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रखवाला

19 जुलाई 2022

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रक्त की प्यासी सभ्य दुनिया से दूर-बहुत-दूर-हिमायल के एक पहाड़ी गावं का अंचल।

छोटा-सा झोंपड़ा। पहाड़ी की ओट से छनकर आती हुई सूर्य की किरणों में छोटा-सा सरकंडे का झोंपड़ा सोने के झोंपड़े की तरह चमक रहा था।

झोंपड़े के इर्द-गिर्द केले, नारंगी, नासपाती के दरख्त, फल-फूल और हरे-पीले पत्तों पत्तों से लदे हुए। झोंपड़े के सामने एक अमरुद का पेड़, खूंटे से बंधा एक बछड़ा था।

पेड़ के नीचे बैठी वह, जंगली बेंतों और बॉस की पतली-पतली तीलियों से डोको बना रही थी।

प्यारा-सा सुकुमार बच्चा गोद में मीठी नींद ले रहा था।

किसी गीत की कड़ी को गुनगुनाती हुई वह काम कर रही थी।

उसके हाथ मशीन की भांति चल रहे थे।

बेंतों और तीलियों को काटते-संभालते गुनगुनाहट का कर्म तो रुक भी जाता, पर उसकी स्मृतियों के तार न टूटते थे।

हौं, कभी-कभी सामने की मटमैली ---धुंधली पहाड़ी की ओर नजर उठाकर देख लेती अपनी गोद में सोए प्यारे बच्चे को और पेड़ में पके अमरूदों को।

तब उसके मानस-पट पर चलनेवाले स्मृतियों के सवाक चित्रपट के एकाध अस्फुट शब्द बाहर निकल पड़ते।

और यह अमरुद का पेड़ तो एकदम बच्चा था उस समय, अब तो फलने लगा है! मन ही मन हिसाब लगाकर जोड़ती-ग्यारह ! और फिर अतीत की स्मृतियाँ, चल-चित्र के समान क्रमबद्ध चलने लगतीं - ग्यारह वर्ष बीत गए।

अमरुद का यह पेड़ और महज अट्ठारह वर्ष की थी वह! फागुन का महीना। ...

ऐसी ही धीरे-धीरे बहती हुई वासंती हवा, इसी पेड़ के पास खड़ी होकर, सजल नेत्रों से उनको विदाई देती हुई वह! पीठ पर डोको लादे, सतरंगे ऊनि कमरबंध से खुखरी को कमर में बाँधते हुए उन्होंने कहा था - रुन्छस ? दुत बावली! म च्यांदे यो डोको फ्री रुपया लियेर फरकयूँला, धीरज बहादुर को दुलहिन लाय हेरन!

तेस्को कान को झूमका, नाक को नथिया -जम्मे कलकत्ता को नै कमाई हो, कलकत्ता माँ रुपयां तैयार हुंछ.....!

(रोती हो ? दुत् पगली ! मैं जल्दी ही डोको भर रुपया लेकर लौटूंगा। धीरज बहादुर की स्त्री को देखो न! उसके कान के झुमके, नाक की नथिया - सब कलकत्ता की कमाई ही तो है। कलकत्ते में रुपए बनते हैं। ...... )

ग्यारह वर्ष पहले के विदा वेला के - आलिंगन-चुंबन को याद कर उसका हृदय धड़कने लगता, होंठ फड़कने लगते और नसों में बिजली दौड़ जाती।

गाँव का आवारा, लफंगा बलबहादुर भी उनके साथ जा रहा था। वह इसी पेड़ के पास खड़ी देख रही थी और वे दोनों सामने की उसी मटमैली, धुंधली पहाड़ी की छाया में छिप गए थे।

पेड़ पर तोता अमरुद कुतरता, वह हाथ उठाकर हिस कर उड़ाती और स्मृतियों का क्रम टूटते-टूटते फिर चलने लगता.....।

आठ वर्षों तक वह प्रतिदिन यहीं कुछ देर खड़ी होकर देखती रही थी, किन्तु उस धुंधली पहाड़ी की छाया से निकलकर कोई नहीं आया था।

कोई भी नहीं। खूंटे से बँधा बछड़ा बां-बां करने लगता, गम्भीर निद्रा में सोए हुव बच्चें को बाएं हाथ से कंधे या छाती पर चिपकाकर वह उठ खड़ी होती, बछड़े को पुचकारती-दुलारती और कोमल घास खिलाती - अरे तुम्हें इतनी जल्दी भूख लग गयी ?

कहकर प्यार से एक मीठी चपत लगाकर आसमान में सूर्य की ओर देखकर बड़बड़ा उठती - बेला ढकने को है। सुबह ही बिना खाए गया है अभी तक नहीं लौटा। उसकी रोज की यही आदत बुरी। ..... कुकुनाती हुई वह वहीं जाकर बैठ जाती और फिर स्मृतियों के देश में विचरण करने लगती है।

आठ वर्षों तक कोई न आया। ......तीसरे साल अगहन महीने में शाम को जब वह आग सुलगाकर बाछा को सेंक रही थी कि चंदू की माँ ने आकर कहा था - अरी पुणो!

बलबहादुर कलकत्ते से आया है, मांझला के आंगन में है।

सुनते ही वह नवजात बाछा को ठिठुरते छोड़कर दौड़ी थी मांझला के यहाँ।

मांझला के यहाँ बूढ़े बच्चे, लड़के लड़कियां और गावं-भर की स्त्रियां बलबहादुर को घेरे खड़ी थी।

बीच में बैठा बलबहादुर कलकत्ते की हैरत-भरी कहानियां सूना रहा था।

ट्रेम गाडी, मत्र गाड़ी। ...हवैया जहाज। .....वगैरह की अजीब-अजीब बोलियां वह हंस-हंसकर सगर्व सबको सुना रहा था। सब आश्चर्य के पुतले बने सुन रहे थे।

अचरज-भरी हंसी हंस रहे थे।

वह उसके पास न जा सकी थी। पिछवाड़े में ही खड़ी सब सुनती रही। .बलबहादुर ने कहा था ..हिरण्य दाजू (हिरण्य भैया) पलटन माँ भरती भये ...... !

सुनते ही वह कॉप उठी थी, उसके सर में चक्क्र आने लगा था। वह भाग आई थी अपनी झोंपड़ी में पड़ी-पड़ी वह लगातार कई दिनों तक आंसू बहाती रही थी।

उसकी आँखें डबडबा आई।

वह उठ खड़ी हुई। जंगल की ओर देखकर पुकारती बहादुर !!!

प्रत्युत्तर में खूंटे से बंधा बछड़ा बां-बां करता और गोदी का बच्चा रो पड़ता।

बच्चे को थपकियाँ से सुलाती वह फिर बैठ जाती और ताना-बाना बुनने लग जाती -हाँ, वह हफ्तों पड़ी रही थी।

और यह बलबहादुर! उसे कभी भी भला नहीं लगा था यह बलबहादुर! बचपन से ही वह उसे जानती थी, उसे सैकड़ों बार गालियां दे चुकी थी।

गावं की सभी लड़कियां उससे घृणा करती थीं।

वह जंगल में लड़कियों को छेड़ता था। ....लेकिन उस दिन अपने को समझा-बुझाकर वह उठ बैठी थी।

बैठी-बैठी गीत की एक कड़ी गुनगुना रही थी - तिमीत आयो लखन, दाज्यु लाय कहाँ छोड़े ? (तुम तो आए लक्ष्मण, पर भाई को कहाँ छोड़ आए) कि उसने पिछवाड़े से गाकर उत्तर दिया था - दाज्यु त गए मृगा पछि, म आए तिन्नो रखवाले! (भाई तो हिरन के पीछे गए, मैं तुम्हारी रखवाली करने आया हूँ। )

उस समय बलबहादुर उसे बड़ा अच्छा लगा था। वह उसको पकड़ लाइ थी आँगन में। घंटों बैठकर कलकत्ते की कहानियां सुनती रही थी।

उसी दिन से वह रोज शाम को आकर कलकत्ते की कहानी सुना जाता। उनकी (पूनों के पति की) बुद्धिमानी और अपनी बेवकूफी की दर्जनों ऐसी कहानियां कहता कि हँसते-हँसते पेट में बल पड़ जाते।

किस तरह वह एक कम्पनी में दरबान था, उसी कम्पनी का एक कुली इशारे से हुन्छ-हुन्छ दाजू कहकर चिढ़ाया करता था।

वह खून का घूंट पीकर रह जाता था। किस तरह उसने जाकर हिरण्य दाज्यू से शिकायत कर दी और वे जाकर उस कुली को किस तरह खुखरी निकालकर मारने दौड़े और वह कुली किस तरह दुम दबाकर भागा - आदि बातें वह सविस्तार सुनाता।

उसे बड़ी अच्छी लगती थी कलकत्ते की कहानियां।

कैसा देश है जहाँ बिना तेल की बत्ती अपने-आप शाम होने पर जल जाती है और सुबह को बुझ जाती है।

बलबहादुर भी उसे अच्छा लगने लगा था। एक दिन वह बलबहादुर को पकड़कर समझाने लगी थी - बहादुर !

तुम आवारागर्दी छोडो। घर बनाकर घरनी लाओ। ऊँह हो हो हो। ....वह ठठाकर हंस पड़ा था - भौजी! तुम भी कैसी हो ! आवारागर्दी छोड़कर घर बना सकता हूँ पर मेरे साथ रहना कौन लड़की पसंद करेगी ?

करेगी! तू आवारागर्दी तो छोड़।

कुछ क्षण गंभीर रहकर, वह मुस्कुराते हुए बोला था - अच्छा भाभी एक बात पूछूं पूछों !

यदि आवारागर्दी छोड़ दूँ तो तुम भी मेरे साथ। ....

ऊँह! फटहा - कहकर उसके मुहं पर एक हल्की चपत लगाकर, मुस्कुराती हुई गाय खोलने चली गई थी। बलबहादुर ने उसके हाथ से जबरदस्ती पगहिया ले ली थी - दो भोजी! मैं चरा लेता हूँ।

उसी दिन से वह साथ रहने लगा। काम करने में तो भूत है भूत। जब तक जाकर हाथ न पकड़ो, काम नहीं छोड़ने का। .....

आज तीन साल से किसके खेत में ऐसे फसल लगते हैं। वह अपने खेतों की ओर देखती। लहलहाते पौधे, मनमोहक हरियाली। ..कितना सुन्दर!

पू नो पू नो !

पास के जंगल से कोई पुकारता।

आवाज पहचानकर वह उत्तर देती - आ। ..यी और गोदी में बच्चे को संभालती हुई वह जंगल की ओर दौड़ती।

झाड़ी के पास जाकर फिर पुकारती - किधर !

इधर-उधर झाडी के उस पार से आवाज आती।

बलबहादुर नवजात बछड़े को पोंछ रहा था।

पास ही गाय खड़ी थी। पूनों को देखते ही वह खिल पड़ा - आओ, आओ! पूनों की गोदी में बच्चा जग पड़ा था, बच्चे को बलबहादुर की गोदी में देते हुए उसने बछड़े को बड़े प्यार से चुमकारा, फिर बोली - अब फरक न घर, खाये की पनि छै न। (अब लौटो घर, खाये भी नहीं हो )

ऊहूँ। .. अलि पख न, अलि सुन न! (जरा ठहरो न, जरा सुनो न ) उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा था।

पूनों की आँखों में एक उठाते हुए बोली थी - उहूँ चलो!

अलि सुन न बहादुर रोकता ही रहा, वह चल पड़ी।

दूध से सफेद बछड़े को गोद में लेकर पूनों आगे-आगे भागी जाती थी, पीछे -पीछे सद्यःप्रसूता उजरी हुँक हुँक हिंब हिंब करती दौड़ी जाती थी। पास ही झरना कल-कल कर रहा रहा था और डालियों पर पक्षियों का कोरस गान शुरू हो गया था। ...

पूनो रुक -रुककर पीछे ही देखती थी। सबसे पीछे बलबहादुर।

..गोद में बच्चे को लिये, कंधे पर लट्ठ रखे, धीरे-धीरे विजयी वीर की तरह झूमता आ रहा था।

उसकी गोदी में बच्चा रो रहा था और वह उसको अजीब लय में गीत गाकर चुप कराने की चेष्टा कर रहा था - ओ बाबू ! गोरी को बधैया माँ, छैन रखवारा, चोरी भयो फल-फूल। ..ओ बाबू !

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रचनाएँ
फणीश्वरनाथ रेणु जी की प्रसिद्ध कहानियाँ
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फणीश्वरनाथ रेणु भारत वर्ष के साहिया समाज के बहुत ही जाने माने कविकार और कहानीकार थे| उनके लेखन ने बहुत से लोगो को मनोरंजित किया है| उनका जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया में हुआ था| उन्होंने अपने साहित्य जीवन में बहुत से उपन्यासों को सराया गया| उनकी एक बहुत ही मशहूर उपन्यास मैला आंचल को बहुत ख्याति मिली की उनको पद्म विभूषण पुरस्कार से नवाज़ा गया| हम आपके लिये फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियाँ, मारे गये गुलफाम (तीसरी कसम) एक आदिम रात्रि की महक, लाल पान की बेगम , पंचलाइट, तबे एकला चलो रे, ठेस , संवदियास्वतंत्र भारत में उनकी रचनाएं विकास को शहर-केंद्रित बनाने वालों का ध्यान अंचल के समस्याओं की ओर खींचती है। वे अपनी गहरी मानवीय संवेदनाओं के कारण अभावग्रस्त जनता की बेबसी और पीड़ा भोगते से लगते हैं। उनकी इस संवेदनशीलता के साथ यह विश्वास भी जुड़ा है कि आज के त्रस्त मनुष्य में अपने जीवन दशा को बदल लेने की शक्ति भी है।
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अतिथि-सत्कार

19 जुलाई 2022
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भला आदमी मन्दाक्रान्ता गति से बातें कर रहा था, गा-गाकर बोलता हो मानो। मैंने बाधा डालते हुए पूछा था, “किन्तु प्रधान अतिथि क्‍यों?” उनकी मन्द मुस्कुराहट जरा भी मन्द नहीं हुई और उन्होंने मेरे इस सवाल म

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इतिहास, मजहब और आदमी

19 जुलाई 2022
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उस दिन दीवाली थी-लक्ष्मी के शुभागमन का एकमात्र दिन। सुबह उठते ही मनमोहन, माँ से लड़कर “कैम्प” में चला गया था। आस-पास गाँवों में जोरों से हैजा और मलेरिया फैला हुआ था। भूख और रोग का संयुक्त मोर्चा । प

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एक अकहानी का सुपात्र

19 जुलाई 2022
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पिछले कई वर्षों से लगातार यह सुनते-सुनते कि अब 'कहानी' नाम की कोई चीज दुनिया में ऐसे ही रह गई है-मुझे भी विश्वास-सा हो चला था कि कहानी सचमुच मर गई। हमारा मौजूदा समाज “कहानीहीन' हो गया है, हठातू कहीं,

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एक रंगबाज गाँव की भूमिका

19 जुलाई 2022
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सड़क खुलने और बस 'सर्विस' चालू होने के बाद से सात नदी (और दो जंगल) पार का पिछलपाँक इलाके के हलवाहे-चरवाहे भी "चालू" हो गए हैं...! 'ए रोक-के ! कहकर “बस' को कहीं पर रोका जा सकता है और “ठे-क्हेय कहकर “

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कलाकार

19 जुलाई 2022
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काशी के बंगाली टोले की एक गन्दी गली में वह कुछ दिनों से रहने लगा था। दुबला पतला, लम्बा-सा युवक, जिसका गोरा रंग अब उतर रहा था, आँखों के नीचे की हड़डियाँ बाहर निकल रही थीं और चप्पल के फीते टूटे जा रहे

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काक चरित

19 जुलाई 2022
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किसनलाल ने सुबह उठकर अपनी दोनों तलहथियों को देखा। फिर इष्ट-नाम जाप किया ।...भजन का प्रोग्राम हो गया ? आठ बज गए ? सावित्री बाजार चली है, वह उठकर बैठ गया और बाएँ हाथ से दाहिने कन्धे को छूकर देखा...नही

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खँडहर

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लड़ाई, झगड़ा, घटना, दुर्घटना, हादसा-इस तरह की कोई भी बात नहीं हुई। तीन भहीने पर गोपालकृष्ण गाँव लौटा था। शाम को बाबूजी ने, लम्बी-चौड़ी भूमिका बाँधकर, दीन-दुनिया के नीच-ऊँच दिखाकर, बड़े प्यार से कहा-

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जड़ाऊ मुखड़ा

19 जुलाई 2022
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बटुक बाबू ने मन-ही-मन तय कर लिया - ऑपरेशन करवाना ही होगा। और, इसी जाड़े में। बटुक बाबू पिछले एक सप्ताह से मानसिक अशान्ति भोग रहे थे, चुपचाप! जब-जब उनकी इकलौती बेटी बुला सामने आती, बटुक बाबू का चेहर

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टौन्टी नैन का खेल

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‘लड़की मिडिल पास है !’ ‘मिडिल पास ?’ ‘मिडिल पास ही नहीं, दोहा कवित्त जोड़ती है।’ ‘देखने में भी, सुनते हैं कि गोरी है।’ ‘सीप्रसाद बाबू की बेटी काली कैसे होगी ?’ ‘विश्वास नहीं होता है।’ ‘सुमरचन्ना

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तव शुभ नामे

19 जुलाई 2022
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एक-एक कर बहुत सारे शब्दों को “नकारता' जा रहा हूँ 'नकार” दिया है। नेति-नेति! माता, मातृभूमि, जन्म-भूमि, देश, राष्ट्र, देशभक्ति-जैसे चालू शब्दों की अब मुझे जरूरत नहीं होती। माँ की 'ममता' और मातृभूमि प

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तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम

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हिरामन गाड़ीवान की पीठ में गुदगुदी लगती है... पिछले बीस साल से गाड़ी हाँकता है हिरामन। बैलगाड़ी। सीमा के उस पार, मोरंग राज नेपाल से धान और लकड़ी ढो चुका है। कंट्रोल के जमाने में चोरबाजारी का माल इस पार स

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न मिटनेवाली भूख

19 जुलाई 2022
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1. आठ बज रहे थे। दीदी बिछौने पर पड़ी चुपचाप टुकुर-टुकुर देख रही थी-छत की ओर। उसके बाल तकिए पर बिखरे हुए थे, इधर-उधर लटक रहे थे। एक मोटी किताब, नीचे चप्पल के पास, औंधे मुंह गिरकर न जाने कब से पड़ी हुई

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नित्य लीला

19 जुलाई 2022
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किसन ने गली से आँककर देखा, नन्दमहर और जशुमति गोशाले की अँगनाई में बैठे किसी गम्भीर बात पर सोच-विचार कर रहे हैं। पिता की मुद्रा से स्पष्ट है कि आज उनकी दाढ़ में फिर दर्द उभरा है, और सिर्फ गोधूलिवेला क

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नैना जोगिन

19 जुलाई 2022
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रतनी ने मुझे देखा तो घुटने से ऊपर खोंसी हुई साड़ी को 'कोंचा' की जल्दी से नीचे गिरा लिया। सदा साइरेन की तरह गूँजनेवाली उसकी आवाज कंठनली में ही अटक गई। साड़ी की कोंचा नीचे गिराने की हड़बड़ी में उसका 'आँ

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पहलवान की ढोलक

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जाड़े का दिन। अमावस्या की रात—ठंढ़ी और काली। मलेरिया और हैजे से पीड़ित गांव भयार्त शिशु की तरह थर—थर कांप रहा था। पुरानी और उजड़ी, बांस—फूस की झोपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य। अं

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पार्टी का भूत

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यारों की शक्ल से अजी डरता हूँ इसलिए किस पारटी के आप हैं? वह पूछ न बैठे। सूखकर काँटा हो गया हूँ। आँखें धँस गई हैं, बाल बढ़ गए हैं। पाजामा फट गया है। चप्पल टूट गई है। आशिकों की-सी सूरत हो गई है। दिन म

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बट बाबा

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गाँव से सटे, सड़क के किनारे का वह पुराना वट-वृक्ष। इस बार पतझ्ड़ में उसके पत्ते जो झड़े तो लाल-लाल कोमल पत्तियों को कौन कहे, कोंपल भी नहीं लगे। धीरे-धीरे वह सूखतां गया और एकदम सूख गया-खड़ा ही खड़ा ।

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मन का रंग

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मैं समझ गया, वह जो आदमी दो बार इस बेंच के आस-पास चक्कर लगाकर मेरे चेहरे को गौर से देखकर गया है न-वह मेरे पास ही आकर बैठेगा। बैठने से पहले मद्धिम आवाज में “कपट विनय” भरे शब्दों से मुझे जरा-सा खिसक जान

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रसप्रिया

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धूल में पड़े कीमती पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई - अपरूप-रूप! चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पँचकौड़ी मिरदंगिया के मुँह से निकल पड़ा अपरूप-रूप! ....खेतों, मैंदानों, बाग-बगी

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रेखाएँ : वृत्तचक्र

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ऊँहूँ। नहीं, यह सबकुछ भी नहीं सोचूँगा। मुझे ऐसा कुछ भी नहीं सोचना चाहिए, जिससे कि मेरा दिल कमजोर पड़ जाए। मेरा घाव जल्दी ही भर जाएगा, मैं चंगा हों जाऊँगा। मैं भी कैसा हूँ! मरने से डरता हूँ! मरने क

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लालपान की बेगम

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'क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?' बिरजू की माँ शकरकंद उबाल कर बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थी अपने आँगन में। सात साल का लड़का बिरजू शकरकंद के बदले तमाचे खा कर आँगन में लोट-पोट कर सारी देह मे

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विकट संकट

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दिग्विजय बाबू को जो लोग अच्छी तरह जानते-पहचानते हैं, वे यह कभी नहीं विश्वास करेंगे कि दिग्विजय उर्फ दिगो बाबू कभी क्रोध से पागल होकर सड़क पर, खाली देह और ऊँची आवाज में किसी को अश्लील गालियाँ दे सकते

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संकट

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मैं यह नहीं कहता कि मेरा 'सिक्स्थ-सेंस” बहुत तेज है। आदमी को यह विशेष ज्ञान नहीं दिया है, प्रकृति ने। पशुओं में, कुत्ते की षष्ठेन्द्रिय बहुत सक्रिय होती है। मैं, आदमी होकर यह दावा कैसे कर सकता हूँ ?

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ईश्वर रे, मेरे बेचारे.

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अपने संबंध में कुछ लिखने की बात मन में आते ही मन के पर्दे पर एक ही छवि 'फेड इन' हो जाया करती है : एक महान महीरुह... एक विशाल वटवृक्ष... ऋषि तुल्य, विराट वनस्पति! फिर, इस छवि के ऊपर 'सुपर इंपोज' होती ह

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अक्ल और भैंस

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जब अखबारों में 'हरी क्रान्ति’ की सफलता और चमत्कार की कहानियाँ बार-बार विस्तारपूर्वक प्रकाशित होने लगीं, तो एक दिन श्री अगमलाल 'अगम’ ने भी शहर का मोह त्यागकर, खेती करने का फैसला कर लिया। गाँव में, उनके

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अभिनय

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छन्दा ने जिस दिन घर-भर के लोगों के छप्पर - फोड़ ठहाके के बीच मुझे 'दादू” कहकर सम्बोधित किया, मैं थोड़ा अप्रतिभ हुआ था। मेरे (अकाल) परिपक्व केश के कारण ही छन्दा (जिसकी माँ मुझे देवर मानती है और जिसकी

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उच्चाटन

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ठीक वही हुआ, उसी तरह शुरू हुआ, जैसा उसने सोचा था। बरसों से मन में गुनी हुई बात अक्षर-अक्षर फल गई। रात की गाड़ी से वह गाँव लौटा-दों साल के बाद। और “मरकट-महाजन' बूढ़े मिसर को रात में ही खबर मिल गई।

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एक आदिम रात्रि की महक

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न ...करमा को नींद नहीं आएगी। नए पक्के मकान में उसे कभी नींद नहीं आती। चूना और वार्निश की गंध के मारे उसकी कनपटी के पास हमेशा चौअन्नी-भर दर्द चिनचिनाता रहता है। पुरानी लाइन के पुराने 'इस्टिसन' सब हजार

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कपड़घर

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ग्यारह साल की सरकारी नौकरी से, गत माह मैंने इस्तीफा दे दिया है। परिस्थिति के चाप से-और स्वेच्छा से भी। सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट होकर बिरनियाँ जिला आया। ग्यारह साल तक सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट ही रहा। बिरनि

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कस्बे की लड़की

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“लल्लन काका! दादाजी कह गए हैं कि लल्लन काका से कहना कि ऱरोज फुआ के साथ... !” लल्लन काका अर्थात्‌ प्रियव्रत ने अपनी भतीजी बन्दना उर्फ बून्दी को मद्धिम आवाज में डॉट बताई, “जा-जा! मालूम है जो कह गए हैं

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कुत्ते की आवाज़

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मेरा गांव ऐसे इलाके में जहां हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की – कोशी, पनार, महानन्दा और गंगा की – बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं, सावन-भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरत

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जलवा

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फातिमादि को कभी देखूँगा और इस तरह देखूँगा, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। इसलिए, कुछ देर तक 'पंटना-मार्केट” को स्वप्नलोक समझकर खोया - खोया - सा खड़ा रहा-जूते की दूकान पर । बुरके में सिर से पैर तक

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जैव

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निर्मल ने मन्द-मन्द मुस्कुराती, कमरे में प्रवेश करती हुई-विभावती से पूछा-“क्यों क्या बात है ?” विभावती हँसती हुई बोली-“बात कया होगी ? बात जो होनी थी सो हो गई ।” विभा ने स्वामी के हाथ में आज की डाक

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ठेस

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खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते। लोग उसको बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं। इसलिए, खेत-खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को। क्या होगा, उसको बुला कर? दूसरे

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तीन बिंदियाँ

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गीताली दास अपने को सुरजीवी कहती है। नाद-सुर-ताल आदि के सहारे ही वह इस मंज़िल तक पहुँच सकी है। सभी कहते हैं, उसकी साधना सफल हुई है।…कितने भोले और बेचारे होते हैं लोग! साधना के सफल-अफसल होने की घोषणा करन

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धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे

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भादों की रात। तुरत बारिस बन्द हुई है। मेढक टरटरा रहे हैं। साँप ने बेंग को पकड़ा है, बेंग की दर्द-भरी पुकार पर दिल में दया आने के बदले, भय मालूम होता है। आसपास की झाड़ियों में फैला हुआ अन्धकार और भी

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ना जाने केहि वेष में

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उस दिन अखबार में अपने दैनिक राशिफल में देखा-आदि से अन्त तक हर जगह 'शुभ' और “लाभ' ही लिखा हुआ था। यात्रा : शुभ, अमृतयोग धनागम, राज्य-सम्मान तथा मित्र-लाभ ! पता नहीं, चार दिन के बाद राशिफल में कौन-सा

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नेपथ्य का अभिनेता

19 जुलाई 2022
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यद्यपि उसे पहले भी पच्चासों बार देख चुका हूँ, किन्तु उस दिन देखकर चिहुँक-सा उठा। चकित हो गया। लगा, जैसे बिना मौसम के कोई फूल या फल देख रहा होऊँ। सावन-भादों के किचकिच में, लगातार बारिश में ई कहाँ से

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प्राणों में घुले हुए रंग

19 जुलाई 2022
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शैशव की सुनहली स्मृति, नील-गगन में उड़ते हुए रंग-बिरंगे पतंगों और मनमोहक रंगीन खिलौनों के आकर्षण को मैं जान-बूझकर छोड़े देता। उन दिनों मैं स्वयं किन्ही की रंगीन आशाओं और कल्पनाओं का केन्द्र था! मेडि

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पंचलाईट

19 जुलाई 2022
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पिछले पन्द्रह दिनों से दंड-जुरमाने के पैसे जमा करके महतो टोली के पंचों ने पेट्रोमेक्स खरीदा है इस बार, रामनवमी के मेले में। गाँव में सब मिलाकर आठ पंचायतें हैं। हरेक जाति की अलग-अलग सभाचट्टी है। सभी पं

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पुरानी कहानी : नया पाठ

19 जुलाई 2022
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बंगाल की खाड़ी में डिप्रेशन - तूफान - उठा! हिमालय की किसी चोटी का बर्फ पिघला और तराई के घनघोर जंगलों के ऊपर काले-काले बादल मँडराने लगे। दिशाएँ साँस रोके मौन-स्तब्ध! कारी-कोसी के कछार पर चरते हुए पशु

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बीमारों की दुनिया में

19 जुलाई 2022
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बीरेन की जवानी में घुन लग गया। बुखार-100० 101० 102०,..। खाँसी-भीषण ! रोग-क्ष॑य के लक्षण। कथाकारों के नायक प्रायः क्षय ही से पीड़ित होते हैं। खून की के करते हैं। कथाकार इस रोग को “रोमांटिक” रोग समझ

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रखवाला

19 जुलाई 2022
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रक्त की प्यासी सभ्य दुनिया से दूर-बहुत-दूर-हिमायल के एक पहाड़ी गावं का अंचल। छोटा-सा झोंपड़ा। पहाड़ी की ओट से छनकर आती हुई सूर्य की किरणों में छोटा-सा सरकंडे का झोंपड़ा सोने के झोंपड़े की तरह चमक रहा था।

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रसूल मिसतिरी

19 जुलाई 2022
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बहुत कम अर्से में ही इस छोटे-से गँवारू शहर में काफी परिवर्तन हो गए हैं। आशा से अधिक और शायद आवश्यकता से भी अधिक। स्कूल और होस्टल की भव्य इमारत को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि आज से महज आठ स

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लफड़ा

19 जुलाई 2022
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उस बार 'युनिट” के 'प्रोडक्शन मैनेजर” ने मेरे ठहरने की व्यवस्था “दि डायना गेस्ट हाउस' में की थी। इसके पहले मुझे खार स्टेशन के पास 'होटल सदाबहार! में टिकाया जाता था। इसलिए, नई जगह के बारे में तरह-तरह

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वंडरफुल स्टुडियो

19 जुलाई 2022
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फोटो तो अपने दर्जनों पोज में उतारे हुए अलबम में पड़े हैं, फ्रेम में मढ़े हुए अपने तथा दोस्तों के कमरों में लटक रहे हैं और एक जमाने में, यानी दो-तीन साल पहले, उन तस्‍वीरों को देखकर मुझे पहचाना भी जा सक

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विघटन के क्षण

19 जुलाई 2022
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रानीडिह की ऊँची जमीन पर - लाल माटीवाले खेत में-अक्षत-सिन्दूर बिखरे हुए हैं  हजारों गौरैया-मैना सूरज की पहली किरण फूटने के पहले ही खेत के बीच में 'कचर-पचर' कर रही हैं। बीती हुई रात के तीसरे पहर तक, ज

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संवदिया

19 जुलाई 2022
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हरगोबिन को अचरज हुआ - तो, आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस जमाने में, जबकि गांव गांव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज

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जै गंगा

19 जुलाई 2022
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जै गंगा ... इस दिन आधी रात को 'मनहरना’ दियारा के बिखरे गांवों और दूर दूर के टोलों में अचानक एक सम्मिलित करूण पुकार मची, नींद में माती हुई हवा कांप उठी – 'जै गंगा मैया की जै...’ !! अंधेरी रात में गंग

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