"घंटी बजा दी, झिनकू भैया ने "
आज सुबह- सुबह मेरे प्रिय झिनकू भैया का गाँव से फ़ोन आया, स्क्रीन पर उनका नाम उभरा और मेरी बांछे खिल गई। बड़े उत्सुकता से बटन दबाया' पर हाय रे चश्में का नंबर और बिना चश्में की आँख, गलत जगह टच हो गया और फोन की घंटी नौजौवना की तरह गुस्सा होकर झनझना कर मानों रूठ गई। कुछ पल तो इंतजार किया कि फिर बजेगी पर ऐसी किश्मत कहाँ, सही कदम- विचार पर तो कोई भले मुँह बोलता नहीं, गलती पर कौन घास डालता है। खैर, मन मसोस गया और मैंने झिनकू भैया को काल-बैक किया, ट्रिंग ट्रिंग हुआ और झिनकू भैया की जानी-पहचानी आवाज से रूबरू हुआ। कैसे हो भाई, अब खुश हो न, शिकायत मत करना, देखों आज मैंने भी तुम्हारी घंटी बजा दी!!!!!! हा हा हा हा हा...... हाँ भैया, प्रणाम, आप का बहुत बहुत आभार, मिसकॉल देखते ही झूम गया अगर सही में बजाते तो बात कुछ और ही होती!!!!! हा हा हा हा हा। सुनाइए, कैसे आज सूरज की दिशा बदल गई, कोई खास बात है क्या?.....! अरे, नहीं भाई, बस वैसे ही याद आ गई, फुरसत का समय है गाँव में कोई शादी ब्याह तो अभी तक नजर नहीं आ रहा है। लगता है बरदेखुवा रास्ता भूल गए हैं जब कि शायद ही गाँव में कोई घर होगा, जहाँ नगारे की धुन सुनने की बेताबी और वजह न हो। खेती- बारी भी दो दिन में सिमट गई, आम-महुवा की दशा जानते ही हो, किसी किसी पेड़ पर दो-चार टिकोरा लग गया था जिससे सतुवान की चटनी तो मिल गई पर आम चुस्सी के लिए बाजार से महंगा मोलभाव करना ही पड़ेगा। पुरुवा हाहाकार किये हुए है लगता है बौछार जल्दी आएगी। गर्मी तो है नहीं, बहुत दूर की बात हो गई है, न सीजन गरम है न लोगों में गर्मी है, सबके सब ठन्डे हो गए लगते हैं। जबसे नई सरकार बनी है तबसे अमन-चैन की हवा खूब तेजी से चल रही है। अगर ऐसे ही रहा तो जैसे खरीद केंद्रों पर गेंहूँ की भरमार है वैसे ही हर फसल का विकास हो जाएगा। लगता है दिन सुधरने वाले हैं, रात भी अँजोरिया की तरह चमक रही है। अँजोर ही अँजोर दिख रहा है उम्मीद और आशावादी बयार में। सड़क और उद्योह भी खूबे आशावान दिख रहे हैं, गाय-गोरु भी छुट्टा घूमकर अपनी अकड़ छुड़ा रहे हैं बे-डर होकर कुलांच रहे हैं। आगे प्रभु की मरजी!!!!!! बहुत बढ़िया भैया, चैती हवा की लहर सुनकर मन हरियरा गया......गाँव घर सुखी हो जाय, लोगबाग अपने अपने सूबे में रहकर कुछ काम धंधे में लग जांय, अपने खेत और अपनी गाय के अन्न- दूध से जीविका यापन करें, अब और क्या चाहिए। सब लोग मिलजुलकर एक साथ बैठ-बिठाकर विकास करें यही तो सर्वांगीण विकास है। भैया, आज की आप की बात से लगता है कि मुझे भी अब कुछ नए शीरे से निवृति के बाद के समय के लिए सोचना पड़ेगा। अरे, यह तो याद ही न रहा कि हम भी अब साठा के करीब आ गए, कब रिटायर हो रहे हो भाई, वहीं रहने का इरादा है क्या???????। हाँ भैया अभी तक तो यही मानकर चल रहे थे कि बुढ़ापे में भी गाँव में रहना मुमकिन न होगा और जन्म भूमि का लगाव मन मारकर शहर में सुविधा के लिए जीवन जीने को मजबूर करेगा। अभी बीस महीने शेष हैं मेरे सेवाकाल के भैया, देखिए उम्मीद तो जगी है जन्मभूमि के हरियाली में अपने आप को हरियराने की......जय राम जी की......ॐ जय श्रीराम.....
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी