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बचपन

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बचपन मे स्कूल जाने के लिए, किशोरा अवस्था मे एक मुकाम हासिल करने के लिए। परिवार को चलाने के लिए, ताउम्र घर संभालते रहे, खुद को घुलाते रहे साबुन की तरह।साफ हो गए मृत सैय्या के लिए। आखरी समय मे , खुद को तैयार करते रहे शमशान में जलाने के लिए।

साथ घूमते थे नंगे पांव दूर तक बाग में खेत मेंऔर सड़क परकभी नहर के किनारेपूरे एक-एक प्रहर तकनहाते थे डुबकियां लगातेधूल फेंकते दोस्तों परगम ना था फिक्र न थीमां से पिटने कीन था पिता से डांट खाने का डरमगर फिर भी एक भय व्याप्त थाबड़े भाई केहाँथ उठ जाने परगम न था फिक्र न थीसूखी रोटी भीभर पेट खाते थेकभी अपन

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तीक्ष्ण वाणी के प्रहार,झेलता वह मासूम।सुबकता,सिसकता,आंसू पौंछता।खोजता अपने अपराध,शनै-शनै मरता बचपन!आक्रोश का ज्वालामुखी,उसके अंदर लेता आकार।शरीर पर चोटों की मार,बनाती उसे पत्थर!पनपता एक विष-वृक्षजलती प्रतिशोध की ज्वाला!पी जाती उसकी मासूमियत।वक्त से पहले ही होता बड़ा,समझता शत्रु समाज को,चल पड़ता पाप

कितने खेले खेल बचपन में , याद आएंगे वो उम्र पचपन में। गिल्ली डंडा, लट्टू को घुमाना, गिलहरी में फिर साथी को सताना। खो खो बड़ा पसन्दीदा लगता, अंटी तो माँ को ही अच्छा न लगता। जमा करते बड़े भैया जब अंटी, माँ डाँट कर घर से बाहर फेंक देती। सांप सीडी में साँप से काटे जाते, लूडो में तो हम कभी न हारते। गुड़िया

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"अवसाद" एक ऐसा शब्द जिससे हम सब वाकिफ़ हैं।बस वाकिफ़ नहीं है तो उसके होने से।एक बच्चा जब अपनी माँ-बाप की इच्छाओं के तले दबता है तो न ही इच्छाएँ रह जाती हैं ना ही बचपना।क्योंकि बचपना दुबक जाता है इन बड़ी मंज़िलों के भार तले जो उसे कुछ खास रास नहीं आते।मंज़िल उसे भी पसंद है पर र

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"बहुत खूबसूरत होती है ये यादों की दुनियाँ , हमारे बीते हुये कल के छोटे छोटे टुकड़े हमारी यादों में हमेशा महफूज रहते हैं,

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तीर्थ राज प्रयाग राज में महा पर्व अर्द्ध कुम्भ स्नान डॉ शोभा भारद्वाज पुराणों में वर्णित पोराणिक कथाओं के अनुसार देवताओं एवं दानवों ने मिल के समुद्र मंथन किया था तय था समुद्र मंथन से जो रत्न निकलेंगे दोनों पक्ष मिल कर बाँट लेंगे मन्दराचल पर्वत को मथनी बनाया भगवान विष्णु ने कच्छप अवतार धारण कर समुद्र

बचपन बनामबुढ़ापा। नर्म हथेलीमुलायम होठ, सिरमुलायम काया छोट।बिन मांगेहोत मुरादे पूर,ध्यान धरे माता गोदी भरे।पहन निरालेकपड़े पापा संग, गाँवघूम कर बाबा-दादी तंग।खेल कूद बड़ेभये, भाई बहनो केसंग। हस खेल जवानी, बीत गईं बीबी के संग। ये दिन जब, सब बीत गए जीवन के। अंखियन नीरबहे, एक आस की खातिर।कठोर हथेलीसूखे हो

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आज हम बड़े हो गए हैं, हम में से बहुत से नौकरी करते हैं औऱ हमारे पास पैसे भी होते हैं लेकिन वो सुकून नहीं होत

ढाक भी वही सौगात भी वहीपर वो बात कहां जो बचपन में थीठेले भी वही , मेले भी वहीमगर वो बात कहां जो बचपन में थीऊंचे से और ऊंचे तोभव्य से और भव्य होते गएमां दुर्गा के पूजा पंडाललेकिन परिक्रमा में वो बात कहां जो बचपन में थीहर कदम पर सजा है बाजारमगर वो रौनक कहां जो बचपन में थी।नए कपड़े तो हैं अब भी मगर पहन

वो भी क्या दिन थे ....बचपन के वो दिनअसल जिंदगी जिया करते थे कल की चिंता छोड़ आज में जिया करते थे ईर्ष्या,द्वेष से परे,पाक दिल तितली की मानिंद उड़ते ना हाथ खर्च की चिंता,ना भविष्य के सपने बुनते हंसी ख़ुशी में गुजरे दिन ,धरती पर पैर ना टिकते छोटे छोटे गम थे,छोटी छोटी

लेने को तो मैं ले लेता, बदला बदलने वालों सेl फिर सोचा क्यों उनको सोचूँ, जिनको मेरी परवाह नहीं थी ll करने को तो मैं कर देता, विद्रोह सभी खिलौनों सेl पर बचपन को सूना कर दूँ, ऐसी कोई चाह नहीं थी ll

लेने को तो मैं ले लेता, बदला बदलने वालों सेl फिर सोचा क्यों उनको सोचूँ, जिनको मेरी परवाह नहीं थी ll करने को तो मैं कर देता, विद्रोह सभी खिलौनों सेl पर बचपन को सूना कर दूँ, ऐसी कोई चाह नहीं थी ll

हमारेबचपन में आज की तरह प्ले-स्कूल नहीं होता था। बस एक ही प्ले-स्कूल थाजो किताबी ज्ञान पर आधारित न हो, व्यवहारिकज्ञान व् प्रकृति करीब से जुड़ा था । प्लेस्कूल के लिए पांच-छह बरस तक हम अपने फार्म हाउस ( खेत खलियान) में घूमना, गन्ने

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मासूमों पर वहशियों की नजर क्या पडी. बचपन बर्बाद हो गया. इंसानियत शर्मसार हुई तो संस्कारों पर भी सवाल खड़े हो गए. बाल उत्पीड़न के बढ़ते आंकड़े यह सोचने पर बाध्य करते हैं कि विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति में कहां चूक हो गई कि भगवान स्वरूप बच्चे ही हैवानों का शिकार होने लगे. कभी अपनों की तो कभी गैरों क

यहाँ कुशल वहाँ जगमाहीं मेरा पत्र मिला की नाहीं। जवाबी पत्र का इंतजार करते-करते आँखें पथरा गई, पोस्ट ऑफिस का डाकियाँ भी बदल गया लगता है। पुछनेपर नाराज हो जाता है, कहता है कि खुद लिखकर लाऊँ क्या? रोज-रोज आकर दरवाजे पर खड़े रहते हो, पत्र आया क्या? पत्र आया क्या?। यहाँ मनीआर्ड

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मामूली हैं मगर बहुत खास है...बचपन से जुड़ी वे यादेंवो छिप छिप कर फिल्मों के पोस्टर देखनामगर मोहल्ले के किसी भी बड़े को देखते ही भाग निकलनासिनेमा के टिकट बेचने वालों का वह कोलाहलऔर कड़ी मशक्कत से हासिल टिकट लेकरकिसी विजेता की तरह पहली पंक्ति में बैठ कर फिल्में देखनाबचपन की भीषण गर्मियों में शाम होने

सिखा दे हमें मुस्कराना वो हर पल😍😇करने को तो है बयां इस दिल की कहानी,पर काश मैं कह पाती इसको अपनी जुबानी.कहने को तो इस दिल में है यूँ तो बहुत कुछ,पर कम्बख्त ये दिल बयां करता ही नही कुछ.दरियादिली इस दिल की तुम न पुछो बस,😐😐खुशमिजाज़ ही रहता है पीकर भी ये हार का रस.हैं हम तो नासमझ जो इसको न समझ पाए,ब

देश में तीव्र गति से बच्चों का झुकाव आक्रमक रवैये और अन्य असामाजिक कार्यों में लग रहा है। जिसका अहम कारण बच्चों की खेलों के प्रति बढ़ती दूरी भी है। आज के समाज में बच्चा जहां घर में माता-पिता की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में अकेलेपन का एहसास करता है, वहीं खेलों से बढ़ती दूरी उसके मानसिकता के विकास को भी अवरुद

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शर्मा जी अभी-अभी रेलवे स्टेशन पर पहुँचे ही थे। शर्मा जी पेशे से मुंबई मे रेलवे मे ही स्टेशन मास्टर थे। गर्मी की छुट्टी चल रही थी इसलिए वह शिमला घूमने जा रहे थे, उनके साथ उनकी धर्मपत्नी मंजू और बेटी प्रतीक्षा भी थी। ट्रेन के आने मे अभी समय था।तभी सामने एक महिला अपने पाँच स

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