू हाथ हिला-हिला कर 'थब्बड़-थब्बड़' नाच रहा होगा - थुथना ऊँचा करके! ...अच्छा जी भोलेराम!

...सैकड़ों खिलखिलाहट!!

'तुम्हारा नाम क्या है जी? ...करमचन? वाह, नाम तो खूब सगुनिया है। लेकिन काम? काम चूल्हचन?'

करमा ने लजाते हुए बात को मोड़ दिया, 'आपके खेत का बैंगन बहोत बढ़िया है। एकदम घी-जैसा...।' बूढ़ा मुसकराने लगा।

और बूढ़ी की हँसी करमा की देह में जान डाल देती है। वह बोली, 'बेचारे को दम तो लेने दो। तभी से रगेट रहे हो।'

'मछली है? बाबू के लिए ले जाओगे?'

'नहीं। ऐसे ही... रास्ते में शिकार...।'

'सरसतिया की माय! मेहमान को चूड़ा भून कर मछली की भाजी के साथ खिलाओ! ...एक दिन दूसरे के हाथ की बनाई मछली खा लो जी!'

जलपान करते समय करमा ने सुना - कोई पूछ रही थी, 'ए, सरसतिया की माय! कहाँ का मेहमान है?'

'कटिहार का।'

'कौन है?'

'कुटुम ही है।'

'कटिहार में तुम्हारा कुटुम कब से रहने लगा?'

'हाल से ही।'

...फिर एक खिलखिलाहट! कई खिलखिलाहट!! ...चिलम फूँकते समय सरसतिया के गाल मोसंबी की तरह गोल हो जाते हैं। बूढ़ी ने दुलार-भरे स्वर में पूछा, 'अच्छा ए बबुआ! तार के अंदर से आदमी की बोली कैसे जाती है? हमको जरा खुलासा करके समझा दो।'

चलते समय बूढ़ी ने धीरे-से कहा, 'बूढ़े की बात का बुरा न मानना। जब से जवान बेटा गया, तब से इसी तरह उखड़ी-उखड़ी बात करता है। ...कलेजे का घाव...।'

'एक दिन फिर आना।'

'अपना ही घर समझना!'

लौटते समय करमा को लगा, तीन जोड़ी आँखें उसकी पीठ पर लगी हुई हैं। आँखें नहीं - डिसटन-सिंगल, होम-सिंगल और पैट सिंगल की लाल गोल-गोल रोशनी!

जिस खेत में करमा ने मछली का शिकार किया था उसकी मेंड़ पर एक ढोढ़िया-साँप बैठा था। फों-फों करता भागा। ...हद है! कुत्ता अभी तक बैठा उसकी राह देख रहा था! खुशी के मारे नाचने लगा करमा को देख कर!

रेलवे-हाता में आ कर करमा को लगा, बूढ़े ने उसको बना कर ठग लिया। तीन रुपए की मोटी-मोटी माँगुर मछलियाँ एक चुटकी चूड़ा खिला कर, चार खट्टी-मीठी बात सुना कर...।

...करमा ने मछली की बात अपने पेट में रख ली। लेकिन बाबू तो पहले से ही सबकुछ जान लेनेवाला - 'अगरजानी' है। दो हाथ दूर से ही बोले, 'करमा, तुम्हारी देह से कच्ची मछली की बास आती है। मछली ले आए हो?'

...करमा क्या जवाब दे अब? जिंदगी में पहली बार किसी बाबू के साथ उसने विश्वासघात किया है। ...मछली देख कर बाबू जरुर नाचने लगते!

पंद्रह दिन देखते देखते ही बीत गया।

अभी, रात की गाड़ी से टिसन के सालटन-मास्टर बाबू आए हैं - बाल बच्चों के साथ। पंद्रह दिन से चुप फैमिली-क्वाटर में कुहराम मचा है। भोर की गाड़ी से ही करमा अपने बाबू के साथ हेड-क्वाटर लौट जाएगा।...इसके बाद मनिहारीघाट?

...न ...आज रात भी करमा को नींद नहीं आएगी। नहीं, अब वार्निश-चुने की गंध नहीं लगती। ...बाबू तो मजे से सो रहे हैं। बाबू, सचमुच में गोपाल बाबू जैसे हैं। न किसी की जगह से तिल-भर मोह, न रत्ती-भर माया। ...करमा क्या करे? ऐसा तो कभी नहीं हुआ। ...'एक दिन फिर आना। अपना ही घर समझना। ...कुटुम है... पेट-माधोराम मर्द!'

...अचानक करमा को एक अजीब-सी गंध लगी। वह उठा। किधर से यह गंध आ रही है? उसने धीरे-से प्लेकटफार्म पार किया। चुपचाप सूँघता हुआ आगे बढ़ता गया। ...रेलवे-लाइन पर पैर पड़ते ही सभी सिंगल - होम, डिसटट और पैट- जोर-जोर से बिगुल फूँकने लगे। ...फैमिली-क्वाटर से एक औरत चिल्लाने लगी - 'चो-ओ-ओ-र!' वह भागा। एक इंजिन उसके पीछे-पीछे दौड़ा आ रहा है। ...मगहिया डोम की छौंड़ी? ...तंबू में वह छिप गया। ...सरसतिया खिलखिला कर हँसती है। उसके झबरे केश, बेनहाई हुई देह की गंध, करमा के प्राण में समा गई। ...वह डर कर सरसतिया की गोद में ...नहीं, उसकी बूढ़ी माँ की गोद में अपना मुँह छिपाता है। ...रेल और जहाज के भोंपे एक साथ बजते हैं। सिंगल की लाल-लाल रोशनी...।

'करमा, उठ! करमा, सामान बाहर निकालो!'

...करमा एक गंध के समुद्र में डूबा हुआ है। उसने उठ कर कुरता पहना। बाबू का बक्सा बाहर निकाला। पानी-पाँड़े ने 'कहा-सुना माफ करना' कहा। करमा डूब रहा!

...गाड़ी आई। बाबू गाड़ी में बैठे। करमा ने बक्सा चढ़ा दिया। ...वह 'सरवेंट-दर्जा' में बैठेगा। बाबू ने पूछा, 'सबकुछ चढ़ा दिया तो? कुछ छूट तो नहीं गया?'...नहीं, कुछ छूटा नहीं है। ...गाड़ी ने सीटी दी। करमा ने देखा, प्लेाटफार्म पर बैठा हुआ कुत्ता उसकी ओर देख कर कूँ-कूँ कर रहा है। ...बेचैन हो गया कुत्ता!

'बाबू?'

'क्या है?'

'मैं नहीं जाऊँगा।' करमा चलती गाड़ी से उतर गया। धरती पर पैर रखते ही ठोकर लगी। लेकिन सँभल गया।

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रचनाएँ
फणीश्वरनाथ रेणु जी की प्रसिद्ध कहानियाँ
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फणीश्वरनाथ रेणु भारत वर्ष के साहिया समाज के बहुत ही जाने माने कविकार और कहानीकार थे| उनके लेखन ने बहुत से लोगो को मनोरंजित किया है| उनका जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया में हुआ था| उन्होंने अपने साहित्य जीवन में बहुत से उपन्यासों को सराया गया| उनकी एक बहुत ही मशहूर उपन्यास मैला आंचल को बहुत ख्याति मिली की उनको पद्म विभूषण पुरस्कार से नवाज़ा गया| हम आपके लिये फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियाँ, मारे गये गुलफाम (तीसरी कसम) एक आदिम रात्रि की महक, लाल पान की बेगम , पंचलाइट, तबे एकला चलो रे, ठेस , संवदियास्वतंत्र भारत में उनकी रचनाएं विकास को शहर-केंद्रित बनाने वालों का ध्यान अंचल के समस्याओं की ओर खींचती है। वे अपनी गहरी मानवीय संवेदनाओं के कारण अभावग्रस्त जनता की बेबसी और पीड़ा भोगते से लगते हैं। उनकी इस संवेदनशीलता के साथ यह विश्वास भी जुड़ा है कि आज के त्रस्त मनुष्य में अपने जीवन दशा को बदल लेने की शक्ति भी है।
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अतिथि-सत्कार

19 जुलाई 2022
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भला आदमी मन्दाक्रान्ता गति से बातें कर रहा था, गा-गाकर बोलता हो मानो। मैंने बाधा डालते हुए पूछा था, “किन्तु प्रधान अतिथि क्‍यों?” उनकी मन्द मुस्कुराहट जरा भी मन्द नहीं हुई और उन्होंने मेरे इस सवाल म

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इतिहास, मजहब और आदमी

19 जुलाई 2022
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उस दिन दीवाली थी-लक्ष्मी के शुभागमन का एकमात्र दिन। सुबह उठते ही मनमोहन, माँ से लड़कर “कैम्प” में चला गया था। आस-पास गाँवों में जोरों से हैजा और मलेरिया फैला हुआ था। भूख और रोग का संयुक्त मोर्चा । प

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एक अकहानी का सुपात्र

19 जुलाई 2022
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पिछले कई वर्षों से लगातार यह सुनते-सुनते कि अब 'कहानी' नाम की कोई चीज दुनिया में ऐसे ही रह गई है-मुझे भी विश्वास-सा हो चला था कि कहानी सचमुच मर गई। हमारा मौजूदा समाज “कहानीहीन' हो गया है, हठातू कहीं,

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एक रंगबाज गाँव की भूमिका

19 जुलाई 2022
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सड़क खुलने और बस 'सर्विस' चालू होने के बाद से सात नदी (और दो जंगल) पार का पिछलपाँक इलाके के हलवाहे-चरवाहे भी "चालू" हो गए हैं...! 'ए रोक-के ! कहकर “बस' को कहीं पर रोका जा सकता है और “ठे-क्हेय कहकर “

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कलाकार

19 जुलाई 2022
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काशी के बंगाली टोले की एक गन्दी गली में वह कुछ दिनों से रहने लगा था। दुबला पतला, लम्बा-सा युवक, जिसका गोरा रंग अब उतर रहा था, आँखों के नीचे की हड़डियाँ बाहर निकल रही थीं और चप्पल के फीते टूटे जा रहे

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काक चरित

19 जुलाई 2022
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किसनलाल ने सुबह उठकर अपनी दोनों तलहथियों को देखा। फिर इष्ट-नाम जाप किया ।...भजन का प्रोग्राम हो गया ? आठ बज गए ? सावित्री बाजार चली है, वह उठकर बैठ गया और बाएँ हाथ से दाहिने कन्धे को छूकर देखा...नही

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खँडहर

19 जुलाई 2022
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लड़ाई, झगड़ा, घटना, दुर्घटना, हादसा-इस तरह की कोई भी बात नहीं हुई। तीन भहीने पर गोपालकृष्ण गाँव लौटा था। शाम को बाबूजी ने, लम्बी-चौड़ी भूमिका बाँधकर, दीन-दुनिया के नीच-ऊँच दिखाकर, बड़े प्यार से कहा-

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जड़ाऊ मुखड़ा

19 जुलाई 2022
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बटुक बाबू ने मन-ही-मन तय कर लिया - ऑपरेशन करवाना ही होगा। और, इसी जाड़े में। बटुक बाबू पिछले एक सप्ताह से मानसिक अशान्ति भोग रहे थे, चुपचाप! जब-जब उनकी इकलौती बेटी बुला सामने आती, बटुक बाबू का चेहर

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टौन्टी नैन का खेल

19 जुलाई 2022
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‘लड़की मिडिल पास है !’ ‘मिडिल पास ?’ ‘मिडिल पास ही नहीं, दोहा कवित्त जोड़ती है।’ ‘देखने में भी, सुनते हैं कि गोरी है।’ ‘सीप्रसाद बाबू की बेटी काली कैसे होगी ?’ ‘विश्वास नहीं होता है।’ ‘सुमरचन्ना

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तव शुभ नामे

19 जुलाई 2022
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एक-एक कर बहुत सारे शब्दों को “नकारता' जा रहा हूँ 'नकार” दिया है। नेति-नेति! माता, मातृभूमि, जन्म-भूमि, देश, राष्ट्र, देशभक्ति-जैसे चालू शब्दों की अब मुझे जरूरत नहीं होती। माँ की 'ममता' और मातृभूमि प

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तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम

19 जुलाई 2022
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हिरामन गाड़ीवान की पीठ में गुदगुदी लगती है... पिछले बीस साल से गाड़ी हाँकता है हिरामन। बैलगाड़ी। सीमा के उस पार, मोरंग राज नेपाल से धान और लकड़ी ढो चुका है। कंट्रोल के जमाने में चोरबाजारी का माल इस पार स

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न मिटनेवाली भूख

19 जुलाई 2022
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1. आठ बज रहे थे। दीदी बिछौने पर पड़ी चुपचाप टुकुर-टुकुर देख रही थी-छत की ओर। उसके बाल तकिए पर बिखरे हुए थे, इधर-उधर लटक रहे थे। एक मोटी किताब, नीचे चप्पल के पास, औंधे मुंह गिरकर न जाने कब से पड़ी हुई

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नित्य लीला

19 जुलाई 2022
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किसन ने गली से आँककर देखा, नन्दमहर और जशुमति गोशाले की अँगनाई में बैठे किसी गम्भीर बात पर सोच-विचार कर रहे हैं। पिता की मुद्रा से स्पष्ट है कि आज उनकी दाढ़ में फिर दर्द उभरा है, और सिर्फ गोधूलिवेला क

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नैना जोगिन

19 जुलाई 2022
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रतनी ने मुझे देखा तो घुटने से ऊपर खोंसी हुई साड़ी को 'कोंचा' की जल्दी से नीचे गिरा लिया। सदा साइरेन की तरह गूँजनेवाली उसकी आवाज कंठनली में ही अटक गई। साड़ी की कोंचा नीचे गिराने की हड़बड़ी में उसका 'आँ

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पहलवान की ढोलक

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जाड़े का दिन। अमावस्या की रात—ठंढ़ी और काली। मलेरिया और हैजे से पीड़ित गांव भयार्त शिशु की तरह थर—थर कांप रहा था। पुरानी और उजड़ी, बांस—फूस की झोपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य। अं

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पार्टी का भूत

19 जुलाई 2022
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यारों की शक्ल से अजी डरता हूँ इसलिए किस पारटी के आप हैं? वह पूछ न बैठे। सूखकर काँटा हो गया हूँ। आँखें धँस गई हैं, बाल बढ़ गए हैं। पाजामा फट गया है। चप्पल टूट गई है। आशिकों की-सी सूरत हो गई है। दिन म

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बट बाबा

19 जुलाई 2022
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गाँव से सटे, सड़क के किनारे का वह पुराना वट-वृक्ष। इस बार पतझ्ड़ में उसके पत्ते जो झड़े तो लाल-लाल कोमल पत्तियों को कौन कहे, कोंपल भी नहीं लगे। धीरे-धीरे वह सूखतां गया और एकदम सूख गया-खड़ा ही खड़ा ।

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मन का रंग

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मैं समझ गया, वह जो आदमी दो बार इस बेंच के आस-पास चक्कर लगाकर मेरे चेहरे को गौर से देखकर गया है न-वह मेरे पास ही आकर बैठेगा। बैठने से पहले मद्धिम आवाज में “कपट विनय” भरे शब्दों से मुझे जरा-सा खिसक जान

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रसप्रिया

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धूल में पड़े कीमती पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई - अपरूप-रूप! चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पँचकौड़ी मिरदंगिया के मुँह से निकल पड़ा अपरूप-रूप! ....खेतों, मैंदानों, बाग-बगी

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रेखाएँ : वृत्तचक्र

19 जुलाई 2022
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ऊँहूँ। नहीं, यह सबकुछ भी नहीं सोचूँगा। मुझे ऐसा कुछ भी नहीं सोचना चाहिए, जिससे कि मेरा दिल कमजोर पड़ जाए। मेरा घाव जल्दी ही भर जाएगा, मैं चंगा हों जाऊँगा। मैं भी कैसा हूँ! मरने से डरता हूँ! मरने क

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लालपान की बेगम

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'क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?' बिरजू की माँ शकरकंद उबाल कर बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थी अपने आँगन में। सात साल का लड़का बिरजू शकरकंद के बदले तमाचे खा कर आँगन में लोट-पोट कर सारी देह मे

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विकट संकट

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दिग्विजय बाबू को जो लोग अच्छी तरह जानते-पहचानते हैं, वे यह कभी नहीं विश्वास करेंगे कि दिग्विजय उर्फ दिगो बाबू कभी क्रोध से पागल होकर सड़क पर, खाली देह और ऊँची आवाज में किसी को अश्लील गालियाँ दे सकते

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संकट

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मैं यह नहीं कहता कि मेरा 'सिक्स्थ-सेंस” बहुत तेज है। आदमी को यह विशेष ज्ञान नहीं दिया है, प्रकृति ने। पशुओं में, कुत्ते की षष्ठेन्द्रिय बहुत सक्रिय होती है। मैं, आदमी होकर यह दावा कैसे कर सकता हूँ ?

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ईश्वर रे, मेरे बेचारे.

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अपने संबंध में कुछ लिखने की बात मन में आते ही मन के पर्दे पर एक ही छवि 'फेड इन' हो जाया करती है : एक महान महीरुह... एक विशाल वटवृक्ष... ऋषि तुल्य, विराट वनस्पति! फिर, इस छवि के ऊपर 'सुपर इंपोज' होती ह

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अक्ल और भैंस

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जब अखबारों में 'हरी क्रान्ति’ की सफलता और चमत्कार की कहानियाँ बार-बार विस्तारपूर्वक प्रकाशित होने लगीं, तो एक दिन श्री अगमलाल 'अगम’ ने भी शहर का मोह त्यागकर, खेती करने का फैसला कर लिया। गाँव में, उनके

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अभिनय

19 जुलाई 2022
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छन्दा ने जिस दिन घर-भर के लोगों के छप्पर - फोड़ ठहाके के बीच मुझे 'दादू” कहकर सम्बोधित किया, मैं थोड़ा अप्रतिभ हुआ था। मेरे (अकाल) परिपक्व केश के कारण ही छन्दा (जिसकी माँ मुझे देवर मानती है और जिसकी

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उच्चाटन

19 जुलाई 2022
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ठीक वही हुआ, उसी तरह शुरू हुआ, जैसा उसने सोचा था। बरसों से मन में गुनी हुई बात अक्षर-अक्षर फल गई। रात की गाड़ी से वह गाँव लौटा-दों साल के बाद। और “मरकट-महाजन' बूढ़े मिसर को रात में ही खबर मिल गई।

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एक आदिम रात्रि की महक

19 जुलाई 2022
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न ...करमा को नींद नहीं आएगी। नए पक्के मकान में उसे कभी नींद नहीं आती। चूना और वार्निश की गंध के मारे उसकी कनपटी के पास हमेशा चौअन्नी-भर दर्द चिनचिनाता रहता है। पुरानी लाइन के पुराने 'इस्टिसन' सब हजार

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कपड़घर

19 जुलाई 2022
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ग्यारह साल की सरकारी नौकरी से, गत माह मैंने इस्तीफा दे दिया है। परिस्थिति के चाप से-और स्वेच्छा से भी। सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट होकर बिरनियाँ जिला आया। ग्यारह साल तक सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट ही रहा। बिरनि

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कस्बे की लड़की

19 जुलाई 2022
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“लल्लन काका! दादाजी कह गए हैं कि लल्लन काका से कहना कि ऱरोज फुआ के साथ... !” लल्लन काका अर्थात्‌ प्रियव्रत ने अपनी भतीजी बन्दना उर्फ बून्दी को मद्धिम आवाज में डॉट बताई, “जा-जा! मालूम है जो कह गए हैं

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कुत्ते की आवाज़

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मेरा गांव ऐसे इलाके में जहां हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की – कोशी, पनार, महानन्दा और गंगा की – बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं, सावन-भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरत

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जलवा

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फातिमादि को कभी देखूँगा और इस तरह देखूँगा, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। इसलिए, कुछ देर तक 'पंटना-मार्केट” को स्वप्नलोक समझकर खोया - खोया - सा खड़ा रहा-जूते की दूकान पर । बुरके में सिर से पैर तक

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जैव

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निर्मल ने मन्द-मन्द मुस्कुराती, कमरे में प्रवेश करती हुई-विभावती से पूछा-“क्यों क्या बात है ?” विभावती हँसती हुई बोली-“बात कया होगी ? बात जो होनी थी सो हो गई ।” विभा ने स्वामी के हाथ में आज की डाक

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ठेस

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खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते। लोग उसको बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं। इसलिए, खेत-खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को। क्या होगा, उसको बुला कर? दूसरे

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तीन बिंदियाँ

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गीताली दास अपने को सुरजीवी कहती है। नाद-सुर-ताल आदि के सहारे ही वह इस मंज़िल तक पहुँच सकी है। सभी कहते हैं, उसकी साधना सफल हुई है।…कितने भोले और बेचारे होते हैं लोग! साधना के सफल-अफसल होने की घोषणा करन

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धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे

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भादों की रात। तुरत बारिस बन्द हुई है। मेढक टरटरा रहे हैं। साँप ने बेंग को पकड़ा है, बेंग की दर्द-भरी पुकार पर दिल में दया आने के बदले, भय मालूम होता है। आसपास की झाड़ियों में फैला हुआ अन्धकार और भी

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ना जाने केहि वेष में

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उस दिन अखबार में अपने दैनिक राशिफल में देखा-आदि से अन्त तक हर जगह 'शुभ' और “लाभ' ही लिखा हुआ था। यात्रा : शुभ, अमृतयोग धनागम, राज्य-सम्मान तथा मित्र-लाभ ! पता नहीं, चार दिन के बाद राशिफल में कौन-सा

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नेपथ्य का अभिनेता

19 जुलाई 2022
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यद्यपि उसे पहले भी पच्चासों बार देख चुका हूँ, किन्तु उस दिन देखकर चिहुँक-सा उठा। चकित हो गया। लगा, जैसे बिना मौसम के कोई फूल या फल देख रहा होऊँ। सावन-भादों के किचकिच में, लगातार बारिश में ई कहाँ से

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प्राणों में घुले हुए रंग

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शैशव की सुनहली स्मृति, नील-गगन में उड़ते हुए रंग-बिरंगे पतंगों और मनमोहक रंगीन खिलौनों के आकर्षण को मैं जान-बूझकर छोड़े देता। उन दिनों मैं स्वयं किन्ही की रंगीन आशाओं और कल्पनाओं का केन्द्र था! मेडि

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पंचलाईट

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पिछले पन्द्रह दिनों से दंड-जुरमाने के पैसे जमा करके महतो टोली के पंचों ने पेट्रोमेक्स खरीदा है इस बार, रामनवमी के मेले में। गाँव में सब मिलाकर आठ पंचायतें हैं। हरेक जाति की अलग-अलग सभाचट्टी है। सभी पं

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पुरानी कहानी : नया पाठ

19 जुलाई 2022
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बंगाल की खाड़ी में डिप्रेशन - तूफान - उठा! हिमालय की किसी चोटी का बर्फ पिघला और तराई के घनघोर जंगलों के ऊपर काले-काले बादल मँडराने लगे। दिशाएँ साँस रोके मौन-स्तब्ध! कारी-कोसी के कछार पर चरते हुए पशु

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बीमारों की दुनिया में

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बीरेन की जवानी में घुन लग गया। बुखार-100० 101० 102०,..। खाँसी-भीषण ! रोग-क्ष॑य के लक्षण। कथाकारों के नायक प्रायः क्षय ही से पीड़ित होते हैं। खून की के करते हैं। कथाकार इस रोग को “रोमांटिक” रोग समझ

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रखवाला

19 जुलाई 2022
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रक्त की प्यासी सभ्य दुनिया से दूर-बहुत-दूर-हिमायल के एक पहाड़ी गावं का अंचल। छोटा-सा झोंपड़ा। पहाड़ी की ओट से छनकर आती हुई सूर्य की किरणों में छोटा-सा सरकंडे का झोंपड़ा सोने के झोंपड़े की तरह चमक रहा था।

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रसूल मिसतिरी

19 जुलाई 2022
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बहुत कम अर्से में ही इस छोटे-से गँवारू शहर में काफी परिवर्तन हो गए हैं। आशा से अधिक और शायद आवश्यकता से भी अधिक। स्कूल और होस्टल की भव्य इमारत को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि आज से महज आठ स

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लफड़ा

19 जुलाई 2022
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उस बार 'युनिट” के 'प्रोडक्शन मैनेजर” ने मेरे ठहरने की व्यवस्था “दि डायना गेस्ट हाउस' में की थी। इसके पहले मुझे खार स्टेशन के पास 'होटल सदाबहार! में टिकाया जाता था। इसलिए, नई जगह के बारे में तरह-तरह

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वंडरफुल स्टुडियो

19 जुलाई 2022
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फोटो तो अपने दर्जनों पोज में उतारे हुए अलबम में पड़े हैं, फ्रेम में मढ़े हुए अपने तथा दोस्तों के कमरों में लटक रहे हैं और एक जमाने में, यानी दो-तीन साल पहले, उन तस्‍वीरों को देखकर मुझे पहचाना भी जा सक

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विघटन के क्षण

19 जुलाई 2022
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रानीडिह की ऊँची जमीन पर - लाल माटीवाले खेत में-अक्षत-सिन्दूर बिखरे हुए हैं  हजारों गौरैया-मैना सूरज की पहली किरण फूटने के पहले ही खेत के बीच में 'कचर-पचर' कर रही हैं। बीती हुई रात के तीसरे पहर तक, ज

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संवदिया

19 जुलाई 2022
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हरगोबिन को अचरज हुआ - तो, आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस जमाने में, जबकि गांव गांव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज

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जै गंगा

19 जुलाई 2022
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जै गंगा ... इस दिन आधी रात को 'मनहरना’ दियारा के बिखरे गांवों और दूर दूर के टोलों में अचानक एक सम्मिलित करूण पुकार मची, नींद में माती हुई हवा कांप उठी – 'जै गंगा मैया की जै...’ !! अंधेरी रात में गंग

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