भगवान ने दिया हमें काम की जिंदगी, बस चार दिन का जिंदगी -2
लड़कपन, बचपन, जवानी, बुढापा, यही है चार दिन की जिंदगी -2
लड़कपन था वो बड़ा ही प्यारा, सुख-दुख से था वारा न्यारा
माँ के गोद में होता खेलना, पिता के कंधे पे होता सोना
प्यार दुलार की होती पप्पी, सबकी मिलती हमको झप्पी
लड़कपन का तो क्या है कहना, हंसना रोना खिलखिलाते रहना
बचपन आया खूब खेलाया, थोड़ा सा ये कष्ट भी लाया
सुबह उठना स्कूल जाना, अच्छे नंबर का बोझ उठाना
पढ़ लिख के संस्कार सिखना, खेलना कूदना शैतानी करना
बचपन होता नीव जीवन का, निर्भर इसपे जिन्दगी आगे का
जवानी की तो कहानी बहुत है, इसे जीने की परेशानी बहुत है
सजना सवरना, प्यार करना, नौकरी हो या व्यपार करना
शादी, बच्चे, घर का झगड़ा, बीबी, बॉस, क्लाइंट का लफड़ा
जवानी यारों एक जुआ है, चली तो राजा ढली तो बद्दुआ है
बुढापा तो बस बेचारगी है, खत्म जीवन की आवारगी है
स्वाभिमान से जो कमाये, कैसे बच्चों पे बोझ बन जाये
मर्ज बढ़ता दर्द बढ़ता, दवा दारु का कर्ज बढ़ता
बुढ़ापा है एक श्राप जैसा, खत्म कहानी हज़म पैसा
लड़कपन गोद में खेला, बचपन ने मुझे झेला
जवानी भागम भाग में जी ली, बुढ़ापा दवाई ने पी ली
✍️ स्वरचित : गौरव कर्ण (गुरुग्राम, हरियाणा)