ये कैसा है द्वंद मन मे, ये कैसा है द्वंद
मन ही मन से द्वंद करता, ये कैसा है द्वंद
इक मन कहता आसमान छू लूँ
इक मन कहता ज़मी पर रह लूँ
इक मन बोले गलत है ये काम
इक मन बोले तू करले ये काम
किस मन की अब बात माने
मन की अंखियां है बंद
ये कैसा है द्वंद मन मे, ये कैसा है द्वंद
मन ही मन से लड़ता झगड़ता
मन का दिल से लफड़ा रहता
मन कहता उसे प्यार कर ले
दिल कहता तू बच के निकल ले
मन या दिल में किसकी माने
मन की बुद्धी है मंद
ये कैसा है द्वंद मन मे, ये कैसा है द्वंद
मन तो मन है मन ही जाने
मन में किये को कौन पहचाने
मन में जो है वो वही है करता
मन किसकी और कब है सुनता
मन से कब कोई भाग सका है
मन की पकड़ है फंद
ये कैसा है द्वंद मन मे, ये कैसा है द्वंद
मन की गहराई को कौन है माना
मन की तरप को कौन है जाना
मन की दूरी को कौन मापा है
मन की चंचलता कौन समझा है
मन से किसका बैर रहा है
मन से किसका है द्वंद
ये कैसा है द्वंद मन मे, ये कैसा है द्वंद
✍️ स्वरचित : गौरव कर्ण (गुरुग्राम, हरियाणा)