(योगराज का बंगला। प्रातःकाल। योगराज और जेनी एक कमरे में बैठे बातें कर रहे हैं। योगराज के मुख पर शोक का गाढ़ा रंग झलक रहा है! आँख सूजी हुई है, नाक का सिरा लाल, कंठ स्वर भारी। जेनी सफरी कपड़े पहने हुए हैं। मालूम होता है, अभी बाहर से आई है)
जेनी – मुझे यही पछतावा हो रहा है कि एक दिन पहले क्यों न आई। जिस समय मुझे तार मिला, अम्माँ कुछ अस्वस्थ थीं। मैंने समझा जरा इनकी तबियत सँभल जाए, तो चलूँ! अगर जानती यह आफत आने वाली है, तो तुरन्त भागती देखने भी न पाई।
योगराज – आपका नाम अन्त समय तक उनकी जबान पर था। बार-बार आपको पूछती थीं। (लम्बी साँस खींचकर) मैं तो कहीं का न रहा, मिस जेनी! मुझे जीवन में यह विभूति मिल गई थी कि उसे खोकर अब संसार मेरी आँखों में सूना हो गया। और यह सब मेरे ही कर्मों का फल है। मैं ही उनका घातक हूँ। मेरी ही भोग-लिप्सा ने उस कच्चे फल को तोड़कर जमीन पर गिरा दिया। उन्हें दो-बार गर्भपात हुआ; पर मेरी अंधी आँखों को कुछ न सूझता था। जिस फूल को सिर और आँखों और हृदय से लगाना चाहिए था, जिसकी सुगन्ध से मुझे अपने जीवन को बसाना चाहिए था, उसे मैंने पैरों से कुचला। कभी-कभी जी में ऐसा उबाल आता है कि दीवार से सिर पटक दूँ; यह दाग दिल से कभी न मिटेगा, यह घाव कभी न भरेगा! (रोता है)
जेनी – यों अधीर होने से कैसे काम चलेगा बाबूजी! मैं तो उसकी सहेली थी, लेकिन मुझे उससे जितना प्रेम था, उतना अपनी सगी बहन से भी न होता। फिर आपके शोक का अनुमान कौन कर सकता है। उसका शील-स्वभाव ही ऐसा था कि बेअख्तियार दिल को खींच लेता था, किन्तु अब धैर्य के सिवा और क्या कीजिएगा! खुदा की यही मर्जी थी, आदमी की उसमें क्या दखल! अब इसी विचार से दिल को तसल्ली दीजिए कि यह संसार उसके लिए। उपयुक्त स्थान था। सब स्वर्ग के योग्य थी और स्वर्ग ने उसे ले लिया।
योगराज - हाय! किसी तरह दिल को तसल्ली नहीं होती, मिस जेनी! यों अपनी मृत्यु से मर जाती, तो मैं सब्र कर लेता; लेकिन यह कैसे भूल जाऊँ कि मैंने ही उनकी हत्या की, मेरी ही विषयासक्ति ने उनकी जान ली। मैंने अमृत को इस तरह खाया, जैसे पशु घास खाता है। वह देवी मुझ पर कुरबान हो गई। मुझे प्रसन्न रखना उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था। मेरी इच्छा के विरुद्ध कभी एक शब्द भी मुँह से न निकाला। प्रातःकाल नींद खुलती, तो उनकी सहास मूर्ति सामने आमोद की वर्षा-सी करती हुई दिखाई देती थी। दिन-दिन दुर्बल होती जाती थी, लेकिन मेरी खातिरदारी में अणुमात्र भी कमी न करती थी। इस घर की एक-एक वस्तु पर उनका प्रेम अंकित है। वह खुद फूलों की तरह कोमल थीं। और फूलों से उन्हें असीम प्रेम था। यह गमले जो सामने रखे हुए हैं, उन्हीं के लगाए हुए हैं। खाने को जिस वस्तु में मेरी रुचि देखती, उसे अपने हाथों से पकातीं। कुर्सियों पर जो यह फूलदार गद्दे है, उन्हीं के काढ़े हुए हैं। मेज पर जो मेजपोश है, उन्हीं का काढ़ा हुआ है। तकियों के गिलाफ उन्हीं के बनाएँ हुए है, किस-किस बात को रोऊँ। उन्होंने अपने को मुझ पर अर्पित कर दिया। मुझ जैसा अनाचारी, व्यसनी, अधम व्यक्ति इस योग्य न थी कि उसे ऐसी देवी मिलती। ईश्वर ने सुअर के गले मे मोतियों की माला डाल दी?
(वह चुप हो जाता है और कई मिनट तक आँख बन्द किए बैठा रहता है। सहसा सिर पर जोर से हाथ मारकर कमरे से निकलता है और बगीचे की ओर भागता है। जेनी उसके पीछे-पीछे जाती है वह बगीचे में खड़ा होकर फूलों की क्यारियों की ओर ध्यान से देखता है, जैसे किसी को खोज रहा हो। फिर वहीं से लपका हुआ आता है और उमा के कमरे का परदा हटाकर धीरे से अन्दर जाता है और कमरे को खाली पाकर जोर से छाती पीटकर जमीन पर गिर जाता है। जेनी की आँख से आँसू बहने लगते हैं। दौड़कर पानी लाती है और उसके मुँह पर पानी के छींटे देती है। एक मिनट में योगराज चौंककर उठ बैठता हैं)
जेनी – बाबूजी, आप बुद्धिमान होकर नादान बनते हैं। इस तरह होश-हवास खो देने से क्या फायदा होगा।
योगराज – कह नहीं सकता मुझे क्या हो जाता है, मिस गार्डन! मुझे ऐसा मालूम होगा है जैसे उमा अपने कमरे में बैठी हुई है, जैसे बगीचे में घूम रही है! जानता हूँ, अब इस जीवन में उनके दर्शन न होंगे, लेकिन न जाने क्यों यह भ्रम हो जाता है! मन किसी के मुँह से यह सुनने के लिए लालायित रहता है कि वह दस-पाँच दिन के लिए कहीं चली गयी है। कभी न मिलेंगी, सदा के लिए चली गई, यह असह्य है, मैं इसे बरदाश्त नहीं कर सकता...! (एक क्षण के बाद सिर पर हाथ मार कर) मुझे इसका ध्यान ही न रहा कि आप सफर करके आ रही हैं! हाय? आज वह होतीं, तो आपको देखकर कितनी खुश होतीं। मैं आपकी क्या खातिर कर सकता हूँ, खातिर करने वाली तो चली गई! (महाराज को पुकारता है) देखो, मिस साहब के लिए नाश्ता लाओ। बहुत जल्द और महरी को भेजो, आपका हाथ-मुँह धुलाए।
जेनी – आप जरा भी तकल्लुफ न करे बाबूजी! अभी नाश्ता करने की जरा भी इच्छा नहीं। जी नहीं चाहता। योगराज - तो फिर आपकी खातिर क्या करूँ। आइए, आपको उमा का कमरा दिखाऊँ। देखिए उन्होंने कैसी-कैसी साहित्य की पुस्तकें जमा कर रखी थी। उनकी कविताएँ आपको सुनाऊँ।
(दोनों उमा के कमरे में जाते हैं जो कालीन और गद्देदार कोचों और शीशे के सामानों से सजा हुआ है। योगराज एक आल्मारी खोलता है। उसमें उमा के आभूषणों की संदूकची निकल आती है। योगराज तुरन्त उसे निकाल लेता है और उसे खोलकर एकएक आभूषण लेकर जेनी को दिखाता है)
योगराज – यह उनके आभूषण हैं। इन्हें पहनकर वह कितनी प्रसन्न होती थीं। इनके एक-एक अणु में उनके स्पर्श का सौरभ है। इन्होंने अपनी सुनहरी आँखों से उनके रूप की छटा देखी है। यह उनके आदर और प्रेम के पात्र रह चुके हैं। यह इस दुरवस्था में पड़े रहें, यह मैं नहीं देख सकता। उन्हें अपने आभूषणों की यह दशा देखकर स्वर्ग में भी कितना दुःख होता होगा। मैं आपके मनोभावों पर आघात नहीं करना चाहता, मिस गार्डन। क्षमा कीजिएगा, लेकिन आप इन चीज़ों को स्वीकार कर लें, तो उनकी आत्मा को कितनी शान्ति होगी! इनका कोई दूसरा उपयोग ऐसा नहीं है, जिससे उन्हें इतना आनन्द हो। आपको वह अपनी बहन समझती थीं और इ नाते से मैं आपको इन्हें स्वीकार करने के लिए मजबूर कर सकता हूँ।
(विक्षिप्तों की तरह मुस्कराता है)
जेनी – (सजल नेत्रों से) आपने तो मेरे लिए कुछ कहने की गुंजाइश नहीं रखी बाबूजी! लेकिन मैं अपने को इस योग्य नहीं समझती, आप इन्हें उनकी स्मृति-स्वरूप अपने पास सुरक्षित रखें। शायद कोई ऐसा समय आवे, जब इनका दावेदार घर में आ जाय। इन्हें मेरी ओर से उसकी भेंट कीजिएगा।
योगराज – (ठट्ठा मारता है) वह समय कभी न आएगा – जेनी! उमा ने जो स्थान खाली कर दिया है, वह हमेशा खाली रहेगा - हमेशा! आप मेरी इस याचना को अस्वीकार करके मुझे बड़ा । सदमा पहुँचा रही हैं, और उनकी आत्मा को भी; लेकिन मैं जिद्दी आदमी हूँ, जेनी। कभी-कभी पागलों के-से काम करने लगता हूँ। आइए, मैं आपको एक चीज पहनाऊँ। चोट खाए हुए दिल की गुस्ताखियों को क्षमा कीजिएगा। (वह उस हार को जेनी के गले में डाल देता है। जेनी सिर झुकाए सजल नेत्र शोकातुर बैठी हुई है। योगराज उसकी कलाइयों पर कंगन, शेरदहाँ, ब्रेसलेट पहनाता है, गले में नेकलेस डाल देता है। पैरों में पाजेब डालने के झुकता है। जेनी जल्दी से पाँव हटा लेती है और उसके हाथ से पाजेब लेकर पहन लेती है। सामने आईना रखा हुआ है। जेनी की उस पर नजर पड़ जाती है, वह उसमें अपनी सूरत देखती है और खिलखिलाकर हँस पड़ती है।
जेनी – आपने तो मुझे गुड़िया बना दिया। मुझे तो यह चीज बिल्कुल शोभा नहीं देती।
योगराज - आप मेरी आँखों से नहीं देख रही हैं मिस जेनी! मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा है कि उमा मेरे ऊपर तरस खाकर आकाश से उतर आई है। आप में और उसमें इतना सादृश्य है, इसका अब तक मुझे अनुमान न था। तुम मेरी उमा हो, जेनी! तुममें उसी आत्मा का आभास है, वही रूप-माधुर्य है, वही कोमलता है। तुम वही हो, मेरी प्यारी उमा! तुम मुझसे क्यों रूठ गई थीं? बोलो, मैंने क्या अपराध किया था? इस तरह कोई अपने प्रेमी से आँखें फेर लेता है! (वह फूट-फूटकर रोने लगता है)
जेनी – (घबराकर) बाबूजी! होश में आइए। यह आपकी क्या दशा है।
(आदमियों को पुकारती है)
(पटाक्षेप)