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बचपन

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जब इंसानियत क़त्ल होती है तो सच कहूं. समझ नहीं आता किन अल्फाजों का इस्तेमाल करूं, जिनसे जरा सा ही सही दुःख का एहसास करा सकूं. पता नहीं क्या है कि हम ज़ुल्म को ज़ुल्म क्यों नहीं समझते. उन्हें अपने हिसाब के खांचों में डाल कर तर्क पेश करते हैं. और फिर वो ज़ुल्म, ज़ुल्म नहीं लगता. और फिर तस्वीर आती है किसी ब

रोटी की सही कीमत जानता है ,भूख से बिलबिलाता बदहाल बेसहारा बच्चा ,ढूंढ रहा है जो होटल के पास पड़ी झूठन में रोटी के चन्द टुकड़े,जिन्हें खाकर बुझा सके वो अपने उदर की आग को ,जिसकी तपन से झुलस रहा है उसका कोमल, कुपोषित ,कमजोर बदन |झपट पड़ा था जो फैंकी गयी झूठन पर उस कुते से प

भूख में होती है कितनी लाचारी,ये दिखाने के लिए एक भिखारी, लॉन की घास खाने लगा,घर की मालकिन में दया जगाने लगा।दया सचमुच जागीमालकिन आई भागी-भागी-क्या करते हो भैया ?भिखारी बोलाभूख लगी है मैया।अपने आपको मरने से बचा रहा हूं, इसलिए घास चबा रहा हूं।मैया ने आवाज़ में मिसरी घोली,और ममतामयी स्वर में बोली— मेर

ये छोटी सी कहानी मेरी आप लोँगोँ के लिये  मेरा बचपन  है कहानी छोटी सी मेरी, सुनाता हु आपको को पुरी. बचपन से ही मुझे शौक कुछ अलग करने की, कुछ भी अलग करने की चाहता हो जाती गलती मुझसे हो जाती शौक अधुरी। शैतान था बचपन से ही पर था सबका लाडला, गलती करता हर बार, पड़ती थी दाँट. माँ की फटकार पापा का प्यार हा ह

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