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संवदिया

19 जुलाई 2022

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हरगोबिन को अचरज हुआ - तो, आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस जमाने में, जबकि गांव गांव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज सकता है और वहां का कुशल संवाद मंगा सकता है। फिर उसकी बुलाहट क्यों हुई है?

हरगोबिन बड़ी हवेली की टूटी ड्योढ़ी पार कर अंदर गया। सदा की भांति उसने वातावरण को सूंघकर संवाद का अंदाज लगया। ...निश्चय ही कोई गुप्त संवाद ले जाना है। चांद-सूरज को भी नहीं मालूम हो! परेवा-पंछी तक न जाने!

‘‘पांवलागी बड़ी बहुरिया!’’

बड़ी हवेली की बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन को पीढ़ी दी और आंख के इशारे से कुछ देर चुपचाप बैठने को कहा... बड़ी हवेली अब नाम-मात्र को ही बड़ी हवेली है! जहां दिन-रात नौकर-नौकरानियों और जन-मजदूरों की भीड़ लगी रहती थी, वहां आज हवेली की बड़ी बहुरिया अपने हाथ से सूप में अनाज लेकर झटक रही है। इन हाथों में सिर्फ मेंहदी लगाकर ही गांव की नाइन परिवार पालती थी। कहां गए वे दिन? हरगोबिन ने एक लंबी सांस ली।

बड़े भैया के मरने के बाद ही जैसे सब खेल खत्म हो गया। तीनों भाइयों ने आपस में लड़ाई-झगड़ा शुरू कर दिया। रैयतों ने ज़मीन पर दावे करके दखल किया। फिर, तीनों भाई गांव छोड़कर शहर जा बसे। रह गयी अकेली बड़ी बहुरिया। कहां जाती बेचारी!

भगवान भले आदमी को ही कष्ट देते हैं। नहीं तो एक घंटे की बीमारी में बड़े भैया क्यों मरते? .... बड़ी बहुरिया की देह से जवेर खींच-खींच कर बंटवारे की लीला हुई, हरगोबिन ने देखी है अपनी आंखों से द्रौपदी-चीरहरण लीला! बनारसी साड़ी को तीन टुकड़े करके बंटवारा किया था, निर्दयी भाइयों ने। बेचारी बड़ी बहुरिया!

गांव की मोदिआइन बूढ़ी न जाने कब से आंगन में बैठकर बड़बड़ा रही थी - ‘‘उधार का सौदा खाने में बड़ा मीठा लगता है और दाम देते समय मोदिआइन की बात कड़वी लगती है। मैं आज दाम लेकर ही उठूंगी।’’

बड़ी बहुरिया ने कोई जवाब नहीं दिया।

हरगोबिन ने फिर लम्बी सांस ली। जब तक यह मोदिआइन आंगन से नहीं टलती, बड़ी बहुरिया हरगोबिन से कुछ नहीं बोलेगी। वह अब चुप नहीं रह सका, ‘‘मोदिआइन काकी, बाकी-बकाया वसूलने का यह काबुली कायदा तो तुमने खूब सीखा है!’’

‘काबुली कायदा’ सुनते ही मोदिआइन तमककर खड़ी हो गई, ‘‘चुप रह, मुंहझौंसे! निमोंछिये...!

‘‘क्या करूं काकी, भगवान ने मूंछ-दाढ़ी दी नहीं, न काबुली आगा साहब की तरह गुलज़ार दाढ़ी...!

‘‘फिर काबुल का नाम लिया तो जीभ पकड़कर खींच लूंगी।’’

हरगोबिन ने जीभ बाहर निकालकर दिखलाई। अर्थात् - ‘‘खींच ले।’’

...पांच साल पहले गुल मुहम्मद आगा उधार कपड़ा लगाने के लिए गांव आता था और मोदिआइन के ओसारे पर दुकान लगाकर बैठता था। आगा कपड़ा देते समय बहुत मीठा बोलता और वसूली के समय जोर-जुल्म से एक का दो वसूलता। एक बार कई उधार लेनेवालों ने मिलकर काबुली की ऐसी मरम्मत कर दी कि फिर लौटकर गांव में नहीं आया। लेकिन इसके बाद ही दुखनी मोदिआइन लाल मोदिआइन हो गयी। ...काबुली क्या, काबुली बादाम के नाम से भी चिढ़ने लगी मोदिआइन! गांव के नाचवालों ने नाम में काबुली का स्वांग किया था: ‘‘तुम अमारा मुलुम जाएगा मोदिआइन? अम काबुली बादाम-पिस्ता-अकरोट किलायगा...!’’

मेदिआइन बड़बड़ाती, गाली देती हुई चली गई तो बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन से कहा, ’’हरगोबिन भाई, तुमको एक संवाद ले जाना है। आज ही। बोलो, जाओगे न ?

‘‘कहां?’’

‘‘मेरी मां के पास!’’

हरगोबिन बड़ी बहुरिया की छलछलाई हुई आंखों में डूब गया, ’’कहिए, क्या संवाद?’’

संवाद सुनाते समय बड़ी बहुरिया सिसकियां लेने लगी। हरगोबिन की आंखें भी भर आईं। ...बड़ी हवेली की लछमी को पहली बार इस तरह सिसकते देखा है हरगोबिन ने। वह बोला, ‘‘बड़ी बहुरिया, दिल को कड़ा कीजिए।’’

‘‘और कितना कड़ा करूं दिल?’’ ...मां से कहना मैं भाई-भाभियों की नौकरी करके पेट पालूंगी। बच्चों के जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूंगी, लेकिन यहां अब नहीं... अब नहीं रह सकूंगी। ...कहना, यदि मां मुझे यहां से नहीं ले जाएगी तो मैं किसी दिन गले में घड़ा बांधकर पोखरे में डूब मरूंगी। ...बथुआ साग खाकर कब तक जीऊं ? किसलिए.... किसके लिए?’’

हरगोबिन का रोम-रोम कलपने लगा। देवर-देवरानियां भी कितने बेदर्द हैं। ठीक अगहनी धान के समय बाल-बच्चों को लेकर शहर से आएंगे। दस-पंद्रह दिनों में कर्ज-उधार की ढेरी लगाकर, वापस जाते समय दो-दो मन के हिसाब से चावल-चूड़ा ले जाएंगे। फिर आम के मौसम में आकर हाजिर। कच्चा-पक्का आम तोड़कर बोरियों में बंद करके चले जाएंगे। फिर उलटकर कभी नहीं देखते... राक्षस हैं सब!

बड़ी बहुरिया आंच के खूंट से पांच रूपए का एक गन्दा नोट निकालकर बोली, ‘‘पूरा राह खर्च भी नहीं जुटा सकी। आने का खर्चा मां से मांग लेना। उम्मीद है, भैया तुहारे साथ ही आवेंगे।’’

हरगोबिन बोला, ‘‘बड़ी बहुरिया, राह खर्च देने की जरूरत नहीं। मैं इन्तजाम कर लूंगा।’’

‘‘तुम कहां से इन्तजाम करोगे?’’

‘‘मैं आज दस बजे की गाड़ी से ही जा रहा हूं।’’

बड़ी बहुरिया हाथ में नोट लेकर चुपचाप, भावशून्य दृष्टि से हरगोबिन को देखती रही। हरगोबिन हवेली से बाहर आ गया। उसने सुना, बड़ी बहुरिया कह रही थी, ‘‘मैं तुम्हारी राह देख रही हूं।’’

संवदिया! अर्थात् संवादवाहक!

हरगोबिन संवदिया! ...संवाद पहुंचाने का काम सभी नहीं कर सकते। आदमी भगवान के घर से ही संवदिया बनकर आता है। संवाद के प्रत्येक शब्द को याद रखना, जिस सुर और स्वर में संवाद सुनाया गया है, ठीक उसी ढंग से जाकर सुनाना, सहज काम नहीं। गांव के लोगों की गलत धारणा है कि निठल्ला, कामचार और पेटू आदमी ही संवदिया का काम करता है। न आगे नाथ, न पीछे पगहा। बिना मजदूरी लिए ही जो गांव-गांव संवाद पहुंचावे, उसको और क्या कहेंगे? ...औरतों का गुलाम। ज़रा-सी मीठी बोली सुनकर ही नशे में आ जाए, ऐसे मर्द को भी भला मर्द कहेंगे? किन्तु, गांव में कौन ऐसा है, जिसके घर की मां-बहू-बेटी का संवाद हरगोबिन ने नहीं पहुंचाया है। ....लेकिन ऐसा संवाद पहली बार ले जा रहा है वह।

गाड़ी पर सवार होते ही हरगोबिन को पुराने दिनों और संवादों की याद आने लगी। एक करूण गीत की भूली हुई कड़ी फिर उसके कानों के पास गूंजने लगीः

‘‘पैयां पड़ूं दाढ़ी धरूं....

हमरी संवाद लेले जाहु रे संवदिया या-या!...’’

बड़ी बहुरिया के संवाद का प्रत्येक शब्द उसके मन में कांटे की तरह चुभ रहा है - किसके भरोसे यहां रहूंगी? एक नौकर था, वह भी कल भाग गया। गाय खूंटे से बंधी भूखी-प्यासी हिकर रही है। मैं किसके लिए इतना दुःख झेलूं?

हरगोबिन ने अपने पास बैठे हुए एक यात्री से पूछा, ‘‘क्यों भाई साहेब, थाना बिहपुर में सभी गाड़ियां रूकती हैं या नहीं?’’

यात्री ने मानो कुढ़कर कहा, ’’थाना बिहपुर में सभी गाड़ियां रूकती हैं।’’

हरगोबिन ने भांप लिया यह आदमी चिड़चिड़े स्वभाव का है। इससे कोई बातचीत नहीं जमेगी। वह फिर बड़ी बहुरिया के संवाद को मन ही मन दुहराने लगा। ...लेकिन, संवाद सुनाते समय वह अपने कलेजे को कैसे संभाल सकेगा! बड़ी बहुरिया संवाद कहते समय जहां-जहां रोई है, वहां भी रोएगा!

कटिहार जंक्शन पहुंचकर उसने देखा, पन्द्रह-बीस साल में बहुत कुछ बदल गया है। अब स्टेशन पर उतरकर किसी से कुछ पूछने की कोई जरूरत नहीं। गाड़ी पहुंची और तुरन्त भोंपे से आवाज़ अपने-आप निकलने लगी - थाना बिहपुर, खगड़िया और बरौनी जानेवाली यात्री तीन नम्बर प्लेटफार्म पर चले जाएं। गाड़ी लगी हुई है।

हरगोबिन प्रसन्न हुआ-कटिहार पहुंचने के बाद ही मालूम होता है कि सचमुच सुराज हुआ है। इसके पहले कटिहार पहुंचकर किस गाड़ी में चढ़ें और किधर जाएं, इस पूछताछ में ही कितनी बार उसकी गाड़ी छूट गई है।

गाड़ी बदलने के बाद फिर बड़ी बहुरिया का करूण मुखड़ा उसकी आंखों के सामने उभर गयाः ‘हरगोबिन भाई, मां से कहना, भगवान ने आंखें फेर ली, लेकिन मेरी मां तो है... किसलिए... किसके लिए... मैं बथुआ की साग खाकर कब तक जीऊं ?’

थाना बिहपुर स्टेशन पर जब गाड़ी पहुंची तो हरगोबिन का जी भारी हो गया। इसके पहले भी कई भला-बुरा संवाद लेकर वह इस गांव में आया है, कभी ऐसा नहीं हुआ। उसके पैर गांव की ओर बढ़ ही नहीं रहे थे। इसी पगडंडी से बड़ी बहुरिया अपने मैके लौट आवेगी। गांव छोड़ चली आवेगी। फिर कभी नहीं जाएगी!

हरगोबिन का मन कलपने लगा - तब गांव में क्या रह जाएगा? गांव की लक्ष्मी ही गांव छोड़कर चली आवेगी! ...किस मुंह से वह ऐसा संवाद सुनाएगा? कैसे कहेगा कि बड़ी बहुरिया बथुआ साग खाकर गुजर कर रही है। ...सुननेवाले हरगोबिन के गांव का नाम लेकर थूकेंगे, कैसा गांव है, जहां लक्ष्मी जैसी बहुरिया दुःख भोग रही है।

अनिच्छापूर्वक हरगोबिन ने गांव में प्रवेश किया।

हरगोबिन को देखते ही गांव के लोगों ने पहचान लिया - जलालगढ़ गांव का संवदिया आया है!... न जाने क्या संवाद लेकर आया है!

‘‘राम-राम भाई! कहो, कुशल समाचार ठीक है न?’’

‘‘राम-राम भैया जी। भगवान की दया से सब आनन्दी है।’’

‘‘उधर पानी-बूंदी पड़ा है?’’

बड़ी बहुरिया के बड़े भाई ने पहले हरगोबिन को नहीं पहचाना। हरगोबिन ने अपना परिचय दिया, तो उन्होंने सबसे पहले अपनी बहिन का समाचार पूछा, ’’दीदी कैसी हैं?’’

‘‘भगवान की दया से सब राजी-खुशी है।’’

मुंह-हाथ धोने के बाद हरगोबिन की बुलाहट आंगन में हुई। अब हरगोबिन कांपने लगा। उसका कलेजा धड़कने लगा - ऐसा तो कभी नहीं हुआ?

...बड़ी बहुरिया की छलछलाई हुई आंखें! ...सिसकियों से भरा हुआ संवाद! उसने बड़ी बहुरिया की बूढ़ी माता को पांवलागी की।

बूढ़ी माता ने पूछा, कहो बेटा, क्या समाचार है?’’

‘‘मायजी, आपके आर्शीवाद से सब ठीक है।’’

‘‘कोई संवाद?’’

‘‘एं ? ...संवाद ? ...जी, संवाद तो कोई नहीं। मैं कल सिरसिया गांव आया था, तो सोचा कि एक बार चलकर आप लोगों का दर्शन कर लूं।’’

बूढ़ी माता हरगोबिन की बात सुनकर कुछ उदास-सी हो गई, तो तुम कोई संवाद लेकर नहीं आए हो?’’

‘‘जी नहीं, कोई संवाद नहीं। ...ऐसे बड़ी बहुरिया ने कहा है कि यदि छुट्टी हुई तो दशहरा के समय गंगाजी के मेले में आकर मां से भेंट-मुलाकात कर जाऊंगी।’’ बूढ़ी माता चुप रही। हरगोबिन बोला, ‘‘छुट्टी कैसे मिले! सारी गृहस्थी बड़ी बहुरिया के ऊपर ही है।’’

बूढ़ी माता बोली, "मैं तो बबुआ से कह रही थी कि जाकर दीदी को लिवा लाओ, यहीं रहेगी। वहां अब क्या रह गया है? ज़मीन-जायदाद तो सब चली ही गई। तीनों देवर अब शहर में जाकर बस गए हैं। कोई खोज-खबर भी नहीं लेते। मेरी बेटी अकेली....!’’

‘‘नहीं, मायजी। जमीन-जायदाद अभी भी कुछ कम नहीं। जो है, वही बहुत है। टूट भी गई है, तो आखिर बड़ी हवेली ही है। ‘सवांग’ नहीं है, यह बात ठीक है। मगर, बड़ी बहुरिया का तो सारा गांव ही परिवार है। हमारे गांव की लछमी है बड़ी बहुरिया। ...गांव की लछमी गांव को छोड़कर शहर कैसे जाएगी? यों, देवर लोग हर बार आकर ले जाने की जिद्द करते हैं।’’

बूढ़ी माता ने अपने अपने हाथ हरगोबिन को जलपान लाकर दिया, ‘‘पहले थोड़ा जलपान कर लो, बबुआ।’’

जलपान करते समय हरगोबिन को लगा, बड़ी बहुरिया दालान पर बैठी उसकी राह देख रही है- भूखी, प्यासी...! रात में भोजन करते समय भी बड़ी बहुरिया मानों सामने आकर बैठ गई...कर्ज-उधार अब कोई देते नहीं। ....एक पेट तो कुत्ता भी पालता है। लेकिन, मैं ?....मां से कहना...!!

हरगोबिन ने थाली की ओर देखा - भात-दाल, तीन किस्म की भाजी, घी, पापड़ अचार।... बड़ी बहुरिया बथुआ साग उबालकर खा रही होगी।

बूढ़ी माता ने कहा, ‘‘क्यों बबुआ, खाते क्यों नहीं?’’

‘‘मायजी, पेट भर जलपान जो कर लिया है।’’

‘‘अरे, जवान आदमी तो पांच बार जलपान करके भी एक थाल भात खाता है।’’

हरगोबिन ने कुछ नहीं खाया। खाया नहीं गया।

संवदिया डटकर खाता है और ‘अफर’ कर सोता है, किन्तु हरगोबिन को नींद नहीं आ रही है। ...यह उसने क्या किया? क्या कर दिया? वह किसलिए आया था? वह झूठ क्यों बोला? ...नहीं, नहीं, सुबह उठते ही वह बूढ़ी माता को बड़ी बहुरिया का सही संवाद सुना देगा- अक्षर-अक्षर: ‘मायजी, आपकी एकलौती बेटी बहुत कष्ट में है। आज ही किसी को भेजकर बुलवा लीजिए। नहीं तो वह सचमुच कुछ कर बैठेगी। आखिर, किसके लिए वह इतना सहेगी!... बड़ी बहुरिया ने कहा है, भाभी के बच्चों के जूठन खाकर वह एक कोने में पड़ी रहेगी...!’

रात-भर हरगोबिन को नींद नहीं आई।

आंखों के सामने बड़ी बहुरिया बैठी रही-सिसकती, आंसू पोंछती हुई। सुबह उठकर उसने दिल को कड़ा किया। वह संवदिया है। उसका काम है सही-सही संवाद पहुंचाना। वह बड़ी बहुरिया का संवाद सुनाने के लिए बूढ़ी माता के पास जा बैठा। बूढ़ी माता ने पूछा, ‘‘क्या है बबुआ, कुछ कहोगे?’’

‘‘मायजी, मुझे इसी गाड़ी से वापस जाना होगा। कई दिन हो गए।’’

‘‘अरे इतनी जल्दी क्या है! एकाध दिन रहकर मेहमानी कर लो।’’

‘‘नहीं, मायजी, इस बार आज्ञा दीजिए। दशहरा में मैं भी बड़ी बहुरिया के साथ आऊंगा। तब डटकर पंद्रह दिनों तक मेहमानी करूंगा।’’

बूढ़ी माता बोली, ‘‘ऐसा जल्दी थी तो आए ही क्यों! सोचा था, बिटिया के लिए दही-चूड़ा भेजूंगी। सो दही तो नहीं हो सकेगा आज। थोड़ा चूड़ा है बासमती धान का, लेते जाओ।’’

चूड़ा की पोटली बगल में लेकर हरगोबिन आंगन से निकला तो बड़ी बहुरिया के बड़े भाई ने पूछा, ‘‘क्यों भाई, राह खर्च है तो?’’

हरगोबिन बोला, "भैयाजी, आपकी दुआ से किसी बात की कमी नहीं।’’

स्टेशन पर पहुंचकर हरगोबिन ने हिसाब किया। उसके पास जितने पैसे हैं, उससे कटिहार तक का टिकट ही वह खरीद सकेगा। और यदि चौअन्नी नकली साबित हुई तो सैमापुर तक ही। ...बिना टिकट के वह एक स्टेशन भी नहीं जा सकेगा। डर के मारे उसकी देह का आधा खून गया।

गाड़ी में बैठते ही उसकी हालत अजीब हो गई। वह कहां आया था? क्या करके जा रहा है? बड़ी बहुरिया को ज्या जवाब देगा?

यदि गाड़ी में निरगुन गाने वाला सूरदास नहीं आता, तो न जाने उसकी क्या हालत होती! सूरदास के गीतों को सुनकर उसका जी स्थिर हुआ, थोड़ा 

...कि आहो रामा!

नैहरा को सुख सपन भयो अब,

देश पिया को डोलिया चली...ई...ई....ई,

माई रोओ मति, यही करम गति...!!

सूरदास चला गया तो उसके मन में बैठी हुई बड़ी बहुरिया फिर रोने लगी - ‘किसके लिए इतना दुःख सहूं ?’

पांच बजे भोर में वह कटिहार स्टेशन पहुंचा। भोंपे से आवाज़ आ रही थी- बैरगाछी, कुसियार और जलालगढ़ जाने वाली यात्री एक नम्बर प्लेटफार्म पर चले जाएं।

हरगोबिन को जलालगढ़ स्टेशन जाना है, किन्तु वह एक नम्बर प्लेटफार्म पर कैसे जाएगा? उसके पास तो कटिहार तक का ही टिकट है। ...जलालगढ़! बीस कोस! बड़ी बहुरिया राह देख रही होगी। ... बीस कोस की मंजिल भी कोई दूर की मंजिल है? वह पैदल ही जाएगा।

हरगोबिन महावीर-विक्रम-बजरंगी का नाम लेकर पैदल ही चल पड़ा। दस कोस तक वह मानो ‘बाई’ के झोंके पर रहा। कसबा शहर पहुंचकर उसने पेट भर पानी पी लिया। पोटली में नाक लगाकर उसने सूंघा: अहा! बासमती धान का चूड़ा है। मां की सौगात-बेटी के लिए। नहीं, वह इससे एक मुठ्ठी भी नहीं खा सकेगा। ....किन्तु वह क्या जवाब देगा बड़ी बहुरिया को!

उसके पैर लड़खड़ाए। ...उंहूं, अभी वह कुछ नहीं सोचेगा। अभी सिर्फ चलना है। जल्दी पहुंचना है, गांव। ...बड़ी बहुरिया की डबडबाई हुई आंखें उसको गांव की ओर खींच रही थीं - ‘मैं बैठी राह ताकती रहूंगी!...’

पन्द्रह कोस! ...मां से कहना, अब नहीं रह सकूंगी।

सोलह...सत्रह...अठ्ठारह...जलालगढ़ स्टेशन का सिग्नल दिखाई पड़ता है... गांव का ताड़ सिर ऊंचा करके उसकी चाल को देख रहा है। उसी ताड़ के नीचे बड़ी हवेली के दालान पर चुपचाप टकटकी लगाकर राह देख रही है बड़ी बहुरिया- भूखी-प्यासी: ‘हमरो संवाद लेले जाहु रे संवदिया...या...या...या!!’

लेकिन, यह कहां चला आया हरगोबिन? यह कौन गांव है? पहली सांझ में ही अमावस्या का अंधकार! किस राह से वह किधर जा रहा है? ...नदी है? कहां से आ गई नदी? नदी नहीं, खेत है। ....ये झोंपड़े हैं या हाथियों का झुण्ड? ताड़ का पेड़ किधर गया? वह राह भूलकर न जाने कहां भटक गया... इस गांव में आदमी नहीं रहते क्या? ...कहीं कोई रोसनी नहीं, किससे पूछे? ...वहां, वह रोशनी है या आंखें? वह खड़ा है या चल रहा है? वह गाड़ी में है या धरती पर....?

‘‘हरगोबिन भाई, आ गए?’’ बड़ी बहुरिया की बोली या कटिहार स्टेशन का भोंपा बोल रहा है?

‘‘हरगोबिन भाई, क्या हुआ तुमको...’’

‘‘बड़ी बहुरिया?’’

हरगोबिन ने हाथ से टटोलकर देखा, वह बिछावन पर लेटा हुआ है। सामने बैठी छाया को छूकर बोला, ‘‘बड़ी बहुरिया?’’

‘‘हरगोबिन भाई, अब जी कैसा है? ...लो, एक घूंट दूध और पी लो। ...मुंह खोलो...हां...पी जाओ। पीयो!!’’

हरगोबिन होश में आया। ...बड़ी बहुरिया दूध पिला रही है?

उसने धीरे से हाथ बढ़ाकर बड़ी बहुरिया का पैर पकड़ लिया, ''बड़ी बहुरिया। ...मुझे माफ करो। मैं तुम्हारा संवाद नहीं कह सका। ...तुम गांव छोड़कर मत जाओ। तुमको कोई कष्ट नहीं होने दूंगा। मैं तुम्हारा बेटा! बड़ी बहुरिया, तुम मेरी मां, सारे गांव की मां हो! मैं अब निठल्ला बैठा नहीं रहूंगा। तुम्हारा सब काम करूंगा। ...बोलो, बड़ी मां ...तुम गांव छोड़कर चली तो नहीं जाओगी? बोलो....!!’’

बड़ी बहुरिया गर्म दूध में एक मुठ्ठी बासमती चूड़ा डालकर मसकने लगी। ...संवाद भेजने के बाद से ही वह अपनी गलती पर पछता रही थी!

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रतनी ने मुझे देखा तो घुटने से ऊपर खोंसी हुई साड़ी को 'कोंचा' की जल्दी से नीचे गिरा लिया। सदा साइरेन की तरह गूँजनेवाली उसकी आवाज कंठनली में ही अटक गई। साड़ी की कोंचा नीचे गिराने की हड़बड़ी में उसका 'आँ

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पहलवान की ढोलक

19 जुलाई 2022
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जाड़े का दिन। अमावस्या की रात—ठंढ़ी और काली। मलेरिया और हैजे से पीड़ित गांव भयार्त शिशु की तरह थर—थर कांप रहा था। पुरानी और उजड़ी, बांस—फूस की झोपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य। अं

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पार्टी का भूत

19 जुलाई 2022
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यारों की शक्ल से अजी डरता हूँ इसलिए किस पारटी के आप हैं? वह पूछ न बैठे। सूखकर काँटा हो गया हूँ। आँखें धँस गई हैं, बाल बढ़ गए हैं। पाजामा फट गया है। चप्पल टूट गई है। आशिकों की-सी सूरत हो गई है। दिन म

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बट बाबा

19 जुलाई 2022
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गाँव से सटे, सड़क के किनारे का वह पुराना वट-वृक्ष। इस बार पतझ्ड़ में उसके पत्ते जो झड़े तो लाल-लाल कोमल पत्तियों को कौन कहे, कोंपल भी नहीं लगे। धीरे-धीरे वह सूखतां गया और एकदम सूख गया-खड़ा ही खड़ा ।

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मन का रंग

19 जुलाई 2022
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मैं समझ गया, वह जो आदमी दो बार इस बेंच के आस-पास चक्कर लगाकर मेरे चेहरे को गौर से देखकर गया है न-वह मेरे पास ही आकर बैठेगा। बैठने से पहले मद्धिम आवाज में “कपट विनय” भरे शब्दों से मुझे जरा-सा खिसक जान

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रसप्रिया

19 जुलाई 2022
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धूल में पड़े कीमती पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई - अपरूप-रूप! चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पँचकौड़ी मिरदंगिया के मुँह से निकल पड़ा अपरूप-रूप! ....खेतों, मैंदानों, बाग-बगी

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रेखाएँ : वृत्तचक्र

19 जुलाई 2022
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ऊँहूँ। नहीं, यह सबकुछ भी नहीं सोचूँगा। मुझे ऐसा कुछ भी नहीं सोचना चाहिए, जिससे कि मेरा दिल कमजोर पड़ जाए। मेरा घाव जल्दी ही भर जाएगा, मैं चंगा हों जाऊँगा। मैं भी कैसा हूँ! मरने से डरता हूँ! मरने क

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लालपान की बेगम

19 जुलाई 2022
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'क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?' बिरजू की माँ शकरकंद उबाल कर बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थी अपने आँगन में। सात साल का लड़का बिरजू शकरकंद के बदले तमाचे खा कर आँगन में लोट-पोट कर सारी देह मे

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विकट संकट

19 जुलाई 2022
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दिग्विजय बाबू को जो लोग अच्छी तरह जानते-पहचानते हैं, वे यह कभी नहीं विश्वास करेंगे कि दिग्विजय उर्फ दिगो बाबू कभी क्रोध से पागल होकर सड़क पर, खाली देह और ऊँची आवाज में किसी को अश्लील गालियाँ दे सकते

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संकट

19 जुलाई 2022
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मैं यह नहीं कहता कि मेरा 'सिक्स्थ-सेंस” बहुत तेज है। आदमी को यह विशेष ज्ञान नहीं दिया है, प्रकृति ने। पशुओं में, कुत्ते की षष्ठेन्द्रिय बहुत सक्रिय होती है। मैं, आदमी होकर यह दावा कैसे कर सकता हूँ ?

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ईश्वर रे, मेरे बेचारे.

19 जुलाई 2022
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अपने संबंध में कुछ लिखने की बात मन में आते ही मन के पर्दे पर एक ही छवि 'फेड इन' हो जाया करती है : एक महान महीरुह... एक विशाल वटवृक्ष... ऋषि तुल्य, विराट वनस्पति! फिर, इस छवि के ऊपर 'सुपर इंपोज' होती ह

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अक्ल और भैंस

19 जुलाई 2022
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जब अखबारों में 'हरी क्रान्ति’ की सफलता और चमत्कार की कहानियाँ बार-बार विस्तारपूर्वक प्रकाशित होने लगीं, तो एक दिन श्री अगमलाल 'अगम’ ने भी शहर का मोह त्यागकर, खेती करने का फैसला कर लिया। गाँव में, उनके

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अभिनय

19 जुलाई 2022
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छन्दा ने जिस दिन घर-भर के लोगों के छप्पर - फोड़ ठहाके के बीच मुझे 'दादू” कहकर सम्बोधित किया, मैं थोड़ा अप्रतिभ हुआ था। मेरे (अकाल) परिपक्व केश के कारण ही छन्दा (जिसकी माँ मुझे देवर मानती है और जिसकी

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उच्चाटन

19 जुलाई 2022
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ठीक वही हुआ, उसी तरह शुरू हुआ, जैसा उसने सोचा था। बरसों से मन में गुनी हुई बात अक्षर-अक्षर फल गई। रात की गाड़ी से वह गाँव लौटा-दों साल के बाद। और “मरकट-महाजन' बूढ़े मिसर को रात में ही खबर मिल गई।

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एक आदिम रात्रि की महक

19 जुलाई 2022
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न ...करमा को नींद नहीं आएगी। नए पक्के मकान में उसे कभी नींद नहीं आती। चूना और वार्निश की गंध के मारे उसकी कनपटी के पास हमेशा चौअन्नी-भर दर्द चिनचिनाता रहता है। पुरानी लाइन के पुराने 'इस्टिसन' सब हजार

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कपड़घर

19 जुलाई 2022
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ग्यारह साल की सरकारी नौकरी से, गत माह मैंने इस्तीफा दे दिया है। परिस्थिति के चाप से-और स्वेच्छा से भी। सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट होकर बिरनियाँ जिला आया। ग्यारह साल तक सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट ही रहा। बिरनि

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कस्बे की लड़की

19 जुलाई 2022
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“लल्लन काका! दादाजी कह गए हैं कि लल्लन काका से कहना कि ऱरोज फुआ के साथ... !” लल्लन काका अर्थात्‌ प्रियव्रत ने अपनी भतीजी बन्दना उर्फ बून्दी को मद्धिम आवाज में डॉट बताई, “जा-जा! मालूम है जो कह गए हैं

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कुत्ते की आवाज़

19 जुलाई 2022
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मेरा गांव ऐसे इलाके में जहां हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की – कोशी, पनार, महानन्दा और गंगा की – बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं, सावन-भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरत

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जलवा

19 जुलाई 2022
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फातिमादि को कभी देखूँगा और इस तरह देखूँगा, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। इसलिए, कुछ देर तक 'पंटना-मार्केट” को स्वप्नलोक समझकर खोया - खोया - सा खड़ा रहा-जूते की दूकान पर । बुरके में सिर से पैर तक

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जैव

19 जुलाई 2022
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निर्मल ने मन्द-मन्द मुस्कुराती, कमरे में प्रवेश करती हुई-विभावती से पूछा-“क्यों क्या बात है ?” विभावती हँसती हुई बोली-“बात कया होगी ? बात जो होनी थी सो हो गई ।” विभा ने स्वामी के हाथ में आज की डाक

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ठेस

19 जुलाई 2022
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खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते। लोग उसको बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं। इसलिए, खेत-खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को। क्या होगा, उसको बुला कर? दूसरे

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तीन बिंदियाँ

19 जुलाई 2022
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गीताली दास अपने को सुरजीवी कहती है। नाद-सुर-ताल आदि के सहारे ही वह इस मंज़िल तक पहुँच सकी है। सभी कहते हैं, उसकी साधना सफल हुई है।…कितने भोले और बेचारे होते हैं लोग! साधना के सफल-अफसल होने की घोषणा करन

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धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे

19 जुलाई 2022
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भादों की रात। तुरत बारिस बन्द हुई है। मेढक टरटरा रहे हैं। साँप ने बेंग को पकड़ा है, बेंग की दर्द-भरी पुकार पर दिल में दया आने के बदले, भय मालूम होता है। आसपास की झाड़ियों में फैला हुआ अन्धकार और भी

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ना जाने केहि वेष में

19 जुलाई 2022
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उस दिन अखबार में अपने दैनिक राशिफल में देखा-आदि से अन्त तक हर जगह 'शुभ' और “लाभ' ही लिखा हुआ था। यात्रा : शुभ, अमृतयोग धनागम, राज्य-सम्मान तथा मित्र-लाभ ! पता नहीं, चार दिन के बाद राशिफल में कौन-सा

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नेपथ्य का अभिनेता

19 जुलाई 2022
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यद्यपि उसे पहले भी पच्चासों बार देख चुका हूँ, किन्तु उस दिन देखकर चिहुँक-सा उठा। चकित हो गया। लगा, जैसे बिना मौसम के कोई फूल या फल देख रहा होऊँ। सावन-भादों के किचकिच में, लगातार बारिश में ई कहाँ से

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प्राणों में घुले हुए रंग

19 जुलाई 2022
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शैशव की सुनहली स्मृति, नील-गगन में उड़ते हुए रंग-बिरंगे पतंगों और मनमोहक रंगीन खिलौनों के आकर्षण को मैं जान-बूझकर छोड़े देता। उन दिनों मैं स्वयं किन्ही की रंगीन आशाओं और कल्पनाओं का केन्द्र था! मेडि

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पंचलाईट

19 जुलाई 2022
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पिछले पन्द्रह दिनों से दंड-जुरमाने के पैसे जमा करके महतो टोली के पंचों ने पेट्रोमेक्स खरीदा है इस बार, रामनवमी के मेले में। गाँव में सब मिलाकर आठ पंचायतें हैं। हरेक जाति की अलग-अलग सभाचट्टी है। सभी पं

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पुरानी कहानी : नया पाठ

19 जुलाई 2022
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बंगाल की खाड़ी में डिप्रेशन - तूफान - उठा! हिमालय की किसी चोटी का बर्फ पिघला और तराई के घनघोर जंगलों के ऊपर काले-काले बादल मँडराने लगे। दिशाएँ साँस रोके मौन-स्तब्ध! कारी-कोसी के कछार पर चरते हुए पशु

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बीमारों की दुनिया में

19 जुलाई 2022
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बीरेन की जवानी में घुन लग गया। बुखार-100० 101० 102०,..। खाँसी-भीषण ! रोग-क्ष॑य के लक्षण। कथाकारों के नायक प्रायः क्षय ही से पीड़ित होते हैं। खून की के करते हैं। कथाकार इस रोग को “रोमांटिक” रोग समझ

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रखवाला

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रक्त की प्यासी सभ्य दुनिया से दूर-बहुत-दूर-हिमायल के एक पहाड़ी गावं का अंचल। छोटा-सा झोंपड़ा। पहाड़ी की ओट से छनकर आती हुई सूर्य की किरणों में छोटा-सा सरकंडे का झोंपड़ा सोने के झोंपड़े की तरह चमक रहा था।

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रसूल मिसतिरी

19 जुलाई 2022
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बहुत कम अर्से में ही इस छोटे-से गँवारू शहर में काफी परिवर्तन हो गए हैं। आशा से अधिक और शायद आवश्यकता से भी अधिक। स्कूल और होस्टल की भव्य इमारत को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि आज से महज आठ स

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लफड़ा

19 जुलाई 2022
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उस बार 'युनिट” के 'प्रोडक्शन मैनेजर” ने मेरे ठहरने की व्यवस्था “दि डायना गेस्ट हाउस' में की थी। इसके पहले मुझे खार स्टेशन के पास 'होटल सदाबहार! में टिकाया जाता था। इसलिए, नई जगह के बारे में तरह-तरह

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वंडरफुल स्टुडियो

19 जुलाई 2022
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फोटो तो अपने दर्जनों पोज में उतारे हुए अलबम में पड़े हैं, फ्रेम में मढ़े हुए अपने तथा दोस्तों के कमरों में लटक रहे हैं और एक जमाने में, यानी दो-तीन साल पहले, उन तस्‍वीरों को देखकर मुझे पहचाना भी जा सक

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विघटन के क्षण

19 जुलाई 2022
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रानीडिह की ऊँची जमीन पर - लाल माटीवाले खेत में-अक्षत-सिन्दूर बिखरे हुए हैं  हजारों गौरैया-मैना सूरज की पहली किरण फूटने के पहले ही खेत के बीच में 'कचर-पचर' कर रही हैं। बीती हुई रात के तीसरे पहर तक, ज

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संवदिया

19 जुलाई 2022
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हरगोबिन को अचरज हुआ - तो, आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस जमाने में, जबकि गांव गांव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज

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जै गंगा

19 जुलाई 2022
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जै गंगा ... इस दिन आधी रात को 'मनहरना’ दियारा के बिखरे गांवों और दूर दूर के टोलों में अचानक एक सम्मिलित करूण पुकार मची, नींद में माती हुई हवा कांप उठी – 'जै गंगा मैया की जै...’ !! अंधेरी रात में गंग

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