(योगराज का बंगला। जेनी और योग बैठे बातें कर रहे हैं)
जेनी – आयी थी दो दिन के लिए और रह गयी तीन महीने! माँ मुझे रोज कोसती होगी। मैंने कितनी ही बार लिखा कि यहीं आ जाओ, पर आती ही नहीं। मैं सोचती हूँ, दो-चार दिन के लिए घर हो आऊँ।
योगराज – अजीब स्वभाव है उनका। रुपये भी वापस करत देती है, घर से आती भी नहीं। आखिर चाहती क्या है?
जेनी – बस यही कि मैं शादी कर लूँ और उनके पास रहूँ। शायद उन्हे यह ख़ौफ़ भी हो कि कहीं तुम मुझे लेकर भाग न जाओ।
योगराज – (हँसकर) तुम जाओगी, तो फिर लौटकर न आने पाओगी। मेरा फिल्म अधूरा रह जाएगा। जब तक ड्रामा पूरा न हो जाय, मैं तुम्हें एक दिन के लिए भी नहीं छोड़ सकता। और अब तुमसे क्या छिपाऊँ जेनी! छिपाना व्यर्थ है। शायद तुमने पहले ही भाँप लिया है। अब मैं तुम्हारे बगैर जिन्दा नहीं रह सकता। मैंने तुममें अपनी उमा को फिर से पाया है। अगर उस वक़्त तुम न आती, मालूम नहीं मेरी क्या हालत होती। शायद दीवाना हो जाता, यह कहीं डूब मरा होता। तुमने आकर मेरे तड़पते हुए हृदय पर मरहम रखा और मुझे जिला लिया।
जेनी – इसीलिए अब मेरा यहाँ से जाना ज़रूरी है। मैं जाना नहीं चाहती। शायद इतना तुम भी समझ गये होंगे, क्यों नहीं जाना चाहती। लेकिन इसका नतीज़ा क्या है? खुद रो-रोकर मरूँ और तुम्हें भी हैरान करूँ। मैं तो रोने की आदी हूँ। लेकिन तुम्हारे रास्ते का काँटा क्यों बनूं? तुम्हारा जी थोड़े दिनों में बदल जाएगा। जीवन के आमोद-प्रमोद तुम्हें फिर अपनी ओर खींच लेंगे और जीवन की अभिलाषाएँ फिर जाग उठेगी। तुम इतने सहृदय, इतने उदार, इतने सज्जन, इतने उन्नतात्मा हो कि जिस किसी से भी तुम्हारा सम्पर्क हो जाएगा, उसमें तुम अपना आदर्श आरोपित कर दोगे। जब मुझ जैसी औरत में तुमने गुण देख लिए, तो मुझे मालूम हो गया कि तुम अपना स्वर्ग आप बना सकते हो मिट्टी को भी सोना बनाने का मन्त्र तुम्हें आता है। मैं कभी किसी से प्रेम कर सकूँगी, इसकी मैंने कल्पना तक न की थी। प्रेम मेरे लिए विनोद और परिहास की वस्तु थी। तुमने मेरे हृदय में प्रेम की ज्योति जलायी और अब उस पिछले जीवन की याद करती हूँ तो मालूम होता है कितना नीरस, कितना अस्वाभाविक था, लेकिन इसका कोई इलाज नहीं। विधि हमारे और तुम्हारे बीच में खड़ी है और -
योगराज – क्या उस विधि पर हम विजय नहीं पा सकते जेनी?
जेनी – कैसे?
योगराज – हमारी शादी नहीं हो सकती?
जेनी – धर्म-बन्धन को क्या करोगे!
योगराज – मैं धर्म के बन्धन को तोड़ दूंगा?
जेनी – (हाथ से मना करके) नहीं नहीं, मैं तुम्हें समाज में अछूत नहीं बनाना चाहती। तुम्हारा समाज से निकाल दिया जाना, मेरे लिए असह्य है मैं तुम्हें इतने घोर धर्म-संकट में नहीं डाल सकती। मेरे प्रति तुम्हारा जो सद्भाव हो, उस पर इतना भारी बोझ लादना कि कुछ दिनों में वह दब जाय, न मेरे लिए अच्छा है, न तुम्हारे लिए। मैं मानती हूँ, तुम मेरी खातिर वह अरमान और उपहास बर्दाश्त करोगे, लेकिन मैं इतनी स्वार्थिनी नहीं हूँ।
योगराज – मैं समाज और उसके बन्धनों की परवा नहीं करता जेनी! अगर मैं कोई ऐसा काम करूँ, जिससे समाज का अहित होता हो, तो बेशक समाज मेरा बहिष्कार कर सकता है, लेकिन मैं अपने व्यक्तिगत अधिकार को समाज के भय से नहीं छोड़ना चाहता।
जेनी – (सोचकर) नहीं, ऐसे मामलों में तर्क से काम नहीं चल सकता। मुझे जाने दो। मैं जानती हूँ, तुमसे अलग रहकर संसार मेरे लिए सूना हैं, लेकिन मुझे इस विचार से सन्तोष होता रहेगा कि मैंने संसार के निर्दय आघातों से तुम्हारी रक्षा की।
योगराज – यह संतोष बहुत थोड़े दिन रहेगा, जेनी! अगर तुम्हारा खयाल है कि तुम्हारे जाने के बाद मैं यह सब कुछ भूल जाऊँगा और फिर किसी रूपमती रमणी से विवाह करके आनन्द से रहूँगा, तो वह गलत है। तुमने सोचा है, मैं अपना स्वर्ग आप बना सकता हूँ। तुमसे मुझे जो प्रेम है, उसे तुम मेरी शक्ति का प्रमाण समझ रही हो। वास्तव में तुम अपना मूल्य बहुत कम समझ रही हो। मैंने तुम में जो कुछ पाया, जो कुछ देखा, वह फिर कहीं और देख सकूँगा, यह असम्भव है। इसका प्रमाण शायद तुम्हें जल्द मिल जाय। निःस्वार्थ प्रेम ऐसी सस्ती चीज नहीं है जो बाजार में मिलती हो।
(दोनों कुछ देर तक सिर झुकाए विचारों में डूबे बैठे रहते हैं)
योगराज – अगर यही समाज का भय है, तो क्यों न हम किसी दूसरी जगह चलें,जहाँ कोई हमें जानता हू न हो?
जेनी – (मुस्कराकर) किसान की खेती उसकी आँखों के सामने चरी जाय, क्या तभी उसे दुःख होगा? बिना कोई अपराध किए चोरों की तरह रहना बहुत सुखी जीवन नहीं हो सकता। हम जिनसे आदर और सम्मान चाहते हैं, उन्हीं से निंदा पाकर दुखी होते हैं। और लोग क्या कहते हैं, इसकी हमें परवा नहीं होती? मामा तो जहर ही खा लेंगी और शायद तुम्हारे घर वाले भी प्रसन्न न होंगे।
योगराज – तुम तो किसी बात पर राजी नहीं हो जेनी!
जेनी – जिन हालातों में ईश्वर ने हम दोनों को पैदा किया है, उसका एक ही इलाज है कि हम दोनों एक-दूसरे से अलग हो जायँ। मैं तुम्हारे लिए सब कुछ झेलने के लिए तैयार हूँ, लेकिन तुम्हें संकट में नहीं डाल सकती। तुम्हारे ऊपर यह आक्षेप मैं नहीं सुन सकती कि औरत के पीछे ईसाई हो गया और न शायद तुम मेरे ऊपर यह आक्षेप सुनना पसन्द करोगे के दौलत के पीछे एक आदमी के साथ चली गई। मैं आजकल की प्रथानुसार शुद्ध होकर तुम्हें उस आक्षेप से बचा सकती हूँ, लेकिन शुद्ध को मैं । बिल्कुल ढोंग समझती हूँ। मैं अपने स्वभाव से, अपने संस्कारों से, जो कुछ हूँ, वही रहूँगी। हवन कर लेने या दो-चार मन्त्र पढ़ लेने से मेरे संस्कार नहीं बदल सकते। ईसाई-धर्म में कम-से-कम एक तत्व अब भी है, और वह सेवा है। हिन्दू-धर्म में तो वह चीज भी नहीं। यहाँ तो केवल रूढ़ियाँ हैं, केवल पुरानी लकीरों को पीटना है। इसके लिए मेरी आत्मा तैयार नहीं। मुझे हँसकर विदा कर दो। मगर देखना यह विच्छेद हमारे आत्मिक ऐक्य को शिथिल न कर दे। मुझसे नाराज न होना, मेरी तरफ से आँखें न फेरना। जेनी तुम्हारी है, और तुम्हारी रहेगी, संसार की आँखों में नहीं - ईश्वर की आँखों में, जो संसार की सृष्टि करता है।
योगराज – (कम्पित स्वर में) तो यह तुम्हारा अंतिम फैसला है, जेनी?
जेनी – हाँ, प्यारे, यही मेरा अंतिम फैसला है। तुम थोड़े दिनों में मुझे भूल जाओगे। ईश्वर से मेरी यही दुआ होगी कि तुम मुझे जल्द-से-जल्द भूल जाओ! लेकिन भूलकर भी कभी-कभी याद कर लिया करना। (रोकर) ये दिन कितनी जल्द गुजर जाएँगे, यह मैंने न सोचा था! लेकिन जीवन के लिए जिस प्रेमाधार की जरूरत है वह तुमने मुझे दे दिया और वह मेरी उम्र भर के लिए काफी है। विवाह मेरी दृष्टि में आत्मिक संबंध है। उसे रस्म के बन्धनों से जकड़ना मैं अनावश्यक ही नहीं, पाप समझती हूँ। दिल का मिलना ही विवाह है। रस्म के बन्धन से स्त्री-पुरुष को बाँध ना तो वैसा ही है, जैसे दो पशु एक रस्सी में जोत दिए गए हों। जिस बन्धन का आधार समाज या धर्म का भय है, वह कभी सुखकर नहीं हो सकता। सुख का मूल स्वच्छंदता है, बन्धन नहीं। प्रेम भी जल-प्रवाह की भाँति मुक्त रहना चाहता है। अवरोध से उसमें कीट पैदा हो जाते हैं, दुर्गन्ध आने लगती है। मेरा तो विचार है कि प्रेम बन्धनों में पड़कर उस प्रकार निष्प्राण हो जाता है जैसे कोई पौधा प्रकाश न पाकर निर्जीव हो जाता है। मैं स्वेच्छा से यहाँ रात भर बैठी रह सकती हूँ, लेकिन कोई यह द्वार बन्द कर दे तो मैं इसी क्षण यहाँ से निकल भागने के लिए विकल हो जाऊँगी।
योगराज – मैं तो इसके लिए तैयार हूँ, जेनी!
जेनी – लेकिन मैं तो तुम्हें काँटों में नहीं उलझाना चाहती। समाज में तुम्हारा जो स्थान है, उसकी रक्षा करना भी मेरे प्रेम का अंग हो गया है। यह मेरे जीवन का नया अनुभव है। मुझे विश्वास है तुम अपने ऊपर इस निंदा और अपमान का कोई असर न होने दोगे! लेकिन मनुष्य तो प्रकृति के नियमों में जकड़ा हुआ है। उससे तुम कैसे बच सकते हो। इस ग्लानि और संकट के वातावरण में तुम बहुत दिन अपने का संभाल न सकोगे। मैं तुम्हारे ऊपर संदेह नहीं कर रही हूँ, लेकिन टॉल्स्टॉय की अन्नाकारेनिना का अन्त मेरी आँखों के सामने फिरा करता है। मैं उसे भूलना चाहती हूँ पर असफल होती हूँ।
योगराज – (निराश होकर) तुम्हारी जैसी इच्छा हो जेनी! मैं तुम्हें मजबूर नहीं कर सकता। जाओ, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे। कभीकभी मेरी खोज-खबर लेती रहना – ! आज मुझे मालूम हुआ कि उमा मर गई और अब फिर नहीं आ सकती! (रोने लगता है। फिर अपने को संभालकर) यह सदमा शायद मैं बर्दाश्त न कर सकूँ, जेनी, लेकिन जाओ जहाँ रहो सुखी रहो।
जेनी – अपनी शादी में मुझे जरूर बुलाना।
योगराज – जल्द ही होगी, जेनी! सुनकर तुम खुद आओगी।
जेनी – हाँ, मैं खुद आऊँगी, कम-से-कम इत्तला तो देना। (आभूषणों की संदूकची उठाकर) और यह आभूषण उस सौभाग्यवती को मेरी ओर से भेंट कर देना।
योगराज – (संदूकची लेकर) धन्यवाद!
(उठाकर सिर झुकाए आहिस्ता कमरे के बाहर चला जाता है। जेनी एक क्षण तक उसे देखती रहती है, फिर आँखों से आँसू भरे अपना सामान बँधवाने लगती है)
(पटाक्षेप)