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मन का रंग

19 जुलाई 2022

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मैं समझ गया, वह जो आदमी दो बार इस बेंच के आस-पास चक्कर लगाकर मेरे चेहरे को गौर से देखकर गया है न-वह मेरे पास ही आकर बैठेगा।

बैठने से पहले मद्धिम आवाज में “कपट विनय” भरे शब्दों से मुझे जरा-सा खिसक जाने को यानी 'तनि डोल' जाने को कहेगा।

और यदि मैं उसके गाल के गलमुच्छों और गले के गुलबन्द से ढँकी आवाज को नहीं सुनने का बहाना बनाऊँ तो तनिक ऊँची आवाज - में बेरखाई से कहेगा-“सुनते हैं ? आप ही*से कहा जा रहा है...”

हाँ-हाँ, मुझे नहीं तो और किससे कहेंगे ?

पता नहीं, चेहरे पर क्या लिखा हुआ पढ़ लेते हैं कि लोग कि ट्रेन या बस में अथवा प्लेटफार्म या पार्क के बेंच पर ही नहीं- इस विशाल संसार के किसी कोने में भी बैठा रहूँ तो ये मुझे ही तनिक-सा सरककर बैठने को कहेंगे।

पास में जगह नहीं हो तो मेरी ही गठरी पर बैठते हुए मुझसे पूछेंगे- “इसमें टूटनेवाला कोई सामान तो नहीं ?” मैं कितना ही अखबार पढ़ने में तल्लीन होने की मुद्रा बनाऊँ, चेहरे पर नहीं, सारे शरीर पर गुरु-गम्भीरता का लबादा ओढ़कर भारी बनना चाहूँ-मगर उनकी आँखों ने मुझे पहले ही पासंग-सहित तौल लिया है।

इन लोगों के बीच-प्लेटफार्म के इस ओर से उस छोर तक उनकी निगाह में मैं ही एकमान्न ऐसा हल्का आदमी हूँ, जिसे मद्धिम आवाज से ही तनिक-सा सरकाया जा सकता है।

बगल में बैठनेवाले इन अनचाहे बगलगीरों के अलावा खड़ा होकर तमाशा देखनेवाले तमाशबीनों . में भी ऐसे लोग रहते हैं जो मुझे ही खोजते रहते हैं।

लॉन में कोई बड़ी सभा हो या फुटपाथ पर होनेवाला मदारी का खेल-ये मुझे वहाँ पा लेते हैं और ठीक मेरे सामने आकर खड़े हो जाते हैं।

मेरे दृष्टिपय को उनका "मुंड” पूरी तरह छैंक लेता है। तब यदि मैं दाहिनी ओर सिर झुकाऊँगा, तो वह 'मुंड” भी दाहिने झुकेगा और बाएँ मोह तो वह भी तत्काल उधर मुड़ जाएगा ।

इसके बाद सभा के सारे लोग नेताजी का भाषण, उनके हाथ-पाँव भाँजने के साथ देखेंगे-सुनेंगे; मदारी के मजमे के लोग कबूतर गायब होने का तमाशा देखेंगे और मैं देखा करूँगा सिर्फ इनका मुंड । इसको पकड़कर--आसपास के अन्य मुंडों से टकरा देने का जी बार-बार करने के बावजूद वैसा नहीं कर पाता। और वैसा नहीं कर पाने का दुख...?

आत्मग्लानि की उन अनुभूतियों के दंश से मन बस चिढ़ा रहता है।

अपनी कायरता के लिए अपने-आपको धिक्कारता रहता हूँ। जीभ पर अपने लिए कोई हल्की-फुल्की गाली भी कढ़ आती है, जिसे मैं चुपचाप निगल जाता हूँ सुना है, गीपान के लोग गाली नहीं बकते और न कसमें ही खाते है वहाँ 'हाराकिरी _यानी आत्महत्या करने का अ्रचलन पनपा है।

गाली तो... (क्या कहते हैं उसको, जो असर-कूकर में लगा रहता है?)...हाँ सेफ्टी-बल्ब है।...लीजिए, वे आ गए। वे मुझे ही कह रहे हैं-“तनि डोलिएगा ?

सरकने या खिसकने के बदले 'डोलना' शब्द का प्रयोग, जिस पर इस तेवर के साथ कि अगर मैं नहीं डोलना चाहूँ, अथवा डोलने में मुझे कोई कष्ट हो, तो वे स्वयं मुझे डुला देंगे !

मुझे डोलना नहीं पड़ा। आप बैठ गए हैं। और अब मुझसे कुछ पूछना चाह रहे हैं।...पता नहीं, मेरे चेहरे पर क्या है कि लोग मुझसे ही दुनिया-भर के सवाल करते हैं। मेरी विरक्त मुद्रा ने काम किया।

उन्होंने कुछ पूछना चाहकर भी कुछ नहीं पूछा। मुझे संतोष हुआ, अपनी विरक्त मुद्रा को कारगर होते देखा।

किन्तु एक ही क्षण के बाद फिर दपदपाकर जी जल उठा। सामने बड़े बोर्ड पर एक रेलवे कर्मचारी खूब बड़े-बड़े अक्षरों में लिख गया-'फोर्टी डाउन ट्रेन तीन घंटा लेट!”

एक हल्की-सी चीख मेरे मुँह से निकल पड़ी शायद। बगलगीरजी बैठते ही ऊँघने लगे थे। मेरी अस्फुट चीख पर चिहुँककर जगते हुए बोले-'का हुआ ?

देखता हूँ, सुनता हूँ-मेरे मुँह से ही नहीं-गाड़ी के लेट आने की सूचना पाकर सारे प्लेटफार्म के लोगों के मुँह से कुछ-न-कुछ भला-बुरा निकल रहा है।

बहुत देर से रुकी हुई भुनभुनाहट अचानक फिर शुरू हो गई है!

“तीन घंटे लेट ? अर्थात्‌ दस तीन तेरह-एक बजे रात में आएगी गाड़ी। ऐसा ही होता है। पता नहीं ऐसा क्यों होता है कि जब कभी मैं कहीं की यात्रा पर निकलता हूँ अथवा किसी को 'रिसीव” और 'सी ऑफ” करने के लिए स्टेशन आता हूँ, तो गाड़ी लेट हो जाती है। मैं जानता था आज भी वही होगा।

सो, हुआ ।...इस चायवाले को अबकी डॉटटूंगा, अगर उसने मेरी ओर मुँह टेढ़ा कर उस तरह *च्ये-हे-य!” कहकर पुकारा तो ।

गाड़ी के तीन घंटा लेट आने की सूचना के साथ ही प्लेटफार्म के उस छोर से उसकी आवाज बुलन्द हुई है, जो क्रमशः निकटतर होती जा रही है-*च्हे हे-य!

“ए! इधर सुनो जी। पहले भी तुम मुझसे पाँच बार पूछ चुके हो। इस बार सुन लो मैं चाय नहीं पीता। समझे ?”

चायवाला कुछ अप्रतिभ हुआ। नहीं, अप्रतिभ हो ही रहा था कि मेरे पड़ोसी की नींद खुली और उन्होंने चायवाले को पुकारा-“देना एक कुलफी ”

चायवाले का चेहरा बदल गया। उसने टेढ़ी निगाह से मेरी ओर देखकर फिर हॉक लगाई-“च्ये-हे-य!” और मुझे जो जवाब मिलना चाहिए, मिल गया।

पुनः आत्मग्लानि हुई। इस चायवाले की चिढ़ानेवाली आवाज को नहीं बन्द कर पा सकने की ग्लानि। कई लोगों ने एक ही साथ चाय की माँग की तो उसने मेरी ओर एक बार देखा।

इस बार उसकी आँखों में मेरे प्रति दया का भाव था।

मेरे बगलगीर ने तश्तरी में चाय डालकर फूँकते हुए कहा-“'मेरा बोहनी कैसा सगुनियाँ है, देखा ? पाँच कुलफी एक साथ ।” फिर मेरी ओर देखकर मुखरित हुए-“पीजिए न आप भी एक कुलफी। गाड़ी तो तीन घंटा लेट है!”

क्या जवाब दूँ इस भले आदमी को; गाड़ी तीन घंटे लेट है, इसलिए मैं भी एक कुलफी चाय पीर्ऊँ उनके आग्रह पर। इसमें क्‍या तुक है भला ?

मेरी ओर से निरुत्साहित होकर उन्होंने चायवाले से ही फिर बातचीत जारी रखी-“का जी ? रोज कितना कमा लेते हो ?”

मैं जानता था, चायवाला यही जवाब देगा-“जी, कोई ठीक नहीं, किसी दिन सात-किसी दिन दस-जब जैसा... ।”

हठात्‌ मेरे मन में भी हुआ कि चायवाले से पूछूँ कि अगर तुमको सात रुपए रोज अथवा दो-ढाई सौ रुपए महीने पर कोई नौकर रखे तो क्या इसी तरह दिन-रात प्लेटफार्म के इस छोर से उस छोर तक घूम-घूमकर चाय बेचा करोगे ? किन्तु मैंने पूछा नहीं।

क्‍योंकि मैंने उसकी चाय खरीदी थी और फोकट के ऐसे सवालों के जवाब वह इस तरह नकद देगा-““ढाई सौ क्‍या, पाँच सौ भी दे कोई, नौकरी नहीं करेंगे साहेब!”

लाउडस्पीकर पर खुसफुसाहट हुई, तो उत्कर्ण हुआ।

गाड़ियों के आने-जाने की सूचना देनेवाले इस यन्त्र से आती हुई आवाज में-ग्यारह बजे रात के बाद से नींद घुल जाती है।

यानी ग्यारह बजे के बाद से इनकी आवाज में धीरे-धीरे विहाग का स्पर्श लगता जाता है और तब इसका भी वही प्रभाव पड़ता है, जो फिल्‍मी लोरियों के सुनने पर पड़ता है - यात्रीगण ..कृपया ध्यान दें...थटिर्‌टन अप गाड़ी !

इस घोषणा के बाद मेरे पास बैठे सज्जन ने मुझसे पूछा-““आपको किधर जाना है ?”

अब मैं अपने को समझाने लगता हूँ कि किस तरह दिन-रात दुनिया से बेवजह नाराज रहना अच्छा नहीं, उचित नहीं ।

इस आदमी ने मुझसे कुछ पूछकर अन्याय नहीं किया है बल्कि, इसका उचित उत्तर नहीं देना असंगत और अनुचित होगा।

और अन्ततः मैं अपने-आप पर नाराज हो जाता हूँ।

फिर अपने-आपकी प्रतिरक्षा करने लगता हूँ--“क्या मैं बेवजह ही सुबह से शाम तक नाराज रहा करता हूँ ? अपना गाँव-घर छोड़कर, पराए नगर में आकर रहने को मजबूर आदमी भी कभी खुश रह सकता है क्या ?

किसी प्राइवेट कॉलेज का पार्ट-टाइम प्राध्यापक भी कभी प्रसन्‍न रह सकता है ?”

ठीक वही हुआ जो ऐसे मौकों पर संयोग से हुआ करता है।

ऐसे तर्क-वितर्क के क्षणों में ही कोई मेरी आँखों में उँगली डालकर - इसी तरह जवाब दिखला देता है. सामने सोई हुई भिखारिन का छोटा-सा शिशु बहुत देर से उठकर बैठा है, और चुपचाप स्वयं ही किलकारियाँ लेकर प्रसन्‍न हो रहा है।

भिखारिन हठातू हड़बड़ाकर उठ बैठती है, फिर अपने प्रसन्‍न शिशु को मस्त होकर खेलते देखकर आह्वादित होती है, बच्चे को दुलारने लगती है-“बबुआ जाग गइल हो ? आज बहुत सबेरे जगलन है हमारं बबुआ!...” फिर उसका हुलसकर बच्चे को छाती से लगाना...?

मेरा भी मन अजाने प्रसन्‍न होने लगा।

और अचानक ही योजना मन में कौंध दो विचार। जिस नगर बा मैं रहता हूँ वह एक नया बसा हुआ नगर है। सड़क के दोनों ओर बनते हुए मकानों को देखकर नाराज होने के बदले इस नगर में आकर बस जानेवाले परिवारों का एक सर्वेक्षण प्रस्तुत करना उचित नहीं क्या ?

मेरे नगर में सैकड़े में गो बासिन्दे गॉव से आकर बसे हैं। सिर्फ एक प्रतिशत परिवार ही पैदाइशी शहरी हैं। मगर बाकी आबादी उसी एक प्रतिशत की नकल में दिन-रात व्यस्त है... कल ही तो, गाँव में जन्मे, पले और बड़े होकर बूढ़े होनेवाले रामनिहोरा बाबू (डॉक्टर रामस्वारथ बाबू के पिताजी) कह रहे थे-“जानते हैं ?

आधुनिक डॉक्टरों का आधुनिक मत है कि शुद्ध दूध और घी स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक है।”...और मेरी अपनी अधेड़ मौसी उस दिन जिस वेश में मेरे फ्लैट में आई थी-वह किसी सचित्र साप्ताहिक पत्रिका के किसी रंगीन विज्ञापन के मॉडल से क्या कम लगती थी ?

अचानक मेरे मन में दूसरा खयाल आया-क्यों न अपने नगर में भी एक ब्यूटी कन्टेस्ट” का आयोजन किया जाए ?...फिर अचरज हुआ यह सोचकर कि कनर फोटोग्राफी के डेवलप होते ही सारा समाज एक ही साथ किस तरह रंगीन हो उठा है? चारों ओर घोर गाढ़े नीले-पीले, बैंगनी-गुलाबी और तोतापंखी रंगों के धब्बे! मैं अब तब इन रंगों से चिढ़ता रहा हूँ।

लेकिन अब सोचता हूँ कि रंग से चिढ़ना क्‍यों ? रंग तो हमारी सभ्यता के मूल में ही है। मोरमुकुट और पीताम्बर, रंग भरी एकादशी। मेरे अन्दर का कुढ़ता हुआ आदमी भिखारिन के बच्चे को निकलते देखकर ही हार मान चुका था। अब वे मुझ पर व्यंग्य करने लगा-क्यों ?

दुनिया रंगीन मालूम होने लगी ?...मैं उसको जवाब देता हूँ...क्यों नहीं मालूम होगी रंगीन दुनिया-जब यह सचमुच रंगीन है? तीन सौ रुपए के वाउचर पर दस्तखत करके डेढ़ सौ रुपए माहवार, तीन महीने के बाद पाता हूँ, तो क्या मुझे खुश रहने का अधिकार नहीं ?

मेरे बगलगीर की गर्दन नींद से झुकती हुई मेरे कन्धे पर आ गई है। मेरे अन्दर का नाराज व्यक्ति होता तो तुरन्त कन्धा खींच लेता और उसका मुंड बेंच से “खट” आवाज के साथ टकरा जाता।

किन्तु मैं अब पूर्ण स्वस्थ हो गया हूँ। गाड़ी आने में अब बस आधा घंटा रह गया है। मैं अपने बगलगीर का सिर पकड़कर धीरे-से जगा देता हूँ।

फिर चायवाले को पुकारता हूँ और बगलगीर के हाथ में एक कुलफी चाय थमाकर आग्रह करता हूँ-पीजिए ? एक कप मैं भी पी लूँगा आज।

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रचनाएँ
फणीश्वरनाथ रेणु जी की प्रसिद्ध कहानियाँ
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फणीश्वरनाथ रेणु भारत वर्ष के साहिया समाज के बहुत ही जाने माने कविकार और कहानीकार थे| उनके लेखन ने बहुत से लोगो को मनोरंजित किया है| उनका जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया में हुआ था| उन्होंने अपने साहित्य जीवन में बहुत से उपन्यासों को सराया गया| उनकी एक बहुत ही मशहूर उपन्यास मैला आंचल को बहुत ख्याति मिली की उनको पद्म विभूषण पुरस्कार से नवाज़ा गया| हम आपके लिये फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियाँ, मारे गये गुलफाम (तीसरी कसम) एक आदिम रात्रि की महक, लाल पान की बेगम , पंचलाइट, तबे एकला चलो रे, ठेस , संवदियास्वतंत्र भारत में उनकी रचनाएं विकास को शहर-केंद्रित बनाने वालों का ध्यान अंचल के समस्याओं की ओर खींचती है। वे अपनी गहरी मानवीय संवेदनाओं के कारण अभावग्रस्त जनता की बेबसी और पीड़ा भोगते से लगते हैं। उनकी इस संवेदनशीलता के साथ यह विश्वास भी जुड़ा है कि आज के त्रस्त मनुष्य में अपने जीवन दशा को बदल लेने की शक्ति भी है।
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ऊँहूँ। नहीं, यह सबकुछ भी नहीं सोचूँगा। मुझे ऐसा कुछ भी नहीं सोचना चाहिए, जिससे कि मेरा दिल कमजोर पड़ जाए। मेरा घाव जल्दी ही भर जाएगा, मैं चंगा हों जाऊँगा। मैं भी कैसा हूँ! मरने से डरता हूँ! मरने क

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मेरा गांव ऐसे इलाके में जहां हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की – कोशी, पनार, महानन्दा और गंगा की – बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं, सावन-भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरत

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फातिमादि को कभी देखूँगा और इस तरह देखूँगा, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। इसलिए, कुछ देर तक 'पंटना-मार्केट” को स्वप्नलोक समझकर खोया - खोया - सा खड़ा रहा-जूते की दूकान पर । बुरके में सिर से पैर तक

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निर्मल ने मन्द-मन्द मुस्कुराती, कमरे में प्रवेश करती हुई-विभावती से पूछा-“क्यों क्या बात है ?” विभावती हँसती हुई बोली-“बात कया होगी ? बात जो होनी थी सो हो गई ।” विभा ने स्वामी के हाथ में आज की डाक

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ठेस

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खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते। लोग उसको बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं। इसलिए, खेत-खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को। क्या होगा, उसको बुला कर? दूसरे

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तीन बिंदियाँ

19 जुलाई 2022
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गीताली दास अपने को सुरजीवी कहती है। नाद-सुर-ताल आदि के सहारे ही वह इस मंज़िल तक पहुँच सकी है। सभी कहते हैं, उसकी साधना सफल हुई है।…कितने भोले और बेचारे होते हैं लोग! साधना के सफल-अफसल होने की घोषणा करन

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धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे

19 जुलाई 2022
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भादों की रात। तुरत बारिस बन्द हुई है। मेढक टरटरा रहे हैं। साँप ने बेंग को पकड़ा है, बेंग की दर्द-भरी पुकार पर दिल में दया आने के बदले, भय मालूम होता है। आसपास की झाड़ियों में फैला हुआ अन्धकार और भी

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ना जाने केहि वेष में

19 जुलाई 2022
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उस दिन अखबार में अपने दैनिक राशिफल में देखा-आदि से अन्त तक हर जगह 'शुभ' और “लाभ' ही लिखा हुआ था। यात्रा : शुभ, अमृतयोग धनागम, राज्य-सम्मान तथा मित्र-लाभ ! पता नहीं, चार दिन के बाद राशिफल में कौन-सा

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नेपथ्य का अभिनेता

19 जुलाई 2022
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यद्यपि उसे पहले भी पच्चासों बार देख चुका हूँ, किन्तु उस दिन देखकर चिहुँक-सा उठा। चकित हो गया। लगा, जैसे बिना मौसम के कोई फूल या फल देख रहा होऊँ। सावन-भादों के किचकिच में, लगातार बारिश में ई कहाँ से

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प्राणों में घुले हुए रंग

19 जुलाई 2022
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शैशव की सुनहली स्मृति, नील-गगन में उड़ते हुए रंग-बिरंगे पतंगों और मनमोहक रंगीन खिलौनों के आकर्षण को मैं जान-बूझकर छोड़े देता। उन दिनों मैं स्वयं किन्ही की रंगीन आशाओं और कल्पनाओं का केन्द्र था! मेडि

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पंचलाईट

19 जुलाई 2022
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पिछले पन्द्रह दिनों से दंड-जुरमाने के पैसे जमा करके महतो टोली के पंचों ने पेट्रोमेक्स खरीदा है इस बार, रामनवमी के मेले में। गाँव में सब मिलाकर आठ पंचायतें हैं। हरेक जाति की अलग-अलग सभाचट्टी है। सभी पं

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पुरानी कहानी : नया पाठ

19 जुलाई 2022
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बंगाल की खाड़ी में डिप्रेशन - तूफान - उठा! हिमालय की किसी चोटी का बर्फ पिघला और तराई के घनघोर जंगलों के ऊपर काले-काले बादल मँडराने लगे। दिशाएँ साँस रोके मौन-स्तब्ध! कारी-कोसी के कछार पर चरते हुए पशु

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बीमारों की दुनिया में

19 जुलाई 2022
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बीरेन की जवानी में घुन लग गया। बुखार-100० 101० 102०,..। खाँसी-भीषण ! रोग-क्ष॑य के लक्षण। कथाकारों के नायक प्रायः क्षय ही से पीड़ित होते हैं। खून की के करते हैं। कथाकार इस रोग को “रोमांटिक” रोग समझ

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रखवाला

19 जुलाई 2022
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रक्त की प्यासी सभ्य दुनिया से दूर-बहुत-दूर-हिमायल के एक पहाड़ी गावं का अंचल। छोटा-सा झोंपड़ा। पहाड़ी की ओट से छनकर आती हुई सूर्य की किरणों में छोटा-सा सरकंडे का झोंपड़ा सोने के झोंपड़े की तरह चमक रहा था।

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रसूल मिसतिरी

19 जुलाई 2022
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बहुत कम अर्से में ही इस छोटे-से गँवारू शहर में काफी परिवर्तन हो गए हैं। आशा से अधिक और शायद आवश्यकता से भी अधिक। स्कूल और होस्टल की भव्य इमारत को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि आज से महज आठ स

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लफड़ा

19 जुलाई 2022
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उस बार 'युनिट” के 'प्रोडक्शन मैनेजर” ने मेरे ठहरने की व्यवस्था “दि डायना गेस्ट हाउस' में की थी। इसके पहले मुझे खार स्टेशन के पास 'होटल सदाबहार! में टिकाया जाता था। इसलिए, नई जगह के बारे में तरह-तरह

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वंडरफुल स्टुडियो

19 जुलाई 2022
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फोटो तो अपने दर्जनों पोज में उतारे हुए अलबम में पड़े हैं, फ्रेम में मढ़े हुए अपने तथा दोस्तों के कमरों में लटक रहे हैं और एक जमाने में, यानी दो-तीन साल पहले, उन तस्‍वीरों को देखकर मुझे पहचाना भी जा सक

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विघटन के क्षण

19 जुलाई 2022
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रानीडिह की ऊँची जमीन पर - लाल माटीवाले खेत में-अक्षत-सिन्दूर बिखरे हुए हैं  हजारों गौरैया-मैना सूरज की पहली किरण फूटने के पहले ही खेत के बीच में 'कचर-पचर' कर रही हैं। बीती हुई रात के तीसरे पहर तक, ज

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संवदिया

19 जुलाई 2022
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हरगोबिन को अचरज हुआ - तो, आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस जमाने में, जबकि गांव गांव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज

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जै गंगा

19 जुलाई 2022
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जै गंगा ... इस दिन आधी रात को 'मनहरना’ दियारा के बिखरे गांवों और दूर दूर के टोलों में अचानक एक सम्मिलित करूण पुकार मची, नींद में माती हुई हवा कांप उठी – 'जै गंगा मैया की जै...’ !! अंधेरी रात में गंग

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