shabd-logo

रेखाएँ : वृत्तचक्र

19 जुलाई 2022

29 बार देखा गया 29

ऊँहूँ। नहीं, यह सबकुछ भी नहीं सोचूँगा।

मुझे ऐसा कुछ भी नहीं सोचना चाहिए, जिससे कि मेरा दिल कमजोर पड़ जाए।

मेरा घाव जल्दी ही भर जाएगा, मैं चंगा हों जाऊँगा। मैं भी कैसा हूँ!

मरने से डरता हूँ!

मरने की बात सोचते ही जी कैंसा-कैसा करने लगता है।

बहुत कमजोर हो गया हूँ न, इसलिए, फौजी होने का मतलब यह नहीं है कि वह मरने की बात सोचकर नाच उठे। उस दिन डॉक्टर ने खूब कहा, “कैप्टेन, कुछ फिकर मत करो। फर्ज करो कि तुम एक भेड़िए के मुँह में पड़े हुए हिरण के बच्चे को बचाने के सिलसिले में जरा घायल हो गए हो। बस...भेड़िए के मुँह से हिरण के बच्चे को छुड़ाने के सिलसिले में!

हिरण के बव्चे की कल्पना करते ही मेरी आँखों के आगे 'शकुन्तला” फिल्म दौड़ जाती है। शकुन्दगा-जयश्री, हिरण का बच्चा। जयश्री, शान्ताराम! डॉ. कोटनीस की अमर कहानी बड़ी अच्छी तस्वीर है...अच्छा, यदि मैं इस अस्पताल में मर गया तो...तो क्या मेरी कहानी भी हर लब पर होगी! फिल्म बनेगी? फिल्म का नाम होगा-“कैप्टेन सिन्हा !

न, यह तो कॉपी हो जाएगी। अच्छा होगा-'कश्मीर की घाटी में” सुनने में जरा रोमांटिक भी मालूम होगा। बड़े-बड़े पोस्टरों पर लिखा जाएगा-“कश्मीर की घाटी में'-एक ऐसे कैप्टेन की कहानी जिसने राष्ट्रीय सरकार की इज्जत बचाने के लिए अपनी जान दे दी...कहानी शुद्ध करने में जरा दिक्कत होगी डायरेक्टरों को।

दिखाएगा मेरी जिन्दगी का प्रथम अध्याय-मेरा गाँव। एक गाँव, जो वास्तव में होगा बम्बई के आसंपास के किसी गाँव का हिस्सा अथवा स्टूडियो का कोई कोना।

दूर-बिहार के पूर्वी अंचल, पूर्णिया जिले में क्‍यों जाएँगे...इसके बाद आवारागर्दी, पढ़ा-लिखा बेकार और एक जानकार गरीब। गरीबों की दुनिया में मुहब्बत। ज्योत्स्ना के प्रति मेरी तुकबन्दियों को कलापूर्ण कविताओं की संज्ञा दी जाएगी-शायद। मेरी कोई कविता तो मिल नहीं सकेगी उन्हें। बना लेंगे लोग...ठंडी साँसें बुलबुल, मीठी : नींद, सपने और चाँदनी रातें आदि शब्दों से भरे हुए कुछ गीत। तर्ज तो होगा-यही... आजकल का पंजाबी...नायक कौन होगा? पी. जयराम ठीक है। नहीं, वह मोटा है। तो फिर?...एक बार आईने में अपना चेहरा देखने को जी करता है...कोई भी हो नायक । दृश्य होगा-बेकारी से ऊबकर, बाल बिखराए हुए, अजीब सूरत में रिक्रूटिंग ऑफिस में!

फिर लड़ाई के मोर्चे, तमगे, तरक्की,-कैप्टेन! नायिका-ज्योत्स्ना कौन बनेगी? कहीं बेगम पारा हई तो सब गुड़गोबर। ज्योत्स्ना ही शायद उतरे।

नहीं वह नहीं उतरेगी । शायद, अपने 'नाम' की आज्ञा भी न देगी। मनगढ़न्त प्रेम कहानी को मेरे दिल के किस्से कहकर लोग मुझे एक महान प्रेमी बना देंगे...लेकिन यह 10 गुरखा रेजिमेंट का सूबंदार दिलबहादुर गुरुग, जो अभी अस्पताल में घायल होकर पड़ा है, इसके काबिल है वी.एच. देसाई ही। बेड पर पड़े-पड़े हर डॉक्टर और नर्स को वह 'जयसिंह' कहेगा, बुखार में जब-'कांछा ले कांछी लाय लग्यो बन को बाँटो लालटनी बालेर' गाएगा और हर तेजी से गुजरते हुए डॉक्टर को-नानसेंस के लहजे में-'मोरो' तथा नर्स को मोरी' कहेगा तो ठहाकों से गूँज उठेगा सारा हॉल।

नानसेंस का स्त्रीलिंग नहीं होता, लेकिन 'मोरो' का होता है 'मोरी' । नर्स 'मोरी' का मतलब नहीं समझती।

वह दृश्य कितना मार्मिक होगा जब ज्योत्स्ना अपने पति मिस्टर वर्मा के साथ चाय पर बैठकर अखबार पढ़ती रहेगी। मिस्टर वर्मा, अपने मालिक हिन्दू-प्राण सर रामपत ठनठनियाँ की उदारता का जिक्र करते हुए उनका हिन्दुओं का कर्तव्य! शीर्षक स्टेटमेंट पढ़ने को कहेंगे। पढ़ने के सिलसिले में, अखबार के एक कोने में ज्योत्स्ना पढ़ेगी-कश्मीर अस्पताल में कैप्टेन सिन्हा की मृत्यु...हाथ से चाय की प्याली गिरकर “झन्न!...वह आँखें फाड़े शून्य में ताकती रहेगी, बाल बिखर जाएँगे, आँखों में आँसू छलछला पड़ेंगे, मिस्टर वर्मा घबराकर चिल्ला उठेंगे-जोना! जोना!

तुम्हें क्या हो गया ?

ग्राउंड म्युजिक चल पड़ेगा-'शहीदों के मजारों पर, लगेंगे हर बरस मेले....

मेरी आँखों में भी आँसू आ गए। दिल की धड़कन बढ़ रही है, हिस्स, मैं भी कैसा हूँ!

कैसी-कैसी बेकार की बातें सोचता हूँ। ज्योत्स्ना को तो मेरी मौत की बात भी मालूम नहीं हो पाएगी। अखबारों में हर इंसान की मौत के बारे में छपने लगा, तो हुआ ।...लेकिन “शहीदों के मजारों पर” गीत मुझे प्रिय है। शायद मन में शहीद कहलाने की बहुत बड़ी लालसा छिपी हुई है...मणिपुर की बमबारी के दिनों-अच्छी तरह याद है-मुझे बार-बार यही तकलीफ सतांती रही कि मेरी मौत क॒त्ते-बिल्लियों की मौत से भी गई-गुजरी होगी। अपने मुल्क की मिट्टी भी मुझे अपना कहकर कबूल नहीं कर सकेगी...कितना दुख हुआ था मुझे! 45 की छुट्टी में गाँव लौटा था। मेरी बहन से “भारतमाता ग्रामवासिनी' गाने को कहा था तो वह ठठाकर हँस पड़ी थी। उसे आश्चर्य हुआ था कि मैं भी इस तरह के गीतों में दिलचस्पी लेता हूँ। मैंने अनुभव किया था कि मेरे अधिकांश दोस्त मुझे घृणा की दृष्टि से देखते हैं। मनमोहन मुझसे -इसलिए बात नहीं करता था कि मैं उसकी पार्टी के विरुद्ध लड़कर आया था। सुधीर, मेरे बचपन का साथी सुधीर!

मेरी कविताओं पर झूमनेवाला सुधीर!-मेरे साथ साहित्यिक बातें करना फिजूल समझता था क्योंकि उसकी निगाह में मैं कुछ और हो चुका धा। और ज्योत्स्ना?

वह तो मेरी छाया से भी घबरा जाती थीं।

उसने मिस्टर वर्मा, एडवोकेट साहब से शादी कर लीं। जमींदार का वकील है वर्मा सुना है, बिहार के दंगे के समय उसने कमाल कर दिखाया है। जमींदार साहब की जीप गाड़ी पर दिन-भर में पचासों गाँवों में जाकर पर्चेबाजी और उत्तेजना फैलाता फिरा। कहा जाता है कि जिस गाँव से उसकी गाड़ी विदा होती, उसके बाद ही' वहाँ लंकाकांड और दानवी-लीला शुरू हो जाती है...गर्भ चीरकर बच्चे को निकालकर भाले की नोक पर...!

राशन के लिए 'क्यू' में खड़ी-खड़ी उस औरत को जो बच्चा हो गया था, ' कलकत्ते के फुटपाथ पर अमेरिकन सैनिकों ने कितने उत्साह से उसकी तस्वीर ली थी! हमारे भाई लोग भीड़ हटा रहे थे-हट जाओ, साहब फोटो लेते हैं...सनमोहन ने एक बार मेरी तस्वीर उतारी थी।

बहुत साफ आई थी मेरी तस्वीर

मैं यह सब क्‍यों सोच रहा हूँ। 'इनफीरियारिटी कॉप्लेक्स' के कक पर तो नहीं चल रहा हूँ।...करवट नहीं ले सकता हूँ। पेट और जाँघ पर पट्टियाँ बँधी हुई हैं। बहुत दर्द है। कमजोरी और प्यास आज बेहद बढ़ गई है। पेट में सुई गड़ाने की तरह दर्द...! आह! शायद आज मैं...अब मैं जी नहीं सकूँगा...हाँ, डॉक्टर से कहना भूल गया, कहीं अन्त तक भूल ही न जाऊँ, अपने रुपए 'शरणार्थी फंड' में दे जाना चाहता हूँ।

“कैसा है कैप्टेन?”-नर्स एलिस आकर पूछती है। ऐंग्लो इंडियन एलिस! गुडमार्निंग के बदले आजकल “ज्योहिन” कहती है। मेरे सिर पर हाथ रखा उसने। रेक्टम वसेलाइन” लाने गई ।...नर्सों की तलहथी और उँगलियाँ इतनी ठंडी क्यों होती हैं? मेरा तो अब तक का यही अनुभव है। शायद, बराबर हाथ धोती रहती हैं। कश्मीर में भी एंग्लो नर्से? यहाँ की खूबसूरत औरतें क्‍यों नहीं “नर्सिंग ज्वाइन' करती हैं? सिर्फ दो-तीन सिस्टर हैं कश्मीरी, बाकी सब एंग्लो। सिस्टर उपाध्याय ही आई थी उस दिन...पंडित नेहरू के विजिट के दिन। इन्दिरा गांधी और सिस्टर उपाध्याय में कितना अन्तर ?

कितने महान्‌ हैं पंडितजी! मुझे यकीन है कि यदि मेरे पेट और जाँघों पर पट्टयाँ न बँधी होतीं, तो वे मुझे गोद में उठाकर चूम लेते। बातें ही उनकी क्या कम थीं?-“आजाद हिन्दुस्तान की इज्जत तुमने बचाई है, जवाहर ने नहीं। तुम्हारे जैसा “भाई” पाकर मुझे आज पहली बार अपने प्रधानमन्त्रीत्व का गुमान हो रहा है।...और तुम्हारी जॉनिसारी के किस्से सुनकर तो मैं जवान हुआ जा रहा हूँ, मैं दामन पसारकर तुम्हारी बड़ी उम्र के लिए दुआ माँग रहा हूँ, ।

मेरी आँखों में आँसू आ गए थे। उनकी भर्राई हुई आवाज...दूसरे थे पटवर्धन साहब नाम सुना था, देखा नहीं था...कोहिमा कैम्प में चर्चा होती थी बराबर...चुपचाप... जयप्रकाशजी की, अरुणाजी की, पटवर्धन और लोहियाजी की...बहुत सुन्दर, हैं पटवर्धनजी...पंडितजी को जब कहा गया मैं बिहार का हूँ तो दोनों ही उछल पढ़े थे। पंडितजी भी और पटवर्धनजी भी। “बिहार” सुनते ही पटवर्धनजी के मन में तुरन्त जयप्रकाशजी की तस्वीर आई होगी और पंडितजी की आँखों के सामने 1934 के भूकम्प-पीड़ित इलाके...हाल के दंगे के नजारे नांच गए होंगे शायद...

उफ, नेहरू सरकार को फेल करने के लिए कितनी नापाक कोशिशें हों रही हैं। क्या उन्हें रात में नींद आती होगी? यदि इस बार बच गया मैं...तो...नहीं, मंसूबे नहीं बॉधना चाहिए। लेकिन मैं कहता हूँ कि सारी प्रतिक्रियावादी ताकतों को कुचल डालने से ही सोने का हिन्दुस्तान बनाकर तैयार हो सकेगा। मुट्ठी-भर कुचक्रियों को प्रश्नय देना, 'फासिज्म' के लिए रास्ता सहल कर देना है। कुछ नहीं...कोर्ट मार्शल...फायर... फायर...फायर...

मैं जोर से तो नहीं बोल उठा? नहीं, ठीक है, जोरों की प्यास लगी है। बड़ी बेचैनी ! दिलबहादुर के मुँह से, मार्चिंग सौंग के तर्ज पर, सीटी बजा रहा है...यह क्या, ज्यादा देर तक किसी चीज को देख नहीं सकता हूँ। आँखें झिलमिलाने लगी हैं। सामने काले, नीले...तरह-तरह के धब्बे मालूम पड़ते हैं। कमजोरी है। डॉक्टर कह रहा था कि मुझे ताजा खून, नया लहू दिया जाएगा। मेरी जान बचाने के लिए जो लहू देगा, उसे न तो मैंने देखा है और न उसने मुझे। लहू मेरे लिए तो नहीं, एक ऐसे सैनिक के लिए जो राष्ट्रीय सरकार की इज्जत के लिए लड़कर घायल है।

ऐसा लग रहा है कि...मानो स्पष्ट देख रहा हूँ...कुछ कॉलेज के लड़के आए हुए हैं, “ब्लड बैंक' में अपना खून देने। स्वस्थ तगड़े नौजवान। दिल से भी स्वस्थ। लड़कियाँ भी हैं। लड़कों के चेहरे अपरिचित नहीं मालूम होते और लड़कियाँ भी सब जानी-पहचानी-सी लगती हैं।

ज्योत्सना भी। हाँ, वह बैठी। डॉक्टर ने स्पिरिट लगाकर, चमड़े को 'स्टरलाइज” किया।

स्पिरिट में भिगोई हुई रुई से सिरिंज की सुई साफ करता.है। मुस्कुराकर ज्योत्स्ना से कुछ पूछता है। सुई गड़ा रहा है। अपने को निडर दिखलाने के लिए वह मुस्कुराती हुई सीधे सुई की ओर देखती रहती है।...अरे! ज्योत्स्ना का चेहरा बदल गया। कोई दूसरी लड़की है। सुई चुभोई गई। चेहरे पर जरा-सी शिकन...फिर मुस्कुराहट...सिरिंज में खून आ रहा है, धीरे-धीरे...। लाल-लाल...ताजा खून...लाली क्रमशः काली हो रही है।...मेरी नसों में खून दौड़ रहा है। लाल लहू...लाल रक्तकणिका और श्वेतरक्तकणिका में लड़ाई हो रही है...लाल जिन्दगी...सुफेद मौत...कफन-सी सुफेद...सुफेद कणिकाओं पर लाल की विजय...बायोलोजी लैबोरेटरी में काँच के नलों में लड़ाई...अरे! वह लड़की बेहोश होकर गिर पड़ी!

बेहोश होकर.

याद आती है उस नागा लड़की की। सारे डिगबोई में श्मशान की-सी शान्ति। आसमान में टोह लगानेवाले जहाजों की धीमी भनभनाहट। शहर के आम 'रोड' से हमारी टोली गुजर रही। बूटों की छन्दमय आवाज...लेफ्ट-राइट-लेफ्ट!

एक मोड़ पर कुछ नागा लड़कियाँ सैनिकों पर फूल बरसाने के लिए मुस्कुराती हुई खड़ीं। अपनी भाषा में न जाने क्‍या चिल्लोकर संब फूल फेंके ।...मेरा जी किया था कि एक फूल उठा लूं। “ल्यप...ठाँ।'...बाई ओर मुड़ते हुए मैंने देखा कि वह लड़की जो सबसे बड़ी थी और निडर होकर मुस्कुरा रही थी...गिर पड़ी। बेहोश होकर ।

“कैप्टेन, कैसा है?”-शएलिस आई। यह क्या? बोल नहीं सकता हूँ। आवाज नहीं निकल रही है। होश में हूँ तो ?...हाँ तो। लेकिन बोल नहीं सकता हूँ क्यों? इशारे से अपनी लाचारी दिखलाता हूँ। खुट खुट खुट...। एलिस चली गई। चलती जा रहीं है। वह रहती है तो अच्छा लगता है। मुझे डर मांलूम हो रहा है क्या? नहीं, डर काहे का? मरने का? हमारा भाई प्रधानमन्त्री, जिसे न दिन में चैन है न रात में नींद!...उनका गम्भीर चेहरा।...नाक की बगल से निकलकर जो रेखा ठुडडी तक चली गई है, वह क्रमश: गहरी होती जा रही है। मेरे लिए दुआ माँग रहा है। दुआ? भीख ?...नहीं, उन्हें भीख नहीं माँगने दूँगा। उस दिन उनसे बात करने के समय मैं मुस्कुराया नहीं, इसीलिए वे आज दुआ माँग रहे हैं। दामन पसारकर भीख माँगते हुए नेहरू की कल्पना...कितनी बुरी ?

बिगुल फूँकते हुए नेहरू...धू...तू...धूतू...तैयार! हजारों-हजार जवानों की टोलियाँ कूच को तैयार! मार्च...।

नेहरू मुस्कुराता...।

किसी ने छिपकर उनकी पीठ में छुरा भोंक दिया। वे गिरे...वे गिरे...खून से लथपथ, छटपटा रहे हैं छि:, क्या सब सोच रहा हूँ। कुवत लार्ऊँ अपने अन्दर...लेकिन नेहरू की लाश तड़प रही है...हजारों जवानों की लाशें तड़प रही हैं...गाँव जल रहे हैं, औरतें चीख रही हैं, बच्चे जलाए जा रहे हैं...गर्भ चीरकर निकाले हुए बच्चे...कोटि-कोटि गरीबों की दुनिया जल रही है...कालीं फौज बढ़ रही है...।

हम सब घाटियों में छिप रहे हैं...। वह रहा रामपत ठनठनियाँ...मिस्टर वर्मा...। ठनठनियाँ नहीं...मुसोलिनी... । मिस्टर वर्मा... उसकी सूरत हिटलर-जैसी हो रही है...काली वर्दी...। सब साथ हैं...निशाना साधता हूँ...हिटलर गायब हो जाता है...शराफत हुस्सैन पठान...निशाना साधता हूँ...पठान गायब...हिन्दूप्राण... पठान...छोटे-से हिरण के बच्चे को भेड़िए ने पकड़ा...छौना छटपटा रहा है...निशाना साधता हूँ, भेड़िया मुझे अपने जबड़ों से दबोच लेता है...तेज दाँत...दर्द...दर्द...डॉक्टर हैं।

बड़े डॉक्टर, छोटे डॉक्टर, भीड़। मैं शायद बेहोश हो गया था।

खून दे रहे हैं। दिलबहादुर अपने बेड पर बैठा मुझे आश्चर्य से घूर रहा है। मुझे क्या हो गया?...खून दे रहे हैं डॉक्टर...डॉक्टर के गले में स्टेथस्कोप की नली धीरे-धीरे मोटी होती जाती है...अजगर...भागो एलिस...एलिस की आँखें पीली पुतलियाँ...मेरी पलकें भारी हो रही हैं...मोहे नींद सतावे...।

'विक्टरी डे' के दिन लल्लन बाई नाच रही थी...मोहे नींदा सतावे...कोहिमा कैम्प में चर्चिल का भाषण सुनतें समय मैं ऊँध रहा था...जवाब-तलब...प्रधानमन्त्री की आवाज की बेइज्जती...जुर्म...देंह में आग लग गई...गर्मी...गर्मी...डॉक्टर...डॉक्टर...झुरीदार चेहरा...माँ की तरह...माँ जब हैंसती थी, चेहरे पर झुर्रियों की जाली खिल पड़ती थी...माँ, माँ...

“ठीक हो जाएगा, कमजोरी है-डॉक्टर कह रहा है शायद। मेरी नसों मैं गर्म-गर्म खून दौड़ रहा है। मैं जी पडैँगा।

ठीक हो जाऊँगा। ज्योत्स्ना...?

नहीं, एलिस!

एलिस की आँखें...पीली पुतली, गोल...पलकें भारी हो रहीं हैं...लल्लन बाई...हरी... साड़ी...मुस्क्राती है...लाल होंठ...एलिस...सुफेद एप्रेन...सुफेद...लाल...हरा... तिरंगा...गोल पुतली...तिरंगा...15 अगस्त...दिल्ली...बैंड...परेड...झंडा...सलामी...पंडितजी...चेहरे पर रेखा गम्भीर...गहरी...।

49
रचनाएँ
फणीश्वरनाथ रेणु जी की प्रसिद्ध कहानियाँ
0.0
फणीश्वरनाथ रेणु भारत वर्ष के साहिया समाज के बहुत ही जाने माने कविकार और कहानीकार थे| उनके लेखन ने बहुत से लोगो को मनोरंजित किया है| उनका जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया में हुआ था| उन्होंने अपने साहित्य जीवन में बहुत से उपन्यासों को सराया गया| उनकी एक बहुत ही मशहूर उपन्यास मैला आंचल को बहुत ख्याति मिली की उनको पद्म विभूषण पुरस्कार से नवाज़ा गया| हम आपके लिये फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियाँ, मारे गये गुलफाम (तीसरी कसम) एक आदिम रात्रि की महक, लाल पान की बेगम , पंचलाइट, तबे एकला चलो रे, ठेस , संवदियास्वतंत्र भारत में उनकी रचनाएं विकास को शहर-केंद्रित बनाने वालों का ध्यान अंचल के समस्याओं की ओर खींचती है। वे अपनी गहरी मानवीय संवेदनाओं के कारण अभावग्रस्त जनता की बेबसी और पीड़ा भोगते से लगते हैं। उनकी इस संवेदनशीलता के साथ यह विश्वास भी जुड़ा है कि आज के त्रस्त मनुष्य में अपने जीवन दशा को बदल लेने की शक्ति भी है।
1

अतिथि-सत्कार

19 जुलाई 2022
1
0
0

भला आदमी मन्दाक्रान्ता गति से बातें कर रहा था, गा-गाकर बोलता हो मानो। मैंने बाधा डालते हुए पूछा था, “किन्तु प्रधान अतिथि क्‍यों?” उनकी मन्द मुस्कुराहट जरा भी मन्द नहीं हुई और उन्होंने मेरे इस सवाल म

2

इतिहास, मजहब और आदमी

19 जुलाई 2022
0
0
0

उस दिन दीवाली थी-लक्ष्मी के शुभागमन का एकमात्र दिन। सुबह उठते ही मनमोहन, माँ से लड़कर “कैम्प” में चला गया था। आस-पास गाँवों में जोरों से हैजा और मलेरिया फैला हुआ था। भूख और रोग का संयुक्त मोर्चा । प

3

एक अकहानी का सुपात्र

19 जुलाई 2022
0
0
0

पिछले कई वर्षों से लगातार यह सुनते-सुनते कि अब 'कहानी' नाम की कोई चीज दुनिया में ऐसे ही रह गई है-मुझे भी विश्वास-सा हो चला था कि कहानी सचमुच मर गई। हमारा मौजूदा समाज “कहानीहीन' हो गया है, हठातू कहीं,

4

एक रंगबाज गाँव की भूमिका

19 जुलाई 2022
0
0
0

सड़क खुलने और बस 'सर्विस' चालू होने के बाद से सात नदी (और दो जंगल) पार का पिछलपाँक इलाके के हलवाहे-चरवाहे भी "चालू" हो गए हैं...! 'ए रोक-के ! कहकर “बस' को कहीं पर रोका जा सकता है और “ठे-क्हेय कहकर “

5

कलाकार

19 जुलाई 2022
0
0
0

काशी के बंगाली टोले की एक गन्दी गली में वह कुछ दिनों से रहने लगा था। दुबला पतला, लम्बा-सा युवक, जिसका गोरा रंग अब उतर रहा था, आँखों के नीचे की हड़डियाँ बाहर निकल रही थीं और चप्पल के फीते टूटे जा रहे

6

काक चरित

19 जुलाई 2022
0
0
0

किसनलाल ने सुबह उठकर अपनी दोनों तलहथियों को देखा। फिर इष्ट-नाम जाप किया ।...भजन का प्रोग्राम हो गया ? आठ बज गए ? सावित्री बाजार चली है, वह उठकर बैठ गया और बाएँ हाथ से दाहिने कन्धे को छूकर देखा...नही

7

खँडहर

19 जुलाई 2022
0
0
0

लड़ाई, झगड़ा, घटना, दुर्घटना, हादसा-इस तरह की कोई भी बात नहीं हुई। तीन भहीने पर गोपालकृष्ण गाँव लौटा था। शाम को बाबूजी ने, लम्बी-चौड़ी भूमिका बाँधकर, दीन-दुनिया के नीच-ऊँच दिखाकर, बड़े प्यार से कहा-

8

जड़ाऊ मुखड़ा

19 जुलाई 2022
0
0
0

बटुक बाबू ने मन-ही-मन तय कर लिया - ऑपरेशन करवाना ही होगा। और, इसी जाड़े में। बटुक बाबू पिछले एक सप्ताह से मानसिक अशान्ति भोग रहे थे, चुपचाप! जब-जब उनकी इकलौती बेटी बुला सामने आती, बटुक बाबू का चेहर

9

टौन्टी नैन का खेल

19 जुलाई 2022
0
0
0

‘लड़की मिडिल पास है !’ ‘मिडिल पास ?’ ‘मिडिल पास ही नहीं, दोहा कवित्त जोड़ती है।’ ‘देखने में भी, सुनते हैं कि गोरी है।’ ‘सीप्रसाद बाबू की बेटी काली कैसे होगी ?’ ‘विश्वास नहीं होता है।’ ‘सुमरचन्ना

10

तव शुभ नामे

19 जुलाई 2022
0
0
0

एक-एक कर बहुत सारे शब्दों को “नकारता' जा रहा हूँ 'नकार” दिया है। नेति-नेति! माता, मातृभूमि, जन्म-भूमि, देश, राष्ट्र, देशभक्ति-जैसे चालू शब्दों की अब मुझे जरूरत नहीं होती। माँ की 'ममता' और मातृभूमि प

11

तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम

19 जुलाई 2022
0
0
0

हिरामन गाड़ीवान की पीठ में गुदगुदी लगती है... पिछले बीस साल से गाड़ी हाँकता है हिरामन। बैलगाड़ी। सीमा के उस पार, मोरंग राज नेपाल से धान और लकड़ी ढो चुका है। कंट्रोल के जमाने में चोरबाजारी का माल इस पार स

12

न मिटनेवाली भूख

19 जुलाई 2022
0
0
0

1. आठ बज रहे थे। दीदी बिछौने पर पड़ी चुपचाप टुकुर-टुकुर देख रही थी-छत की ओर। उसके बाल तकिए पर बिखरे हुए थे, इधर-उधर लटक रहे थे। एक मोटी किताब, नीचे चप्पल के पास, औंधे मुंह गिरकर न जाने कब से पड़ी हुई

13

नित्य लीला

19 जुलाई 2022
0
0
0

किसन ने गली से आँककर देखा, नन्दमहर और जशुमति गोशाले की अँगनाई में बैठे किसी गम्भीर बात पर सोच-विचार कर रहे हैं। पिता की मुद्रा से स्पष्ट है कि आज उनकी दाढ़ में फिर दर्द उभरा है, और सिर्फ गोधूलिवेला क

14

नैना जोगिन

19 जुलाई 2022
0
0
0

रतनी ने मुझे देखा तो घुटने से ऊपर खोंसी हुई साड़ी को 'कोंचा' की जल्दी से नीचे गिरा लिया। सदा साइरेन की तरह गूँजनेवाली उसकी आवाज कंठनली में ही अटक गई। साड़ी की कोंचा नीचे गिराने की हड़बड़ी में उसका 'आँ

15

पहलवान की ढोलक

19 जुलाई 2022
0
0
0

जाड़े का दिन। अमावस्या की रात—ठंढ़ी और काली। मलेरिया और हैजे से पीड़ित गांव भयार्त शिशु की तरह थर—थर कांप रहा था। पुरानी और उजड़ी, बांस—फूस की झोपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य। अं

16

पार्टी का भूत

19 जुलाई 2022
0
0
0

यारों की शक्ल से अजी डरता हूँ इसलिए किस पारटी के आप हैं? वह पूछ न बैठे। सूखकर काँटा हो गया हूँ। आँखें धँस गई हैं, बाल बढ़ गए हैं। पाजामा फट गया है। चप्पल टूट गई है। आशिकों की-सी सूरत हो गई है। दिन म

17

बट बाबा

19 जुलाई 2022
0
0
0

गाँव से सटे, सड़क के किनारे का वह पुराना वट-वृक्ष। इस बार पतझ्ड़ में उसके पत्ते जो झड़े तो लाल-लाल कोमल पत्तियों को कौन कहे, कोंपल भी नहीं लगे। धीरे-धीरे वह सूखतां गया और एकदम सूख गया-खड़ा ही खड़ा ।

18

मन का रंग

19 जुलाई 2022
0
0
0

मैं समझ गया, वह जो आदमी दो बार इस बेंच के आस-पास चक्कर लगाकर मेरे चेहरे को गौर से देखकर गया है न-वह मेरे पास ही आकर बैठेगा। बैठने से पहले मद्धिम आवाज में “कपट विनय” भरे शब्दों से मुझे जरा-सा खिसक जान

19

रसप्रिया

19 जुलाई 2022
0
0
0

धूल में पड़े कीमती पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई - अपरूप-रूप! चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पँचकौड़ी मिरदंगिया के मुँह से निकल पड़ा अपरूप-रूप! ....खेतों, मैंदानों, बाग-बगी

20

रेखाएँ : वृत्तचक्र

19 जुलाई 2022
0
0
0

ऊँहूँ। नहीं, यह सबकुछ भी नहीं सोचूँगा। मुझे ऐसा कुछ भी नहीं सोचना चाहिए, जिससे कि मेरा दिल कमजोर पड़ जाए। मेरा घाव जल्दी ही भर जाएगा, मैं चंगा हों जाऊँगा। मैं भी कैसा हूँ! मरने से डरता हूँ! मरने क

21

लालपान की बेगम

19 जुलाई 2022
0
0
0

'क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?' बिरजू की माँ शकरकंद उबाल कर बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थी अपने आँगन में। सात साल का लड़का बिरजू शकरकंद के बदले तमाचे खा कर आँगन में लोट-पोट कर सारी देह मे

22

विकट संकट

19 जुलाई 2022
0
0
0

दिग्विजय बाबू को जो लोग अच्छी तरह जानते-पहचानते हैं, वे यह कभी नहीं विश्वास करेंगे कि दिग्विजय उर्फ दिगो बाबू कभी क्रोध से पागल होकर सड़क पर, खाली देह और ऊँची आवाज में किसी को अश्लील गालियाँ दे सकते

23

संकट

19 जुलाई 2022
0
0
0

मैं यह नहीं कहता कि मेरा 'सिक्स्थ-सेंस” बहुत तेज है। आदमी को यह विशेष ज्ञान नहीं दिया है, प्रकृति ने। पशुओं में, कुत्ते की षष्ठेन्द्रिय बहुत सक्रिय होती है। मैं, आदमी होकर यह दावा कैसे कर सकता हूँ ?

24

ईश्वर रे, मेरे बेचारे.

19 जुलाई 2022
0
0
0

अपने संबंध में कुछ लिखने की बात मन में आते ही मन के पर्दे पर एक ही छवि 'फेड इन' हो जाया करती है : एक महान महीरुह... एक विशाल वटवृक्ष... ऋषि तुल्य, विराट वनस्पति! फिर, इस छवि के ऊपर 'सुपर इंपोज' होती ह

25

अक्ल और भैंस

19 जुलाई 2022
0
0
0

जब अखबारों में 'हरी क्रान्ति’ की सफलता और चमत्कार की कहानियाँ बार-बार विस्तारपूर्वक प्रकाशित होने लगीं, तो एक दिन श्री अगमलाल 'अगम’ ने भी शहर का मोह त्यागकर, खेती करने का फैसला कर लिया। गाँव में, उनके

26

अभिनय

19 जुलाई 2022
0
0
0

छन्दा ने जिस दिन घर-भर के लोगों के छप्पर - फोड़ ठहाके के बीच मुझे 'दादू” कहकर सम्बोधित किया, मैं थोड़ा अप्रतिभ हुआ था। मेरे (अकाल) परिपक्व केश के कारण ही छन्दा (जिसकी माँ मुझे देवर मानती है और जिसकी

27

उच्चाटन

19 जुलाई 2022
0
0
0

ठीक वही हुआ, उसी तरह शुरू हुआ, जैसा उसने सोचा था। बरसों से मन में गुनी हुई बात अक्षर-अक्षर फल गई। रात की गाड़ी से वह गाँव लौटा-दों साल के बाद। और “मरकट-महाजन' बूढ़े मिसर को रात में ही खबर मिल गई।

28

एक आदिम रात्रि की महक

19 जुलाई 2022
0
0
0

न ...करमा को नींद नहीं आएगी। नए पक्के मकान में उसे कभी नींद नहीं आती। चूना और वार्निश की गंध के मारे उसकी कनपटी के पास हमेशा चौअन्नी-भर दर्द चिनचिनाता रहता है। पुरानी लाइन के पुराने 'इस्टिसन' सब हजार

29

कपड़घर

19 जुलाई 2022
0
0
0

ग्यारह साल की सरकारी नौकरी से, गत माह मैंने इस्तीफा दे दिया है। परिस्थिति के चाप से-और स्वेच्छा से भी। सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट होकर बिरनियाँ जिला आया। ग्यारह साल तक सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट ही रहा। बिरनि

30

कस्बे की लड़की

19 जुलाई 2022
0
0
0

“लल्लन काका! दादाजी कह गए हैं कि लल्लन काका से कहना कि ऱरोज फुआ के साथ... !” लल्लन काका अर्थात्‌ प्रियव्रत ने अपनी भतीजी बन्दना उर्फ बून्दी को मद्धिम आवाज में डॉट बताई, “जा-जा! मालूम है जो कह गए हैं

31

कुत्ते की आवाज़

19 जुलाई 2022
0
0
0

मेरा गांव ऐसे इलाके में जहां हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की – कोशी, पनार, महानन्दा और गंगा की – बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं, सावन-भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरत

32

जलवा

19 जुलाई 2022
0
0
0

फातिमादि को कभी देखूँगा और इस तरह देखूँगा, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। इसलिए, कुछ देर तक 'पंटना-मार्केट” को स्वप्नलोक समझकर खोया - खोया - सा खड़ा रहा-जूते की दूकान पर । बुरके में सिर से पैर तक

33

जैव

19 जुलाई 2022
0
0
0

निर्मल ने मन्द-मन्द मुस्कुराती, कमरे में प्रवेश करती हुई-विभावती से पूछा-“क्यों क्या बात है ?” विभावती हँसती हुई बोली-“बात कया होगी ? बात जो होनी थी सो हो गई ।” विभा ने स्वामी के हाथ में आज की डाक

34

ठेस

19 जुलाई 2022
0
0
0

खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते। लोग उसको बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं। इसलिए, खेत-खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को। क्या होगा, उसको बुला कर? दूसरे

35

तीन बिंदियाँ

19 जुलाई 2022
0
0
0

गीताली दास अपने को सुरजीवी कहती है। नाद-सुर-ताल आदि के सहारे ही वह इस मंज़िल तक पहुँच सकी है। सभी कहते हैं, उसकी साधना सफल हुई है।…कितने भोले और बेचारे होते हैं लोग! साधना के सफल-अफसल होने की घोषणा करन

36

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे

19 जुलाई 2022
0
0
0

भादों की रात। तुरत बारिस बन्द हुई है। मेढक टरटरा रहे हैं। साँप ने बेंग को पकड़ा है, बेंग की दर्द-भरी पुकार पर दिल में दया आने के बदले, भय मालूम होता है। आसपास की झाड़ियों में फैला हुआ अन्धकार और भी

37

ना जाने केहि वेष में

19 जुलाई 2022
0
0
0

उस दिन अखबार में अपने दैनिक राशिफल में देखा-आदि से अन्त तक हर जगह 'शुभ' और “लाभ' ही लिखा हुआ था। यात्रा : शुभ, अमृतयोग धनागम, राज्य-सम्मान तथा मित्र-लाभ ! पता नहीं, चार दिन के बाद राशिफल में कौन-सा

38

नेपथ्य का अभिनेता

19 जुलाई 2022
0
0
0

यद्यपि उसे पहले भी पच्चासों बार देख चुका हूँ, किन्तु उस दिन देखकर चिहुँक-सा उठा। चकित हो गया। लगा, जैसे बिना मौसम के कोई फूल या फल देख रहा होऊँ। सावन-भादों के किचकिच में, लगातार बारिश में ई कहाँ से

39

प्राणों में घुले हुए रंग

19 जुलाई 2022
0
0
0

शैशव की सुनहली स्मृति, नील-गगन में उड़ते हुए रंग-बिरंगे पतंगों और मनमोहक रंगीन खिलौनों के आकर्षण को मैं जान-बूझकर छोड़े देता। उन दिनों मैं स्वयं किन्ही की रंगीन आशाओं और कल्पनाओं का केन्द्र था! मेडि

40

पंचलाईट

19 जुलाई 2022
1
0
0

पिछले पन्द्रह दिनों से दंड-जुरमाने के पैसे जमा करके महतो टोली के पंचों ने पेट्रोमेक्स खरीदा है इस बार, रामनवमी के मेले में। गाँव में सब मिलाकर आठ पंचायतें हैं। हरेक जाति की अलग-अलग सभाचट्टी है। सभी पं

41

पुरानी कहानी : नया पाठ

19 जुलाई 2022
1
0
0

बंगाल की खाड़ी में डिप्रेशन - तूफान - उठा! हिमालय की किसी चोटी का बर्फ पिघला और तराई के घनघोर जंगलों के ऊपर काले-काले बादल मँडराने लगे। दिशाएँ साँस रोके मौन-स्तब्ध! कारी-कोसी के कछार पर चरते हुए पशु

42

बीमारों की दुनिया में

19 जुलाई 2022
0
0
0

बीरेन की जवानी में घुन लग गया। बुखार-100० 101० 102०,..। खाँसी-भीषण ! रोग-क्ष॑य के लक्षण। कथाकारों के नायक प्रायः क्षय ही से पीड़ित होते हैं। खून की के करते हैं। कथाकार इस रोग को “रोमांटिक” रोग समझ

43

रखवाला

19 जुलाई 2022
0
0
0

रक्त की प्यासी सभ्य दुनिया से दूर-बहुत-दूर-हिमायल के एक पहाड़ी गावं का अंचल। छोटा-सा झोंपड़ा। पहाड़ी की ओट से छनकर आती हुई सूर्य की किरणों में छोटा-सा सरकंडे का झोंपड़ा सोने के झोंपड़े की तरह चमक रहा था।

44

रसूल मिसतिरी

19 जुलाई 2022
0
0
0

बहुत कम अर्से में ही इस छोटे-से गँवारू शहर में काफी परिवर्तन हो गए हैं। आशा से अधिक और शायद आवश्यकता से भी अधिक। स्कूल और होस्टल की भव्य इमारत को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि आज से महज आठ स

45

लफड़ा

19 जुलाई 2022
0
0
0

उस बार 'युनिट” के 'प्रोडक्शन मैनेजर” ने मेरे ठहरने की व्यवस्था “दि डायना गेस्ट हाउस' में की थी। इसके पहले मुझे खार स्टेशन के पास 'होटल सदाबहार! में टिकाया जाता था। इसलिए, नई जगह के बारे में तरह-तरह

46

वंडरफुल स्टुडियो

19 जुलाई 2022
0
0
0

फोटो तो अपने दर्जनों पोज में उतारे हुए अलबम में पड़े हैं, फ्रेम में मढ़े हुए अपने तथा दोस्तों के कमरों में लटक रहे हैं और एक जमाने में, यानी दो-तीन साल पहले, उन तस्‍वीरों को देखकर मुझे पहचाना भी जा सक

47

विघटन के क्षण

19 जुलाई 2022
0
0
0

रानीडिह की ऊँची जमीन पर - लाल माटीवाले खेत में-अक्षत-सिन्दूर बिखरे हुए हैं  हजारों गौरैया-मैना सूरज की पहली किरण फूटने के पहले ही खेत के बीच में 'कचर-पचर' कर रही हैं। बीती हुई रात के तीसरे पहर तक, ज

48

संवदिया

19 जुलाई 2022
0
0
0

हरगोबिन को अचरज हुआ - तो, आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस जमाने में, जबकि गांव गांव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज

49

जै गंगा

19 जुलाई 2022
0
0
0

जै गंगा ... इस दिन आधी रात को 'मनहरना’ दियारा के बिखरे गांवों और दूर दूर के टोलों में अचानक एक सम्मिलित करूण पुकार मची, नींद में माती हुई हवा कांप उठी – 'जै गंगा मैया की जै...’ !! अंधेरी रात में गंग

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए