वो गाँव मुझे बुलाता, वो गाँव मुझे बुलाता
क्यूं छोड़ आ गये सब, हर पल है ये रूलाता
वो गाँव मुझे बुलाता, वो गाँव मुझे बुलाता
पगडंडियों से होके, खेतों पे हम थे जाते
बोरिंग के पानी से जब, हम ख़ुब थे नहाते
गन्ने की खेत में जब, हम छुपते और छुपाते
वो पेड़ वाला झूला, हर पल है याद आता
वो गाँव मुझे बुलाता, वो गाँव मुझे बुलाता
बड़ी सी एक आंगन, सब साथ मिल के रहते
गोबर से नीपे घर को,हम शुद्ध थे समझते
पुआल के गद्दे पे हम, दलान में जाके सोते
कुआँ का ठंडा पानी, था प्यास जब बुझाता
वो गाँव मुझे बुलाता, वो गाँव मुझे बुलाता
मिट्टी के चुलहे पे जब, माँ खाना थीं बनाती
वो खेत वाले बैंगन का, भरता थीं पकाती
सिलवटे पे मसाले को जब,वो रौंद-रौंद पीसती
खाने के सोंधी ख़ुशबू से, घर था महक जाता
वो गाँव मुझे बुलाता, वो गाँव मुझे बुलाता
घुंघट में कनिया सब, जब घर से थी निकलती
पायल की छन-छनाहट थी,माहौल में बिखेरती
जब जेठ अंदर आते, वो आवाज़ थे निकालते
वो शर्म और वो आदर, अब कहाँ है दिख पाता
वो गाँव मुझे बुलाता, वो गाँव मुझे बुलाता
गाँव में होती शादी, हम घर-घर से कुर्सी लाते
घर-घर पे जाके सबको, हम हकार दे के आते
पंक्ति में बैठ के सब, थे साथ मिल के खाते
वो भोज और वो बीजो, अब क्यूं नहीं हो पाता
वो गाँव मुझे बुलाता, वो गाँव मुझे बुलाता
स्लेट ले के हम सब, स्कूल पढ़ने जाते
गाने की लय में सरजी, हमें पहाड़ा थे पढ़ाते
बोरे पे बैठ के सब, कलम द्ववात ले के लिखतें
वो पेड़ वाली सटकी, हमें खूब था डराता
वो गाँव मुझे बुलाता, वो गाँव मुझे बुलाता
गाँव के बैठकी पर, सब साथ रेडियो सुनते
पेठियां में जाके हम सब, समान लेने जाते
चाचा जी हमें कहानी , जब सुलाते वो सुनाते
वो नीम वाला दातून लाल मंजन याद आता
वो गाँव मुझे बुलाता, वो गाँव मुझे बुलाता
✍️ स्वरचित : गौरव कर्ण (गुरुग्राम, हरियाणा)