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कुत्ते की आवाज़

19 जुलाई 2022

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मेरा गांव ऐसे इलाके में जहां हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की – कोशी, पनार, महानन्दा और गंगा की – बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं, सावन-भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरती पर गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरों के हज़ारों झुंड-मुंड देखकर ही लोग बाढ़ की विभीषिका का अन्दाज़ लगाते हैं।

परती क्षेत्र में जन्म लेने के कारण अपने गांव के अधिकांश लोगों की तरह मैं भी तैरना नहीं जानता। किन्तु दस वर्ष की उम्र से पिछले साल तक – ब्वॉय स्काउट, स्वयंसेवक, राजनीतिक कार्यकर्त्ता अथवा रिलीफ़वर्कर की हैसियत से बाढ़-पीड़ित क्षेत्रों में काम करता रहा हूं। और लिखने की बात ? हाई स्कूल में बाढ़ पर लेख लिखकर प्रथम पुरस्कार पाने से लेकर – ‘धर्मयुग’ में ‘कथादशक’ के अन्तर्गत बाढ़ की पुरानी कहानी को नए पाठ के साथ प्रस्तुत कर चुका हूं। जय गंगा (1947), डायन कोशी (48) हड्डियों का पुल (48) आदि छुटपुट रिपोर्ताज़ के अलावा मेरे कई उपन्यासों में बाढ़ की विनाश-लीलाओं के अनेक चित्र अंकित हुए हैं। किन्तु गांव में रहते हुए बाढ़ से घिरने, बहने, भंसने और भोगने का अनुभव कभी नहीं हुआ। वह तो पटना शहर में 1967 में ही हुआ, जब अट्ठारह घंटे की अविराम वृष्टि के कारण पुनपुन का पानी राजेन्द्रनगर, कंकड़बाग तथा अन्य निचले हिस्सों में घुस आया था। अर्थात् बाढ़ को मैंने भोगा है, शहरी आदमी की हैसियत से। इसलिए इस बार जब बाढ़ का पानी प्रवेश करने लगा; पटना का पश्चिमी इलाका छाती-भर पानी में डूब गया तो हम घर में ईंधन, आलू, मोमबत्ती, दियासलाई, सिगरेट, पीने का पानी और कांपोज़ की गोलियां जमाकर बैठ गए और प्रतीक्षा करने लगे।

सुबह सुना, राजभवन और मुख्यमन्त्री-निवास प्लवित हो गया है। दोपहर में सूचना मिली, गोलघर जल से घिर गया है ! (यों, सूचना बंगला में इस वाक्य से मिली थी – ‘‘जानो ! गोलघर डूबे गेछे !’’) और पांच बजे जब कॉफ़ी हाउस जाने के लिए (तथा शहर का हाल मालूम करने) निकला तो रिक्शेवाले ने हंसकर कहा – ‘‘अब कहां जाइएगा ? कॉफ़ी हाउस में तो ‘अबले’ पानी आ गया होगा !’’

‘‘चलो, पानी कैसे घुस गया है, वही देखना है,’’ कहकर हम रिक्शा पर बैठ गए। साथ में नई कविता के एक विशेषज्ञ व्याख्याता-आचार्य-कवि मित्र थे, जो मेरी अनवरत अनर्गल-अनगढ़ गद्यमय स्वगतोक्ति से कभी बोर नहीं होते (धन्य हैं !)।

मोटर, स्कूटर, ट्रैक्टर, मोटरसाइकिल, ट्रक, टमटम, साइकिल, रिक्शा पर और पैदल लोग पानी देखने जा रहे हैं, लोग पानी देखकर लौट रहे हैं। देखने वालों की आंखों में, जुबान पर एक ही जिज्ञासा – ‘पानी कहां तक आ गया है ?’ देखकर लौटते हुए लोगों की बातचीत – ‘‘फ्रेज़र रोड पर आ गया ! आ गया क्या, पार कर गया। श्रीकृष्णपुरी, पाटलिपुत्र कॉलोनी, बोरिंग रोड, इंडस्ट्रियल एरिया का कहीं पता नहीं…अब भट्टाचार्जी रोड पर पानी आ गया होगा !…छाती-भर पानी है। विमेंस कॉलिज के पास ‘डुबाव-पानी’ है…।आ रहा है !…आ गया !!…घुस गया…डूब गया…बह गया !’’

हम जब कॉफ़ी हाउस के पास पहुंचे, कॉफ़ी हाउस बन्द कर दिया गया था। सड़क के एक किनारे एक मोटी डोरी की शक्ल में गेरुआ-झाग-फेन में उलझा पानी तेज़ी से सरकता आ रहा था। मैंने कहा – ‘‘आचार्य जी, आगे जाने की ज़रूरत नहीं। वह देखिए – आ रहा है…मृत्यु का तरल दूत !’’

आतंक के मारे दोनों हाथ बरबस जुड़ गए और सभय प्रणाम-निवेदन में मेरे मुंह से कुछ अस्फुट शब्द निकले (हां, मैं बहुत कायर और डरपोक हूं !)।

रिक्शावाला बहादुर है। कहता है – ‘‘चलिए न-थोड़ा और आगे !’’

भीड़ का एक आदमी बोला – ‘‘ए रिक्शा, करेंट बहुत तेज़ है। आगे मत जाओ !’’

मैंने रिक्शावाले से अनुनय-भरे स्वर में कहा – ‘‘लौटा ले भैया। आगे बढ़ने की ज़रूरत नहीं।’’

रिक्शा मोड़कर हम ‘अप्सरा’ सिनेमा-हॉल (सिनेमा-शो बन्द !) के बगल से गांधी मैदान की ओर चले। पैलेस होटल और इंडियन एयर लाइंस दफ़्तर के सामने पानी भर रहा था। पानी की तेज़ धार पर लाल-हरे ‘नियन’ विज्ञापनों की परछाइयां सैकड़ों रंगीन सांपों की सृष्टि कर रही थीं। गांधी मैदान की रेलिंग के सहारे हज़ारों लोग खड़े देख रहे थे। दशहरा के दिन रामलीला के ‘राम’ के रथ की प्रतीक्षा में जितने लोग रहते हैं उससे कम नहीं थे…गांधी मैदान के आनन्द-उत्सव, सभा- सम्मेलन और खेल-कूद की सारी स्मृतियों पर धीरे-धीरे एक गैरिक आवरण आच्छादित हो रहा था। हरियाली पर शनैः-शनैः पानी फिरते देखने का अनुभव सर्वथा नया था। कि इसी बीच एक अधेड़, मुस्टंड और गंवार ज़ोर-ज़ोर से बोल उठा – ‘‘ईह ! जब दानापुर डूब रहा था तो पटनियां बाबू लोग उलटकर देखने भी नहीं गए…अब बूझो !’’

मैंने अपने आचार्य-कवि मित्र से कहा – ‘‘पहचान लीजिए। यही है वह ‘आम आदमी’, जिसकी खोज हर साहित्यिक गोष्ठियों में होती रहती है। उसके वक्तव्य में ‘दानापुर’ के बदले ‘उत्तर बिहार’ अथवा कोई भी बाढ़ग्रस्त ग्रामीण क्षेत्र जोड़ दीजिए…’’

शाम के साढ़े सात बज चुके और आकाशवाणी के पटना-केन्द्र से स्थानीय समाचार प्रसारित हो रहा था। पान की दुकानों के सामने खड़े लोग चुपचाप, उत्कर्ण होकर सुन रहे थे…

‘‘…पानी हमारे स्टूडियो की सीढ़ियों तक पहुच चुका है और किसी भी क्षण स्टूडियो में प्रवेश कर सकता है।’’

समाचार दिल दहलानेवाला था। कलेजा धड़क उठा। मित्र के चेहरे पर भी आतंक की कई रेखाएं उभरी। किन्तु हम तुरन्त ही सहज हो गए; यानी चेहरे पर चेष्टा करके सहजता ले आए, क्योंकि हमारे चारों ओर कहीं कोई परेशान नज़र नहीं आ रहा था। पानी देखकर लौटे हुए लोग आम दिनों की तरह हंस-बोल रहे थे; बल्कि आज तनिक अधिक ही उत्साहित थे। हां, दुकानों में थोड़ी हड़बड़ी थी। नीचे के सामान ऊपर किए जा रहे थे। रिक्शा, टमटम, ट्रक और टेंपों पर सामान लादे जा रहे थे। ख़रीद-बिक्री बन्द हो चुकी थी। पानवालों की बिक्री अचानक बढ़ गई थी। आसन्न संकट से कोई प्राणी आतंकित नहीं दिख रहा था।

…पानवाले के आदमक़द आईने में उतने लोगों के बीच हमारी ही सूरतें ‘मुहर्रमी’ नज़र आ रही थीं। मुझे लगा, अब हम यहां थोड़ी देर भी ठहरेंगे तो वहां खड़े लोग किसी भी क्षण ठठाकर हम पर हंस सकते थे – ‘ज़रा इन बुज़दिलों का हुलिया देखो ?’ क्योंकि वहां ऐसी ही बातें चारों ओर से उछाली जा रही थीं – ‘‘एक बार डूब ही जाए !…धनुष्कोटि की तरह पटना लापता न हो जाए कहीं !…सब पाप धुल जाएगा…चलो, गोलघर के मुंडेरे पर ताश की गड्डी लेकर बैठ जाएं…विस्कोमान बिल्डिंग की छत पर क्यों नहीं ?…भई, यही माक़ूल मौका है। इनकम टैक्सवालों को ऐन इसी मौके पर काले कारबारियों के घर पर छापा मारना चाहिए। आसामी बा-माल…’’

राजेन्द्रनगर चौराहे पर ‘मैगजिन कॉर्नर’ की आखि़री सीढ़ियों पर पत्र-पत्रिकाएं पूर्ववत् बिछी हुई थीं। सोचा, एक सप्ताह की ख़ुराक एक ही साथ ले लूँ। क्या-क्या ले लूं ?…हेडली चेज़, या एक ही सप्ताह में फ्रेंच जर्मन सिखा देनेवाली किताबें, अथवा ‘योग’ सिखानेवाली कोई सचित्र किताब ? मुझे इस तरह किताबों को उलटते-पलटते देखकर दुकान का नौजवान मालिक कृष्णा पता नहीं क्यों मुस्कराने लगा। किताबों को छोड़ कई हिन्दी-बंगला और अंगरेज़ी सिने पत्रिकाएं लेकर लौटा। मित्र से विदा होते हुए कहा – ‘‘पता नहीं, कल हम कितने पानी में रहें…।बहरहाल, जो कम पानी में रहेगा वह ज़्यादा पानी में फंसे मित्र की सुधि लेगा।’’

फ़्लैट में पहुंचा ही था कि ‘जनसम्पर्क’ की गाड़ी भी लाउडस्पीकर से घोषणा करती हुई राजेन्द्रनगर पहुंच चुकी थी। हमारे ‘गोलम्बर’ के पास कोई भी आवाज़ चारों बड़े ब्लॉकोें की इमारतों से टकराकर मंडराती हुई, चार बार प्रतिध्वनित होती है। सिनेमा अथवा लॉटरी की प्रचार गाड़ी यहां पहुंचते ही – ‘भाइयो’ पुकारकर एक क्षण के लिए चुप हो जाती है। पुकार मंडराती हुई प्रतिध्वनित होती है – भाइयो…भाइयो… भाइयो.. ! एक अलमस्त जवान रिक्शाचालक है जो अक्सर रात के सन्नाटे में सवारी पहुंचाकर लौटते समय इस गोलम्बर के पास अलाप उठता है – ‘सुन मोरे बंधु रे-ए-ए…सुन मोरे मितवा-वा-वा-य…’

गोलम्बर के पास जन-सम्पर्क की गाड़ी से ऐलान किया जाने लगा – ‘भाइयो ! ऐसी सम्भावना है…कि बाढ़ का पानी…रात्रि के क़रीब बारह बजे तक…लोहानीपुर, कंकड़बाग…और राजेन्द्रनगर में…घुस जाए। अतः आप लोग सावधान हो जाएं।’

(प्रतिध्वनि। सावधान हो जाएं ! सावधान हो जाएं !!…)

मैंने गृहस्वामिनी से पूछा – ‘‘गैस का क्या हाल है ?’’

‘‘बस, उसी का डर है। अब खत्म ही होनेवाला है। असल में सिलिंडर में ‘मीटर-उटर’ की तरह कोई चीज़ नहीं होने से कुछ पता नहीं चलता। लेकिन, अन्दाज़ है कि एक या दो दिन…कोयला है। स्टोव है। मगर किरासन एक ही बोतल…’’

‘‘फ़िलहाल, बहुत है…बाढ़ का भी यही हाल है। मीटर-उटर की तरह कोई चीज़ नहीं होने से पता नहीं चलता कि कब आ धमके।’’ – मैंने कहा।

सारे राजेन्द्रनगर में ‘सावधान-सावधान’ ध्वनि कुछ देर गूंजती रही। ब्लॉक के नीचे की दुकानों से सामान हटाए जाने लगे। मेरे फ़्लैट के नीचे के दुकानदार ने पता नहीं क्यों, इतना काग़ज़ इकट्ठा कर रखा था। एक अलाव लगाकर सुलगा दिया। हमारा कमरा धुएं से भर गया।

फ़ुटपाथ पर खुली चाय की झुग्गी दुकानों में सिगड़ियां सुलगी हुई थीं और यहां बहुत रात तक मंडली बनाकर ज़ोर-ज़ोर से बातें करने का रोज़ का सिलसिला जारी था। बात के पहले या बाद में बगै़र कोई गाली जोड़े यहां नहीं बोला जाता – ‘गांधी मैदान (सरवा) एकदम लबालब भर गया…(अरे तेरी मतारी का) करंट में इतना जोर का फोर्स है कि (ससुरा) रिक्शा लगा कि उलटियै जाएगा…गांजा फुरा गया का हो रामसिंगार ? चल जाए एक चिलम ‘बालचरी-माल’ – फिर यह शहर (बेट्चः) डूबे या उबरे।’

बिजली ऑफ़िस के ‘वाचमैन साहेब’ ने पच्छिम की ओर मुंह करके ब्लॉक नम्बर एक के नीचे जमी दूसरी मंडली के किसी सदस्य से ठेठ मगही में पूछा – ‘‘का हो ! पनियां आ रहलौ है ?’’

ज़वाब में एक कुत्ते ने रोना शुरू किया। फिर दूसरे ने सुर में सुर मिलाया। फिर तीसरे ने। करुण आर्त्तनाद की भयोत्पादक प्रतिध्वनियां सुनकर सारी काया सिहर उठी। किन्तु एक साथ क़रीब एक दर्जन मानवकंठों से गालियों के साथ प्रतिवाद के शब्द निकले – ‘‘मार स्साले को। अरे चुप…चौप !’’ (प्रतिध्वनि: चौप ! चौप ! चौप !!)

कुत्ते चुप हो गए। किन्तु आनेवाले संकट को वे अपने ‘सिक्स्थ सेंस’ से भांप चुके थे…अचानक बिजली चली गई। फिर तुरत ही आ गई…शुक्र है !

भोजन करते समय मुझे टोका गया – ‘‘की होलो ? खाच्छो ना केन ?’’

‘‘खाच्छि तो…खा तो रहा हूं।’’ – मैंने कहा – ‘‘याद है ! उस बार जब पुनपुन का पानी आया था तो सबसे अधिक इन कुत्तों की दुर्दशा हुई थी।’’

हमें ‘भाइयो ! भाइयो ! सम्बोधित करता हुआ जन-सम्पर्कवालों का स्वर फिर गूंजा। इस बार ‘ऐसी सम्भावना है’ के बदले ‘ऐसी आशंका है’ कहा जा रहा था। और ऐलान में ‘ख़तरा’ और ‘होशियार’ दो नए शब्द जोड़ दिए गए थे…आशंका ! खतरा ! होशियार…

रात के साढ़े दस-ग्यारह बजे तक मोटर-गाड़ियां, रिक्शे, स्कूटर, सायकिल तथा पैदल चलनेवालों की ‘आवाजाही’ कम नहीं हुई। और दिन तो अब तक सड़क सूनी पड़ जाती थी !…पानी अब तक आया नहीं ? सात बजे शाम को फ्रेज़र रोड से आगे बढ़ चुका था।

‘‘का हो रामसिंगार, पनियां आ रहलौ है ?’’

‘‘न आ रहलौ है।’’

सारा शहर जगा हुआ है, पच्छिम की ओर कान लगाकर सुनने की चेष्टा करता हूं…हां, पीरमुहानी या सालिमपुर-अहरा अथवा जनककिशोर-नवलकिशोर रोड की ओर से कुछ हलचल की आवाज़ आ रही है। लगता है, एक-डेढ़ बजे रात तक पानी राजेन्द्रनगर पहुंचेगा।

सोने की कोशिश करता हूं। लेकिन नींद आएगी भी ? नहीं, कांपोज़ की टिकिया अभी नहीं। कुछ लिखूं ? किन्तु क्या लिखूं कविता ? शीर्षक – बाढ़ की आकुल प्रतीक्षा ? धत्त !

नींद नहीं, स्मृतियां आने लगीं – एक-एक कर। चलचित्र, के बेतरतीब दृश्यों की तरह !…

…1947…मनिहारी (तब पूर्णिया अब कटिहार ज़िला !) के इलाके़ में गुरु जी (स्व। सतीसनाथ भादुड़ी) के साथ गंगा मैया की बाढ़ से पीड़ित क्षेत्र में हम नाव पर जा रहे हैं। चारों ओर पानी ही पानी। दूर, एक ‘द्वीप’ जैसा बालूचर दिखाई पड़ा। हमने कहा, वहां चलकर ज़रा चहलक़दमी करके टांगें सीधी कर लें। भादुड़ी जी कहते हैं – ‘‘किन्तु, सावधान !…ऐसी जगहों पर क़दम रखने के पहले यह मत भूलना कि तुमसे पहले ही वहां हर तरह के प्राणी शरणार्थी के रूप में मौजूद मिलेंगे’’ और सचमुच – चींटी-चींटे से लेकर सांप-बिच्छू और लोमड़ी-सियार तक यहां पनाह ले रहे थे…भादुड़ी जी की हिदायत थी – हर नाव पर ‘पकाही घाव’ (पानी में पैर की उंगलियां सड़ जाती हैं। तलवों में भी घाव हो जाता है।) की दवा, दियासलाई की डिबिया और किरासन तेल रहना चाहिए और, सचमुच हम जहां जाते, खाने-पीने की चीज़ से पहले ‘पकाही घाव’ की दवा और दियासलाई की मांग होती…1949…उस बार महानन्दा की बाढ़ से घिरे बापसी थाना के एक गांव में हम पहुंचे। हमारी नाव पर रिलीफ़ के डॉक्टर साहब थे। गांव के कई बीमारों को नाव पर चढ़ाकर कैंप में ले जाता था। एक बीमार नौजवान के साथ उसका कुत्ता भी ‘कुंई-कुंई’ करता हुआ नाव पर चढ़ आया। डॉक्टर साहब कुत्ते को देखकर ‘भीषण भयभीत’ हो गए और चिल्लाने लगे – ‘‘आ रे ! कुकुर नहीं, कुकुर नहीं…कुकुर को भगाओ !’’ बीमार नौजवान छप्-से पानी में उतर गया – ‘‘हमारा कुकुर नहीं जाएगा तो हम हुं नहीं जाएगा।’’ फिर कुत्ता भी छपाक् पानी में गिरा – ‘हमारा आदमी नहीं जाएगा तो हम हुं नहीं जाएगा’…परमान नदी की बाढ़ में डूबे हुए एक ‘मुसहरी’ (मुसहरों की बस्ती) में हम राहत बांटने गए। ख़बर मिली थी वे कई दिनों से मछली और चूहों को झुलसाकर खा रहे हैं। किसी तरह जी रहे हैं। किन्तु टोले के पास जब हम पहुंचे तो ढोलक और मंजीरा की आवाज़ सुनाई पड़ी। जाकर देखा, एक ऊंची जगह ‘मचान’ बनाकर स्टेज की तरह बनाया गया है। ‘बलवाही’ नाच हो रहा था। लाल साड़ी पहनकर काला-कलूटा ‘नटुआ’ दुलहिन का हाव-भाव दिखला रहा था; यानी, वह ‘धानी’ है। ‘घरनी’ धानी घर छोड़कर मायके भागी जा रही है और उसका घरवाला (पुरुष) उसको मनाकर राह से लौटाने गया है। घरनी कहती है – ‘‘तुम्हारी बहन की जुबान बड़ी तेज़ है। दिन-रात ख़राब गाली बकती रहती है और तुम्हारी बुढ़िया मां बात के पहले तमाचा मारती है। मैं तुम्हारे घर लौटकर नहीं जाती।’’ तब घरवाला उससे कहता है, यानी गा-गाकर समझाता है – ‘चल गे धानी घर घुरी, बहिनिक देवै टांग तोड़ी धानी गे, बुढ़िया के करवै घर से बा-हा-र’(ओ धानी, घर लौट चलो ! बहन के पैर तोड़ दूंगा और बुढ़िया को घर से बाहर निकाल दूंगा !) इस पद के साथ ही ढोलक पर द्रुत ताल बजने लगा – ‘धागिड़गिड़ धागिड़गिड़चकैके चकधुम चकैके चकधुम-चकधुम चकधुम !’ कीचड़-पानी में लथपथ भूखे-प्यासे नर-नारियों के झुंड में मुक्त खिलखिलाहट लहरें लेने लगती है। हम रिलीफ़ बांटकर भी ऐसी हंसी उन्हें दे सकेंगे क्या ! (शास्त्री जी, आप कहां हैं ? बलवाही नाच की बात उठते ही मुझे अपने परम मित्र भोला शास्त्री की याद हमेशा क्यों आ जाती है ? यह कभी बाद में !)…एक बार, 1937 में, सिमरवनी-शंकरपुर में बाढ़ के समय ‘नाव’ को लेकर लड़ाई हो गई थी। मैं उस समय ‘बालचर’ (ब्वाय स्काउट) था। गांव के लोग नाव के अभाव में केले के पौधों का ‘भेला’ बनाकर किसी तरह काम चला रहे थे और वहीं सवर्ण जमींदार के लड़के नाव पर हारमोनियम-तबला के साथ ‘झिझिर’ (जल-विहार) करने निकले थे। गांव के नौजवानों ने मिलकर उनकी नाव छीन ली थी। थोड़ी मारपीट भी हुई थी…और 1967 में जब पुनपुन का पानी राजेन्द्रनगर में घुस आया था, एक नाव पर कुछ सजे-धजे युवक और युवतियों की टोली-टोली किसी फ़िल्म में देखे हुए कश्मीर का आनन्द घर-बैठे लेने के लिए निकली थी। नाव पर स्टोव जल रहा था – केतली चढ़ी हुई थी, बिस्कुट के डिब्बे खुले हुए थे, एक लड़की प्याली में चम्मच डालकर एक अनोखी अदा से नेस्कैफ़े के पाउडर को मथ रही थी – ‘एस्प्रेसो’ बना रही थी, शायद। दूसरी लड़की बहुत मनोयोग से कोई सचित्र और रंगीन पत्रिका पढ़ रही थी। एक युवक दोनों पांवों को फैलाकर बांस की लग्गी से नाव खे रहा था। दूसरा युवक पत्रिका पढ़नेवाली लड़की के सामने, अपने घुटने पर कोहनी टेककर कोई मनमोहक ‘डायलॉग’ बोल रहा था। पूरे वॉल्युम में बजते हुए ‘ट्रांज़िस्टर’ पर गाना आ रहा था – ‘हवा में उड़ता जाए, मोरा लाल दुपट्टा मलमल का, हो जी हो जी !’ हमारे ब्लाक के पास गोलम्बर में नाव पहुंची ही थी कि अचानक चारों ब्लाक की छतों पर खड़े लड़कों ने एक ही साथ किलकारियों, सीटियों, फब्तियों की वर्षा कर दी और इस गोलम्बर में किसी भी आवाज की प्रतिध्वनि मंडरा-मंडराकर गूंजती है। सो सब मिलाकर स्वयं ही जो ध्वनि-संयोजन हुआ उसे बड़े-से-बड़ा गुणी संगीत निर्देशक बहुत कोशिश के बावजूद नहीं कर पाते। उन फूहड़ युवकों की सारी ‘एक्ज़िबिशनिज़्म’ तुरत छूमंतर हो गई और युवतियों के रंगे लाल-लाल ओंठ और गाल काले पड़ गए। नाव पर अकेला ट्रांज़िस्टर था जो पूरे दम के साथ मुखर था – ‘नैया तोरी मंझधार, होश्यार होश्यार !’

‘‘का हो रामसिंगार, पनियां आ रहलौ है ?’’

‘‘ऊंहूं, न आ रहलौ है।’’

ढाई बज गए, मगर पानी अब तक आया नहीं। लगता है कहीं अटक गया, अथवा जहां तक आना था आकर रुक गया, अथवा तटबन्ध पर लड़ते हुए इंजीनियरों की जीत हो गई शायद, या कोई दैवी चमत्कार हो गया ! नहीं तो पानी कहीं भी जाएगा तो किधर से ? रास्ता तो इधर से ही है…चारों ब्लाकों के प्रायः सभी फ़्लैटों की रोशनी जल रही है, बुझ रही है। सभी जगे हुए हैं। कुत्ते रह-रहकर सामूहिक रुदन शुरू करते हैं और उन्हें रामसिंगार की मंडली डांटकर चुप करा देती है। चौप…चौप !

मुझे अचानक अपने उन मित्रों और स्वजनों की याद आई जो कल से ही पाटलिपुत्र कॉलोनी, श्रीकृष्णपुरी, बोरिंग रोड के अथाह जल में घिरे हैं…जितेन्द्र जी, विनीता जी, बाबू भैया, इंदिरा जी, पता नहीं कैसे हैं – किस हाल में हैं वे ! शाम को एक बार पड़ोस में जाकर टेलिफोन करने के लिए चोंगा उठाया – बहुत देर तक कई नम्बर डायल करता रहा। उधर सन्नाटा था एकदम। कोई शब्द नहीं – ‘टुंग फुंग’ कुछ भी नहीं।

बिस्तर पर करवट लेते हुए फिर एक बार मन में हुआ, कुछ लिखना चाहिए। लेकिन क्या लिखना चाहिए ? कुछ भी लिखना सम्भव नहीं और क्या ज़रूरी है कि कुछ लिखा ही जाए ? नहीं। फिर स्मृतियों को जगाऊं तो अच्छा…पिछले साल अगस्त में नरपतगंज थाना के चकरदाहा गांव के पास छाती-भर पानी में खड़ी एक आसन्नप्रसवा हमारी ओर गाय की तरह टुकुर-टुकुर देख रही थी…

नहीं, अब भूली-बिसरी याद नहीं। बेहतर है, आंखें मूंदकर सफ़ेद भेड़ों के झुंड देखने की चेष्टा करूं…उजले-उजले, सफे़द भेड़…सफ़ेद भेड़ों के झुंड। झुंड…किन्तु सभी उजले भेड़ अचानक काले हो गए। बार-बार आंखें खोलता हूं, मूंदता हूं। काले को उजला करना चाहता हूं। भेड़ों के झुंड भूरे हो जाते हैं। उजले भेड़…उजले भेड़…काले भूरे…किन्तु उजले…उजले…गेहुंए रंग के भेड़… !

‘‘आई द्याखो – एसे गेछे जल !’’ – झकझोरकर मुझे जगाया गया।

घड़ी देखी, ठीक साढ़े पांच बज रहे थे। सवेरा हो चुका था…आ रहलौ है ! आ रहलौ है पनियां। पानी आ गेलौ। हो रामसिंगार ! हो मोहन ! हो रामचन्नर – अरे हो…

आंखें मलता हुआ उठा,। पच्छिम की ओर, थाना के सामने सड़क पर मोटी डोरी की शक्ल में – मुंह में झाग-फेन लिए – पानी आ रहा है; ठीक वैसा ही जैसा शाम को कॉफ़ी हाउस के पास देखा था। पानी के साथ-साथ चलता हुआ, किलोल करता हुआ बच्चों का एक दल…उधर, पच्छिम-दक्षिण कोने पर – दिनकर अतिथिशाला से और आगेे – भंगी बस्ती के पास बच्चे कूद क्यों रहे हैं ? नहीं, बच्चे नहीं, पानी है। वहां मोड़ है, थोड़ा अवरोध है – इसलिए पानी उछल रहा है…पच्छिम-उत्तर की ओर, ब्लॉक नम्बर एक के पास-पुलिस चौकी के पिछवाड़े में पानी का पहला रेला आया…ब्लॉक नम्बर चार के नीचे सेठ की दुकान के बाएं बाजू में लहरें नाचने लगीं।

अब मैं दौड़कर छत पर चला गया। चारों ओर शोर-कोलाहल-कलरव-चीख़-पुकार और पानी का कलकल रव। लहरों का नर्त्तन। सामने फ़ुटपाथ को पारकर अब पानी हमारे पिछवाड़े में सशक्त बहने लगा है। गोलम्बर के गोल पार्क के चारों ओर पानी नाच रहा है…आ गया, आ गया ! पानी बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है, चढ़ रहा है, करेंट कितना तेज़ है ? सोन का पानी है। नहीं, गंगा जी का है। आ गैलो…

सामने की दीवार की ईंटें जल्दी-जल्दी डूबती जा रही हैं। बिजली के खम्भे का काला हिस्सा डूब गया। ताड़ के पेड़ का तना क्रमशः डूबता जा रहा है…डूब रहा है।

…अभी यदि मेरे पास मूवी कैमरा होता, अगर एक टेप-रेकॉर्डर होता ! बाढ़ तो बचपन से ही देखता आया हूं, किन्तु पानी का इस तरह आना कभी नहीं देखा। अच्छा हुआ जो रात में नहीं आया। नहीं तो भय के मारे न जाने मेरा क्या हाल होता…देखते ही देखते गोल पार्क डूब गया। हरियाली लोप हो गई। अब हमारे चारों ओर पानी नाच रहा था…भूरे रंग के भेड़ों के झंुड। भेड़ दौड़ रहे हैं – भूरे भेड़। वह चायवाले की झोंपड़ी गई, गई, चली गई। काश, मेरे पास एक मूवी कैमरा होता, एक टेप-रेकॉर्डर होता…तो क्या होता ? अच्छा है, कुछ भी नहीं। क़लम थी, वह भी चोरी चली गई। अच्छा है, कुछ भी नहीं – मेरे पास।

अचानक सारी देह में कंपकंपी शुरू हुई। पानी के बढ़ने की यह रफ़्तार है तो पता नहीं पानी कितना बढ़े। वहां कोई बैठा थोड़ी है कि रोक देगा – अब नहीं, बस अब, हो गया। ‘ग्राउंड-फ़्लोर’ में छाती-भर पानी है। इसके बाद भी यदि पानी बढ़ता गया तो दूसरी मंज़िल तक न भी आए – कंट्रेक्टर द्वारा निर्मित यह मकान निश्चय ही ढह जाएगा। 1967 में पुनपुन का पानी एक सप्ताह तक झेल चुके हैं ये मकान। हर साल घनघोर वर्षा के बाद कई दिनों तक घुटने-भर पानी में डूबे रहते हैं। और सरज़मीन ठोस नहीं – ‘गार्बेज’ भरकर नगर बसाया गया है…पुनपुन की बाढ़ इसके ‘पासंग’ बराबर भी नहीं थी। दोनों ओर से तेज़ धारा गुज़र रही है। पानी चक्राकार नाच रहा है, अर्थात् दोनों ओर गड्डे गहरे हो रहे हैं…बेबस कुत्तों का सामूहिक रुदन, बहते हुए सूअर के बच्चों की चिचियाहट, कोलाहल- कलरव-कुहराम !…हो रामसिंगार, रिक्शवा बहलो हो। घर-घर-घर !

…कल एक पत्र गांव भेज दिया था। किन्तु कल एक कप कॉफ़ी नहीं पी सका। कल ‘दोसा’ खाने को बहुत मन कर रहा था…कोक पीने की इच्छा हो रही है। कंठ सूख रहा है। प्रियजनों की याद आ रही है।

थर-थर कांपता हुआ छत से उतरकर फ़्लैट में आया और ठाकुुर रामकृष्ण देव के पास जाकर बैठ गया – ‘ठाकुर ! रक्षा करो। बचाओ इस शहर को…इस जलप्रलय में…’

‘‘अरे दुर साला। कांदछिस केन ?…रोता क्यों है ! बाहर देख ! साले ! तुम लोग थोड़ी-सी मस्ती में जब चाहो तब राह-चलते ‘कमर दुलिए-दुलिए (कमर लचकाकर, कूल्हे मटकाकर) ट्वीस्ट नाच सकते हो। रंबा-संबा-हीरा-टीरा और उलंग नृत्य कर सकते हो और बृहत सर्वग्रासी महामत्ता रहस्यमयी प्रकृति कभी नहीं नाचेगी ?…ए-बार नाच देख ! भयंकरी नाच रही है – ता-ता थेई-थेेई, ता-ता थेई-थेई। तीव्रा तीव्रवेगा शिवनर्त्तकी गीतप्रिया वाद्यरता प्रेतनृत्यपरायणा नाच रही है। जा, तू भी नाच !’’

अगरबत्ती जलाकर, शंख फूंकता हूं – नाचो मां !…उलंगिनी नाचे रणरंगे, आमरा नृत्य करि संगे। ता-ता थेई-थेई, ता-ता थेई-थेई…मदमत्ता मातंगिनी उलंगिनी – जी भरकर नाचो !

बाहर कलरव-कोलाहल बढ़ता ही जाता है। मोटर, ट्रक, ट्रैक्टर, स्कूटर पानी की धारा को चीरती, गरजती-गुर्राती गुज़रती हैं…सुबह सात बजे ही धूप इतनी तीखी हो गई ? सांस लेने में कठिनाई हो रही है। सम्भवतः ऐसी घड़ी में वातावरण में ऑक्सिजन की कमी हो जाती है। उमस, पसीना, कम्पन, धड़कन ? तो, क्या…तो क्या ?

अब, तुमुल तरंगिनी के तरल नृत्य और वाद्य की ध्वनियों को शब्दों में बांधना असम्भव है ! अब…अब…सिर्फ़…हिल्लोल-कल्लोल-कलकल कुलकुल-छहर-छहर- झहर-झहर-झरझर-अर, र-र-र है-ए-ए धिग्रा-ध्रिंग-धातिन-धा तिन धा-आ-आहै मैया-गे-झांय-झांरय-झघ-झघ झांय झिझिना-झिझिना कललकुलल-कुलकुल- बां-आं-य-बां-ऑ-म-भौ-ऊं-ऊं…चेईं -चेईं छछना-छछना-हा-हा-हा ततथा-ततथा- कलकल-कुलकुल… !!

पानी बढ़ना रुक गया है ? ऐं ? रुक गया है ? बीस मिनट हो गए। पानी जस-का-तस, जहां-का-तहां है ? कम-से-कम अभी तो रुक गया है।

…तू-ऊ-ऊ-ऊ ! फिर मैंने शंखध्वनि की ? नहीं, रेलवे-लाइन पर एक इंजन तार स्वर में चीख रहा है – तू-ऊ-ऊ-ऊ-ऊ !

कड़वी चाय के साथ कांपोज़ की दो टिकिया लेकर बिछावन पर लेट जाता हूं।

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रचनाएँ
फणीश्वरनाथ रेणु जी की प्रसिद्ध कहानियाँ
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फणीश्वरनाथ रेणु भारत वर्ष के साहिया समाज के बहुत ही जाने माने कविकार और कहानीकार थे| उनके लेखन ने बहुत से लोगो को मनोरंजित किया है| उनका जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया में हुआ था| उन्होंने अपने साहित्य जीवन में बहुत से उपन्यासों को सराया गया| उनकी एक बहुत ही मशहूर उपन्यास मैला आंचल को बहुत ख्याति मिली की उनको पद्म विभूषण पुरस्कार से नवाज़ा गया| हम आपके लिये फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियाँ, मारे गये गुलफाम (तीसरी कसम) एक आदिम रात्रि की महक, लाल पान की बेगम , पंचलाइट, तबे एकला चलो रे, ठेस , संवदियास्वतंत्र भारत में उनकी रचनाएं विकास को शहर-केंद्रित बनाने वालों का ध्यान अंचल के समस्याओं की ओर खींचती है। वे अपनी गहरी मानवीय संवेदनाओं के कारण अभावग्रस्त जनता की बेबसी और पीड़ा भोगते से लगते हैं। उनकी इस संवेदनशीलता के साथ यह विश्वास भी जुड़ा है कि आज के त्रस्त मनुष्य में अपने जीवन दशा को बदल लेने की शक्ति भी है।
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अतिथि-सत्कार

19 जुलाई 2022
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भला आदमी मन्दाक्रान्ता गति से बातें कर रहा था, गा-गाकर बोलता हो मानो। मैंने बाधा डालते हुए पूछा था, “किन्तु प्रधान अतिथि क्‍यों?” उनकी मन्द मुस्कुराहट जरा भी मन्द नहीं हुई और उन्होंने मेरे इस सवाल म

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इतिहास, मजहब और आदमी

19 जुलाई 2022
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उस दिन दीवाली थी-लक्ष्मी के शुभागमन का एकमात्र दिन। सुबह उठते ही मनमोहन, माँ से लड़कर “कैम्प” में चला गया था। आस-पास गाँवों में जोरों से हैजा और मलेरिया फैला हुआ था। भूख और रोग का संयुक्त मोर्चा । प

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एक अकहानी का सुपात्र

19 जुलाई 2022
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पिछले कई वर्षों से लगातार यह सुनते-सुनते कि अब 'कहानी' नाम की कोई चीज दुनिया में ऐसे ही रह गई है-मुझे भी विश्वास-सा हो चला था कि कहानी सचमुच मर गई। हमारा मौजूदा समाज “कहानीहीन' हो गया है, हठातू कहीं,

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एक रंगबाज गाँव की भूमिका

19 जुलाई 2022
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सड़क खुलने और बस 'सर्विस' चालू होने के बाद से सात नदी (और दो जंगल) पार का पिछलपाँक इलाके के हलवाहे-चरवाहे भी "चालू" हो गए हैं...! 'ए रोक-के ! कहकर “बस' को कहीं पर रोका जा सकता है और “ठे-क्हेय कहकर “

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कलाकार

19 जुलाई 2022
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काशी के बंगाली टोले की एक गन्दी गली में वह कुछ दिनों से रहने लगा था। दुबला पतला, लम्बा-सा युवक, जिसका गोरा रंग अब उतर रहा था, आँखों के नीचे की हड़डियाँ बाहर निकल रही थीं और चप्पल के फीते टूटे जा रहे

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काक चरित

19 जुलाई 2022
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किसनलाल ने सुबह उठकर अपनी दोनों तलहथियों को देखा। फिर इष्ट-नाम जाप किया ।...भजन का प्रोग्राम हो गया ? आठ बज गए ? सावित्री बाजार चली है, वह उठकर बैठ गया और बाएँ हाथ से दाहिने कन्धे को छूकर देखा...नही

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खँडहर

19 जुलाई 2022
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लड़ाई, झगड़ा, घटना, दुर्घटना, हादसा-इस तरह की कोई भी बात नहीं हुई। तीन भहीने पर गोपालकृष्ण गाँव लौटा था। शाम को बाबूजी ने, लम्बी-चौड़ी भूमिका बाँधकर, दीन-दुनिया के नीच-ऊँच दिखाकर, बड़े प्यार से कहा-

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जड़ाऊ मुखड़ा

19 जुलाई 2022
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बटुक बाबू ने मन-ही-मन तय कर लिया - ऑपरेशन करवाना ही होगा। और, इसी जाड़े में। बटुक बाबू पिछले एक सप्ताह से मानसिक अशान्ति भोग रहे थे, चुपचाप! जब-जब उनकी इकलौती बेटी बुला सामने आती, बटुक बाबू का चेहर

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टौन्टी नैन का खेल

19 जुलाई 2022
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‘लड़की मिडिल पास है !’ ‘मिडिल पास ?’ ‘मिडिल पास ही नहीं, दोहा कवित्त जोड़ती है।’ ‘देखने में भी, सुनते हैं कि गोरी है।’ ‘सीप्रसाद बाबू की बेटी काली कैसे होगी ?’ ‘विश्वास नहीं होता है।’ ‘सुमरचन्ना

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तव शुभ नामे

19 जुलाई 2022
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एक-एक कर बहुत सारे शब्दों को “नकारता' जा रहा हूँ 'नकार” दिया है। नेति-नेति! माता, मातृभूमि, जन्म-भूमि, देश, राष्ट्र, देशभक्ति-जैसे चालू शब्दों की अब मुझे जरूरत नहीं होती। माँ की 'ममता' और मातृभूमि प

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तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम

19 जुलाई 2022
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हिरामन गाड़ीवान की पीठ में गुदगुदी लगती है... पिछले बीस साल से गाड़ी हाँकता है हिरामन। बैलगाड़ी। सीमा के उस पार, मोरंग राज नेपाल से धान और लकड़ी ढो चुका है। कंट्रोल के जमाने में चोरबाजारी का माल इस पार स

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न मिटनेवाली भूख

19 जुलाई 2022
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1. आठ बज रहे थे। दीदी बिछौने पर पड़ी चुपचाप टुकुर-टुकुर देख रही थी-छत की ओर। उसके बाल तकिए पर बिखरे हुए थे, इधर-उधर लटक रहे थे। एक मोटी किताब, नीचे चप्पल के पास, औंधे मुंह गिरकर न जाने कब से पड़ी हुई

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नित्य लीला

19 जुलाई 2022
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किसन ने गली से आँककर देखा, नन्दमहर और जशुमति गोशाले की अँगनाई में बैठे किसी गम्भीर बात पर सोच-विचार कर रहे हैं। पिता की मुद्रा से स्पष्ट है कि आज उनकी दाढ़ में फिर दर्द उभरा है, और सिर्फ गोधूलिवेला क

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नैना जोगिन

19 जुलाई 2022
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रतनी ने मुझे देखा तो घुटने से ऊपर खोंसी हुई साड़ी को 'कोंचा' की जल्दी से नीचे गिरा लिया। सदा साइरेन की तरह गूँजनेवाली उसकी आवाज कंठनली में ही अटक गई। साड़ी की कोंचा नीचे गिराने की हड़बड़ी में उसका 'आँ

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पहलवान की ढोलक

19 जुलाई 2022
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जाड़े का दिन। अमावस्या की रात—ठंढ़ी और काली। मलेरिया और हैजे से पीड़ित गांव भयार्त शिशु की तरह थर—थर कांप रहा था। पुरानी और उजड़ी, बांस—फूस की झोपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य। अं

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पार्टी का भूत

19 जुलाई 2022
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यारों की शक्ल से अजी डरता हूँ इसलिए किस पारटी के आप हैं? वह पूछ न बैठे। सूखकर काँटा हो गया हूँ। आँखें धँस गई हैं, बाल बढ़ गए हैं। पाजामा फट गया है। चप्पल टूट गई है। आशिकों की-सी सूरत हो गई है। दिन म

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बट बाबा

19 जुलाई 2022
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गाँव से सटे, सड़क के किनारे का वह पुराना वट-वृक्ष। इस बार पतझ्ड़ में उसके पत्ते जो झड़े तो लाल-लाल कोमल पत्तियों को कौन कहे, कोंपल भी नहीं लगे। धीरे-धीरे वह सूखतां गया और एकदम सूख गया-खड़ा ही खड़ा ।

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मन का रंग

19 जुलाई 2022
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मैं समझ गया, वह जो आदमी दो बार इस बेंच के आस-पास चक्कर लगाकर मेरे चेहरे को गौर से देखकर गया है न-वह मेरे पास ही आकर बैठेगा। बैठने से पहले मद्धिम आवाज में “कपट विनय” भरे शब्दों से मुझे जरा-सा खिसक जान

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रसप्रिया

19 जुलाई 2022
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धूल में पड़े कीमती पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई - अपरूप-रूप! चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पँचकौड़ी मिरदंगिया के मुँह से निकल पड़ा अपरूप-रूप! ....खेतों, मैंदानों, बाग-बगी

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रेखाएँ : वृत्तचक्र

19 जुलाई 2022
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ऊँहूँ। नहीं, यह सबकुछ भी नहीं सोचूँगा। मुझे ऐसा कुछ भी नहीं सोचना चाहिए, जिससे कि मेरा दिल कमजोर पड़ जाए। मेरा घाव जल्दी ही भर जाएगा, मैं चंगा हों जाऊँगा। मैं भी कैसा हूँ! मरने से डरता हूँ! मरने क

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लालपान की बेगम

19 जुलाई 2022
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'क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?' बिरजू की माँ शकरकंद उबाल कर बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थी अपने आँगन में। सात साल का लड़का बिरजू शकरकंद के बदले तमाचे खा कर आँगन में लोट-पोट कर सारी देह मे

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विकट संकट

19 जुलाई 2022
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दिग्विजय बाबू को जो लोग अच्छी तरह जानते-पहचानते हैं, वे यह कभी नहीं विश्वास करेंगे कि दिग्विजय उर्फ दिगो बाबू कभी क्रोध से पागल होकर सड़क पर, खाली देह और ऊँची आवाज में किसी को अश्लील गालियाँ दे सकते

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संकट

19 जुलाई 2022
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मैं यह नहीं कहता कि मेरा 'सिक्स्थ-सेंस” बहुत तेज है। आदमी को यह विशेष ज्ञान नहीं दिया है, प्रकृति ने। पशुओं में, कुत्ते की षष्ठेन्द्रिय बहुत सक्रिय होती है। मैं, आदमी होकर यह दावा कैसे कर सकता हूँ ?

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ईश्वर रे, मेरे बेचारे.

19 जुलाई 2022
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अपने संबंध में कुछ लिखने की बात मन में आते ही मन के पर्दे पर एक ही छवि 'फेड इन' हो जाया करती है : एक महान महीरुह... एक विशाल वटवृक्ष... ऋषि तुल्य, विराट वनस्पति! फिर, इस छवि के ऊपर 'सुपर इंपोज' होती ह

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अक्ल और भैंस

19 जुलाई 2022
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जब अखबारों में 'हरी क्रान्ति’ की सफलता और चमत्कार की कहानियाँ बार-बार विस्तारपूर्वक प्रकाशित होने लगीं, तो एक दिन श्री अगमलाल 'अगम’ ने भी शहर का मोह त्यागकर, खेती करने का फैसला कर लिया। गाँव में, उनके

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अभिनय

19 जुलाई 2022
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छन्दा ने जिस दिन घर-भर के लोगों के छप्पर - फोड़ ठहाके के बीच मुझे 'दादू” कहकर सम्बोधित किया, मैं थोड़ा अप्रतिभ हुआ था। मेरे (अकाल) परिपक्व केश के कारण ही छन्दा (जिसकी माँ मुझे देवर मानती है और जिसकी

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उच्चाटन

19 जुलाई 2022
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ठीक वही हुआ, उसी तरह शुरू हुआ, जैसा उसने सोचा था। बरसों से मन में गुनी हुई बात अक्षर-अक्षर फल गई। रात की गाड़ी से वह गाँव लौटा-दों साल के बाद। और “मरकट-महाजन' बूढ़े मिसर को रात में ही खबर मिल गई।

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एक आदिम रात्रि की महक

19 जुलाई 2022
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न ...करमा को नींद नहीं आएगी। नए पक्के मकान में उसे कभी नींद नहीं आती। चूना और वार्निश की गंध के मारे उसकी कनपटी के पास हमेशा चौअन्नी-भर दर्द चिनचिनाता रहता है। पुरानी लाइन के पुराने 'इस्टिसन' सब हजार

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कपड़घर

19 जुलाई 2022
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ग्यारह साल की सरकारी नौकरी से, गत माह मैंने इस्तीफा दे दिया है। परिस्थिति के चाप से-और स्वेच्छा से भी। सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट होकर बिरनियाँ जिला आया। ग्यारह साल तक सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट ही रहा। बिरनि

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कस्बे की लड़की

19 जुलाई 2022
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“लल्लन काका! दादाजी कह गए हैं कि लल्लन काका से कहना कि ऱरोज फुआ के साथ... !” लल्लन काका अर्थात्‌ प्रियव्रत ने अपनी भतीजी बन्दना उर्फ बून्दी को मद्धिम आवाज में डॉट बताई, “जा-जा! मालूम है जो कह गए हैं

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कुत्ते की आवाज़

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मेरा गांव ऐसे इलाके में जहां हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की – कोशी, पनार, महानन्दा और गंगा की – बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं, सावन-भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरत

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जलवा

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फातिमादि को कभी देखूँगा और इस तरह देखूँगा, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। इसलिए, कुछ देर तक 'पंटना-मार्केट” को स्वप्नलोक समझकर खोया - खोया - सा खड़ा रहा-जूते की दूकान पर । बुरके में सिर से पैर तक

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जैव

19 जुलाई 2022
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निर्मल ने मन्द-मन्द मुस्कुराती, कमरे में प्रवेश करती हुई-विभावती से पूछा-“क्यों क्या बात है ?” विभावती हँसती हुई बोली-“बात कया होगी ? बात जो होनी थी सो हो गई ।” विभा ने स्वामी के हाथ में आज की डाक

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ठेस

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खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते। लोग उसको बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं। इसलिए, खेत-खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को। क्या होगा, उसको बुला कर? दूसरे

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तीन बिंदियाँ

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गीताली दास अपने को सुरजीवी कहती है। नाद-सुर-ताल आदि के सहारे ही वह इस मंज़िल तक पहुँच सकी है। सभी कहते हैं, उसकी साधना सफल हुई है।…कितने भोले और बेचारे होते हैं लोग! साधना के सफल-अफसल होने की घोषणा करन

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धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे

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भादों की रात। तुरत बारिस बन्द हुई है। मेढक टरटरा रहे हैं। साँप ने बेंग को पकड़ा है, बेंग की दर्द-भरी पुकार पर दिल में दया आने के बदले, भय मालूम होता है। आसपास की झाड़ियों में फैला हुआ अन्धकार और भी

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ना जाने केहि वेष में

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उस दिन अखबार में अपने दैनिक राशिफल में देखा-आदि से अन्त तक हर जगह 'शुभ' और “लाभ' ही लिखा हुआ था। यात्रा : शुभ, अमृतयोग धनागम, राज्य-सम्मान तथा मित्र-लाभ ! पता नहीं, चार दिन के बाद राशिफल में कौन-सा

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नेपथ्य का अभिनेता

19 जुलाई 2022
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यद्यपि उसे पहले भी पच्चासों बार देख चुका हूँ, किन्तु उस दिन देखकर चिहुँक-सा उठा। चकित हो गया। लगा, जैसे बिना मौसम के कोई फूल या फल देख रहा होऊँ। सावन-भादों के किचकिच में, लगातार बारिश में ई कहाँ से

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प्राणों में घुले हुए रंग

19 जुलाई 2022
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शैशव की सुनहली स्मृति, नील-गगन में उड़ते हुए रंग-बिरंगे पतंगों और मनमोहक रंगीन खिलौनों के आकर्षण को मैं जान-बूझकर छोड़े देता। उन दिनों मैं स्वयं किन्ही की रंगीन आशाओं और कल्पनाओं का केन्द्र था! मेडि

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पंचलाईट

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पिछले पन्द्रह दिनों से दंड-जुरमाने के पैसे जमा करके महतो टोली के पंचों ने पेट्रोमेक्स खरीदा है इस बार, रामनवमी के मेले में। गाँव में सब मिलाकर आठ पंचायतें हैं। हरेक जाति की अलग-अलग सभाचट्टी है। सभी पं

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पुरानी कहानी : नया पाठ

19 जुलाई 2022
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बंगाल की खाड़ी में डिप्रेशन - तूफान - उठा! हिमालय की किसी चोटी का बर्फ पिघला और तराई के घनघोर जंगलों के ऊपर काले-काले बादल मँडराने लगे। दिशाएँ साँस रोके मौन-स्तब्ध! कारी-कोसी के कछार पर चरते हुए पशु

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बीमारों की दुनिया में

19 जुलाई 2022
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बीरेन की जवानी में घुन लग गया। बुखार-100० 101० 102०,..। खाँसी-भीषण ! रोग-क्ष॑य के लक्षण। कथाकारों के नायक प्रायः क्षय ही से पीड़ित होते हैं। खून की के करते हैं। कथाकार इस रोग को “रोमांटिक” रोग समझ

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रखवाला

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रक्त की प्यासी सभ्य दुनिया से दूर-बहुत-दूर-हिमायल के एक पहाड़ी गावं का अंचल। छोटा-सा झोंपड़ा। पहाड़ी की ओट से छनकर आती हुई सूर्य की किरणों में छोटा-सा सरकंडे का झोंपड़ा सोने के झोंपड़े की तरह चमक रहा था।

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रसूल मिसतिरी

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बहुत कम अर्से में ही इस छोटे-से गँवारू शहर में काफी परिवर्तन हो गए हैं। आशा से अधिक और शायद आवश्यकता से भी अधिक। स्कूल और होस्टल की भव्य इमारत को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि आज से महज आठ स

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लफड़ा

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उस बार 'युनिट” के 'प्रोडक्शन मैनेजर” ने मेरे ठहरने की व्यवस्था “दि डायना गेस्ट हाउस' में की थी। इसके पहले मुझे खार स्टेशन के पास 'होटल सदाबहार! में टिकाया जाता था। इसलिए, नई जगह के बारे में तरह-तरह

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वंडरफुल स्टुडियो

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फोटो तो अपने दर्जनों पोज में उतारे हुए अलबम में पड़े हैं, फ्रेम में मढ़े हुए अपने तथा दोस्तों के कमरों में लटक रहे हैं और एक जमाने में, यानी दो-तीन साल पहले, उन तस्‍वीरों को देखकर मुझे पहचाना भी जा सक

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विघटन के क्षण

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रानीडिह की ऊँची जमीन पर - लाल माटीवाले खेत में-अक्षत-सिन्दूर बिखरे हुए हैं  हजारों गौरैया-मैना सूरज की पहली किरण फूटने के पहले ही खेत के बीच में 'कचर-पचर' कर रही हैं। बीती हुई रात के तीसरे पहर तक, ज

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संवदिया

19 जुलाई 2022
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हरगोबिन को अचरज हुआ - तो, आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस जमाने में, जबकि गांव गांव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज

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जै गंगा

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जै गंगा ... इस दिन आधी रात को 'मनहरना’ दियारा के बिखरे गांवों और दूर दूर के टोलों में अचानक एक सम्मिलित करूण पुकार मची, नींद में माती हुई हवा कांप उठी – 'जै गंगा मैया की जै...’ !! अंधेरी रात में गंग

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