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बट बाबा

19 जुलाई 2022

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गाँव से सटे, सड़क के किनारे का वह पुराना वट-वृक्ष।

इस बार पतझ्ड़ में उसके पत्ते जो झड़े तो लाल-लाल कोमल पत्तियों को कौन कहे, कोंपल भी नहीं लगे। धीरे-धीरे वह सूखतां गया और एकदम सूख गया-खड़ा ही खड़ा ।

शाम को निरधन साहु की दुकान पर इसी पेड़ की चर्चा छिड़ी हुई थी।

जब से इस गाँव के खुशहाल किसान "मुखिया अनन्त मंडर' की दुनिया बिगड़ गई, उनका बैठकखाना उजड़ गया, तभी से निरधन साहु की दुकान पर ही गाँव के लोगों की मंडली शाम को बैठती। दिन-भर के थके-माँदे किसान, खेतिहर मजदूर नोन-तेल, चावल-दाल लेने अथवा यों ही थोड़ी देर बैठकर चिलम पीने, सुख-दुख की कहानी कहने-सुनने चले आते। शाम को थोड़ी देर बैठकर बातें करने का यही एकमात्र सहारा था। हाँ तो, उस शाम को वहाँ पर इसी पेड़ की चर्चा छिड़ी हुई थी। आठ-दस व्यक्ति बैठे हुए थे। फरजन मियाँ ने कहा-“अरे! क्या पूछते हैं, हमारे दादा कहते थे कि उनके बाप के बचपन में भी यह ऐसा ही बूढ़ा था।...ओह !”

बैठे हुए लोगों में से प्रत्येक ने इसी प्रकार की कुछ-न-कुछ बातें कहीं। बूढ़ा निरधन साहु का शरीर काला ज्वर से कंकाल मात्र रह गया था, तिस पर में खाँसी, कुछ बोलते ही खाँय-खाँय” करने लगता था। उसकी अठारह वर्ष की बेटी लछमनिया दुकान चलाती थी, बुढ़िया वसूल-तगादा करती और शहर से सिर पर “सौदा-पत्तर' ले आती थी। बूढ़ा बैठा-बैठा दिन गिन रहा था। अभी जो उसने पेड़ के सूखने की बात सुनी, तो खाँसता और कराहता हुआ घर से बाहर निकल आया। बोला-““बड़कवा बाबा सूख गइले का?”

बैठी हुई मंडली ने एक स्वर में कहा-“हाँ!”

“अब दुनिया ना रही”-कहकर वह जो खाँसने लगा तो बीस मिनट तक खाँसता ही रहा। खाँसी शान्त होने पर, भर्राए स्वर में, लम्बी निःश्वास लेता हुआ बोला-““अब ना बचब हो राम!”

हिमालय और भारतवर्ष का जो सम्बन्ध है, वही सम्बन्ध उस वृद्ध पेड़ और गाँव का था। वह उननत-मस्तक विशाल पेड़ प्रतिदिन सवेरे मटमैले अन्धकार में, गाँव के आँगन-आँगन में दृष्टि दौड़ाकर, पूर्व क्षेितिज पर न जाने क्या देखकर एक बार सिहरता. -सिसकता, फिर टप-टप आँसू बहाकर शान्त हो जाता, सोता हुआ गाँव जब अँगड़ाई लेकर उठता तो उसकी जटाएँ हिलती-डुलती रहतीं। पेड़ पर पक्षियों का कलरव होता रहता।

जाड़े का दिन हो या गर्मी का मौसम, चाहे वर्षा की ही झड़ी क्‍यों न लगी हो, सुबह से शाम तक उसके नीचे औरत, बूढ़े, बच्चे, जवान, गाय-मैंस-बैलों की छोटी-सी टोली बैठी ही रहती थी।

चैत्र-वैशाख की दोपहरी में तो सारा गाँव ही उसकी शीतल छाया का सहारा लेता। गाँव का लुहार यहीं बैठकर हल वगैरह की मरम्मत करता, घर बनानेवाले मजदूर बाँस यहीं बैठकर फाड़ते-छीलते। औरतों का ओखल-मूसल चलता रहता, बच्चों का घरौंदा खेल, जटाओं को बाँधकर झूला-झूलना, बूढ़ों की अनुभव अभिमान-मिश्रित बातें तथा नौजवानों की नजर बचाकर-नववधुओं और भाभियों की छेड़छाड़ भी चलती रहती। पेड़ की एक तरफ की जमीन में अनेक खुदे हुए काले चूल्हे, उसके पास जली-अधजली लकड़ियाँ सदा बिखरी रहतीं। रात में व्यापारी गाड़ीवानों का यही रैन बसेरा” था। इसके अतिरिक्त कभी बारात तो कभी डोली, कभी गाजे-बाजे, हाथी-घोड़ा थोड़ी देर तक यहीं बैठकर सुस्ताते, गाँववालों का मनोरंजन कर चले जाते। डोलियाँ रुकतीं, किशोरी बालिकाएँ, बाल-वृद्ध “लाल डोली, लाल डोली, लाल कन्ने है? रटते दौड़ते, डोली की खिड़की खुलती, सब आश्चर्य से देखते।

किशोरी लड़कियाँ मन-ही-मन अरमान सजाने लगतीं, हौंसले-भरे छोटे-छोटे लड़के दौड़कर माँ से कहते-'मैं भी ऐछी ही दुलहन लूँगा।

एक जमाना था, जब प्रत्येक शाम को उसके नीचे 'दिवाली' की बहार रहती थी। प्रत्येक घर से घी से भरा-पूरा एक-एक दीप जाता था। सारी रात जगमग-जगमग... !! किन्तु इधर कई वर्षों से तो बस सहुआइन का दीपक ही थोड़ी देर तक टिमटिमाकर बुझ जाता, जुगनू की चकमक सारी रात होती रहती।

एकादशी, पूर्णिमा आदि एवं त्योहारों पर उसकी पूजा भी होती-सिन्दूर-चन्दन, अक्षत, बेलपत्र, धूप-दीप, पान-सुपारी से। वह देवता” था हिन्दुओं का भी, मुस्लिमों का भी। इधर कई वर्षों से मुसलमानों ने पूजा-पत्तर छोड़ दिया है। मौलवी साहब एक आए थे, उन्हीं के कहने से। पर “बट बाबा” को छोड़कर किसी दूसरे नाम से सम्बोधित करने की हिम्मत अब भी उन लोगों की नहीं हुई । बट बाबा कितने मानतों के आरजू-मिननत को सुनते आए थे। जो उससे निराश होते, सदा के लिए निराश हो जाते। जिनकी मनोकामना पूरी होती, वे निहाल हो जाते।

कल की बच्चियाँ जवान होतीं, बट-सावित्री पूजने आतीं, कुछ दिनों के बाद उसके बेटे की भी छठी पूजी जाती, मुंडन-उत्सव होता, फिर शादी में जब वह वर का आभूषण पहनकर प्रणाम करने आती, तो उसकी जटाएँ सदा की तरह हिलती रहतीं। गुड़िया-सी दुलहिन आती, सोने-चाँदी के जेवरों से झमझमाती-गाती-बजाती औरतों की टोली उसे ले आती, प्रणाम कराकर ले जाती, वह खड़ा-खड़ा न जाने कितने वर्षों से यह सब देखता आया था, वर-यात्रा, शवयात्रा, भरी लाल माँग, धुली माँग, फूल-सा कोमल बच्चे का माँ की गोद में किलकारी भरना और चिरननिद्रा- में मगन, एक ही दिन, गाँव में दस-दस नवागत शिशुओं का “सोहर' गाती तथा एक ही साथ पन्द्रह- पन्द्रह अर्थियाँ इत्यादि देखते-देखते वह स्थितप्रज्ञ हो गया था।

इस बार वह खड़ा-खड़ा ही सूख गया। प्रतिवर्ष की भाँति वैशाख की दोपहरी आई। कड़कड़ाती धूप से आग की वर्षा होने लगी और इस बार गाँव के पशु-पक्षियों में भी कुहराम मच गया। आने-जानेवाले राही-बटोही, गाड़ीवान एक निराशापूर्ण दृष्टि से पेड़ की ओर देखकर आपस में कुछ बोलते-चालते चले जाते।

गाँव के बाहर, सड़क के किनारे अज्ञात काल से वह खड़ा था। ऐसा मालूम होता था मानो भय से हार्ट-फेल करके मरे हुए विकराल राक्षस के कंकाल को खड़ा कर दिया गया है। मुँह और आँखें भय से विस्फारित, दोनों हाथ उठाए हुए कंकाल की तरह!

वह सूख गया, किन्तु गाँववालों की उस पर श्रद्धा और भक्ति की धारा और भी तीव्र हो गई। यों तो “आपत-विपद” में उसकी मिन्‍नतें और पूजा पहले भी होती थी, पर जब से पेड़ धीरे-धीरे सूखने लगा “पूजा और भिन्न्तों ” का ताँता-सा लग गया।

लोगों की यह धारणा थी कि बाबा जाने के समय सबों की मनोकामना पूरी करेंगे। जिस पर ढल जाएँ, वह मालामाल हो जाए। अभी उस दिन अनन्त मंडल की पतोहू चार आने का बताशा मान आई थी कि उसका पति जो भारत-रक्षा कानून के अन्तर्गत ढाई वर्षों से जेल में नजरबन्द है और टी.बी. का शिकार हो चुका है-छूट जाए। रोग भी छूट जाए और वह भी। जिस दिन पहली बार ससुराल आई थी, बनारसी साड़ी, गहनों तथा शिक्षित पति के घमंड में वह बोली थी-'मैं पेड़-पत्थर की पूजा नहीं करती । लोग कहते हैं और वह भी मानने लगी है कि यह दुर्दिन उसी घमंड का कुफल है।

उस दिन वह जो गई तो शरीर पर सिर्फ एक फटी साड़ी थी, जिसमें पाँच-सात पैबन्द लगे थे, चार-पाँच साड़ी के टुकड़ों की पट्टियाँ लगी थीं, दो-ढाई हाथ कंट्रोल की साड़ी, सुहाग की साड़ी का एक टुकड़ा तथा अन्य साड़ियों के टुकड़ों की पटिटयों से - बनी एक “पंचरंगी' साड़ी से अपनी लाज ढँकते, आँसू पोंछते वह बोली थी, “बाबा! अब इससे बढ़कर और कौन-सी सजा दोगे?” और वह फूट-फूटकर रो पड़ी थी।

निरधन साहु की बेटी 'लछमनिया' रो आई थी-“बाबा! गाँव-मुहल्ला, टोला-पड़ोस तथा जाति-बिरादरी के लोग हैंस रहे हैं। मैं इतनी बड़ी हो गई, कोई दूल्हे का बाप एक हजार से नीचे तिलक की बात ही नहीं करता है। बाबू और घर की दशा तुमसे छिपी नहीं है। दुनिया के लिए तुम सूख गए हो, पर तुम्हारा प्रताप तो नहीं सूखा है।

बाबा! यदि किसी दूल्हे के बाप का मन फेर दो तो मैं आठ आने की मिठाई, सवा हाथ लँगोट और प्रत्येक रविवार को नया दीया और नई बत्ती जला दूँ। कलरू महता पर जमींदार की कुर्की आनेवाली थी। टहलू पासवान का बेटा फौज में था, भजू धानुक की स्त्री बीमार थी। सब अपने-अपने धन-माल-जान के लिए 'मनौती' मना रहे थे।

आज प्रातःकाल ही जमींदार के अमले-सिपाही चालीस-पचास मजदूर लेकर आए, गाँव के मजदूर भी बेगार में पकड़े गए। लड़ाई का जमाना है, जलावन की भारी कमी। जमींदार साहब का हुक्म है कि पेड़ काटा जाएगा।

लोग आपस में कानाफूसी कर बातें करने लगे। एक ही साथ पेड़ के सूखे तने पर साठ-साठ कुल्हाड़ों का वार हुआ- 'घड़-धड़ खड़-खड़-खड़ाक...” गाय-बैल, घोड़े-बकरे चौंककर गाँव से भागे, कुत्ते भौंकने लगे, भयभीत पक्षियों ने कलरव आरम्भ कर दिया। छोटे-छोटे बच्चे डरकर माँ की छाती से चिपट गए। गाँव के अर्धनग्न नर-नारियों तथा शिशुओं के कंकालों की कतार...एकटक से देख रही थी। कोई-कोई मर्द भी फूट-फूटकर रो रहा था, मानो सबों के कलेजे पर ही कुल्हाड़े चलाए जा रहे हैं।

धड़-धड़-धड़-धड़ाम...आर्तनाद कर पेड़ गिरा, फिर गाँव में भारी कोलाहल...!!

निरधन साहु कल से बेहोश था। बोलने और सुनने की शक्ति शायद जाती रही थी। अन्तिम घड़ियाँ गिन रह्म था। पेड़ गिरने के धमाके से वह भी चिहुँका, अस्फुट स्वरों में बोला-“असमान से...का गिरल रें लछमनि...! अरे बाप! !”

लछमनिया खिड़की से देख रही थी, और खड़ी-खड़ी सिसक रही थी।

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रचनाएँ
फणीश्वरनाथ रेणु जी की प्रसिद्ध कहानियाँ
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फणीश्वरनाथ रेणु भारत वर्ष के साहिया समाज के बहुत ही जाने माने कविकार और कहानीकार थे| उनके लेखन ने बहुत से लोगो को मनोरंजित किया है| उनका जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया में हुआ था| उन्होंने अपने साहित्य जीवन में बहुत से उपन्यासों को सराया गया| उनकी एक बहुत ही मशहूर उपन्यास मैला आंचल को बहुत ख्याति मिली की उनको पद्म विभूषण पुरस्कार से नवाज़ा गया| हम आपके लिये फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियाँ, मारे गये गुलफाम (तीसरी कसम) एक आदिम रात्रि की महक, लाल पान की बेगम , पंचलाइट, तबे एकला चलो रे, ठेस , संवदियास्वतंत्र भारत में उनकी रचनाएं विकास को शहर-केंद्रित बनाने वालों का ध्यान अंचल के समस्याओं की ओर खींचती है। वे अपनी गहरी मानवीय संवेदनाओं के कारण अभावग्रस्त जनता की बेबसी और पीड़ा भोगते से लगते हैं। उनकी इस संवेदनशीलता के साथ यह विश्वास भी जुड़ा है कि आज के त्रस्त मनुष्य में अपने जीवन दशा को बदल लेने की शक्ति भी है।
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ऊँहूँ। नहीं, यह सबकुछ भी नहीं सोचूँगा। मुझे ऐसा कुछ भी नहीं सोचना चाहिए, जिससे कि मेरा दिल कमजोर पड़ जाए। मेरा घाव जल्दी ही भर जाएगा, मैं चंगा हों जाऊँगा। मैं भी कैसा हूँ! मरने से डरता हूँ! मरने क

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'क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?' बिरजू की माँ शकरकंद उबाल कर बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थी अपने आँगन में। सात साल का लड़का बिरजू शकरकंद के बदले तमाचे खा कर आँगन में लोट-पोट कर सारी देह मे

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दिग्विजय बाबू को जो लोग अच्छी तरह जानते-पहचानते हैं, वे यह कभी नहीं विश्वास करेंगे कि दिग्विजय उर्फ दिगो बाबू कभी क्रोध से पागल होकर सड़क पर, खाली देह और ऊँची आवाज में किसी को अश्लील गालियाँ दे सकते

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संकट

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मैं यह नहीं कहता कि मेरा 'सिक्स्थ-सेंस” बहुत तेज है। आदमी को यह विशेष ज्ञान नहीं दिया है, प्रकृति ने। पशुओं में, कुत्ते की षष्ठेन्द्रिय बहुत सक्रिय होती है। मैं, आदमी होकर यह दावा कैसे कर सकता हूँ ?

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अपने संबंध में कुछ लिखने की बात मन में आते ही मन के पर्दे पर एक ही छवि 'फेड इन' हो जाया करती है : एक महान महीरुह... एक विशाल वटवृक्ष... ऋषि तुल्य, विराट वनस्पति! फिर, इस छवि के ऊपर 'सुपर इंपोज' होती ह

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जब अखबारों में 'हरी क्रान्ति’ की सफलता और चमत्कार की कहानियाँ बार-बार विस्तारपूर्वक प्रकाशित होने लगीं, तो एक दिन श्री अगमलाल 'अगम’ ने भी शहर का मोह त्यागकर, खेती करने का फैसला कर लिया। गाँव में, उनके

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छन्दा ने जिस दिन घर-भर के लोगों के छप्पर - फोड़ ठहाके के बीच मुझे 'दादू” कहकर सम्बोधित किया, मैं थोड़ा अप्रतिभ हुआ था। मेरे (अकाल) परिपक्व केश के कारण ही छन्दा (जिसकी माँ मुझे देवर मानती है और जिसकी

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ठीक वही हुआ, उसी तरह शुरू हुआ, जैसा उसने सोचा था। बरसों से मन में गुनी हुई बात अक्षर-अक्षर फल गई। रात की गाड़ी से वह गाँव लौटा-दों साल के बाद। और “मरकट-महाजन' बूढ़े मिसर को रात में ही खबर मिल गई।

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ग्यारह साल की सरकारी नौकरी से, गत माह मैंने इस्तीफा दे दिया है। परिस्थिति के चाप से-और स्वेच्छा से भी। सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट होकर बिरनियाँ जिला आया। ग्यारह साल तक सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट ही रहा। बिरनि

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“लल्लन काका! दादाजी कह गए हैं कि लल्लन काका से कहना कि ऱरोज फुआ के साथ... !” लल्लन काका अर्थात्‌ प्रियव्रत ने अपनी भतीजी बन्दना उर्फ बून्दी को मद्धिम आवाज में डॉट बताई, “जा-जा! मालूम है जो कह गए हैं

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मेरा गांव ऐसे इलाके में जहां हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की – कोशी, पनार, महानन्दा और गंगा की – बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं, सावन-भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरत

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फातिमादि को कभी देखूँगा और इस तरह देखूँगा, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। इसलिए, कुछ देर तक 'पंटना-मार्केट” को स्वप्नलोक समझकर खोया - खोया - सा खड़ा रहा-जूते की दूकान पर । बुरके में सिर से पैर तक

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निर्मल ने मन्द-मन्द मुस्कुराती, कमरे में प्रवेश करती हुई-विभावती से पूछा-“क्यों क्या बात है ?” विभावती हँसती हुई बोली-“बात कया होगी ? बात जो होनी थी सो हो गई ।” विभा ने स्वामी के हाथ में आज की डाक

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तीन बिंदियाँ

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गीताली दास अपने को सुरजीवी कहती है। नाद-सुर-ताल आदि के सहारे ही वह इस मंज़िल तक पहुँच सकी है। सभी कहते हैं, उसकी साधना सफल हुई है।…कितने भोले और बेचारे होते हैं लोग! साधना के सफल-अफसल होने की घोषणा करन

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धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे

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भादों की रात। तुरत बारिस बन्द हुई है। मेढक टरटरा रहे हैं। साँप ने बेंग को पकड़ा है, बेंग की दर्द-भरी पुकार पर दिल में दया आने के बदले, भय मालूम होता है। आसपास की झाड़ियों में फैला हुआ अन्धकार और भी

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ना जाने केहि वेष में

19 जुलाई 2022
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उस दिन अखबार में अपने दैनिक राशिफल में देखा-आदि से अन्त तक हर जगह 'शुभ' और “लाभ' ही लिखा हुआ था। यात्रा : शुभ, अमृतयोग धनागम, राज्य-सम्मान तथा मित्र-लाभ ! पता नहीं, चार दिन के बाद राशिफल में कौन-सा

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नेपथ्य का अभिनेता

19 जुलाई 2022
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यद्यपि उसे पहले भी पच्चासों बार देख चुका हूँ, किन्तु उस दिन देखकर चिहुँक-सा उठा। चकित हो गया। लगा, जैसे बिना मौसम के कोई फूल या फल देख रहा होऊँ। सावन-भादों के किचकिच में, लगातार बारिश में ई कहाँ से

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प्राणों में घुले हुए रंग

19 जुलाई 2022
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शैशव की सुनहली स्मृति, नील-गगन में उड़ते हुए रंग-बिरंगे पतंगों और मनमोहक रंगीन खिलौनों के आकर्षण को मैं जान-बूझकर छोड़े देता। उन दिनों मैं स्वयं किन्ही की रंगीन आशाओं और कल्पनाओं का केन्द्र था! मेडि

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पंचलाईट

19 जुलाई 2022
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पिछले पन्द्रह दिनों से दंड-जुरमाने के पैसे जमा करके महतो टोली के पंचों ने पेट्रोमेक्स खरीदा है इस बार, रामनवमी के मेले में। गाँव में सब मिलाकर आठ पंचायतें हैं। हरेक जाति की अलग-अलग सभाचट्टी है। सभी पं

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पुरानी कहानी : नया पाठ

19 जुलाई 2022
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बंगाल की खाड़ी में डिप्रेशन - तूफान - उठा! हिमालय की किसी चोटी का बर्फ पिघला और तराई के घनघोर जंगलों के ऊपर काले-काले बादल मँडराने लगे। दिशाएँ साँस रोके मौन-स्तब्ध! कारी-कोसी के कछार पर चरते हुए पशु

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बीमारों की दुनिया में

19 जुलाई 2022
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बीरेन की जवानी में घुन लग गया। बुखार-100० 101० 102०,..। खाँसी-भीषण ! रोग-क्ष॑य के लक्षण। कथाकारों के नायक प्रायः क्षय ही से पीड़ित होते हैं। खून की के करते हैं। कथाकार इस रोग को “रोमांटिक” रोग समझ

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रखवाला

19 जुलाई 2022
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रक्त की प्यासी सभ्य दुनिया से दूर-बहुत-दूर-हिमायल के एक पहाड़ी गावं का अंचल। छोटा-सा झोंपड़ा। पहाड़ी की ओट से छनकर आती हुई सूर्य की किरणों में छोटा-सा सरकंडे का झोंपड़ा सोने के झोंपड़े की तरह चमक रहा था।

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रसूल मिसतिरी

19 जुलाई 2022
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बहुत कम अर्से में ही इस छोटे-से गँवारू शहर में काफी परिवर्तन हो गए हैं। आशा से अधिक और शायद आवश्यकता से भी अधिक। स्कूल और होस्टल की भव्य इमारत को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि आज से महज आठ स

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लफड़ा

19 जुलाई 2022
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उस बार 'युनिट” के 'प्रोडक्शन मैनेजर” ने मेरे ठहरने की व्यवस्था “दि डायना गेस्ट हाउस' में की थी। इसके पहले मुझे खार स्टेशन के पास 'होटल सदाबहार! में टिकाया जाता था। इसलिए, नई जगह के बारे में तरह-तरह

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वंडरफुल स्टुडियो

19 जुलाई 2022
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फोटो तो अपने दर्जनों पोज में उतारे हुए अलबम में पड़े हैं, फ्रेम में मढ़े हुए अपने तथा दोस्तों के कमरों में लटक रहे हैं और एक जमाने में, यानी दो-तीन साल पहले, उन तस्‍वीरों को देखकर मुझे पहचाना भी जा सक

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विघटन के क्षण

19 जुलाई 2022
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रानीडिह की ऊँची जमीन पर - लाल माटीवाले खेत में-अक्षत-सिन्दूर बिखरे हुए हैं  हजारों गौरैया-मैना सूरज की पहली किरण फूटने के पहले ही खेत के बीच में 'कचर-पचर' कर रही हैं। बीती हुई रात के तीसरे पहर तक, ज

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संवदिया

19 जुलाई 2022
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हरगोबिन को अचरज हुआ - तो, आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस जमाने में, जबकि गांव गांव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज

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जै गंगा

19 जुलाई 2022
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जै गंगा ... इस दिन आधी रात को 'मनहरना’ दियारा के बिखरे गांवों और दूर दूर के टोलों में अचानक एक सम्मिलित करूण पुकार मची, नींद में माती हुई हवा कांप उठी – 'जै गंगा मैया की जै...’ !! अंधेरी रात में गंग

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