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काक चरित

19 जुलाई 2022

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किसनलाल ने सुबह उठकर अपनी दोनों तलहथियों को देखा।

फिर इष्ट-नाम जाप किया ।...भजन का प्रोग्राम हो गया ?

आठ बज गए ? सावित्री बाजार चली है, वह उठकर बैठ गया और बाएँ हाथ से दाहिने कन्धे को छूकर देखा...नहीं, दर्द नहीं।

फिर उसने बाँह को टीपकर देखा-नहीं, दर्द नहीं। दो-तीन बार नथुने से लम्बी साँस लेकर परीक्षा की-दोनों 'नकबासे' एकदम 'क्लियर”! आज शाम को 'अधकपाली' दर्द की भी कोई आशंका नहीं, बशर्ते...

नहीं, उसकी शंका निर्मूल थी। वह प्रसन्‍न होकर कोई गीत गुनगुनाने लगा; सामने मैदान की ओर देखने लगा।

प्रातः भ्रमण करनेवाले घर लौट रहे हैं।...लेकिन उस मोटे आदमी का मोटापा इस जीवन में अब कम नहीं होगा। सुबह को गोल मार्केट के गोल पार्क के चारों ओर दुलकी चाल में दौड़ता है।

शाम के आँधेरे में मिठाई की दुकान में आधा दर्जन रसगुल्ले और क्रीम चॉप खा आता है।

उसके खाने के ढंग को देखकर कोई भी कह सकता है कि उसे मिठाई की मनाही है और वह चुराकर 'कुपथ्य” भोजन कर रहा है; एक रसगुल्ला मुँह में डालता है और चारों ओर देखता है।

किसनलाल को हँसी आई। उस दिन भले आदमी के साथ उसका बेटा भी था।

शायद उसके साथ भेजा गया था। भले आदमी ने उसको फुसलाकर एक ओर टरका दिया था।

लेकिन ऐन मौके पर पकड़े गए बेचारे। बेटे ने बाप को धमकी दी-“बाबा! की होच्छे ?

मा के बोले दिबो!”...भले आदमी ने चार “पनतुआ' घूस देकर बेटे का मुँह बन्द किया था।

पता नहीं, क्या नाम है उनका ?

किसनलाल को उनसे सहानुभूति है।

एक दिन परिचय-पाँत करने के लिए किसनलाल उनको रसगुल्ला खिलाएगा।

सामनेवाले बिजली के खम्भे पर एक कौआ न जाने कब से बैठा काँय-काँय कंर रहा था।

एक बार उसने बहुत कर्कश स्वर में कॉय-य-य-य किया।

तब किसनलाल का ध्यान उधर गया ।...अरे-रे, यह कौआ साला क्‍या कर रहा है ?

मर्करी बार में लगे पतले तार को चोंच से खींच रहा है...रात को अँधेरा छाया रहेगा। कई दिन तक अँधेरा रहेगा।

शायद महीनों फिर, किसी दिन किसी को खयाल होगा तो तार जुड़ेगा

और रोशनी होगी घर के सामने रात में महीनों अँधेरा छाया रहेगा ?...साला कौआ भी तोड़-फोड़ करता है? 'सैबेटाज' करता है ?

किसनलाल ने पहले मुँह से 'हास-हुस्स' करके उसको उड़ाने की चेष्टा की। लेकिन, कौआ उसी तरह कॉय-कॉय करता रहा और रह-रहकर तार को चोंच से खींचता रहा ।...इस बार तोड़ ही देगा।

रसोईधर किसनलाल ने इधर-उधर देखा।

आस-पास कोई ढेला-कंकड़ नहीं ।

वह रसोईघर में घुसा । कोयले का एक टुकड़ा हाथ में लिया।

फिर रख दिया ।

कोयला दिन-दिन महँगा होता जा रहा है।

उसने तरकारी की डाली से एक आलू निकाला।

फिर रख दिया ।...नहीं, आलू क्‍यों बरबाद करे ?

इस छोटे और सूखे प्याज से काम चल जाएगा।

'अँकुराया' हुआ प्याज है। मिट्टी पाकर जड़ जमा लेगा। बेकार नहीं जाएगा।

सूखे और अँकुराए हुए प्याज को कौए की ओर फेंका उसने। अचानक हाथ का दर्द जोर से चिनचिना उठा। कौआ नहीं उड़ा लेकिन।

दर्द के मारे उसके मुँह से एक हल्की-सी चीख निकल पड़ी। और तभी सावित्री आ गई।

“क्या है ? क्या हुआ ?”

“दर्द ?

सावित्री ने मुँह बनाकर मछली की थैली एक ओर रख दी। सावित्री का मुँह बनाना वह समझता है। वह कब किस बात पर कैसा मुँह करती है, किसनलाल को छोड़कर और कौन समझेगा ? अभी सावित्री के मुँह बनाने का अर्थ हुआ-यह दर्द तुम्हारी मौत के साथ जाएगा ।...इतनी बड़ी बात ?

जब से किसनलाल के हाथ में दर्द हुआ है, दुनिया ही उससे निराश हो गई है; सभी उसे कामचोर, बहानेबाज और झूठा समझने लगे हैं। आठ महीने के बाद उसकी पत्नी भी उसके दर्द को भूल गई है। कहती है, तुम्हारा वहम है।

...वहम ?

कोई शौक से महानारायण तेल क्‍यों मालिश करेगा भला-जिसकी गन्ध से दुनिया के सभी जीव-जन्तुओं को उबकाई आती हो ?

“यह क्या ? बोआली मछली ले आई है। बोआली खाने से पुराना दर्द भी उभर जाता है, यह क्या उसकी पत्नी नहीं जानती ? अथवा, जान-बूझकर ही ले आई है ? उसने झुँझलाकर पूछा, “यह बोआली मछली कौन खाएगा ?”

सावित्री चूल्हा सुलगा रही थी। उसने कोई जवाब नहीं दिया। किसनलाल ने इस बार तीखे स्वर में कहा, “मैं अभी ही कह देता हूँ। खाने के समय फिर मुझे मत कहना। मैं बोआली मछली नहीं खाऊँगा!”

“बोआली मछली में क्‍या है ?”

“यह बादी होता है सो तुम नहीं जानतीं ?”

सावित्री ने फिर मुँह बनाया। अर्थात्‌, तुम्हारे लिए दुनिया की हर चीज बादी है।

किसनलाल का मन दुख और ग्लानि से भर गया ।...एक उस मोटे आदमी की बीवी है जो रोज उसको बिछावन से उठाकर गोल पार्क के चारों ओर दुलकी चाल में दौड़ने के लिए भेजती है। पति बाहर निकलकर कुछ 'अपथ-कुपथ' न खा ले, इसलिए बेटे को साथ में लगा देती है। और एक उसकी स्त्री है जिसका नाम सावित्री है, पर अपने पति के साथ इस' तरह दुर्व्यवहार कर रही है !

न, आज का दिन बुरी तरह कटेगा। दर्द बढ़ रहा है; बढ़ता जा रहा है। दर्द अब उसके कन्धे तक आ गया। उसकी कनपटी गरम हो रही है। दाहिना नथुना बन्द हो गया। दोपहर को ही “अधकपाली' शुरू हो जाएगी आज!

कौआ साला फिर लौटकर आ गया। शायद वह किसनलाल को चिढ़ाने आया है कि वह अपने मन से उड़कर गया था और अपने ही मन से फिर लौटकर आया है; उसको कोई नहीं उड़ा सकता।...शायद क्‍यों, यह साला सचमुच उसको चिढ़ाने आया है।

किसनलाल की ओर मुँह करके चोंच नचाकर “कॉँय-कॉय' करता है। सिर्फ कॉय-काँय नहीं, काँ-य-य-य !

क्या यह कौआ ही सारे अशुभ और असगुन का वाहक है ?...जिस दिन वह फिसलकर गिरा था उस दिन भी क्‍या सुबह को यह इसी तरह काँय-काँय कर गया था ?...आठ महीने पहले की बात याद नहीं।

लेकिन जरूर इसने अशुभ सुर में काँय-काँय किया होगा।

किसनलाल के कानों के आस-पास कौओं की तरह-तरह की बोलियाँ गूँजने लगीं ।...कःका-कःका-का-ऑँ-ऑआऑँ-कॉ-याँ-याँ-कुर्रर-का-केंका-केंका !

अभी गुलेल होता या बन्दूक ? नहीं, इस साले की जान लिए बगैर किसनलाल के जीवन में कभी सुख-चैन नहीं लौटेगा!...किसी दोस्त के पास हवाई बन्दूक भी नहीं ?

चौधरी के पास पिस्तौल है। एक दिन वह चौधरी को चाय पर बुला लाएगा। लेकिन क्‍या पिस्तौल से कौए को मारा जा सकता है ?

किसनलाल रसोईघर में घुसा। सावित्री ने पूछा, “क्या चाहिए ?”

उसने कोई जवाब नहीं दिया और कोयले का एक मँझोला-सा टुकड़ा उठा लिया।

“क्या करोगे ?”

किसनलाल ने कोई जवाब नहीं दिया। सावित्री उसके पीछे-पीछे बरामदे में आई-“क्या होगा इस कोयले का ?”

किसनलाल ने हाथ उठाया ...दर्द!...कौआ तार काटने में मशगूल है। उसने कहा, “देखती नहीं, कौआ क्या कर रहा है! महीने-भर तक अँधेरा छाया रहेगा।”

सावित्री ने देखा। उसे भी अचरज हुआ। सचमुच, कौआ तार को नोच रहा है।...मरेगा नहीं? शॉक नहीं लगता ?

सावित्री ने अपनी तीखी आबाज में 'हस्स' किया और कौआ कौं-आ-आ कहकर उह गंयों।

किसनलाल बौँह धागे खहां रहा। दर्द अब्य सारी वैह में छा गया है।

साविधी बोली, "क्रौआ भी अजब पी होता है।''

किसनलाल ने कहा, ''एक बार सारे गाँव कौ जलाकर स्वाहा कर दिया था एक कौए ने। चोंच में जलता हुआ लकड़ी का अंगारा उड़ा और एक आदमी के फूस के छप्पर पर रख दिया।...सारा गाँव राख हो गया जलकर !'

“अक्तह ?

"एक बार मेरे बाबूजी कचहरी जा रहे थे। घर के बाहर पैर निकाला ही था कि 'कौ-य'...बस, मुकदमा सेशन-सुपुर्द हो गया।'

"अच्छा !'

साविन्नी रसोईघर से ही बोली, "बड़ा मनहूस पंछी होता है यह कौआ भी ।”

किसनलाल बोला, "एक बार रायसाहब के अरबी घोड़े की आँख में चोंच मार दिया। हजार रुपए का घोड़ा बेकार हो गया ।...एक बार साहेबगंज में... ।'

“नाश्ता कर लो!"

किसनलाल नाश्ता करने लगा।

“एक बार साहेबगंज में मौलवी साहेब के घर पर बैठकर ऐसी बोली बोल गया कि कागा कि कॉलेरा हो गया । गीत में जो कहा है कि नकबेसर कागा ले भागा, सो झूठ नहीं। जरूर, नकबेसर लेकर भागा होगा साला ।”

किसनलाल को लोकगीत की पंक्तियाँ याद आईं ।...उड़-उड़ कागा छतिया पर बैठे, छतिया का सब रस ले भागा-नकबेसर... ।

“और, मैं जो गिरा था सो जानती हो? उस दिन सुबह को साला अशुभ बोली बोला था।

“तुम्हारा वहम !”

किसनलाल को गुस्सा चढ़ आया ।...दुनिया-भर के लोगों से सावित्री को सहानुभूति है अपने पति के सिवा !

“मैं सच कहता हूँ !

सावित्री चुप रही। किसनलाल को तब बोआली मछली की याद आई। उसने कहा, “लेकिन मैं बोआली मछली हरगिज नहीं खाऊँगा ।...छूना भी मना है।”

किसनलाल का मन फिर दुख और ग्लानि से भर गया। वह मुँह पोंछकर उठा... नहीं, आज का दिन ठीक नहीं। आज मौन-ब्रत पालन करके भी गृहकलह को वह नहीं टाल सकेगा ।...कौआ यों ही नहीं बोलता!

किसनलाल अब समझ गया है, उसके दुर्भाग्य के मूल में कागा और कौआ ही है। उसके सारे दुख-दर्द का कारण...!

“मैं बोआली मछली नहीं खाऊँगा। यह मैं आखिरी बार कह रहा हूँ।” सावित्री ने कोई सीधा जवाब नहीं दिया। वह अब कलह की भूमिका बाँधने लगी। विवाह के बाद से शुरू करेगी और अन्त इस दर्द पर होगा। इस सिलसिले मेँ वह किसनलाल को ही नहीं, किसनलाल के सभी हितमित्रों को समेटेगी | किसनलाल के चरित्र की व्याख्या करेगी ।...हुआ शुरू!

किसनलाल ने तय किया, वह आज दिन-भर शर्मा के घर पर रहेगा। शाम को

लौटेगा ।...लेकिन वह बोआली मछली हरगिज नहीं खाएगा। जहर खा सकता है वह मछली नहीं।

कौआ फिर लौट आया!

कहाँ जा रहे हो ?”

किसनलाल ने कोई जवाब नहीं दिया तो सावित्री स्वयं बड़बड़ाने लगी-““जाएगा और कहाँ! शर्मा और सिन्हा जैसे निठल्ले दोस्तों को छोड़कर किसके पास इतना फाजिल समय है।...शतरंज! मैं पूछती हूँ कि शतरंज के राजा और वजीर को मारकर ही दुनिया चलेगी... ?”

किसनलाल ने तय किया, आज वह शाम को भी घर नहीं लौटेगा।

सावित्री कह रही थी-“दर्द, दर्द! हाथ का दर्द! सिर का दर्द! जिसके दिल में अपनी बीवी के लिए, अपने घर के लिए दर्द नहीं, उसकी सारी देह में दर्द... !” किसनलाल को मौन-व्रत भंग करना पड़ा। वह चिल्लाया, “इस घर में कौन रह सकता है! जहाँ दिन-रात इसी तरह कॉय-काँय...!”

“मैं काँय-काँय करती हूँ ?

बिजली के खम्भे पर बैठा हुआ कौआ जोर से “कः-कॉ-आऑँ” कहकर उड़ गया। किसनलाल की देह झनझना उठी। लगा, एक शब्दभेदी वाण मारकंर भाग गया कौआ।

नहीं। किसी के रोके नहीं रुक सकता। जो होनेवाला है, आज अच्छी तरह होकर रहेगा !

रसोईघर में बर्तन झनझनाने लगे। सावित्री अब बड़बड़ाती नहीं-रो रही है; नाक-आँख पोंछ रही है।

किसनलाल को अब अपनी जिन्दगी भार लगने लगी। उसको अपनी देह पर, अपने नाम पर, अपनी बाँह पर, अपने सबकुछ पर. क्रोध हो आया । उसने कहा, “मैं कहता हूँ...।”

कॉ-आऑँ-ऑ-आ!!

दरवाजे पर किसी ने “असभ्यतापूर्वक” दस्तक दी ।

काँ-आँ-ऑआँ-आ !!

दरवाजे की कुंडी जोर से खड़खड़ाई।

किसनलाल सिर तोड़ देगा। जो भी हो। इस तरह किसी भले आदमी के घर की कुंडी खटखटाई जाती है! -कॉ-ऑ-औँ-आँ !

“क्या है ?”

“एक्सप्रेस डेलिवरी !''

किसनलाल ने गुस्से में 'शानदार-दस्तखत' कर दिया। पिउन सलाम करके चला गया।

पत्र पढ़कर किसनलाल चीख पड़ा-“सावित्री !'”

“क्या है ?” सावित्री रसोईघर से निकल आई।

बा का चेहरा लाल हो गया है, उत्तेजना के मारे। उसके होंठ थरथरा रहे हैं।

“क्या है?”

“शुभ समाचार !”...खुशखबरी !”

“खुशखबरी ?”

“देखो न! पढ़ लो खुद!”

काँ-आँ-आँ-आँ !!

पत्र पढ़कर सावित्री खिल पड़ी। वह “ठाकुरजी” की मूर्ति के सामने चिट्ठी रखकर शंख फूँकने लगी।

काँ-आँ-ऑ-आँ!!

किसनलाल बोला, “बोआली मछली का चॉप बहुत लाजवाब होता है। सो भी, तुम्हारे हाथ का।”

“नहीं, बोआली मछली से तुम्हारा दर्द बढ़ता है तो मत खाओ।”

“अरे, कहाँ का दर्द...?”

“नहीं बाबा, बादी चीज... ।”

“सावित्री, कौआ हमेशा अशुभ ही नहीं 'भाखता' है।...बोआली मछली हमेशा बादी नहीं होती ।”

किसनलाल ने मछली की थाली से भूनी हुई मछली का एक टुकड़ा उठाया, बरामदे पर गया और जोर से कौए की ओर फेंकते हुए, कहा, “ले जा! ले-ले! आ...!'

कौआ एक बार “कॉँय-य-य” करके उड़ा। फिर धरती पर पड़े हुए मछली के टुकड़े को चोंच में लेकर ताड़ के पेड़ पर जा बैठा।

किसनलाल बोला, “वह गीत याद है तुमको ?...सोने से चोंच मढ़ा दूँ रे कागा! जरा गाओ न!

सावित्री हँस पड़ी। किसनलाल जिदूद करने लगा-“डार्लिंग!...सुनो न!...इधर जरा...सच कहता हूँ...सावित्री !...तुम बहुत सुन्दर लग रही हो ।”

कॉ-ऑँ-आँ!!

किसनलाल बरामदे में आया। बोला, “अभी नहीं। चाँप बनने दो। पूरा चाँप खिलाऊँगा आज तुझे।”

कॉ-ऑँ-ऑँ-आँ!!

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फणीश्वरनाथ रेणु भारत वर्ष के साहिया समाज के बहुत ही जाने माने कविकार और कहानीकार थे| उनके लेखन ने बहुत से लोगो को मनोरंजित किया है| उनका जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया में हुआ था| उन्होंने अपने साहित्य जीवन में बहुत से उपन्यासों को सराया गया| उनकी एक बहुत ही मशहूर उपन्यास मैला आंचल को बहुत ख्याति मिली की उनको पद्म विभूषण पुरस्कार से नवाज़ा गया| हम आपके लिये फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियाँ, मारे गये गुलफाम (तीसरी कसम) एक आदिम रात्रि की महक, लाल पान की बेगम , पंचलाइट, तबे एकला चलो रे, ठेस , संवदियास्वतंत्र भारत में उनकी रचनाएं विकास को शहर-केंद्रित बनाने वालों का ध्यान अंचल के समस्याओं की ओर खींचती है। वे अपनी गहरी मानवीय संवेदनाओं के कारण अभावग्रस्त जनता की बेबसी और पीड़ा भोगते से लगते हैं। उनकी इस संवेदनशीलता के साथ यह विश्वास भी जुड़ा है कि आज के त्रस्त मनुष्य में अपने जीवन दशा को बदल लेने की शक्ति भी है।
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छन्दा ने जिस दिन घर-भर के लोगों के छप्पर - फोड़ ठहाके के बीच मुझे 'दादू” कहकर सम्बोधित किया, मैं थोड़ा अप्रतिभ हुआ था। मेरे (अकाल) परिपक्व केश के कारण ही छन्दा (जिसकी माँ मुझे देवर मानती है और जिसकी

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उच्चाटन

19 जुलाई 2022
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ठीक वही हुआ, उसी तरह शुरू हुआ, जैसा उसने सोचा था। बरसों से मन में गुनी हुई बात अक्षर-अक्षर फल गई। रात की गाड़ी से वह गाँव लौटा-दों साल के बाद। और “मरकट-महाजन' बूढ़े मिसर को रात में ही खबर मिल गई।

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एक आदिम रात्रि की महक

19 जुलाई 2022
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न ...करमा को नींद नहीं आएगी। नए पक्के मकान में उसे कभी नींद नहीं आती। चूना और वार्निश की गंध के मारे उसकी कनपटी के पास हमेशा चौअन्नी-भर दर्द चिनचिनाता रहता है। पुरानी लाइन के पुराने 'इस्टिसन' सब हजार

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कपड़घर

19 जुलाई 2022
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ग्यारह साल की सरकारी नौकरी से, गत माह मैंने इस्तीफा दे दिया है। परिस्थिति के चाप से-और स्वेच्छा से भी। सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट होकर बिरनियाँ जिला आया। ग्यारह साल तक सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट ही रहा। बिरनि

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कस्बे की लड़की

19 जुलाई 2022
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“लल्लन काका! दादाजी कह गए हैं कि लल्लन काका से कहना कि ऱरोज फुआ के साथ... !” लल्लन काका अर्थात्‌ प्रियव्रत ने अपनी भतीजी बन्दना उर्फ बून्दी को मद्धिम आवाज में डॉट बताई, “जा-जा! मालूम है जो कह गए हैं

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कुत्ते की आवाज़

19 जुलाई 2022
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मेरा गांव ऐसे इलाके में जहां हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की – कोशी, पनार, महानन्दा और गंगा की – बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं, सावन-भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरत

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जलवा

19 जुलाई 2022
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फातिमादि को कभी देखूँगा और इस तरह देखूँगा, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। इसलिए, कुछ देर तक 'पंटना-मार्केट” को स्वप्नलोक समझकर खोया - खोया - सा खड़ा रहा-जूते की दूकान पर । बुरके में सिर से पैर तक

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जैव

19 जुलाई 2022
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निर्मल ने मन्द-मन्द मुस्कुराती, कमरे में प्रवेश करती हुई-विभावती से पूछा-“क्यों क्या बात है ?” विभावती हँसती हुई बोली-“बात कया होगी ? बात जो होनी थी सो हो गई ।” विभा ने स्वामी के हाथ में आज की डाक

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ठेस

19 जुलाई 2022
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खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते। लोग उसको बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं। इसलिए, खेत-खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को। क्या होगा, उसको बुला कर? दूसरे

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तीन बिंदियाँ

19 जुलाई 2022
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गीताली दास अपने को सुरजीवी कहती है। नाद-सुर-ताल आदि के सहारे ही वह इस मंज़िल तक पहुँच सकी है। सभी कहते हैं, उसकी साधना सफल हुई है।…कितने भोले और बेचारे होते हैं लोग! साधना के सफल-अफसल होने की घोषणा करन

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धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे

19 जुलाई 2022
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भादों की रात। तुरत बारिस बन्द हुई है। मेढक टरटरा रहे हैं। साँप ने बेंग को पकड़ा है, बेंग की दर्द-भरी पुकार पर दिल में दया आने के बदले, भय मालूम होता है। आसपास की झाड़ियों में फैला हुआ अन्धकार और भी

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ना जाने केहि वेष में

19 जुलाई 2022
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उस दिन अखबार में अपने दैनिक राशिफल में देखा-आदि से अन्त तक हर जगह 'शुभ' और “लाभ' ही लिखा हुआ था। यात्रा : शुभ, अमृतयोग धनागम, राज्य-सम्मान तथा मित्र-लाभ ! पता नहीं, चार दिन के बाद राशिफल में कौन-सा

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नेपथ्य का अभिनेता

19 जुलाई 2022
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यद्यपि उसे पहले भी पच्चासों बार देख चुका हूँ, किन्तु उस दिन देखकर चिहुँक-सा उठा। चकित हो गया। लगा, जैसे बिना मौसम के कोई फूल या फल देख रहा होऊँ। सावन-भादों के किचकिच में, लगातार बारिश में ई कहाँ से

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प्राणों में घुले हुए रंग

19 जुलाई 2022
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शैशव की सुनहली स्मृति, नील-गगन में उड़ते हुए रंग-बिरंगे पतंगों और मनमोहक रंगीन खिलौनों के आकर्षण को मैं जान-बूझकर छोड़े देता। उन दिनों मैं स्वयं किन्ही की रंगीन आशाओं और कल्पनाओं का केन्द्र था! मेडि

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पंचलाईट

19 जुलाई 2022
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पिछले पन्द्रह दिनों से दंड-जुरमाने के पैसे जमा करके महतो टोली के पंचों ने पेट्रोमेक्स खरीदा है इस बार, रामनवमी के मेले में। गाँव में सब मिलाकर आठ पंचायतें हैं। हरेक जाति की अलग-अलग सभाचट्टी है। सभी पं

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पुरानी कहानी : नया पाठ

19 जुलाई 2022
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बंगाल की खाड़ी में डिप्रेशन - तूफान - उठा! हिमालय की किसी चोटी का बर्फ पिघला और तराई के घनघोर जंगलों के ऊपर काले-काले बादल मँडराने लगे। दिशाएँ साँस रोके मौन-स्तब्ध! कारी-कोसी के कछार पर चरते हुए पशु

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बीमारों की दुनिया में

19 जुलाई 2022
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बीरेन की जवानी में घुन लग गया। बुखार-100० 101० 102०,..। खाँसी-भीषण ! रोग-क्ष॑य के लक्षण। कथाकारों के नायक प्रायः क्षय ही से पीड़ित होते हैं। खून की के करते हैं। कथाकार इस रोग को “रोमांटिक” रोग समझ

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रखवाला

19 जुलाई 2022
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रक्त की प्यासी सभ्य दुनिया से दूर-बहुत-दूर-हिमायल के एक पहाड़ी गावं का अंचल। छोटा-सा झोंपड़ा। पहाड़ी की ओट से छनकर आती हुई सूर्य की किरणों में छोटा-सा सरकंडे का झोंपड़ा सोने के झोंपड़े की तरह चमक रहा था।

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रसूल मिसतिरी

19 जुलाई 2022
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बहुत कम अर्से में ही इस छोटे-से गँवारू शहर में काफी परिवर्तन हो गए हैं। आशा से अधिक और शायद आवश्यकता से भी अधिक। स्कूल और होस्टल की भव्य इमारत को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि आज से महज आठ स

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लफड़ा

19 जुलाई 2022
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उस बार 'युनिट” के 'प्रोडक्शन मैनेजर” ने मेरे ठहरने की व्यवस्था “दि डायना गेस्ट हाउस' में की थी। इसके पहले मुझे खार स्टेशन के पास 'होटल सदाबहार! में टिकाया जाता था। इसलिए, नई जगह के बारे में तरह-तरह

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वंडरफुल स्टुडियो

19 जुलाई 2022
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फोटो तो अपने दर्जनों पोज में उतारे हुए अलबम में पड़े हैं, फ्रेम में मढ़े हुए अपने तथा दोस्तों के कमरों में लटक रहे हैं और एक जमाने में, यानी दो-तीन साल पहले, उन तस्‍वीरों को देखकर मुझे पहचाना भी जा सक

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विघटन के क्षण

19 जुलाई 2022
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रानीडिह की ऊँची जमीन पर - लाल माटीवाले खेत में-अक्षत-सिन्दूर बिखरे हुए हैं  हजारों गौरैया-मैना सूरज की पहली किरण फूटने के पहले ही खेत के बीच में 'कचर-पचर' कर रही हैं। बीती हुई रात के तीसरे पहर तक, ज

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संवदिया

19 जुलाई 2022
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हरगोबिन को अचरज हुआ - तो, आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस जमाने में, जबकि गांव गांव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज

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जै गंगा

19 जुलाई 2022
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जै गंगा ... इस दिन आधी रात को 'मनहरना’ दियारा के बिखरे गांवों और दूर दूर के टोलों में अचानक एक सम्मिलित करूण पुकार मची, नींद में माती हुई हवा कांप उठी – 'जै गंगा मैया की जै...’ !! अंधेरी रात में गंग

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