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नेपथ्य का अभिनेता

19 जुलाई 2022

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यद्यपि उसे पहले भी पच्चासों बार देख चुका हूँ, किन्तु उस दिन देखकर चिहुँक-सा उठा।

चकित हो गया। लगा, जैसे बिना मौसम के कोई फूल या फल देख रहा होऊँ।

सावन-भादों के किचकिच में, लगातार बारिश में ई कहाँ से आ गया ?

क्‍यों ?

मैं ही नहीं, उसे देख सभी परिचित-अपरिचित अकचकाकर रुक जाते हैं।

कोई-कोई उसके टेबुल के निकट जाकर कुछ पूछ भी लेता है और मैं यह भी देखता हूँ कि वह घोर अनाटकीय ढंग से छोटा-सा उत्तर दे देता है।

मुझे यह समझने में कोई गलती नहीं हुई कि लोग उसे फारबिसगंज की इस छोटी - सी चाय की दुकान की एक बाँहवाली कुर्सी पर बैठा देखकर क्यों कुछ देर के लिए अकचकाकर रह जाते हैं।

मैंने मन-ही-मन अटकल लगाई-प्रायः तीस-इकतीस वर्ष पहले, इस व्यक्ति को पहले-पहल देखा था-सन उन्‍नीस सौ उनतीस में।

उसी साल पहले-पहल गुलाबबाग मेला में इतना सटकर हवाई जहाज देखा था कि सन-ईस्वी अभी तक झक-झक मन में याद है।

सन उन्‍नीस सौ उनतीस में मैं आठ-नौ वर्ष का था।

उसी वर्ष गुलाबबाग मेला में कलकत्ता की मशहूर थियेटर कम्पनी आई थी और लोगों की अपार भीड़ जमा हुई थी-तिल धरने की भी जगह नहीं थी।

मंच पर ही गाड़ी आती-जाती थी-इंजिन सहित, पुक्का फाड़ती, धुआँ उगलती हुई और लाल-पीली रोशनी में अनेक परियाँ नाचती हुईं...एह!

जीवन में पहले-पहल थियेटर देखकर कितना उत्तेजित हो गया था-आज भी वह दिन अभी तक मन में है! कितना आश्चर्यजनक!

किन्तु जब स्कूल खुला, तो सहपाठी बकुल बनर्जी ने मेरे मन को छोटा कर दिया था। यद्यपि वह भी उन दिनों आठ-नौ वर्ष का ही था, किन्तु बहुत ही तेज, जन्मजात आर्ट क्रिटिक !

उसके कथनानुसार इस नकली कम्पनी में पिछले साल नागेसरबाग मेला में आई असली कम्पनी के निकाले हुए सब लोग थे। बकुल ने कहा था कि नागेसरबाग मेला में आई कम्पनी की बातें सब कोई जानता है...चौबीस घंटे के भीतर-भीतर कम्पनी को मेला छोड़कर चले जाने का हुक्म कलक्टर साहब ने दिया था।

कलक्टर सांहब का कहना था कि यदि दो दिन भी यह कम्पनी मेला में रह गई तो पूरा जिला दरिद्र हो जाएगा, कंगाल हो जाएगा। किन्तु बकुल मुझे उदास देखकर बोला था -“तब भी

एक बात है इस कम्पनी में-जिस मानुष ने रेलवे पोर्टर का पार्ट किया हाई, वह नागेसरबाग मेला में आया हुआ कम्पनी में भी यही पार्ट करता था, यानी वेंटिग रूम में सोए हुए लड़िका को मारता था, छूरा से...उसको तो नकली नेही कहने सोकते । ”

आज भी मेरे मन में उस समय की सभी बातें हैं. .गुलाबबाग मेला...पंजाब मेल का रेलवे पोर्टर...लड़के का खून...बकुल की बातें...

करीब चार या पाँच वर्ष उपरान्त सिंहेश्वर मेला में आई हुई उमाकान्त झा कम्पनी में इस व्यक्ति को पुनः देखा था!

बिल्वमंगल नाटक में चिन्ताबाई की मजलिस में भोथिया के बाबाजी के भेष में-“काया का पिंजरा डोले रे, साँस का पंछी बोले” गाता हुआ बड़ा ही सुरगर कंठ था।

गुलाबबागवाली कम्पनी में लड़के की हत्या करनेवाला, माने हत्यारे का पार्ट करनेवाला, बाबाजी के गेरुआ वस्त्र में।

अपनी बोली वह अधिक देर तक नहीं छुपा सका-मैं भट्ट से तुरन्त पहचान गया।

किन्तु जब वह पारसी नौटंकी के एक दृश्य में कवित्त पढ़ रहा था-मृदंग कहै धिक है, धिक है मंजीर कहै किनको-किनको !

तब हाथ नचायके गणिका कहती-इनको-इनको-इनको- इनको !

उस समय मुझे तनिक भी शंका नहीं रह गई।

खूब फरिछाकर पहचान गया था बाबाजी को-वही था, जो गुलाबबाग मेला कम्पनी में वेटिंग - रूम में सूतल लड़के के छुरा भोंकने के पहले काँपते हाथ और थरथराते छुरे को देख, पागल जैसा बड़बड़ा उठा था-“क्यों मेरे हाथ!

तू क्‍यों थरथरा रहा है ? तू तो केवल अपने मालिक का हुक्म अदा कर रहा है। मत कॉँप मेरे खंजर...वक्‍त बरबाद मत कर! शिकार...सोया है चादर तानकर! ले तू भी अपना काम कर!”

बस की डुग्गी पर बड़ी जोर से चोट पड़ी थी, सभी हड़बड़ा गए थे - यह सबकुछ मेरे मन में है।

उसके बाद फिर तीसरी बार-आद्याप्रसाद की नाटक कम्पनी के “श्रीमती मंजरी' खेला में अँगरेज जज का भेष बनाकर टेबुल पर हथौड़ा ठोंककर शान्ति स्थापित करता हुआ यह व्यक्ति बोला था - “वेल मोंजरीबाई! हाम टुमको सिड़ीमटी मोंजरी का खेटाब डेटा हाइ। आज से टुमको सिड़ीमटी मोंजरी बोलेगा।

हम बोलेगा, साब बोलेगा, समझा ?” और इस दृश्य के उपरान्त कुछेक क्षणों में वही गीत गाता हुआ स्टेज पर आया था-“काया का पिंजड़ा डोरे रे” - अपनी उसी पुरानी तर्ज में।

मुझे इसे पहचानने में कहीं गलती नहीं हुई।

सब जगह उसे चीन्ह गया।

कितनी बार इसे देखा है, परन्तु ऐसा बेमौसम में नहीं।

अनटैम नहीं। और झरते हुए सावन-भादों में नहीं। प्रायः इसे मेला के मौसम (असमय) में देखा था अर्थात्‌

कार्तिक से चढ़ते बैशाख तक | इसलिए आज अचानक इस चाय की दुकान पर बैठा देखकर मैं चिहुँक उठा-उस पर इस ऑॉँयसी में ।

एक अन्दाज़ लगाया-दस-ग्यारह साल बाद इसे इस इलाके में देख रहा हैँ, इसी से एक विस्मय हुआ और एक उत्सुकता।

वह दुकान की कुर्सी पर बैठा था अवश्य, पर था अन्यमनस्क, उदास, उखड़ा हुआ, अपने में खोया हुआ | बादलों की झड़ी वह बहत देर से एकटक देख रहा था।

वह...वह...हत्यारा पोर्टर, बाबाजी...अँगरेज जज...उपदेशक...सिपाही...डाक्‌... अन्धा...फकीर...तथा आदि, आदि, आदि-सब एक ही व्यक्ति...एक ही व्यक्ति!

बहुत जोर से बिजली चमकी, बादल जोर से बरसने लगा और बहत देर के बाद उसने वही मुद्रा बनाई, जिस मुद्रा में "काया का पिंजड़ा” वाला गीत गाता था स्टेज पर!

इतने समय के बाद मेरी नजर उसकी पहनी हुई बुश्शर्ट पर पड़ी। कार्टून की छाप मिट रही थी, मैल जम रही है। नई डिजाइन की टूटी चप्पल। वह उचककर गम्भीर दृष्टि से चायवाले की ओर ताकते हुए बोला, “एक इधर भी...”

उसकी बोली सुनकर यह समझने में रत्ती-भर भी भ्रम नहीं रहा जो हत्यारा पोर्टर, या दहलानेवाला भयंकर डाकू था, या रोबीला अँगरेज जज, या शान्त उपदेशक आदि का पार्ट करता था, अब बूढ़ा हो गया है।

चाय उसे भी मिली और मुझे भी।

एक घूँट चाय पीते-पीते मुझे एक बात याद आई कि उन दिनों रात के स्टेज के एक्टर को दिन के उजाले सड़क पर या मेले में चलता देखकर कितना विस्मय होता था।

किस तरह उन लोगों का बोलना, बात करना अद्भुत लगता था-विचित्र, किन्तु अच्छा ।

याद आया-फारबिसगंज मेले की एक थियेटर कम्पनी के कुछ ऐक्टरों के पीछे बहुत देर से घूम रहा था।

एक पानी की दुकान पर सब खड़े हुए, पीछ मैं भी खड़ा हुआ।

उस दल में काफी लोग थे। लैला, मजनूँ और फरहाद, राजा, डकैत के हाथ से राजकुमारी को छुड़ानेवाला राजकुमार और प्रयोजन पड़ने पर जल्लाद बननेवाला और सबके साथ यह “काया का पिंजड़ा” गानेवाला |

मुझे पीछे खड़ा देखकर यह बोला था, “क्यों बे छोकरे, इस तरह क्‍यों घूम रहा है पीछे-पीछे? पाकेट मारेगा क्या ?”

उस छोटी अवस्था में भी मेरा मन समझ गया था कि आत्म - सम्मान पर आघात पड़ा है। अहं जाग गया। कड़ाका उत्तर दिया, “आपके पॉकेट में है ही क्या, जो कोई मारेगा ?”

“क्यों ?” वह अप्रतिभ होकर बोला था, “तू यह कैसे जानता है कि मेरा पॉकेट खाली है ?”

यद्यपि उन दिनों मैं अपने स्कूल की सबसे ऊपर की क्लास में पढ़ता था और मास्टर साहब के आदेशानुसार प्रत्येक अपरिचित से अँगरेजी में ही बात करने का अभ्यासी हो चुका था, किन्तु फिर भी मैंने खड़ी बोली में ही उत्तर दिया, “क्यों रात जो भीख माँग रहे थे-दाता तेरा भला हो!”

सब ठठाकर हँस रहे थे और बोले थे, “छोकरा तेज है।”

अब मुझे अँगरेजी झाड़नी पड़ी थी, “यू सी मिस्टर-रेलवे पोर्टर-ऐक्टर-डोंट से मी छोकरा, आइ एम मैट्रिक स्टुडेंट, यू नो ?”

इतनी पुरानी बात याद आने से मेरे होंठों पर हँसी फैल गई। प्रश्न उठा मन में कि अभी यह किस कम्पनी में काम करता है ? क्या अब भी यह उसी तरह रोबीला ही बोलता है ? वैसे ही वेटिंगरूम में लड़के पर खंजर चलाता है, वैसा ही...बैसा

मेरा ध्यान भंग हुआ। उसकी चाय खत्म हो गई थी। वह मेरी टेबुल से सटकर खड़ा हो गया था। पूछा, “आप मुझे पहचानते हो सेठ ?”

उसकी बाँह पकड़कर बैठाते हुए बोला, “मैं सेठ नहीं हूँ। खालिस आदमी हूँ।

कहिए, आजकल किस कम्पनी में हैं ? इस बेमौसम में आपको इस इलाके में देखकर मुझे काफी आश्चर्य हो रहा है।”

“साहेब, अब कहाँ की कम्पनी और कैसा थियेटर! सबको फिलम खा गया।” उसने हँसने की निरर्थक चेष्टा की।

“आपने कितनी कम्पनियों में काम किया है ?”

“साहेब, पन्द्राँ ।” लगा, जैसे उसके मन में सबकुछ सँजोकर रखा हुआ हो। निमिष मात्र के उपरान्त मेरी ओर शून्य दृष्टि से ताकता हुआ बोला, “नौ साल की उम्र में पहली बार स्टेज पर उतरा था-क्रिशन के रोल में।”

मुझे अनुभव हुआ कि मेरे सामने बीते युग का एक शेषांक बैठा है-“पारसी थियेटर' का एक टूटा हुआ अभिनेता।

सिगरेट बढ़ाते हुए पूछा, “तो आजकल क्‍या करते हैं आप ?”

वह एक क्षण चुपचाप मेरी ओर ताकता रहा, फिर सिगरेट सुलगाता हुआ बोला, “क्या करूँगा साहब! वह जो किसी शायर ने कहा है कि इश्क ने कर दिया निकम्मा...'' उसने हँसने का असफल अभिनय किया, “दस साल बाद इस इलाके में आया हूँ।

क्या नाम बताया लोगों ने-मिधिला देश | साहेब, इस इलाके में नाटक के काफी शौकीन लोग हैं...जाने को तो फिल्म में भी गया। पर जी नहीं लगा।”

इतना कहकर कनखी से एक बार इधर-उधर ताककर, फिर दयनीय दृष्टि से मेरी ओर देखता हुआ धीमे-से सकुचाता हुआ बोला, “साहेब, एक्सक्यूज मी, फॉर लास्ट टू डेज आइ एम हंगरी, वेरी हंगरी।

माँगने की हिम्मत नहीं होती किसी से...”

उसका यह अँगरेजी डायलाग घोर अनाटकीय था।

मैं कुछ कहने को ही था कि चेहरे पर आज्ञा मानने का भाव प्रदर्शित करता हुआ गिड़गिड़ाने के स्वर में बोल उठा, “हुकुम हो, तो कुछ पेश करूँ...अब तो यही एक सहारा बचा. है, ड्रामे के पुराने शौकीन मिलते हैं, सुना देता हूँ, जी हल्का हो जाता है और कुछ... ।”

वह अपने अपूर्ण वाक्य को छोड़, कोने में रखी अपनी अटैची कूदकर ले आया।

एक काली लुंगी बाहर कर मुँह झाँप लिया।

फिर लुंगी का परदा उठाया, तलवार कट मूँछवाला एक विचित्र चेहरा बाहर आया।

मद्धिम स्वर में वह बोला, “यह एक उदास-निराश नौजवान प्रेमी का डायलाग है।” एक बार वह खखसा, पुनः बोलना शुरू किया, “जालिम चपला! यह क्‍या किया। तुमने मेरे दिल के हजार टुकड़े कर दिए! जालिम !

तूने यह क्या कर डाला, क्या कर डाला, चपला...चपला...चली गई तूँ चपला। चली गई तूँ मुझे तड़पता छोड़कर... ।”

इसके बाद हिचकियाँ लेते हुए उसने जो संवाद कहे, वह मैं नहीं कह सकूँगा।

दुकान में लोगों की भीड़ लग गई थी।

चारों किनारों से लोग झुक-झुककर देख रहे थे। सबके चेहरे पर एक विचित्रता और कुतूहल का भाव था।

किन्तु सभी चुप्प, स्तब्ध! बाहर बादल रह-रहकर गरज उठता था।

उसने पुनः अपने चेहरे पर लुंगी का परदा गिरा लिया, मानो अपने को ग्रीनरूम में ले गया हो।

इस बार बड़ी-बड़ी मूँछवाला सरदार बनकरं बाहर आया। परदा उठा, वह गरजा, “क्यों वे बदकार! बता कहाँ है राजकुमार ? कहाँ है, मक्कार की औलाद...!”

हठात्‌ उस जोशीले संवाद की उठा-पटक में नकली दाँत का सेट छिटककर मुँह से बाहर आ गया।

इसी क्रम में उसने दर्जनों मुखड़े बनाए, कितने ही प्रकार के रास-संवाद सुनाए और अन्त में टोपी को भिक्षा-पात्र बनाकर लोगों की ओर ताककर बोला, “दाता तेरा लाख-लाख भला हो, आना-दो आना...दो पैसे ही सही... ।”

मेरा पैर धरती से स्पर्श कर गया।

जैसे कहीं थोड़ी चोट लगी हो, एक झटका लगा हो।

इस व्यक्ति ने अपनी कला के जादू से कितने वर्ष पीछे धकेल दिया था।

मैं पुनः वर्तमान में लौट आया।

देखा, बकुल बनर्जी मेरी ओर एकटक ताक रहा है- थोड़ा-थोड़ा होंठों के किनारे से मुस्कुराता हुआ।

बकुल उसे जोर से पूछ बैठा, “क्यों ऐक्टर मोशाय, काल इतना मेहनोत से चान्दा कर दिया, सो बस एक ही रात में भटूटी में फूँक दिया ? बाह रे मोशाय !”

जन्मजात आर्ट-क्रिटिक मेरा सहपाठी बकुल बनर्जी आज भी कला और कलाकार को पहचानने का धन्धा उसी प्रकार करता है।

सब दिन एक जैसा ही रहा वह! मेरी ओर ताकता हुआ बकुल बोला, “तू भी इसका बात में फँस गए। मुझसे काल यह कह रहा था-फॉर टू डेज आइ एम हंगरी... ।”

नहीं जानता क्यों, मुझे उस वक्‍त बकुल की यह बात अच्छी नहीं लगी।

उसे चुप रहने का इशारा किया और फुसफुसाकर पूछा, ' “बकुल, इसकी डोलती हुई काया के पिंजड़े में जो पंछी बोल रहा है, उसकी बोली को सुनकर तुमको कुछ नहीं लगा ? ठीक-ठीक बताना!”

बकुल जैसे अवाक्‌ रह गया हो।

निमिष मात्र स्तब्ध रहा, फिर धीरे-से बोला, “कुछ नहीं लगता, तो काल्ह ठो सारा दिन क्‍यों इसके साथ भीख माँगता, चोन्दा तो भीख ही हुई ।”

उसने एक निःश्वास छोड़ा, फिर कहने लगा, “क्या बताएँ, कैसा लगा ?

लगा...तुम्हारे अथवा अन्य मित्रगणों के साथ भागकर रात-भर थियेटर देखने गया हूँ, होस्टल से ।”

मैंने कहा, “हाँ बकुल, मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा।”

इसी बीच वृद्ध ऐक्टर ने अपने दूसरे, पुराने प्रसिद्ध गीत की पहली पंक्ति आरम्भ कर दी-

“सुबह हो गई निकल गए ताटे

मुझे छोड़ो चलो मेरे प्यारे!”

हठात्‌ पुनः हम लोगों के मन में मेला का मौसम जगमग करने लगा।

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अभिनय

19 जुलाई 2022
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छन्दा ने जिस दिन घर-भर के लोगों के छप्पर - फोड़ ठहाके के बीच मुझे 'दादू” कहकर सम्बोधित किया, मैं थोड़ा अप्रतिभ हुआ था। मेरे (अकाल) परिपक्व केश के कारण ही छन्दा (जिसकी माँ मुझे देवर मानती है और जिसकी

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उच्चाटन

19 जुलाई 2022
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ठीक वही हुआ, उसी तरह शुरू हुआ, जैसा उसने सोचा था। बरसों से मन में गुनी हुई बात अक्षर-अक्षर फल गई। रात की गाड़ी से वह गाँव लौटा-दों साल के बाद। और “मरकट-महाजन' बूढ़े मिसर को रात में ही खबर मिल गई।

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एक आदिम रात्रि की महक

19 जुलाई 2022
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न ...करमा को नींद नहीं आएगी। नए पक्के मकान में उसे कभी नींद नहीं आती। चूना और वार्निश की गंध के मारे उसकी कनपटी के पास हमेशा चौअन्नी-भर दर्द चिनचिनाता रहता है। पुरानी लाइन के पुराने 'इस्टिसन' सब हजार

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कपड़घर

19 जुलाई 2022
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ग्यारह साल की सरकारी नौकरी से, गत माह मैंने इस्तीफा दे दिया है। परिस्थिति के चाप से-और स्वेच्छा से भी। सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट होकर बिरनियाँ जिला आया। ग्यारह साल तक सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट ही रहा। बिरनि

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कस्बे की लड़की

19 जुलाई 2022
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“लल्लन काका! दादाजी कह गए हैं कि लल्लन काका से कहना कि ऱरोज फुआ के साथ... !” लल्लन काका अर्थात्‌ प्रियव्रत ने अपनी भतीजी बन्दना उर्फ बून्दी को मद्धिम आवाज में डॉट बताई, “जा-जा! मालूम है जो कह गए हैं

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कुत्ते की आवाज़

19 जुलाई 2022
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मेरा गांव ऐसे इलाके में जहां हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की – कोशी, पनार, महानन्दा और गंगा की – बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं, सावन-भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरत

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जलवा

19 जुलाई 2022
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फातिमादि को कभी देखूँगा और इस तरह देखूँगा, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। इसलिए, कुछ देर तक 'पंटना-मार्केट” को स्वप्नलोक समझकर खोया - खोया - सा खड़ा रहा-जूते की दूकान पर । बुरके में सिर से पैर तक

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जैव

19 जुलाई 2022
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निर्मल ने मन्द-मन्द मुस्कुराती, कमरे में प्रवेश करती हुई-विभावती से पूछा-“क्यों क्या बात है ?” विभावती हँसती हुई बोली-“बात कया होगी ? बात जो होनी थी सो हो गई ।” विभा ने स्वामी के हाथ में आज की डाक

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ठेस

19 जुलाई 2022
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खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते। लोग उसको बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं। इसलिए, खेत-खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को। क्या होगा, उसको बुला कर? दूसरे

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तीन बिंदियाँ

19 जुलाई 2022
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गीताली दास अपने को सुरजीवी कहती है। नाद-सुर-ताल आदि के सहारे ही वह इस मंज़िल तक पहुँच सकी है। सभी कहते हैं, उसकी साधना सफल हुई है।…कितने भोले और बेचारे होते हैं लोग! साधना के सफल-अफसल होने की घोषणा करन

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धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे

19 जुलाई 2022
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भादों की रात। तुरत बारिस बन्द हुई है। मेढक टरटरा रहे हैं। साँप ने बेंग को पकड़ा है, बेंग की दर्द-भरी पुकार पर दिल में दया आने के बदले, भय मालूम होता है। आसपास की झाड़ियों में फैला हुआ अन्धकार और भी

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ना जाने केहि वेष में

19 जुलाई 2022
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उस दिन अखबार में अपने दैनिक राशिफल में देखा-आदि से अन्त तक हर जगह 'शुभ' और “लाभ' ही लिखा हुआ था। यात्रा : शुभ, अमृतयोग धनागम, राज्य-सम्मान तथा मित्र-लाभ ! पता नहीं, चार दिन के बाद राशिफल में कौन-सा

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नेपथ्य का अभिनेता

19 जुलाई 2022
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यद्यपि उसे पहले भी पच्चासों बार देख चुका हूँ, किन्तु उस दिन देखकर चिहुँक-सा उठा। चकित हो गया। लगा, जैसे बिना मौसम के कोई फूल या फल देख रहा होऊँ। सावन-भादों के किचकिच में, लगातार बारिश में ई कहाँ से

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प्राणों में घुले हुए रंग

19 जुलाई 2022
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शैशव की सुनहली स्मृति, नील-गगन में उड़ते हुए रंग-बिरंगे पतंगों और मनमोहक रंगीन खिलौनों के आकर्षण को मैं जान-बूझकर छोड़े देता। उन दिनों मैं स्वयं किन्ही की रंगीन आशाओं और कल्पनाओं का केन्द्र था! मेडि

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पंचलाईट

19 जुलाई 2022
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पिछले पन्द्रह दिनों से दंड-जुरमाने के पैसे जमा करके महतो टोली के पंचों ने पेट्रोमेक्स खरीदा है इस बार, रामनवमी के मेले में। गाँव में सब मिलाकर आठ पंचायतें हैं। हरेक जाति की अलग-अलग सभाचट्टी है। सभी पं

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पुरानी कहानी : नया पाठ

19 जुलाई 2022
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बंगाल की खाड़ी में डिप्रेशन - तूफान - उठा! हिमालय की किसी चोटी का बर्फ पिघला और तराई के घनघोर जंगलों के ऊपर काले-काले बादल मँडराने लगे। दिशाएँ साँस रोके मौन-स्तब्ध! कारी-कोसी के कछार पर चरते हुए पशु

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बीमारों की दुनिया में

19 जुलाई 2022
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बीरेन की जवानी में घुन लग गया। बुखार-100० 101० 102०,..। खाँसी-भीषण ! रोग-क्ष॑य के लक्षण। कथाकारों के नायक प्रायः क्षय ही से पीड़ित होते हैं। खून की के करते हैं। कथाकार इस रोग को “रोमांटिक” रोग समझ

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रखवाला

19 जुलाई 2022
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रक्त की प्यासी सभ्य दुनिया से दूर-बहुत-दूर-हिमायल के एक पहाड़ी गावं का अंचल। छोटा-सा झोंपड़ा। पहाड़ी की ओट से छनकर आती हुई सूर्य की किरणों में छोटा-सा सरकंडे का झोंपड़ा सोने के झोंपड़े की तरह चमक रहा था।

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रसूल मिसतिरी

19 जुलाई 2022
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बहुत कम अर्से में ही इस छोटे-से गँवारू शहर में काफी परिवर्तन हो गए हैं। आशा से अधिक और शायद आवश्यकता से भी अधिक। स्कूल और होस्टल की भव्य इमारत को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि आज से महज आठ स

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लफड़ा

19 जुलाई 2022
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उस बार 'युनिट” के 'प्रोडक्शन मैनेजर” ने मेरे ठहरने की व्यवस्था “दि डायना गेस्ट हाउस' में की थी। इसके पहले मुझे खार स्टेशन के पास 'होटल सदाबहार! में टिकाया जाता था। इसलिए, नई जगह के बारे में तरह-तरह

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वंडरफुल स्टुडियो

19 जुलाई 2022
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फोटो तो अपने दर्जनों पोज में उतारे हुए अलबम में पड़े हैं, फ्रेम में मढ़े हुए अपने तथा दोस्तों के कमरों में लटक रहे हैं और एक जमाने में, यानी दो-तीन साल पहले, उन तस्‍वीरों को देखकर मुझे पहचाना भी जा सक

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विघटन के क्षण

19 जुलाई 2022
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रानीडिह की ऊँची जमीन पर - लाल माटीवाले खेत में-अक्षत-सिन्दूर बिखरे हुए हैं  हजारों गौरैया-मैना सूरज की पहली किरण फूटने के पहले ही खेत के बीच में 'कचर-पचर' कर रही हैं। बीती हुई रात के तीसरे पहर तक, ज

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संवदिया

19 जुलाई 2022
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हरगोबिन को अचरज हुआ - तो, आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस जमाने में, जबकि गांव गांव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज

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जै गंगा

19 जुलाई 2022
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जै गंगा ... इस दिन आधी रात को 'मनहरना’ दियारा के बिखरे गांवों और दूर दूर के टोलों में अचानक एक सम्मिलित करूण पुकार मची, नींद में माती हुई हवा कांप उठी – 'जै गंगा मैया की जै...’ !! अंधेरी रात में गंग

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